العبقری الحسان فی احوال مولانا صاحب الزمان (عجّل الله فرجه) جلد ٢

العبقری الحسان فی احوال مولانا صاحب الزمان (عجّل الله فرجه) جلد2
بساط دوم

مولف: علامه کبیر حضرت آیت الله حاج آقا شیخ علی اکبر نهاوندی قدس سره
تحقیق و تصحیح: صادق برزگر بفرویی - حسین احمدی قمی
مشخصات ناشر: قم مسجد مقدس جمکران 1388

فهرست

[دیباچه]
عبقریّه اوّل [تشرّف نرجس خاتون خدمت امام (علیه السلام)]
[ملکه دختر یشوعا] 1 مسکه:
[آثار عشق در چهره خاتون دو سرا] 2 مسکه:
[شرافت دو گیتی] 3 مسکه:
عبقریّه دوّم [ولادت حضرت حجّت (علیه السلام)]
[اخبار ولادت از کتاب نجم الثاقب] 1 مسکه:
[ادامه حدیث میلاد] 2 مسکه:
[لحظات ولادت] 3 مسکه:
[روایت دیگری از میلاد] 4 مسکه:
[پس از میلاد] 5 مسکه:
[پس از میلاد] 6 مسکه:
[چهل روز پس از ولادت] 7 مسکه:
[به آسمان بردن ملایکه آن جناب را] 8 مسکه:
[سال و روز تولد آن جناب]
ذنائب للعبقریّه و مأدب للبریّه:
[شرح حال دو حکیمه خاتون]:
[گذاردن زبان در دهان حضرت حجّت]:
[زبان علی اکبر در دهان امام حسین]:
[قرائت کتب آسمانی توسط حضرت حجّت]:
[حکمت امر امام به قرائت کتب آسمانی]:
[بردن ملایکه آن جناب را به آسمان]:
[چند نکته در بردن آن جناب به آسمان]:
[تعداد موجودات عالم]:
[تکمیل امام در اربعینیّات]:
اعاده النکته بعباره طرفه:
[روشن ساختن مطلب]:
تنویر فی تنظیر:
[روایات عطسه]:
[عطسه حضرت آدم هنگام دمیدن شدن روح]:
[متولّدین نیمه شعبان]:
[اختفای امام حسن عسکری (علیه السلام) از شیعیان]:
[اشکال در تولد حضرت حجّت (علیه السلام) و حضرت سجاد (علیه السلام)]:
[رفع شبهه جبر]:
[ایراد کابلی بر زمان تولّد امام عصر (عجّل الله فرجه)]:
[اسامی حضرت نرجس خاتون]:
خاتمه للتّذنیبات، حاسمه للتّضلیلات:
[بررسی ایرادات ابو الجحد گلپایگانی]:
[گفتار ابو الجحد]:
[رفع ایرادات]:
[دیگر ایرادات ابو الجحد و پاسخ آن ها]:
[تأویل علما بر خبر اسم ابیه اسم ابی]:
[رفع اختلاف در اسم مادر امام زمان (عجّل الله فرجه)]:
جواب وجه رابع:
[استدلال دیگر ابو الجحد و پاسخ وی]:
[ایراد ابو الجحد اختلاف، در تولد]
تنبیه:
[مطالبی از کتاب الحق المبین]:
عبقریّه سوّم [اسامی، القاب و کنیه های آن بزرگوار]:
فأره اوّل [بیان بعضی از اسمای حضرت حجّت]:
[اصل] 1 مسکه:
[باسط] 2 مسکه:
[جابر] 3 مسکه:
[جمعه] 4 مسکه:
[خلف و خلف صالح] 5 مسکه:
[خلیفه الله] 6 مسکه:
[حکمت احتیاج خلق به خلیفه الله]:
[سیّد] 7 مسکه:
[صاحب الامر] 8 مسکه:
[غوث] 9 مسکه:
[فجر] 10 مسکه:
[قطب] 11 مسکه:
[قائم] 12 مسکه:
[کارّ] 13 مسکه:
[هادی و مهدی] 14 مسکه:
فاره دوّم: در بیان اسمایی که در نجم ثاقب آن مرحوم منفردا بعد از بیان آن ها وجه مناسبتی را ذکر فرموده و در آن چند مسکه می باشد.
[احمد، ابو القاسم و ابو عبد الله] 1 مسکه:
[ابو جعفر، ابو محمّد و ابو ابراهیم و ابو تراب]:
[ابو صالح]:
[امیر الأمره]:
[ایدی]:
[بقیه الله]:
[بئر معطّله]:
[بقیه الانبیاء] 2 مسکه:
[تأیید]:
[تمام]:
[ثائر]:
[جعفر]:
[حق] 3 مسکه:
[جوار الکنّس]:
[حجّت و حجّت الله]:
[خداشناس]:
[داعی]:
[ساعه] 4 مسکه:
[شرید]:
[صاحب الناحیه] 5 مسکه:
[ضحی]:
[صبح مسفر]:
[غیب]:
[غریم]:
[فتح]:
[فقیه]:
[فیذموا] 6 مسکه:
[منصور]:
[منتقم] 7 مسکه:
[ماء معین]:
[موعود] 8 مسکه:
[مظهر الفضایح و مبلی السرائر]:
[مبدیء الآیات]:
[محسن، منعم و مفضل] 9 مسکه:
[موتور] 10 مسکه:
[مأمول]:
[مضطرّ]:
[مقتصر]:
[ناقور] 11 مسکه:
[ناطق]:
[نهار]:
[نور آل محمّد]:
[وارث] 12 مسکه:
[وهوه ل] 13 مسکه:
[یعسوب الدین]:
[اوقیدمو، ایزدشناس و...] 1 مسکه:
[خاتمه الائمه، خجسته و...] 2 مسکه:
[عین، عصر، غایب و...] 3 مسکه:
[ناحیه مقدسه، واقید، وتر و...] 4 مسکه:
[حکمت اسامی و القاب حضرت]:
عبقریّه چهارم [نام اصلی حضرت و احکام آن]:
[نام اصلی آن حضرت] 1 مسکه:
[حرمت بردن نام اصلی آن جناب] 2 مسکه:
[دلایل قول به حرمت] 3 مسکه:
[روایات مختلف در این زمینه] 4 مسکه:
[مؤیدات حرمت نام بردن] 5 مسکه:
[احادیث جواز نام بردن] 6 مسکه:
[روایات منع] 7 مسکه:
[بعضی روایات جواز] 8 مسکه:
[نام آن جناب در آسمان و زمین] 9 مسکه:
عبقریّه پنجم [شمایل حضرت بقیه الله (علیه السلام)]:
[روایات شمایل] 1 مسکه:
[شمایل حضرت] 2 مسکه:
[حدیث شمایل] 3 مسکه:
[نرمی کف دست حضرت رسول (صلی الله علیه و آله) و حضرت مهدی (علیه السلام)] 4 مسکه:
[علامت ختم وصایت] 5 مسکه:
عبقریّه ششم [موافقین با شیعه از علمای عامّه]:
[عقیده فرقه ناجیه اثنی عشریه] 1 مسکه:
[موافقین با شیعه، محمد بن طلحه]:
[ابو المظفر یوسف بن قز علی بغدادی صنفی] 2 مسکه:
[ابو محمّد عبد الله بن احمد خشاب] 3 مسکه:
[محیی الدین محمد بن علی العربی الحنبلی] 4 مسکه:
[احمد بن محمد بن هاشم بن بلاذری] 5 مسکه:
[عبد الحق دهلوی] 6 مسکه:
[نصر بن علی جهضمی] 7 مسکه:
[ملّا علی قاری] 8 مسکه:
[عبد الرحمن جامی] 9 مسکه:
[ابو الفتح، محمد بن ابی الفوارس] 10 مسکه:
[فضل بن روزبهان خنجی] 11 مسکه:
[شیخ احمد جامی] 12 مسکه:
[ملّا حسین کاشفی] 13 مسکه:
[سعد الدین حموی] 14 مسکه:
[صلاح الدین صفدی] 15 مسکه:
[شمس تبریزی]:
[شاه نعمت الله ولی]:
[سید علی همدانی]:
[محمد سراج الدین رفاعی]:
[عبد الرحمن بسطامی]:
[جلال الدین مولوی]:
[عطّار نیشابوری]:
[سیّد نسیمی]:
[شیخ محمد صبّان مصری]:
[شیخ سلیمان بلخی]:
[عبد الله بن محمد مطیری]:
عبقریّه هفتم [موافقین با شیعه از علمای عامّه]:
[شیخ حسن عراقی] 1 مسکه:
[عبد الرحمن جامی] 2 مسکه:
[عبد الوهّاب شعرانی] 3 مسکه:
[سید علی خواص] 4 مسکه:
[خواجه محمد پارسا] 5 مسکه:
[سید جمال الدین محدّث] 6 مسکه:
[ملک العلما، شهاب الدین دولت آبادی] 7 مسکه:
[قاضی جواد ساباطی] 8 مسکه:
[محمد بن یوسف گنجی شافعی] 9 مسکه:
[نور الدین علی بن محمد مالکی مکّی] 10 مسکه:
[شیخ ابراهیم قادری حلبی] 11 مسکه:
[دیگر از علما] 12 مسکه:
عبقریّه هشتم [اخبار عامّه در اثبات حجّه بن الحسن (علیه السلام)]
[روایت ابو سلیمان شبان رسول خدا (صلی الله علیه و آله)] 1 مسکه:
[روایت امام علی (علیه السلام)] 2 مسکه:
[روایت مقتضب از امام حسین (علیه السلام)] 3 مسکه:
[روایت امّ سلیم صاحب حصاه] 4 مسکه:
[روایت داود رقی از امام صادق (علیه السلام)] 5 مسکه:
[خبر جارود بن منذر از قس بن ساعده] 6 مسکه:
[خبر شهاب الدین دولت آبادی] 7 مسکه:
[خبر جابر بن یزید] 8 مسکه:
[روایت ایضاح] 9 مسکه:
[روایت مناقب خوارزمی] 10 مسکه:
عبقریّه نهم [روایات خاصّه]
[روایت سلیم بن قیس] 1 مسکه:
[روایات ابن شاذان] 2 مسکه:
[روایت جابر جعفی] 3 مسکه:
[روایت ابو حمزه ثمالی]:
[روایت عبد الله بن عباس] 4 مسکه:
[روایت محمد بن مسلم] 5 مسکه:
[روایت جابر بن عبد الله]:
[روایت دیگری از ابو حمزه ثمالی] 6 مسکه:
[روایت سلمان فارسی]:
[روایت عمّار بن یاسر] 7 مسکه:
[روایت ابن جبیر از عمّار]:
[روایت امام صادق از پیامبر] 8 مسکه:
[روایت عبد الله بن عباس]:
[روایت ثابت از امام صادق (علیه السلام)] 9 مسکه:
[روایت صفوان بن یحیی]:
[روایت علقمه بن محمد] 10 مسکه:
[روایت حضرت عبد العظیم]:
[حدیث محمد بن جبار] 11 مسکه:
[روایت حضرت عسکری (علیه السلام)] 12 مسکه:
[روایت عبد الله بن سنان]:
[روایت زراره]:
[روایت سلمان فارسی] 13 مسکه:
[روایت کفایه المهتدی]:
[روایات دیگر]:
[روایت امام باقر از جابر] 14 مسکه:
[روایت ابن غزوان از رسول خدا (صلی الله علیه و آله)]:
[روایات دیگر]:
عبقریّه دهم [معجزات]:
[معجزه ردّ الشمس برای امیر المؤمنین (علیه السلام)] 1 مسکه:
امّا اعتراض اوّل [حضرت پیغمبر در روز خندق نمازش فوت شد و شمس برای آن حضرت برنگشت]:
اعتراض دوّم [نماز صبح رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) به خواب فوت شد و خورشید برنگشت]:
اعتراض سوّم [اگر خورشید برای آنحضرت برگشته باشد باید همه مردم دنیا آنرا می دیدند؟]:
اعتراض چهارم [رد شمس موجب برهم خوردن نظم فلکی میشود]:
اعتراض پنجم [بر ردّ شمس برای امیر المؤمنین (علیه السلام) آن است که ترک نماز آن حضرت در وقت نماز، از روی تعمّد بود یا نسیان؟]:
[حکایت غلام و خواجه]:
[معجزات امام حسن (علیه السلام)] 2 مسکه:
[معجزات حضرت سید الشهداء (علیه السلام)] 3 مسکه:
[معجزات حضرت سجاد (علیه السلام)] 4 مسکه:
[معجزات حضرت باقر العلوم (علیه السلام)] 5 مسکه:
[معجزات امام صادق (علیه السلام)] 6 مسکه:
[معجزات حضرت کاظم (علیه السلام)] 7 مسکه:
[معجزات حضرت صادق (علیه السلام)] 8 مسکه:
[معجزات حضرت جواد (علیه السلام)] 9 مسکه:
[معجزات حضرت هادی (علیه السلام)] 10 مسکه:
[معجزات حضرت عسکری (علیه السلام)] 11 مسکه:
[معجزات حضرت ولی عصر (علیه السلام)] 12 مسکه:
[معجزات حضرت ولی عصر (علیه السلام)]:
[خواب شیخ عبد الحسین حویزاوی] 1 مسکه:
[استبصار شیخ محمد طه قاضی حسین] 2 مسکه:
[دعای حضرت حجّت برای عالم تویسرکانی] 3 مسکه:
[تشرف روضه خوان تبریزی در رؤیا] 4 مسکه:
[تبدیل ساعت به طلا] 5 مسکه:
[تشرف در رؤیا] 6 مسکه:
[توسل نسخ ابراهیم صاحب الزمانی] 7 مسکه:
[توسل دیگر نسخ ابراهیم صاحب الزمانی] 8 مسکه:
[توسل دیگری از همین شخص] 9 مسکه:
[گویا شدن زبان آقا مهدی شیرازی] 10 مسکه:
[توسل آقا نجفی اصفهانی] 11 مسکه:
[توسل و نجات آقا سید محمد علی تبریزی] 12 مسکه:
[رؤیت حضرت در زیّ اکراد] 13 مسکه:
[ملاقات شیخ هاشم در سرداب مقدّس] 14 مسکه:
[ملاقات در مسجد سهله] 15 مسکه:
[عنایت کردن حضرت] 16 مسکه:
[رؤیت حضرت بر بام حرم مطهر] 17 مسکه:
[فریادرسی یکی از بندگان خدا] 18 مسکه:
[تشرف در مسجد سهله] 19 مسکه:
[رؤیت نور حضرت در سرداب مقدس] 20 مسکه:
[تشرف حاج سید علی بجستانی] 21 مسکه:
[تشرف مرحوم کرکری در سفر حج] 22 مسکه:
[تشرف چوپانی از خراسان] 23 مسکه:
[تشرف یکی از حجاج شوشتری] 24 مسکه:
[تشرف حاج عنایت الله] 25 مسکه:
[تشرف حاج علی قاو] 26 مسکه:
[تشرف میرزا مقیم قزوینی] 27 مسکه:
[تشرف در حرم حضرت امیر المؤمنین (علیه السلام)] 28 مسکه:
[تشرف سید حسن شوشتری] 29 مسکه:
[تشرف در مسجد صعصعه] 30 مسکه:
[رؤیت حضرت بر آب] 31 مسکه:
[تشرف فقیه اصفهانی] 32 مسکه:
[تشرف روضه خوان تبریزی] 33 مسکه:
[تشرف عالم اصفهانی] 34 مسکه:
[حکایت شیخ عرب] 35 مسکه:
[ملاقات شیخ صالح قطیفی] 36 مسکه:
[ملاقات شیخ کاظم نهاوندی با حضرت] 37 مسکه:
[ملاقات خادم مسجد سهله] 38 مسکه:
[تشرف مرحوم حاج سید عزیز الله تهرانی] 39 مسکه:
[تشرّف حاج سید احمد اصفهانی] 40 مسکه:
[تشرف دوباره حاج سید احمد] 41 مسکه:
[تشرف در عرفات] 42 مسکه:
[تشرف حجاج ایرانی با ایشان] 43 مسکه:
[ملاقات با طلعت رشیده] 44 مسکه:
[تشرف یک از طلّاب علوم دینی] 45 مسکه:
[تشرف تاجر تبریزی] 46 مسکه:
[تشرف حاج شیخ محمد صاحب الزمانی] 47 مسکه:
[تشرف مرحوم ملایری خدمت آن جناب] 48 مسکه:
[تشرف دو نفر از طلاب] 49 مسکه:
[تشرف شیخ مهدی دجیلی] 50 مسکه:
[تشرف دوباره شیخ مهدی] 51 مسکه:
[تشرف آقا شیخ حسین نجفی] 52 مسکه:
[تشرف در راه بلوچستان] 53 مسکه:
[ملاقات حضرت و سید بحر العلوم] 54 مسکه:
[تشرف مؤذن قمی] 55 مسکه:
[تشرف امین الواعظین اردبیلی] 56 مسکه:
[تشرف در مسجد کوفه] 57 مسکه:
[تشرف در راه سامره] 58 مسکه:
[تشرف در حرم سید الشهداء] 59 مسکه:
[تشرف در راه طویرج] 60 مسکه:
[تشرف در وادی السلام نجف اشرف] 61 مسکه:
[تشرف شیخ محمد حسن مازندرانی] 62 مسکه:
[تشرف مجدد شخص مذکور] 63 مسکه:
[تشرف شیخ محمد تقی حائری] 64 مسکه:
[تشرف در مدرسه مروی تهران] 65 مسکه:
[تشرف یکی از علمای مستبصر] 66 مسکه:
[تشرف حاج ابو القاسم یزدی در راه مکّه] 67 مسکه:
[تشرف شیخ حسن کاظمینی] 68 مسکه:
[تشرف شیخ محمد شوشتری] 69 مسکه:
[تشرف خدمت ملازمین آن جناب] 70 مسکه:
[توضیح روایت ردّ مشاهده کنندگان]:
[شرحی در دعای فرج]:

[دیباچه]

هذا هو المسک الاذفر فی الولاده و معجزات الحجّه المنتظر و هو البساط الثّانی فی الکتاب المستطاب المسمّی بالعبقریّ الحسان فی احوال مولینا صاحب الزّمان علیه صلوات الله الملک المنّان
بسم الله الرحمن الرحیم
«الحمد لله الملک المنّان الّذی خلق الأکوان للإنسان و خلق الإنسان مرآه لصفاته العظیمه الشّأن و الصلاه و السلام علی خلاصه العدنان محمّد المبعوث علی الإنس و الجان و أحمد المنعوت فی التورات و الإنجیل و القرآن و علی آله و أولاده خلفاء الرحمن و حلفاء الفردین خصوصا علی بقیّه الله مهدیهم الصّاحب العصر و الزّمان و لعنه الله علی اعدائهم من الأن إلی بقاء الجنّه و النّیران».
اما بعد؛ متعطّش زلال رحمت خداوندی، علی اکبر بن حسین نهاوندی - اصلح الله له احوال داریه و اذافه حلاوه نشأتیه - این بساط دوّم از کتاب مستطاب موسوم به العبقریّ الحسان فی أحوال مولینا صاحب الزّمان - علیه صلوات الله الملک الفغران - است و به لحاظ آن که مندرجات در آن، موجب اهتدای انام به تولّد حضرتش در این نشأه و باعث اعلام آنان بما صدر عن جنابه من المعجزه است و از نفحات قدسیّه این، هر دو دنیا معطّر و از شمائم جان فزای آن ها دماغ اهل ایمان، تر است، لذا بالمسک(1) الأذفر فی الولاده و معجزات الحجّه المنتظر ملقّب گردید و در آن چند عبقریّه و در هرعبقریّه، چند مسکه قرار داده شد. فبعون الله الملک الصّمد أبدء بالمقصود و أشرع فی المقصد.

عبقریّه اوّل [تشرّف نرجس خاتون خدمت امام (علیه السلام)]

در شرح رسیدن نرجس خاتون خدمت حضرت عسکری (علیه السلام)، والد ماجد حضرت بقیّه الله - عجل الله تعالی فرجه - است؛ و در آن چند مسکه می باشد.
[ملکه دختر یشوعا] 1 مسکه:
شیخ عظیم الشأن فضل بن شاذان در غیبت(2) خود گفته که: محمد بن عبد الجبّار به ما خبر داد و گفت: به مولای خود حسن بن علی (علیهما السلام) گفتم: ای فرزند رسول خدا! خداوند مرا فدای تو گرداند! دوست دارم بدانم بعد از تو، امام و حجّت خداوند بر بندگانش کیست؟
فرمود: بعد از من، امام و حجّت، پسر من است که هم نام و هم کنیه رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) است. آن که خاتم حجّت های خدا و آخرین خلیفه های او است.
گفتم: او از کیست؟
فرمود: از دختر پسر قیصر، پادشاه روم...، الخ.
شیخ مذکور در کتاب غیبت، صدوق در کمال الدین(3)، شیخ طبری در دلایل(4)، شیخ محمد بن هبه الله طرابلسی در غیبت خود، شیخ طوسی(5) و غیر ایشان(6) شرح رسیدن آن معظّمه خدمت آن جناب را به عبارات مختلفه و معانی متقاربه روایت کردند و ما آن را به عبارت شیخ طوسی در غیبت نقل می کنیم.
شیخ طوسی (رحمه الله) از بشر بن سلیمان نخّاس - یعنی برده فروش - که از نسل ابی ایّوب انصاری و از موالیان حضرت امام علی النّقی و امام حسن عسکری (علیهما السلام) و همسایه ایشان در سرّ من رأی بود، روایت کرده که گفت: کافور خادم نزد من آمد و گفت: مولای ما! حضرت ابی الحسن علیّ بن محمّد (علیهما السلام) تو را نزد خود می خواند.
نزد آن حضرت رفتم، چون نشستم، حضرت فرمود: ای بشر! تو از اولاد انصاری و این موالات و دوستی ما، مدام در میان شما بوده، خلف شما از سلف شما این دوستی و محبّت را به میراث می برید، شما ثقات و معتمدان ما اهل بیت هستید و من تو را به فضیلتی که به آن بر شیعه، پیشی گیری، در پیروی کردن آن فضیلت، پسندکننده و بزرگوارکننده هستم. تو را به سرّ و رازی مطّلع می کنم و برای خریدن کنیزی می فرستم.
سپس آن حضرت، نامه لطیفی به خطّ و زبان رومی نوشت و با انگشتر خود بر آن مهر زد. سپس دستارچه زردی بیرون آورد که در آن دویست و بیست اشرفی بود و فرمود: این دویست و بیست اشرفی را بگیر و با این زر به بغداد توجّه نما. در معبر فرات حاضر شو که در چاشت گاه، زورقی چند خواهد رسید که اسیران در آن باشند.
در آن ها کنیزان را خواهی یافت، نیز طوایف خریداران از وکلای قائدان بنی عبّاس و اندکی از جوانان عرب را خواهی یافت.
چون این را ببینی، تمام روز از دور به شخصی نظر انداز که او را عمرو بن یزید نخّاس می نامند تا این که برای مشتریان، کنیزی ظاهر سازد که صفتش چنان و چنین باشد و دو جامه حریر محکم بافته، در بر او باشد و آن کنیز از این که او را بر خریداران عرضه کنند تا او را نظر کنند و از دست گذاردن خواهنده بر او ابا کند و آن را که اراده لمس او را کرده، منقاد نشود.
آواز او را به زبان رومی از پس پرده رقیقی بشنوی که چیزی می گوید. بدان که می گوید: وای پرده عفّتم دریده شد!
یکی از خریداران گوید: این کنیز به سی صد اشرفی برای من باشد که عفّت او بر رغبت من افزوده است و او به زبان عربی بگوید: اگر به زیّ سلیمان بن داود و به حشمت ملک او درآیی، مرا در تو رغبتی پیدا نشود. پس بر مال خود بترس!
آن گاه برده فروش می گوید: چاره چیست و از فروختن تو چاره نیست.
کنیز می گوید: چه تعجیل می کنی و البتّه باید مشتری به هم رسد که دل من به او میل کند و بر وفا و دیانت او اعتماد داشته باشم!
در این وقت، تو برخیز و نزد عمرو بن یزید برده فروش برو و به او بگو با من مکتوبی است که یکی از اشراف از روی ملاطفت به زبان و خطّ رومی نوشته و در آن نامه، کرم و وفا و سخاوت و بزرگواری خود را وصف کرده.
پس این نامه را به آن کنیز ده، تا در اخلاق و اوصاف صاحب نامه تأمّل نماید. اگر به او میل نمود و راضی شد، بگو من در خریدن آن کنیز از تو وکیل اویم.
بشر بن سلیمان گفت: تمام آن چه مولایم ابو الحسن (علیه السلام)، در امر آن کنیز برای من معیّن کرده بود؛ امتثال نمودم.
چون کنیز در آن نامه نظر کرد، سخت بگریست و به عمرو بن یزید گفت: مرا به صاحب این نامه بفروش و قسم های مغلّظه - که به اضطرار آورده بودند - خورد که اگر از فروختن او به صاحب مکتوب ابا کند، خود را بکشد.
من نیز پیوسته در بها، با او سخت گیری می کردم تا آن که به همان قیمت راضی شد که مولایم از اشرفی ها با من روانه کرده بود.
زرها را دادم و کنیز را گرفتم. کنیز خندان و شکفته بود و با من به حجره ای آمد که در بغداد گرفته بودم، تا به حجره رسید، نامه امام را بیرون آورده، و می بوسید و بر دیدگان می مالید.
من از روی تعجّب گفتم: نامه ای را می بوسی که صاحبش را نمی شناسی؟
کنیز گفت: ای عاجز کم معرفت به بزرگی فرزندان و اوصیای پیغمبران! گوش خود را به من سپار و دل برای شنیدن سخن من فارغ بدار تا احوال خود را برای تو شرح کنم.
من، ملکه دختر یشوعا فرزند قیصر، پادشاه رومم، مادرم از فرزندان شمعون بن الصفا، وصیّ حضرت عیسی (علیه السلام) است.
تو را به امری عجیب خبر دهم. بدان هنگامی که من سیزده ساله بودم، جدّم قیصر خواست مرا به عقد فرزند برادر خود درآورد، پس از نسل خود و نسل حواریّون عیسی و علمای نصارا و عبّاد ایشان، سی صد نفر را در قصر خود جمع کرد، از صاحبان قدر و منزلت، هفت صد کس و از امرای لشکر، سرداران عسکر و بزرگان و سرکرده های قبایل، چهار هزار نفر. سپس فرمود تا تختی حاضر ساختند که در ایّام پادشاهی خود، به انواع جواهر مرصّع گردانیده بود.
آن تخت را روی چهل پایه تعبیه کردند، بت ها و چلیپاهای خود را بر بلندی ها قرار دادند و پسر برادر خود را بر بالای تخت فرستاد.
چون کشیشان انجیل ها بر دست گرفتند که بخوانند، بت ها و چلیپاها همگی سرنگون شد و بیفتاد، پایه تخت شکست، تخت بر زمین افتاد و پسر برادر ملک از تخت افتاد و بی هوش شد.
در آن حال رنگ های کشیشان متغیّر شد و اعضایشان بلرزید. بزرگ ایشان به جدّم گفت: ای پادشاه! ما را از چنین امری معاف دار! چون به سبب آن نحوست هایی روی داد که نشان می دهد دین مسیح به زودی زایل شود.
جدّم این امر را به فال بد دانست و به علما و کشیشان گفت: بار دیگر این تخت را برپا کنید، چلیپاها را به جای خود بگذارید و برادر این روزگار برگشته بدبخت را حاضر گردانید که این دختر را به او تزویج نمایم تا سعادت آن برادر، نحوست این برادر دفع کند.
چنین کردند و برادر دیگر را بر بالای تخت بردند، همین که شروع به خواندن انجیل کردند، همان حالت اوّل روی داد؛ نحوست این برادر، مثل نحوست آن برادر بود و سرّ این کار ندانستند که این از سعادت سروری است، نه از نحوست دو برادر.
پس مردم متفرّق شدند، جدّم به حرم سرا بازگشت و پرده های خجالت درآویخت.
چون شب شد و به خواب رفتم، در خواب دیدم حضرت مسیح با حوارییّن جمع شدند و منبری از نور نصب کردند که از رفعت بر آسمان، سربلندی می نمود و در همان موضع که جدّم تخت را گذاشته بود، تعبیه کردند سپس حضرت رسالت پناه محمدی (صلّی الله علیه و آله) با وصیّ و دامادش، علی بن ابی طالب (علیه السلام) و جمعی از امامان از فرزندان بزرگوار ایشان، قصر را به نور قدوم خویش منوّر ساختند.
آن گاه حضرت مسیح به قدم ادب از روی تعظیم و اجلال به استقبال خاتم انبیا محمد مصطفی (صلّی الله علیه و آله) رفته و دست در گردن آن حضرت درآورد.
سپس حضرت رسالت فرمودند: یا روح الله! آمده ام که ملکه، فرزند وصیّ تو، شمعون الصّفا را برای این فرزند سعادتمند خود خواستگاری نمایم و به ماه برج امامت، امام حسن عسکری (علیه السلام) اشاره کردند؛ فرزند آن کسی که نامه اش را به من دادی.
حضرت عیسی به سوی حضرت شمعون نظر افکند و گفت: شرف دو جهان به تو رو آورد. رحم خود را به رحم آل محمد پیوند کن! شمعون گفت: کردم. پس همگی بر آن منبر برآمدند، حضرت رسول خطبه ای انشا فرمود و با حضرت مسیح، مرا با حضرت امام حسن عسکری عقد بستند و فرزندان حضرت رسالت با حواریّون گواه شدند.
[آثار عشق در چهره خاتون دو سرا] 2 مسکه:
ایضا ملکه گوید: چون از آن خواب سعادت مآب بیدار شدم، از بیم کشتن، خواب را برای پدر و جدّ خود نقل نکردم، این گنج یگانه را در سینه پنهان داشتم و آتش محبّت آن خورشید فلک امامت، روز به روز در کانون سینه ام مشتعل می شد و سرمایه صبر و قرار مرا به باد فنا می داد، به حدّی که خوردن و آشامیدن بر من حرام شد، هر روز چهره ام کاهی می شد، بدن می کاهید و آثار عشق پنهان، در بیرون ظاهر می گردید.
در شهرهای روم طبیبی نماند که جدّم برای معالجه حاضر نکرده باشد و دوای درد من را از او سؤال ننموده باشد.
چون از علاج درد من مأیوس گردید، روزی به من گفت: ای نور چشم من! آیا در دنیا هیچ آرزویی در خاطرت هست تا به عمل آورم.
گفتم: ای جدّ من! درهای فرج را به روی خود بسته می بینم؛ اگر شکنجه و آزار اسیران مسلمان که در زندان تواند، دفع نمایی و بند و زنجیرها را از ایشان برداری و آزاد نمایی، امیدوارم حضرت حق تعالی و حضرت مسیح و مادرش عافیتی به من بخشند.
چون چنین کردند، اندک صحّتی از خود ظاهر ساختم و اندکی طعام تناول کردم.
پس خوشحال و شاد شد و دیگر اسیران مسلمان را عزیز داشت.
بعد از چهار شب در خواب دیدم بهترین زنان عالمیان، فاطمه زهرا (علیها السلام) به دیدن من آمد؛ حضرت مریم را با هزار کنیز از حوران بهشت دیدم که در خدمت آن حضرت بودند.
حضرت مریم (علیها السلام) گفت: این خاتون و بهترین زنان، مادر شوهر تو، امام حسن عسکری (علیه السلام) است. پس به دامنش درآویختم، گریستم و شکایت کردم که امام حسن (علیه السلام) به من جفا می کند و از دیدنم ابا می کند.
آن حضرت فرمود: چگونه فرزند من به دیدن تو آید در حالی که به خدا شرک می ورزی و بر مذهب ترسایانی. اینک خواهرم مریم، دختر عمران، از تو به سوی خدا بیزاری می جوید، اگر میل داری که حق تعالی و حضرت مسیح و مریم (علیهما السلام) از تو خشنود گردند و حضرت امام حسن عسکری به دیدن تو بیاید، پس بگو أشهد أن لا اله الا الله و أشهد أنّ محمدا رسول الله!
پس چون این دو کلمه طیّبه را تلفّظ نمودم، حضرت سیّده النساء مرا به سینه خود چسبانید، دلداری داد و فرمود: اکنون منتظر آمدن فرزندم باش که او را به سوی تو می فرستم.
هنگامی که بیدار شدم، آن دو کلمه طیّبه را بر زبان می راندم و انتظار ملاقات آن حضرت می بردم. چون شب آینده درآمد و به خواب رفتم، آفتاب جمال آن حضرت، طالع گردید.
گفتم: ای دوست من! بعد از آن که دلم را اسیر محبّت خود گرداندی، چرا مرا از مفارقت جمال خود، چنین جفا دادی؟
فرمود: دیر آمدن من نزد تو، نبود مگر برای آن که تو مشرک بودی. اکنون که مسلمان شدی، هر شب نزد تو خواهم آمد تا آن زمان که خدای تعالی در ظاهر، من و تو را به یکدیگر برساند و این هجران را به وصال مبدّل گرداند.
بعد از آن شب تا حال یک شب نگذشت که درد هجران مرا به شربت وصال دوا نفرماید.
[شرافت دو گیتی] 3 مسکه:
هم چنین در آن کتاب است که آن گاه بشر بن سلیمان گفت: چگونه میان اسیران افتادی؟
گفت: امام حسن عسکری (علیه السلام) شبی از شب ها به من خبر داد که فلان روز، جدّت لشکری بر سر مسلمانان خواهد فرستاد و خود از عقب خواهد رفت. تو خود را در میان کنیزان و خدمتکاران بینداز، به هیأتی که تو را نشناسند و از پی جدّ خود روانه شو و از فلان راه برو!
چنان کردم؛ طلیعه لشکر مسلمانان به ما برخوردند و ما را اسیر کردند و آخر کار من این بود که دیدی و تا به حال کسی غیر از تو ندانسته، من دختر پادشاه رومم، مرد پیری که در غنیمت، به حصّه او افتادم، نام مرا پرسید.
گفتم: نرجس نام دارم.
گفت: این نام کنیزان است.
بشیر گفت: این عجیب است که تو اهل فرنگی و زبان عربی را نیک می دانی.
گفت: بلی! از بسیاری محبّت که جدّم به من داشت و می خواست مرا بر یاد گرفتن آداب حسنه بدارد، زن مترجمی که هردو زبان فرنگی و عربی را می دانست، مقرّر کرده بود که هرصبح و شام می آمد و لغت عربی به من می آموخت تا آن که زبانم به این لغت جاری شد.
بشیر گوید: چون او را به سرّ من رأی، خدمت حضرت امام علیّ نقی رسانیدم، حضرت به کنیزک خطاب کرد: چگونه حقّ سبحانه و تعالی عزّت دین اسلام، مذلّت دین نصارا و شرف و بزرگواری محمد و اهل بیت او (علیهم السلام) را به تو نمود؟ گفت: ای فرزند رسول خدا! چگونه برای تو چیزی را وصف کنم که تو بهتر از من می دانی؟
آن گاه حضرت فرمود: می خواهم تو را گرامی دارم، کدام یک نزد تو بهتر است؟ این که ده هزار اشرفی به تو بدهم یا تو را به شرف ابدی بشارت بدهم؟
گفت: بلکه بشارت شرف می خواهم و مال نمی خواهم.
حضرت امام علی النّقی (علیه السلام) فرمود: بشارت باد تو را به فرزندی که پادشاه مشرق و مغرب عالم گردد و زمین را پر از عدل و داد کند، بعد از آن که پر از ظلم و جور شده باشد.
گفت: از چه کسی به عمل خواهد آمد؟
فرمود: از کسی که حضرت رسالت پناه، تو را برای او خواستگاری کرد. سپس از او پرسید: حضرت مسیح و وصیّ او تو را به عقد چه کسی درآوردند؟
گفت: به عقد فرزند تو، امام حسن عسکری (علیه السلام).
فرمود: آیا او را می شناسی؟
گفت: از شبی که به دست بهترین زنان، مسلمان شدم، شبی نگذشته است که به دیدن من نیامده باشد.
آن گاه کافور خادم را طلبید و فرمود: برو به حکیمه، خواهرم بگو، بیاید. چون حکیمه داخل شد، حضرت فرمود: همان کنیز است که می گفتم. حکیمه خاتون او را در برگرفت و بسیار نوازش کرد.
حضرت فرمود: ای دختر رسول خدا! او را به خانه خود ببر و واجبات و سنّت ها را به او بیاموز که او زن حضرت عسکری و مادر صاحب الزّمان است.

عبقریّه دوّم [ولادت حضرت حجّت (علیه السلام)]

در بیان اخبار وارده در کیفیّت ولادت حضرت حجّه بن الحسن صاحب الزّمان و خلیفه الرحمن - صلوات الله و سلامه علیه - است و در آن چند مسکه می باشد.
[اخبار ولادت از کتاب نجم الثاقب] 1 مسکه:
بدان! این ناچیز، در نقل اخبار ولادت آن جان جهان و امام عالمیان، به آن چه که استادنا المحدّث النّوری - زاد الله فی انوار تربته - در نجم ثاقب مرقوم فرموده، اکتفا می نمایم. زیرا عبارات آن مرحوم، حاوی روایات وارده و حاکی از کمال تتّبع ایشان است.
با نهایت متانت، در کتاب مذکور فرموده:
جماعتی از قدمای اصحاب، مثل ابی جعفر طبری(7)، فضل بن شاذان(8)، حسین بن حمدان حضینی(9)، علی بن حسین مسعودی(10)، شیخ صدوق(11)، شیخ طوسی(12)، شیخ مفید(13) و غیر ایشان(14)، کیفیّت ولادت را از حکیمه خاتون به چند سند صحیح و غیر آن روایت نمودند. صدوق آن را به دو سند عالی روایت کرده؛ یکی از موسی بن محمد بن قاسم بن حمزه بن موسی بن جعفر (علیهما السلام) از حکیمه دختر حضرت جواد (علیه السلام) و دیگری از محمد بن عبد الله از حکیمه خاتون. اصل مضمون یکی است، لکن چون ثانی ابسط بود، خبر را به لفظ او با اشاره به فارق با بعضی دیگر در محلّ خود، ذکر می کنیم.
محمد بن عبد الله گفت: بعد از وفات حضرت عسکری (علیه السلام) خدمت حکیمه خاتون، دختر حضرت جواد (علیه السلام) رفتم که از او، از حال حجّت (علیه السلام) سؤال کنم و آن چه مردم در آن اختلاف کردند از تحیّری که در آن بودند.
به من گفت: بنشین! آن گاه گفت: ای محمد! به درستی که خدای تعالی زمین را از حجّت ناطقه یا ساکت خالی نمی گذارد و آن را در دو برادر بعد از حسن و حسین (علیهما السلام) قرار نداده به جهت فضیلت دادن حسن و حسین (علیه السلام) و تنزیه آن دو بزرگوار از این که در زمین، عدیلی برای ایشان بوده باشد.
به درستی که خدای تعالی، فرزندان حسین (علیه السلام) را بر فرزندان حسن (علیه السلام) مخصوص فرمود، چنان چه فرزندان هارون را بر فرزندان موسی اختصاص داد، هرچند موسی بر هارون حجّت بود.
پس تا روز قیامت فضل برای فرزندان حسین (علیه السلام) است و امّت را چاره ای نیست از حیرتی که اهل باطل در آن به شکّ بیفتند و اهل حق نجات یابند، تا این که برای خلق بر خداوند حجّتی نبوده باشد. همانا حیرت الآن آن چیزی است که بعد از حسن (علیه السلام) واقع شده.
گفتم: ای خاتون من! آیا برای حسن (علیه السلام) فرزندی بود؟
تبسّم نمود و فرمود: اگر برای حسن (علیه السلام) فرزند نباشد، پس حجّت بعد از او کیست؟ و من به تو خبر دادم که امامت بعد از حسن و حسین (علیهما السلام) برای دو برادر نمی شود.
گفتم: ای سیّده من! از ولادت مولای من و غیبت او خبر ده!
فرمود: آری، مرا جاریه ای بود که او را نرجس می گفتند. برادرزاده من، به زیارت من آمد، و نظر تندی به او کرد.
گفتم: ای سید من! شاید به او مایل شدی، پس او را نزد تو بفرستم.
فرمود: نه ای عمّه! و لکن از او تعجّب کردم.
گفتم: چه چیز از او تو را به شگفت آورد؟
فرمود: زود است که خداوند از او فرزندی بیرون آورد که نزد خداوند عزّ و جلّ ارجمند است، کسی است که خداوند به وسیله او زمین را پر از عدل و داد نماید، چنان چه از جور و ظلم پر شده باشد.
گفتم: او را به سوی تو بفرستم؟
فرمود: در این امر از پدرم رخصت گیر.
جامه خود را پوشیدم و به منزل ابی الحسن (علیه السلام) رفتم. سلام کردم و نشستم.
ابتداء فرمود: ای حکیمه! نرجس را برای پسرم ابی محمد بفرست.
گفتم: ای سید من! برای همین نزد تو آمدم.
سپس فرمود: ای مبارکه! به درستی که خدای تعالی خواسته تو را در اجر شریک گرداند و برای تو سهمی از خیر قرار دهد.
حکیمه گفت: درنگ نکردم، به منزل خود برگشتم، او را برای ابی محمد (علیه السلام) آرایش نمودم و میان ایشان در منزل خود جمع نمودم. چند روز در منزل من اقامت فرمود، آن گاه به منزل والد خود تشریف برد و او را با آن جناب فرستادم.
حکیمه گفت: حضرت ابی الحسن (علیه السلام) وفات کرد و ابو محمد (علیه السلام) در جای پدر بزرگوار خود نشست و به زیارت او می رفتم، چنان چه به زیارت والدش می رفتم.
روزی نزد آن جناب رفتم. پس نرجس نزد من آمد که موزه ام را از پایم درآورد.
گفتم: ای خاتون من! تو موزه خود را به من ده!
گفت: بلکه تو سیّده و خاتون منی؛ تو موزه خود را به من ده!
گفتم: بلکه تو سیّده و خاتون منی؛ و الله موزه خود را به تو وانمی گذارم که درآری، بلکه من تو را بر دیدگان خود خدمت می کنم.
این کلام را ابو محمد (علیه السلام) شنید و فرمود: ای عمّه! خداوند تو را جزای خیر دهد! آن گاه تا غروب آفتاب نزد آن جناب نشستم. پس کنیزک را آواز کردم و گفتم: جامه مرا بیاور که مراجعت کنم.
[ادامه حدیث میلاد] 2 مسکه:
ابتدای روایت موسی و نیز اوّل خبر محمد مذکور، در غیبت شیخ طوسی از این جاست.
در اوّل چنین است:
حکیمه گفت: امام حسن عسکری (علیه السلام) کسی را به نزد من فرستاد که ای عمّه! روزه خود را نزد ما بگشا که امشب شب نیمه ماه شعبان است.
و در دوّم: حکیمه گفت: سال دویست و پنجاه و پنج در نیمه ماه شعبان ابو محمد (علیه السلام) کسی را نزد من فرستاد و فرمود: ای عمّه!
و به روایت اوّل: ای عمّه! امشب را نزد ما بیتوته کن؛ زیرا این شب، شب نیمه شعبان است. به درستی که زود است امشب مولودی متولّد شود که بر خداوند عزّ و جلّ کریم است و حجّت او بر خلق می باشد. کسی است که به وسیله او زمین را بعد از مردنش زنده می کند.
گفتم: از چه کسی، ای آقای من؟
فرمود: از نرجس.
و به روایت شیخ: ای عمّه! امشب افطارت را نزد ما قرار ده! به درستی که زود است خداوند عزّ و جلّ تو را به ولیّ و حجّت خود بر خلق مسرور نماید که جانشین بعد از من است.
حکیمه گفت: به جهت این بشارت، سرور شدیدی بر من داخل شد، جامه بر تن کردم و همان ساعت بیرون رفتم تا آن که خدمت ابی محمد (علیه السلام) رسیدم. آن جناب در صحن خانه خود نشسته بود و کنیزانش دور او بودند.
گفتم: ای سید من! خلف از کدام یک است؟
فرمود: از سوسن. چشم خود را میان کنیزان سیر دادم. پس کنیزی را که در او اثری باشد غیر از سوسن ندیدم.
و به روایت اوّل: گفتم: ای سید من! چیزی از اثر حمل در نرجس نمی بینم.
فرمود: از نرجس است، نه از غیر او.
گفت: برخاستم و نزد او رفتم و در پشت و شکم او تفحّص کردم، ولی در او اثر حمل ندیدم. نزد آن جناب برگشتم و از آن چه کردم، به او خبر دادم.
تبسّم فرمود و به من گفت: چون وقت فجر شود، حمل برای تو ظاهر می شود؛ زیرا مثل او، مثل مادر موسی است که حمل در او ظاهر نشد و کسی تا زمان ولادتش آن را ندانست؛ چون فرعون به جهت جستجوی موسی، شکم زن های آبستن را می شکافت و او نظیر موسی است.
حکیمه گفت: دوباره نزد نرجس برگشتم و از آن چه فرمود او را خبر کردم و از حالش پرسیدم.
گفت: ای خاتون من! چیزی از این، در خود نمی بینم.
و به روایت حسین بن حمدان حضینی در هدایه(15) از غیلان کلابی و موسی بن محمد رازی و احمد بن جعفر طوسی و غیر آن ها از حکیمه و روایت علیّ بن حسین مسعودی در اثبات الوصیّه(16) از جماعتی از شیوخ علما که از جمله آن ها علان کلینی، موسی بن محمد غازی و احمد بن جعفر بن محمد است به اسانید خود از حکیمه که: او بر ابی محمد (علیه السلام) داخل می شد و برای آن جناب دعا می کرد که خداوند فرزندی به او روزی فرماید، او گفت: روزی بر آن جناب داخل شدم و برای او دعا کردم چنان چه می کردم.
به من فرمود: ای عمّه! آگاه باش آن را که دعا می کردی خداوند به من روزی کند، امشب متولّد می شود و آن، شب نیمه شعبان سنه دویست و پنجاه و پنج بود یا امشب مولودی متولّد می شود که منتظرش بودیم. پس افطار خود را نزد ما قرار ده! و آن شب جمعه بود.
به آن جناب گفتم: ای سید من! این مولود عظیم، از چه کسی خواهد شد؟
فرمود: از نرجس. گفتم: ای سید من! در کنیزان تو محبوب تر از او نزد من و خفیف تر از او بر قلب من نیست، هر وقت داخل خانه می شدم، مرا استقبال می کرد، دست مرا می بوسید و موزه را از پای من بیرون می آورد.
چون بر او داخل شدم، با من آن چه کرد که همیشه می کرد. پس بر دست های او افتادم، آن را بوسیدم و او را مانع شدم از این که بکند، آن چه می کرد. سپس مرا به سیادت و خاتونی خطاب کرد، من نیز او را به مثل آن خطاب کردم.
به من گفت: فدای تو شوم!
گفتم: من فدای تو شوم و همه عالمیان! پس این را از من مستنکر شمرد.
به او گفتم: استنکار مکن؛ زیرا خداوند امشب به تو پسری عطا می کند که در دنیا و آخرت سید است و فرح مؤمنین می باشد.
شرمنده شد، در او تأمّل کردم، اما اثر حملی نیافتم. تعجّب کردم و به سید خود ابی محمد (علیه السلام) گفتم: در او اثر حمل نمی بینم.
تبسّم کرد و به من فرمود: ما معاشر اوصیا در شکم ها برداشته نمی شویم، جز این نیست که ما را در پهلوها حمل می کنند و از ارحام بیرون نمی آییم، جز این نیست که از ران راست مادران خود بیرون می آییم؛ زیرا ما نورهای خداوند هستیم که قذارات به آن نمی رسد. به او گفتم: ای سید من! مرا خبر دادی که او امشب متولّد می شود؛ پس در چه وقت از شب است؟
فرمود: این مولود ارجمند نزد خداوند، هنگام طلوع فجر متولّد می شود، ان شاء الله تعالی.
[لحظات ولادت] 3 مسکه:
روایت اوّل: چون از نماز عشا فارغ شدم، افطار کردم و به خوابگاه و بر جای خود رفتم و پیوسته مراقب او بودم.
روایت شیخ طوسی (رحمهم الله)(17): چون نماز مغرب و عشا را کردم، مائده ای حاضر کردند. من و سوسن در یک اطاق افطار کردیم.
روایت اوّل: چون نیمه شب شد، به نماز برخاستم و چون از نماز فارغ شدم، نرجس خاتون خوابیده بود و از پهلو به پهلو حرکت نمی کرد.
روایت موسی(18): چون از نماز فارغ شدم، نرجس خاتون خوابیده بود و او را حادثه ای نبود. زمانی به تعقیب نماز نشستم، آن گاه به پهلو خوابیدم. بعد از آن ترسان بیدار شدم و نرجس خاتون، هم چنان خوابیده بود. بعد از آن برخاست، نماز کرد و خوابید.
حکیمه خاتون گفت: بیرون رفتم تا جستجوی فجر کنم، دیدم فجر اوّل طالع شده و حال آن که نرجس خاتون در خواب بود. پس گمان ها در خاطرم راه یافت. حضرت ابو محمد (علیه السلام) از آن جایی که نشسته بود، مرا آواز داد و فرمود: ای عمّه! تعجیل منما، اینک امر ولادت نزدیک شد.
نشستم! الم، سجده و یس را خواندم، مشغول خواندن بودم که نرجس خاتون ترسان بیدار شد. از جای جستم، خود را به او رساندم و او را به سینه خود چسباندم.
گفتم: نام خدا بر تو باد! احساس چیزی می نمایی؟
گفت: بلی، ای عمّه!
گفتم: دل و جان خود را جمع دار! این است آن چه به تو گفتم.
آن گاه من و نرجس خاتون را سستی فروگرفت. یعنی خواب سبکی به ما دست داد.
آن گاه به دریافتن سید خود بیدار شدم. جامه از او برداشتم، آن حضرت را دیدم که در سجود بود. او را برداشته، دربر گرفتم، دیدم پاک و پاکیزه و بی آلایش به وجود آمده.
روایت اوّل: در این حال در نرجس اضطراب مشاهده نمودم. او را دربر گرفتم و نام الهی بر او خواندم.
حضرت آواز داد که سوره ﴿إِنَّا أَنْزَلْناهُ فِی لَیْلَهِ الْقَدْرِ﴾ (قدر: 1) را بر او بخوان! از او پرسیدم چه حال داری؟
گفت: آن چه مولایم فرمود، اثرش ظاهر شد.
سپس شروع کردم به خواندن سوره ﴿إِنَّا أَنْزَلْناهُ فِی لَیْلَهِ الْقَدْرِ﴾ بر او؛ چنان چه به من امر فرمود. آن طفل نیز در شکم نرجس خاتون با من همراهی می کرد و می خواند، مثل آن چه من می خواندم و بر من سلام کرد. من ترسیدم!
حضرت صدا زد: ای عمّه از قدرت الهی تعجّب مکن! که حق تعالی خردان ما را به حکمت، گویا می گرداند و ما را در بزرگی، حجّت خود در زمین می گرداند.
هنوز سخن حضرت تمام نشده بود که نرجس از نظرم غایب شد و من او را ندیدم.
گویا پرده ای میان من و او زده شد. فریادکنان به سوی امام حسن عسکری (علیه السلام) دویدم.
حضرت فرمود: ای عمّه برگرد! او را در جای خود خواهی یافت. مراجعت نمودم، درنگی نکردم که پرده برداشته شد، نرجس خاتون را دیدم، آن قدر لمعان نور بر او بود که چشمم را خیره کرد و صاحب الأمر (علیه السلام) را دیدم که به روی خود، به سجده افتاده، به زانو درافتاده، انگشتان سبّابه خود را به آسمان بلند کرده و می گوید: «أشهد أن لا اله الّا الله و انّ جدّی محمّدا رسول الله و انّ أبی امیر المؤمنین». آن گاه یک یک امامان را شمرد تا به خود برسید.
سپس فرمود: «اللّهمّ أنجز لی ما وعدتنی و أتمم لی امری و ثبّت وطأتی و أملاء بی الأرض قسطا و عدلا»
به روایتی(19)، نوری از آن حضرت ساطع گردید و به آفاق آسمان پهن شد. مرغان سفیدی دیدم که از آسمان به زیر می آمدند، بال های خود را بر سر و رو و بدن آن حضرت می مالیدند و پرواز می کردند.
حکیمه خاتون گفت: سپس حضرت ابی محمّد، یعنی امام حسن (علیه السلام)، مرا آواز داد که فرزندم را بیاور!
[روایت دیگری از میلاد] 4 مسکه:
به روایت مسعودی(20) و حضینی(21)، بعد از ذکر خواب اضطراری هردو، حکیمه خاتون گفت: پس به حسّ مولا و سید من، در زیر او بیدار شد و نیز به آواز حضرت که می فرماید: ای عمّه! فرزند مرا بیاور!
جامه را از روی سید خود برداشتم، دیدم به پیشانی و کف ها و زانوها و انگشتان پا به سجده افتاده و بر ذراع راست او نوشته: ﴿جاءَ الْحَقُّ وَ زَهَقَ الْباطِلُ إِنَّ الْباطِلَ کانَ زَهُوقاً﴾(22).
او را دربر گرفتم. او را ختنه کرده و ناف بریده و پاک و پاکیزه یافتم و در جامه ای پیچیدم.
روایت طوسی: او را برداشتم و نزد حضرت بردم. چون به حضور آن جناب رسید، به همان نحو که در دست من بود، بر پدر بزرگوارش سلام کرد.
حضرت او را روی دو دست خود گرفت، به روشی که پای مبارک حضرت صاحب الأمر (علیه السلام) بر روی سینه شریف پدر بزرگوارش بود و حضرت امام حسن (علیه السلام)، زبان در دهان آن جناب گذاشت و بر چشم و گوش و مفاصل او دست مالید و فرمود: ای پسر من! به سخن درآی و تکلّم کن!
روایت مسعودی(23): آن جناب را کف دست خود نشانید، دست راست را بر پشت او گذاشت و فرمود: سخن گو!
حضرت حجّت (علیه السلام) فرمود: «أشهد أن لا اله الّا الله وحده لا شریک له و أنّ محمّدا رسول الله (صلّی الله علیه و آله)». آن گاه بر امیر المؤمنین (علیه السلام) و ائمّه (علیهم السلام) صلوات فرستاد تا این که به پدر بزرگوار خود رسید، آن گاه بازایستاد؛ یعنی خاموش شد.
روایت مسعودی(24) و حضینی(25): بعد رسول الله و انّ علیّا امیر المؤمنین (علیه السلام). آن گاه اوصیا صلوات الله علیهم را پیوسته شمرد تا به خود رسید و به دست خود، فرج را برای شیعیانش دعا کرد.
روایت شیخ طوسی (رحمهم الله)(26): چون حضرت، فرزند مکرّم خود را گرفت، زبان مبارک را بر دیدگان او مالید، پس چشم های مبارک را باز کرد، آن گاه زبان در دهان آن جناب کرد، کام او را مالید، حنک او را گرفت و زبان را در گوش آن جناب داخل کرد و بر کف دست چپ خود نشانید، پس ولیّ خدا راست نشست. سپس حضرت دست بر سر او مالید و به او فرمود: ای فرزند من! به قدرت الهی سخن بگو!
روایت حافظ برسی در مشارق الانوار(27) از حسین بن محمد از حکیمه؛ گفت:
چون آن جناب را نزد برادرم حسن بن علی (علیهما السلام) آوردم، دست شریف خود را بر روی انور او مالید که نور انوار بود و فرمود: سخن بگو ای حجّه الله و بقیّه انبیا، نور اصفیا و غوث فقرا، خاتم اوصیا و نور اتقیا و صاحب کرّه بیضا.
پس فرمود: «اشهد أن لا اله الّا الله وحده لا شریک له و اشهد أنّ محمّدا عبده و رسوله و أشهد أنّ علیّا ولیّ الله». آن گاه اوصیا را تا آن جناب شمرد.
سپس امام حسن (علیه السلام) فرمود: بخوان!
قرائت کرد آن چه بر پیغمبران نازل شده بود و به صحف ابراهیم (علیه السلام) ابتدا نمود و آن را به زبان سریانی خواند. آن گاه کتاب نوح، ادریس، کتاب صالح، تورات موسی، انجیل عیسی و فرقان محمد - (صلّی الله علیه و آله) و علیهم اجمعین - را خواند و قصص انبیا را نقل فرمود.
روایت شیخ طوسی(28): پس ولیّ خدا (علیه السلام) از شیطان رجیم، استعاذه نمود و افتتاح نمود و فرمود: ﴿بِسْمِ الله الرحْمنِ الرحِیمِ وَ نُرِیدُ أَنْ نَمُنَّ عَلَی الَّذِینَ اسْتُضْعِفُوا فِی الْأَرْضِ وَ نَجْعَلَهُمْ أَئِمَّهً وَ نَجْعَلَهُمُ الْوارِثِینَ* وَ نُمَکِّنَ لَهُمْ فِی الْأَرْضِ وَ نُرِیَ فِرْعَوْنَ وَ هامانَ وَ جُنُودَهُما مِنْهُمْ ما کانُوا یَحْذَرُونَ﴾(29).
بر رسول خدا و امیر المؤمنین و هریک از ائمّه - صلوات الله علیهم - صلوات فرستاد تا به پدر بزرگوار خود رسید.
حکیمه خاتون گفت: آن گاه حضرت، آن جناب را به من داد و فرمود: ای عمّه! او را به سوی مادرش برگردان تا چشمش روشن گردد و اندوهگین نشود و بداند که وعده خداوند جلّ جلاله حق است. لکن بیشتر مردم نمی دانند.
هنگامی که فجر دوّم روشن شده بود، آن جناب را به سوی مادرش برگرداندم. سپس فریضه را به جای آوردم و تعقیب خواندم تا آن که آفتاب طالع شد. آن گاه با ابی محمّد (علیه السلام) را وداع کرده و به منزل خود مراجعت نمودم.
[پس از میلاد] 5 مسکه:
به روایت موسی(30): فرمود: ای عمّه! او را نزد مادرش ببر تا بر او سلام کند و باز او را به نزد من بیاور.
حکیمه خاتون گفت: آن حضرت را بردم، بر مادر سلام کرد؛ بازآوردم و در آن مجلس گذاشتم.
بعد آن، حضرت امام حسن (علیه السلام) فرمود: روز هفتم باز بیا.
حکیمه خاتون گفت: روز دیگر صباح رفتم که بر امام حسن (علیه السلام) سلام کنم، پرده را برداشتم تا سید خود را جستجو کنم؛ یعنی حضرت صاحب الامر (علیه السلام) را ببینم، آن حضرت را ندیدم. گفتم: فدای تو شوم؛ سید من چه شد؟
امام (علیه السلام) فرمود: ای عمّه! او را به کسی سپردیم که مادر موسی، موسی را به او سپرد.
روایت اوّل: چون حضرت آواز کرد فرزندم را نزد من بیاور، حکیمه خاتون گفت: آن جناب را برداشتم و نزد آن حضرت آوردم. چون او را پیش روی پدر بزرگوارش نگاه داشتم، در دست من بود که بر پدر بزرگوارش سلام کرد.
سپس حضرت آن جناب را از دست من گرفت و در آن حال، مرغانی بال خود را بر سر آن جناب گسترانیدند. حضرت به یکی از آن مرغان آواز داد و فرمود: او را بردار و محافظت کن و هرچهل روز به سوی ما برگردان. مرغ، آن جناب را برداشت و به سوی آسمان پرواز کرد و مرغان دیگر عقب او پرواز کردند.
پس شنیدم امام حسن (علیه السلام) می فرماید: تو را به آن کسی سپردم که مادر موسی، موسی را به او سپرد.
پس نرجس خاتون بگریست. حضرت فرمود: ساکت باش که شیر خوردن جز از پستان تو برای او نباشد و زود است که به سوی تو برگردد؛ چنان چه موسی به سوی مادر خود برگشت و این قول خداوند است که فرموده: پس موسی را نزد مادرش برگرداندیم تا دیده مادرش به او روشن شود و اندوهگین نگردد.
حکیمه خاتون گفت، گفتم: این مرغ چه بود؟
فرمود: این روح القدس است که موکّل ائمّه (علیهم السلام) است، او ایشان را موفّق می گرداند، تسدید می کند، از خطا و لغزش نگاه می دارد و به ایشان علم می آموزد.
روایت مناقب قدیمه: آن گاه حضرت بعضی از کنیزان خود را طلبیدند که می دانستند ایشان خبر آن مولود را پنهان می کنند، پس به آن مولود کریم، نظر کردند.
حضرت فرمود: به او سلام کنید.
آن جناب را بوسیدند و گفتند: تو را به خداوند سپردیم و برگشتند.
آن گاه فرمود: ای عمّه! نرجس را طلب نما. پس او را طلبیدم.
فرمود: تو را نطلبیدم مگر برای این که با او وداع کنی.
او را وداع کرد و برگشت، آن جناب را با پدرش گذاشتیم و مراجعت نمودیم.
چون روز دیگر شد، نزد او رفتم و سلام کردم ولی احدی را نزد او ندیدم. مبهوت ماندم.
فرمود: ای عمّه! او در ودایع خداوندی است تا آن زمان که خداوند در خروج به او اذن دهد.
[پس از میلاد] 6 مسکه:
روایت شیخ طوسی(31): حکیمه خاتون گفت: چون روز سوّم شد، شوقم به دیدن ولیّ الله شدید شد. به رسم عیادت، نزد ایشان رفتم، اوّل به حجره ای رفتم که نرجس خاتون در آن بود. او را دیدم که نشسته، نشستن زن زاییده، جامه زردی بر بر او بود و سرش را با دستمال بسته بود. بر او سلام کردم و به سوی جانبی از آن حجره ملتفت شدم، گهواره ای دیدم که بر آن جامه سبز بود.
به سوی گهواره میل نمودم و جامه ها را از آن برداشتم. ولیّ الله را دیدم که بر پشت خوابیده، نه کمرش بسته بود و نه دست های مبارکش. چشم های خود را باز کرد، خندید و با انگشتان خود با من راز گفت.
آن جناب را برداشتم و نزدیک دهان خود آوردم تا ببوسم؛ بوی خوشی از آن جناب به مشامم رسید که خوشبوتر از آن هرگز استشمام نکرده بودم.
در این حال امام حسن (علیه السلام) آواز داد: ای عمّه! جوانم را بیاور، بردم.
او را از من گرفت و فرمود: ای پسر! سخن گو! و به همان نسق که سابقا ذکر شد، تکلّم فرمود.
حکیمه خاتون گفت: او را از حضرت گرفتم در حالی که می فرمود: ای پسر من! تو را به کسی سپردم که مادر موسی، موسی را به او سپرده بود و تو در حفظ خداوند، ستر او، رعایت و پناه او باش. سپس فرمود: ای عمّه! او را به مادرش برگردان و خبر این مولود را بر ما کتمان کن و احدی را به او خبر نده تا آن که تقدیر خداوند به غایت خود برسد. پس آن جناب را به مادرش دادم و از ایشان وداع کردم.
روایت موسی(32): حضرت فرمود: ای عمّه! چون روز هفتم شود، نزد ما بیا.
حکیمه خاتون گفت: روز هفتم آمدم، سلام کردم و نشستم.
امام (علیه السلام) فرمود: فرزندم را بیاور!
آن جناب را آوردم و او در جامه ای بود.
به روایت شیخ طوسی(33) و حضینی(34) و مسعودی(35): در جامه های زرد بود.
باز، آن حضرت با آن جناب، چنان کرد که در مرتبه اوّل کرده بود؛ یعنی او را روی دو دست خود گرفت، بعد زبان را در دهان مبارکش گذاشت و او را شیر یا عسل می خورانید.
آن گاه فرمود: ای فرزند من! به سخن درآی و تکلّم نما!
آن گاه حضرت صاحب الامر (علیه السلام) فرمود: «أشهد أن لا اله الّا الله...»، تا آخر آن چه به این روایت گذشت. بعد از آن این آیه را تلاوت فرمود ﴿بِسْمِ الله الرحْمنِ الرحِیمِ وَ نُرِیدُ أَنْ نَمُنَّ عَلَی الَّذِینَ اسْتُضْعِفُوا فِی الْأَرْضِ* تا قول خداوند، ما کانُوا یَحْذَرُونَ﴾ (قصص: 5 - 6).
روایت حضینی(36): بعد از تلاوت این آیه، حضرت به آن جناب فرمود: ای فرزند من! بخوان، آن چه را که خداوند بر پیغمبران و رسولان خود نازل فرمود.
پس به صحیفه های آدم (علیه السلام) ابتدا فرمود و آن را به زبان سریانی خواند و کتاب نوح، هود، صالح و صحیفه های ابراهیم (علیهم السلام)، تورات موسی، زبور داود، انجیل عیسی و فرقان جدّم رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) را خواند. آن گاه قصّه پیغمبران و مرسلین را تا عهد خود نقل فرمود.
[چهل روز پس از ولادت] 7 مسکه:
روایت اوّل: حکیمه خاتون گفت: چون چهل روز گذشت، حضرت حجّت (علیه السلام) را برگرداندند و امام حسن (علیه السلام) مرا طلبید، چون به خدمتش رسیدم؛ ناگاه آن کودک را دیدم که پیش روی او راه می رفت.
گفتم: ای سید من! این، پسر دو ساله است؟
حضرت تبسّم کرد و فرمود: به درستی که فرزندان انبیا و اوصیا (علیهم السلام) هرگاه ائمّه باشند، نشوونما می کنند به خلاف آن چه غیر ایشان نشوونما می کند. همانا که کودکی از ما، هرگاه یک ماه بر او گذشت، مانند کسی است که یک سال بر او گذشته باشد و کودک ما، در شکم مادرش سخن می گوید، قرآن می خواند و در زمان شیرخوارگی پروردگار خود را عبادت می کند. ملایکه او را اطاعت می کنند و در بامداد و پسین بر او نازل می شوند.
حکیمه خاتون گفت: پیوسته در هرچهل روز کودک را برمی گرداندند تا آن که چند روزی پیش از وفات امام حسن (علیه السلام)، آن جناب را مردی دیدم. او را نشناختم.
به برادرزاده ام گفتم: این کیست که به من امر می فرمایی روبه روی او بنشینم؟
فرمود: این پسر نرجس است و بعد از من، خلیفه من است. من به زودی از میان شما می روم؛ سخن او را بشنو و امرش را اطاعت کن!
حکیمه خاتون گفت: بعد از چند روز، امام حسن (علیه السلام) وفات کرد و من اکنون حضرت صاحب الامر (علیه السلام) را هرصبح و شام می بینم و هرچه از من می پرسند، آن جناب به من خبر می دهد، من نیز به ایشان خبر می دهم.
به خدا قسم گاه من اراده می کنم چیزی از او بپرسم، هنوز سؤال نکرده، جواب مرا می گوید و گاه امری بر من روی می دهد و همان ساعت جواب می رسد، بدون آن که سؤال کنم و شب گذشته آمدن تو را نزد من خبر داد و به من امر فرمود: تو را خبر دهم به حقّ محمد بن عبد الله (صلّی الله علیه و آله).
راوی خبر گفت: به خدا قسم حکیمه خاتون چیزهایی به من خبر داد که جز خداوند عزّ و جلّ احدی از آن مطّلع نبود؛ پس دانستم که این راست و عدل است از جانب خداوند، زیرا خدای عزّ و جلّ ایشان را به چیزی مطّلع کرده که احدی از خلق خود را به آن مطّلع نکرده.
به روایت مسعودی(37) و حضینی(38): حکیمه خاتون گفت: چون چهل روز گذشت، به خانه امام حسن (علیه السلام) داخل شدم، مولای خود را دیدم که در خانه راه می رود، پس رخساری نیکوتر از رخسار آن جناب و لغتی فصیح تر از لغت او ندیدم.
امام حسن (علیه السلام) به من فرمود: این مولود، ارجمند نزد خداوند است.
گفتم: ای سید من! چهل روز از عمر او گذشته و من در امر او می بینم، آن چه می بینم؟!
فرمود: ای عمّه! آیا نمی دانی که ما معاشر اوصیا، در روز نشو می کنیم، مقداری که غیر ما در یک هفته و ما در هفته، آن قدر نشو می کنیم که غیر ما، در یک سال.
آن گاه برخاستم، سر آن جناب را بوسیدم و مراجعت کردم. دو مرتبه برگشتم و جستجو کردم ولی او را ندیدم. به سید خود، ابی محمد (علیه السلام) گفتم: مولای مرا چه کردی؟
فرمود: ای عمّه! او را به کسی سپردم که مادر موسی او را سپرد.
[به آسمان بردن ملایکه آن جناب را] 8 مسکه:
روایت حضینی(39): آن گاه فرمود: چون پروردگار من، مهدی این امّت را به من عطا فرمود، دو ملک فرستاد که او را برداشته و به سراپرده عرش بردند تا آن که در حضور قرب الهی ایستاد.
پس به او فرمود: مرحبا به تو، ای بنده من! برای نصرت دین من و اظهار امر من و مهدی بندگان من. سوگند خوردم که به واسطه تو بگیرم، به خاطر تو، عطا کنم، به تو، بیامرزم و به تو، عذاب کنم.
ای دو ملک! با مدارا و ملاطفت، او را به سوی پدرش برگردانید و به او بگویید: او در پناه، حفظ، حمایت و نظر عنایت من است تا آن زمان که حق را به وسیله او برپا و ظاهر نمایم و باطل را به او نیست و نابود کنم و دین خالص برای من بوده باشد.
آن گاه امام حسن (علیه السلام) فرمود: چون مهدی (علیه السلام) از شکم مادر خود بر زمین افتاد، دیده شد که به زانو درآمد، دو سبّابه خود را بلند نمود، آن گاه عطسه کرد.
پس فرمود: «الحمد لله ربّ العالمین و صلّی الله علی محمّد و آله عبدا ذاکرا لله غیر مستنکف و لا مستکبر». آن گاه فرمود: ظلمه گمان کردند که حجّت خداوند باطل خواهد شد. اگر در به من سخن گفتن اذن می دادند، هر آینه شکّ، زایل می شد.
از سیاق روایت حضینی چنین مستفاد می شود که این ذیل مشتمل بر بردن آن حضرت به آسمان، از تتمّه خبر حکیمه خاتون باشد، لکن ظاهر مسعودی در اثبات الوصیّه تا آن جا است که فرمود: او را، سپردم...، الخ، خبر حکیمه تمام شد، زیرا او بعد از نقل، گفته: مرا موسی بن محمد خبر داد که او مولد را قرائت کرد؛ یعنی حدیث ولادت را با کتابی که در این باب نوشته شده بود و بیشتر آن را بر حضرت امام حسن عسکری (علیه السلام) خواند، پس آن را تصحیح فرمود و زیاد و کم نمود و روایات را به نحوی که ما ذکر نمودیم، تقریر فرمود.
از حضرت امام حسن (علیه السلام) روایت شده که فرمود: چون صاحب (علیه السلام) متّولد شد، خداوند عزّ و جلّ دو ملک فرستاد؛ او را برداشتند و به سرادق عرش بردند و او در محضر قرب الهی ایستاد.
خداوند فرمود: مرحبا! به واسطه تو عطا می کنم، به خاطر تو، می آمرزم یا عفو می کنم و به تو عذاب می کنم.
علّامه مجلسی (رحمهم الله) در بحار، کیفیّت بردن آن جناب به آسمان را به نحوی نقل نموده که حضینی از بعضی از مؤلّفات قدمای اصحاب ما (رحمهم الله) روایت کرده.
نیز به سند خود از نسیم و ماریه روایت کرده که هردو گفتند: «چون صاحب الزّمان از شکم مادر بیرون آمد، به زانو درافتاد و انگشتان سبّابه را...»، تا آخر آن چه گذشت.
لکن از تاریخ جهضمی و غیره معلوم می شود که فقره اخیره، کلام حضرت عسکری (علیه السلام) است که هنگام ولادت مهدی - صلوات الله علیه - فرمود: ظلمه گمان کردند که ایشان مرا خواهند کشت تا این نسل را قطع کنند، قدرت قادر را چگونه دیدند؟ و اگر خداوند در کلام به من اذن می داد، هر آینه شکوک برطرف می شد و خداوند آن چه را که می خواهد، می کند.
در نجم ثاقب است که مؤلّف گوید: اگر چه روایات از حکیمه خاتون، مختلف است، لکن مضامین آن ها متّحد یا متقارب است و در بعضی از آن ها چیزی نقل شده، که در دیگری به جهت اختصار یا نسیان نقل نشده، یا به جهت بعضی مصالح تمام آن را به همه اشخاص نفرمود.
در روایت محمد، حضرت عسکری (علیه السلام) به روح القدس امر فرمودند که مهدی - صلوات الله علیه - را در هرچهل روز بیاورد، و این منافات ندارد که گاهی آن جناب را پیش از آن وقت بیاورد، چنان چه در خبر موسی و غیره بود. زیرا حسب وعده حضرت، آن جناب را به جهت خوردن شیر در هروقت که به آن محتاج بود، نزد نرجس خاتون می آورد، چون نباید از غیر پستان او بخورد. شاید دیدن در روز هفتم و سوّم ولادت و در شب دوّم نیز به جهت همین باشد.
چنان چه مسعودی از علّان روایت کرده که گفت: نسیم - که خادم حضرت امام حسن (علیه السلام) بود - مرا خبر داد و گفت: بعد از ولادت صاحب الزّمان به یک شب، خدمتش رسیده بودم، در نزد او عطسه کردم.
فرمود: یرحمک الله!
نسیم گفت: مسرور شدم.
فرمود: آیا تو را در عطسه بشارت ندهم؟
گفتم: بلی!
فرمود: آن تا سه روز از مردن در امان است و به روایت حضینی، این در روز سوّم بود.
[سال و روز تولد آن جناب]
ذنائب للعبقریّه و مأدب للبریّه(40):
الأوّل:
بدان! در سال تولّد حضرت بقیه الله (عجل الله تعالی فرجه الشریف) اختلاف عظیمی است. نظر به اختلاف اخبار، شیخ سدید مفید در ارشاد(41)، سال تولّدش را دویست و پنجاه و پنج سال از هجرت گذشته و در شب نیمه شعبان نقل فرموده است.
لکن در مسار الشیعه(42)، بنابر نقل استادنا المحدّث النّوری - نور الله مرقده الشّریف - در نجم ثاقب، سال تولّد آن حضرت را دویست و پنجاه و چهار ذکر فرموده است.
در تاریخ قم(43)، تألیف حسن بن محمد بن حسن قمی، سال تولّد آن بزرگوار، دویست و پنجاه و پنج نوشته شد که لفظ نهر با عدد جمل موافق است و روز تولّد را جمعه هشتم ماه شعبان نقل کرده است.
در روایتی است که سال تولّد، دویست و پنجاه و هفت بوده است و آن را حسین بن حمدان حضینی در کتاب هدایه(44) خود نقل کرده، در آن روایت است که وقت تولّد آن بزرگوار، پیش از طلوع فجر روز جمعه، هشت روز از ماه شعبان گذشته، بوده است.
در شجره، سال تولّد آن جناب را دویست و پنجاه و هشت ذکر نموده، چنان که احمد بن محمد فاریابی، راوی تاریخ موالید الأئمّه و نصر بن علی جهضمی(45) که در عصر ولادت بوده، در پنجاه و هشت ضبط کرده اند.
علی بن حسین مسعودی در کتاب اثبات الوصیّه خود، سال تولّد آن سرور را دویست و پنجاه و شش فرموده، اگر چه روایت پنجاه و پنج را نیز نقل نموده است.
در نظر این ناچیز، ارجح دویست و پنجاه و شش است. چه آن؛ علاوه بر جلالت قدر ناقلینش که مسعودی و شیخ طوسی (رحمه الله) و صدوق می باشند، مؤیّد است به آن چه در السنه اثنا عشریّه مشهور است که سال تولّد آن بزرگوار نور است؛ یعنی مطابق با جمل لفظ نور است که دویست و پنجاه و شش می باشد. هم چنین مؤیّد است به این که یکی از القاب مبارکه آن بزرگوار، نور است، تطبیقا لللقب مع الملقّب به و توفیقا للأسم مع المسمّی.
در نجم ثاقب، این لقب را در ضمن یک صد و هشتاد و دو اسم و لقب و کنیه که برای آن سرور ذکر کرده، نوشته و فرموده است: صد و شصت و هشتم؛ یعنی از اسامی و القاب آن بزرگوار، نور آل محمد (علیهم السلام) است، چنان چه در خبری است که صادقی آن را در ذخیره، از اسامی آن جناب شمرده که در قرآن و در چند خبر که بعضی خواهد آمد، مذکور است.
در آیه شریفه: ﴿وَ الله مُتِمُّ نُورِهِ﴾ (صف: 8)؛ یعنی به ولایت قائم و به ظهور آن جناب. در آیه شریفه: ﴿وَ أَشْرَقَتِ الْأَرْضُ بِنُورِ رَبِّها﴾ (زمر: 69) مراد، روشن شدن زمین به نور آن جناب است و در یکی از زیارات جامعه در اوصاف آن حضرت است، «نور الأنوار الّذی تشرق به الأرض عمّا قلیل».
در غایه المرام(46) و غیره از جابر بن عبد الله انصاری مروی است که گفت: داخل مسجد کوفه شدم درحالی که امیر المؤمنین (علیه السلام) با انگشتان مبارک می نوشت و تبسّم می فرمود.
گفتم: یا امیر المؤمنین! چه چیز تو را به خنده آورد؟
فرمود: تعجّب می کنم از کسی که این آیه را می خواند ولی آن را به حقّ معرفت نمی شناسد. به آن جناب گفتم: یا امیر المؤمنین، کدام آیه است؟!
فرمود: ﴿اللهُ نُورُ السَّماواتِ وَ الْأَرْضِ... مَثَلُ نُورِهِ کَمِشْکاهٍ﴾ (نور: 35)، مشکات محمد است. فِیها مِصْباحٌ؛ مصباح در زجاجه من هستم.
﴿الزُّجاجَهُ﴾، حسن و حسین (علیهما السلام)، ﴿کَأَنَّها کَوْکَبٌ دُرِّیٌّ﴾، علیّ بن الحسین (علیهما السلام)، ﴿یُوقَدُ مِنْ شَجَرَهٍ مُبارَکَهٍ﴾، محمد بن علی (علیهما السلام)، ﴿زَیْتُونَهٍ﴾، جعفر بن محمد (علیهما السلام)، ﴿لا شَرْقِیَّهٍ﴾ موسی بن جعفر (علیهما السلام)، ﴿وَ لا غَرْبِیَّهٍ﴾، علی بن موسی (علیهما السلام)، ﴿یَکادُ زَیْتُها﴾؛ محمد بن علی (علیهما السلام)، ﴿وَ لَوْ لَمْ تَمْسَسْهُ نارٌ﴾؛ علی بن محمد (علیهما السلام)، ﴿نُورٌ عَلی نُورٍ﴾؛ حسن بن علی (علیهما السلام) است. ﴿یَهْدِی الله لِنُورِهِ مَنْ یَشاءُ﴾؛ مهدی قائم (علیه السلام) است.
در جمله ای از اخبار معراج، مذکور است که در عالم اظلّه نور آن جناب، میان انوار و اشباح ائمّه (علیهم السلام)، مانند ستاره ای درخشان در میان سایر کواکب بود و در خبری، چون ستاره صبح برای اهل دنیا.
این ناچیز گوید: نکته اطلاق نور بر این وجود مقدّس، همان نکته اطلاق بر وجود نازنین جدّش خاتم الأنبیا است که در ضمن لطیفه هشتم از موهبت دهم از شعاع دوّم از نور اوّل از کتاب انوار المواهب فی نکت اخبار المناقب که بحمد الله به طبع رسیده، مرقوم افتاده است، فارجع.
[شرح حال دو حکیمه خاتون]:
الثّانی؛ بدان در اخبار کثیره کتب معتبره اصحاب که وقت تولّد حضرت ناموس الدهر، و امام العصر و کیفیّت آن، ثبت و ضبط شده؛ حضور حکیمه خاتون (علیها السلام) نزد نرجس خاتون (علیها السلام) در هنگام وضع حمل وارد گردیده است.
باید دانست در این خانواده عصمت و طهارت، دو زن مجلّله به این نام بوده اند:
یکی؛ حکیمه خاتون دختر حضرت ابی الحسن موسی بن جعفر (علیهما السلام) است که هنگام ولادت حضرت ابی جعفر محمد بن علی الجواد حاضر بود.
دیگری؛ حکیمه خاتون دختر حضرت جواد (علیه السلام) است که هنگام ولادت حضرت حجّه (عجّل الله فرجه) حاضر بود. چنان که علّامه طباطبایی بحر العلوم - نوّر الله مرقده - در رجال(47) خود فرموده: حکیمه دختر ابی جعفر ثانی که هم نام عمّه پدرش، حکیمه دختر ابی الحسن موسی بن جعفر است؛ هنگام ولادت قائم حجّه (عجّل الله فرجه) حاضر شد، چنان چه عمّه اش حکیمه هنگام ولادت ابی جعفر محمد بن علی جواد (علیهما السلام) حاضر شد. حکیمه در هردو موضع با کاف است اما حلیمه با لام، پس از تصحیف عوام است.
این ناچیز گوید: که بعضی از ارباب فضل در تألیفات خود فرموده اند:
این در بعضی مواضع به لام واقع شده و شاید به لام صحیح باشد. به قرینه آن چه در کتب اخبار ما وارد شده، طایفه امامیّه از حضرات معصومین (علیهم السلام)، از تسمیّه مولود به حکیم به کاف کراهت داشتند و تاء تأنیث داشتن لفظ حکیمه باعث تغیّر حکم کراهت نمی شود، لذا ممکن است اسم آن مخدّره حلیمه با لام و حکیمه با کاف لقبش باشد و شاید سبب ملقّب شدنش به این لقب، اطّلاع آن خاتون از اسرار حکمت باشد، چنان که فاطمه، خواهر امام رضا (علیه السلام) به معصومه ملقّب می باشد.
و بالجمله، علّامه طباطبایی فرموده است: سروی، یعنی ابن شهرآشوب در مناقب(48) خود گفته: حکیمه، دختر ابی الحسن موسی بن جعفر گفت: چون وقت ولادت خیزران، مادر ابی جعفر (علیه السلام) رسید؛ حضرت رضا (علیه السلام) مرا طلبید و فرمود: ای حکیمه! هنگام ولادت او حاضر شو. بعد تو و او و قابله در اطاقی داخل شوید. آن گاه برای ما چراغی گذاشت و در را به روی ما بست.
هنگامی که درد زاییدن گرفت، چراغ خاموش شد و پیش روی او طشتی بود - و من از خاموش شدن چراغ، غمگین شدم.
در این حال بودیم که حضرت جواد (علیه السلام) در طشت ظاهر شد. دیدیم چیز نازکی بر او است؛ شبیه جامه ای که از آن نور می درخشید به طوری که خانه را روشن کرد. آن جناب را دیدیم، من او را گرفتم، در بغل خود گذاشتم و پرده را از آن گرفتم.
سپس حضرت رضا (علیه السلام) تشریف آورد، در را باز کرد و ما از امر او فارغ شده بودیم.
او را گرفت، در گهواره گذاشت و فرمود: ای حکیمه! ملازم گهواره او باش.
حکیمه گفت: چون روز سوّم شد، چشمانش را به جانب آسمان کرد. آن گاه فرمود:
«أشهد أن لا اله الّا الله و أشهد أنّ محمّدا رسول الله».
پس هراسان و ترسان از جای خود برخاستم، نزد حضرت رضا (علیه السلام) آمدم و به آن جناب گفتم از این کودک چیز عجیبی شنیدم.
فرمود: چه بود؟
خبر را برای آن جناب نقل کردم.
فرمود: ای حکیمه عجایب او از آن چه ببینید، بیشتر است.
علّامه مجلسی (رحمه الله) در بحار بیست و دوّم فرموده: در قبّه شریفه، یعنی قبّه عسکری (علیه السلام) قبری منسوب به نجیبه کریمه عاقله فاضله تقیّه رضیّه، حکیمه دختر ابی جعفر الجواد است و نمی دانم چرا علما در کتب مزار با وجود ظهور فضل و جلالت او و اختصاصش به ائمّه (علیهم السلام) متعرّض زیارت او نشدند.
و محلّ اسرار ایشان و مادر قائم نزد او بود و هنگام ولادت آن حضرت، حاضر بود، در حیات ابی محمد عسکری (علیه السلام) گاه گاه آن حضرت را می دید و بعد از وفات آن جناب، او از سفرا و ابواب بود. پس سزاوار است زیارت کردن او به آن چه خداوند بر زبان جاری نماید، از آن چه مناسب فضل و شأن او است(49).
مرحوم بحر العلوم، بعد از نقل کلامی را از علّامه مجلسی (رحمه الله) در مزار بحار فرموده: عدم تعرّض برای زیارت آن مخدّره - چنان چه خال مفضال اشاره فرموده - عجیب است و عجیب تر از آن متعرّض نشدن بیشتر علما، مثل شیخ مفید در ارشاد و غیر او در کتب تواریخ و سیر و نسب، به حکیمه خاتون در اولاد حضرت جواد؛ بلکه بعضی دختران آن جناب را در غیر او حصر کردند(50).
شیخ مفید در ارشاد(51) فرموده: حضرت جواد (علیه السلام) از فرزندانش، علی (علیه السلام) را گذاشت که امام بود، بعد از او، موسی و فاطمه و امامه و غیر از آن چه نامیدیم، اولاد ذکوری نگذاشت. انتهی.
[گذاردن زبان در دهان حضرت حجّت]:
الثّالث: بدان در روایت موسی بن محمد بن قاسم بن حمزه بن موسی بن جعفر (علیه السلام) که در کیفیّت تولّد حضرت بقیّه الله وارد شده و شیخنا الصّدوق در کتاب کمال الدین(52) آن را نقل فرموده، به سندی عالی چنین است که حکیمه خاتون گوید: چون آن نور خدایی متولد شد، او را در جامه ای پیچیده، برداشتم و نزد حضرت عسکری (علیه السلام) بردم.
چون به حضور آن جناب رسید، به همان نحو که در دست من بود، بر پدر بزرگوارش سلام کرد. حضرت او را روی دو دست خود گرفت طوری که پای مبارک حضرت صاحب الأمر (علیه السلام) روی سینه شریف پدر بزرگوارش بود.
آن گاه امام حسن (علیه السلام) زبان مبارکش را در دهان آن جناب گذاشت و بر چشم و گوش و مفاصل او دست مالید تا آخر روایت که در مسکه چهارم از این عبقریّه ذکر شد.
[زبان علی اکبر در دهان امام حسین]:
این ناچیز گوید:
نکته تفاوت این فعل حجّت خدا از زبان گذاردنش به دهان حضرت بقیّه الله با فعل جدّش، حضرت سیّد الشهدا از گذاردن زبان علی اکبر به دهان خود، هنگام اظهار عطش و مراجعتش از میدان گاه، چنان که عبارت بحار یا «بنیّ هات لسانک فاخذ بلسانه فمصّه»، شاهد و گواه بر این دعوی و به نظر جلوه گر است، این است که این دو امام با دو فعل متفاوت خود - و الله یعلم - ، اظهار استعداد، قابلیّت، وعاء و ظرفیّت این دو امام زاده را اراده فرموده اند و خواسته اند مقام و مرتبه هریک از آن ها را بفهمانند.
چون اگر مقصود حضرت سیّد الشهدا از گذاردن زبان علی اکبر به دهان مبارک خود که از جانب خدا به سوی خلق ترجمان بود، این بوده که زبان علی از دهان مبارکش کسب رطوبت ظاهری بنماید، همانا انسب، زبان گذاردن سیّد الشهدا به دهان علی اکبر (علیه السلام) بود. چه آن که مجمع رطوبت دهان، زبان است و این امر مشاهد بالحسّ و محسوس بالعیان است.
بلکه می توان گفت: مقصود، کسب علوم و مقامات معنویّه و روحانیّه نمودن آن شاهزاده از دهان آن سلطان اقلیم وجود بود. چگونه چنین نباشد، حال آن که قلب و دهان امام تشنه لبان، خزانه علوم حضرت ملک منّان بود که و إن من شیء الّا عندنا خزائنه و ما ننزّله الّا بقدر معلوم و خدا داناست که چه چشمه ها از علوم ربّانی از آن سرچشمه معارف سبحانی، یعنی قلب و دهان آن سلطان عطشان، بر جان فرزندش حضرت علی اکبر جریان نمود؛ مانند رسیدن به قلب و جان حضرت امیر المؤمنین از قلب حضرت سیّد المرسلین.
آخر نازنین، دهان آن امام شهید، نه همان دهانی است که زبان معجز بیان رسول اکرم را می مکید؟ پس چگونه علی اکبر از آن دهان، شربت وصال ننوشد و بالکلّ چشم از این عالم کون و فساد نپوشد؟
و اگر خواهی بگو: از فعل آن امام تشنه جگر، نسبت به آن شبیه حضرت پیغمبر چنین استنباط می شود که اگر امام والا مقام زبان خود را به دهان آن جوان ناکام می گذاشت، قلبش محیط به قلب علی اکبر می شد و عدم توانایی و تحمّل آن جوان تمامی علوم آن امام را، از شمس ظاهرتر است.
فلذا امام حسین (علیه السلام) زبان جوانش را به دهان گذاشت تا این که آن جوان به قدر استعداد خود، از آن مبدأ فیض توشه ای برداشت.
و اما استعداد قلبیّه حضرت بقیّه الله و وعاء و ظرفیّتش برای تحمّل اسرار حضرت اله و وارثیّتش برای علوم تمامی انبیا و اوصیا، مقتضی این بود که پدر در دهان مبارکش زبان بگذارد و مقام ﴿یَکادُ زَیْتُها یُضِیءُ وَ لَوْ لَمْ تَمْسَسْهُ نارٌ﴾ (نور: 35) را درباره فرزندش بفهماند.
[قرائت کتب آسمانی توسط حضرت حجّت]:
الرابع: حافظ برسی در مشارق الانوار(53) از حسین بن محمد از حکیمه خاتون روایت نموده که گفت: چون حضرت بقیّه الله را نزد پسر برادرم حسن بن علی (علیهما السلام) آوردم، دست شریفش را بر روی انور او مالید که نور انوار بود و فرمود: سخن بگو ای حجّت خدا، بقیّه انبیا، نور اصفیا، غوث فقرا، خاتم اوصیا، نور اتقیا و صاحب کرّه بیضا!
پس فرمود: «أشهد أن لا اله الّا الله وحده لا شریک له و أشهد انّ محمّدا عبده و رسوله و أشهد انّ علیّا ولیّ الله»، آن گاه اوصیا را تا آن جناب شمرد.
امام حسن فرمود: بخوان!
سپس قرائت کرد آن چه بر پیغمبران نازل شده بود و به صحف ابراهیم ابتدا نمود و آن را به زبان سریانی خواند. آن گاه کتاب ادریس، نوح، کتاب صالح، تورات موسی و انجیل عیسی و فرقان محمد - (صلّی الله علیه و آله) و علیهم اجمعین - را خواند و قصص انبیا را (علیهم السلام) نقل فرمود.
[حکمت امر امام به قرائت کتب آسمانی]:
نکته:
سرّ استنطاق نمودن و امر امام حسن (علیه السلام) به خواندن کتب سماویّه نسبت به این جناب و اذان و اقامه گفتن جدّش، حضرت امیر المؤمنین هنگام تولّدش، شهادت به وحدانیّت خدا و رسالت حضرت خاتم الأنبیا، سلام نمودنش به آن جناب و استیذان نمودنش از حضرت رسول (صلّی الله علیه و آله) در خواندن کتب سماویّه، چنان که علّامه مجلسی (رحمه الله) در بحار(54) تاسع از کتاب روضه و فضایل نقل فرموده:
چون حضرت امیر المؤمنین (علیه السلام) متولّد شد و روی دست پیغمبر قرار گرفت؛ آن جناب می فرماید: دست راست خود را بر گوش راستش گذاشت، اذان و اقامه گفت و به وحدانیّت خدا و رسالت من شهادت داد. آن گاه به جانب من میل نمود و گفت:
السلام علیک یا رسول الله! بخوانم؟
گفتم: بخوان! به حق آن کسی که جان محمد در دست او است. آن گاه به خواندن صحف آدم شروع نمود و از حرف اوّل تا حرف آخر آن را خواند که اگر شیث زنده بود، اعتراف می کرد که علی صحف را بهتر از او می داند.
بعد از آن صحف نوح و ابراهیم، تورات موسی، زبور داود و انجیل عیسی را خواند که اگر ایشان نیز زنده بودند. به فضیلت او بر خود تصدیق می نمودند...، الی آخر الخبر.
بالجمله در نکته تکلّم و قرائت حضرت بقیّه الله بعد از استنطاق و امر پدر بزرگوارش به قرائت و تکلّم جدّش امیر المؤمنین و قرائتش بدون استنطاق حضرت رسول و بدون امر به قرائت فرمودنش؛ آن چه ابتدا در نظر جلوه گر است - و الله یعلم - این است که ولایت و امامت حضرت امیر المؤمنین (علیه السلام) بدوی و بالإصاله است با توجّه به حدیث اتّحاد نورین که نور حضرت رسالت و نور آن جناب می باشد، زیرا لازمه فرمایش حضرت رسول (صلّی الله علیه و آله) که فرموده اند: «کنت نبیّا و آدم بین الماء و الطّین»(55)، این است که درباره امیر المؤمنین هم، کنت ولیّا و آدم بین الماء و الطّین صادق آید.
چنان که در مؤلّفات بعضی از اعاظم همین لازم را هم به خبر نسبت داده و فرموده خبری به این مضمون از معصوم وارد شده و این مقام حضرت ولایت مآب، هم دوش با مقام پیغمبر و همسر با مرتبه آن سرور است، لذا به استنطاق و امر حضرت رسول (صلّی الله علیه و آله) به قرائت کتب سماویّه محتاج نبود و تنطّق و قرائتش بدون استنطاق و امر به قرائت، کاشف از مقام و مرتبه ولایت اصلیّه بدویّه آن جناب، در قبال نبوّت و رسالت حضرت خاتم النبیّین بوده به خلاف حضرت بقیّه الله.
چون ولایت و امامت آن بزرگوار، بالوراثه و به ترتّب است و با بودن پدر بزرگوارش بالاستقلال، از اظهار شؤون ولایت و امامت محجور است؛ اگر چه واقعا ولیّا، ولیّ خدا و حجّت بر ما سوی است و در چنین مقامی برای اظهار این شؤون با بودن امام سابق بر آن برگزیده حضرت بی چون، به استنطاق و امر به قرائت محتاج بوده است، و العلم عند الله الملک العلّام.
به بیان دیگر تفاوتی که در این دو مقام است، با توجّه به تفاوت مرتبه ای آن دو امام است؛ چون مرتبه امیر، مرتبه فاتح الولایه است بالاصاله و مرتبه حجّت، مرتبه خاتم الولایه است بالوراثه و ظهور التّفاوت بین المرتبتین ممّا لا یخفی علی ذوی العینین.
نکته تکلّم و قرائت این بزرگواران، تمامی کتب سماویّه را در وقت ولادت، در مجلس واحد در موهبت هفدهم از ضوء دوّم از نور دوّم از کتاب انوار المواهب، ملقّب به الکوکب الدّری و در نکت و لطایف بعضی از اخبار وارده که در اسامی و کنی و القاب و مناقب و فضایل حضرت امیر المؤمنین (علیه السلام) است، مرقوم افتاده؛ به آن جا مراجعه شود.
[بردن ملایکه آن جناب را به آسمان]:
الخامس: شیخ صدوق قدّس سرّه در کمال الدین(56)، کیفیّت ولادت حضرت بقیّه الله را به روایت محمد بن عبد الله مطهّری نقل فرموده تا آن جا که آن نور خدا متولّد گردید و حضرت عسکری آواز داد: ای عمّه! فرزندم را نزد من بیار!
نقل فرموده که حکیمه خاتون گفت: آن جناب را برداشتم و نزد آن حضرت آوردم. چون او را پیش روی پدر بزرگوارش نگاه داشتم؛ در دست من بود که بر پدر بزرگوارش سلام کرد. حضرت، آن جناب را از دست من گرفت و در آن حال مرغانی بال خود را بر سر آن جناب گسترانیدند.
پس حضرت یکی از آن مرغان را آواز داد و فرمود: او را بردار و محافظت کن و در هر چهل روز او را به سوی ما برگردان تا آن که حکیمه خاتون گفت، گفتم: این مرغ چه بود؟
فرمود: این روح القدس است...، تا آخر آن چه روایت آن در مسکه پنجم و هفتم نقل گردید.
[چند نکته در بردن آن جناب به آسمان]:
این ناچیز گوید: ظاهر این است که امر فرمودن حضرت عسکری به روح القدس که مهدی - صلوات الله علیه - را در هرچهل روز از ایّام رضاع برگرداند، با این که گاهی آن جناب را پیش از آن وقت می آورد، منافات ندارد.
چنان که در خبری، شب دوّم و در خبر دیگر، شب سوّم و در روایتی در شب هفتم ولادت او را دیدند که تمامی این ها در بحار نقل شده است، زیرا بر حسب وعده حضرت عسکری، آن جناب را به جهت خوردن شیر نزد نرجس خاتون می آورد در هر وقت که به آن محتاج بود.
برای استنباط نکته ای که در این حدیث شریف، در نظر داعی جلوه گر است، از رسم چند امر چاره نیست.
امر اوّل: آن است که مدّت رضاع، دو سال کامل است، چنان چه در قرآن مجید و فرقان حمید است که: ﴿وَ الْوالِداتُ یُرْضِعْنَ أَوْلادَهُنَّ حَوْلَیْنِ کامِلَیْنِ﴾ (بقره: 233) و عدد ایّام آن، هفت صد و بیست روز می باشد. چون هرسالی دوازده ماه و هرماهی غالبا سی روز است، کما هو الواضح.
امر دوّم: آن است که عدد اربعینات این هفت صد و بیست روز، هجده است، به عبارت اخری هفت صد و بیست روز، هجده، چهل روز است و هجده چهل روز، هفت صد و بیست روز می باشد، کما لا یخفی.
امر سوّم: آن است که یکی از شؤونات امام و ولایت کلیه آن بزرگوار، تربیت ما سوی الله از تمامی عوالم امکانیّه است من الذّرّه الی الدّره و من قضّها الی قضیضها، کما قال الله تعالی: ﴿وَ أَشْرَقَتِ الْأَرْضُ بِنُورِ رَبِّها﴾ (زمر: 69) و فی الروایه ربّ الأرض ای امام الأرض(57).
ذکر ارض در آیه مبارکه از باب تخصیص نیست که تربیت امام (علیه السلام) فقط به ارض منحصر باشد، زیرا اخبار کثیره مستفیضه، بلکه متواتره به تواتر معنویّه است که امام در تمامی عوالم الهیّه مربّی و سایس است و اغلب آن ها در کتب معتبره، مثل بحار و عوالم موجود است.
شاید ذکر خصوص ارض در آیه مبارکه، - و الله یعلم - به جهت این باشد که آن محسوس و مرئی و در نظر هرعاقل و غبّی است، مردم هم نوعا اهل حسّ و ظاهر و به ورای محسوس و مرئی غیر ناظرند.
فلذا ارض را ایثار به ذکر فرمود و بودن تربیت عوالم امکانیّه از مناصب امام، نزد شیعه اثنی عشریّه کالنّور فی الظّلام و بدون دغدغه و کلام است.
امر چهارم: آن است که بعضی از مفسّرین در ذیل آیه شریفه: ﴿الْحَمْدُ لله رَبِّ الْعالَمِینَ﴾ (فاتحه: 2) چنین گفته اند: بدان برای حضرت ربّ العالمین عالم های مختلفه از مخلوقات از دنیا و آخرت و ملک و ملکوت می باشد؛ در هرعالمی جنسی از مخلوقات روحانی و جسمانی آفریده و برای هرجنسی انواع مختلفه پدید آورده و در هریک خاصیّتی ورای خاصیّت دیگری نهاده و از هرنوعی اصناف متعدّده، متکوّن ساخته است.
چنان که مثلا از نوع ملایکه اصناف مختلفه تعیین فرموده، مثل کروبیّین، روحانیّین، حمله عرش، خزنه کرسی، سفره، برره و کراما کاتبین. بعد از آن ملایکه هر آسمان دارای صفتی می باشند؛ ملایکه هوا که ابر، باران و برف، رعد و برق در حکم ایشان است، ملایکه موکّل بر دریاها و مجالس علم، ملایکه ملقّی خیر در خاطر، ملایکه دافعه شیاطین از بنی آدم، ملایکه معقّبات که: ﴿لَهُ مُعَقِّباتٌ مِنْ بَیْنِ یَدَیْهِ وَ مِنْ خَلْفِهِ﴾ (رعد: 11)، ملایکه موت، ملایکه حیات و ملایکه خزّان بهشت و حوریان جنّت، ولدان و غلمان و خدمه اهل بهشت و دیگر اصناف که در حیّز حصر و احصا درنیایند؛ این مجموع را در یک نوع از اجناس مخلوقات پدید آورده است.
باقی انواع ممکنات و اجناس موجودات را بر این قیاس کن، از معادن و نباتات، اجسام کثیفه و لطیفه، جواهر و اعراض، الوان و طباع، خواص و صفات، نتایج و اشکال، هیأت و صور، معانی و اسرار، لطایف و حقایق، اشارات و نکات، علوم و معارف و عقاید و آن چه بر افلاک است از عرش و کرسی، لوح و قلم، بروج و سیّارات، ثوابت و منازل، بیت المعمور، سدره المنتهی، قاب قوسین، لا مکان و دیگر چیزهایی که «لا عین رأت و لا أذن سمعت و لا خطر علی قلب بشر»(58) صفت آن ها است و هیچ کس جز ذات حضرت احدیّت جلّ و علا از آن ها اطّلاع ندارد، چنان که فرموده: ﴿وَ ما یَعْلَمُ جُنُودَ رَبِّکَ إِلَّا هُوَ﴾ (مدثر: 31).
بالجمله نظر به اختلاف اخبار، در اعداد این عوالم، اختلاف است. در بعضی از اخبار، هزار هزار عالم، در بعضی سی صد و شصت و در بعضی چهل و آن چه در السنه و افواه، مشهور و در اغلبی از زبر و دفاتر مذکور است، این که آن ها هجده هزار عالم اند.
چنان که فاضل کاشانی در منهج الصّادقین غیر از این قول را نقل نفرموده و از وهب بن منبّه روایت نموده: برای حق تعالی هجده هزار عالم است که دنیا یکی از آن هاست، آن ها مساکن روحانیّات است و جز خدا عدد حصرشان را نداند.
[تعداد موجودات عالم]:
تشریق فیه تحقیق.
مرحوم عالم عارف شیخ محمد علی الزّاهدی الشّهیر بالحزین و المتخلّص به ساغر در کتاب جام الجمّ و مرآه هیئه العالم از محمد طاهر منجّم یزدی و او از ابو معشر بلخی در سبب این که مشهور است عدد موجودات عالم هجده هزار است، روایت نموده: فرموده است: دور کل، مشتمل بر سی صد و شصت هزار سال شمسی است.
هم او گوید: در احکام قرانات که هریک نوبت، مقارنه علوییّن واقع می شود، نوعی از انواع که قبل از آن موجود نبوده، از صحرای عدم به سرای وجود آید و چون زحل در سی سال و مشتری در دوازده سال، دور تمام می کند، پس هربیست سال، یک نوبت مقارنه، بینهما واقع شود.
زیرا مشتری در این مدّت زاید بر یک دور و هشت برج حرکت کرده، زحل نیز هشت برج، قطع نموده که در مدّت دور کل هجده هزار سال، قران واقع می شود. پس در دور کل و هجده هزار نوع از موت به فیض وجود حضرت بی چون؛ موجود شوند و این معنی هجده هزار عالم باشد.
مولانا جلال الدین محمد (رحمه الله) گفته است: در لغت فرس به چیز بزرگ و عظیم، هزار گویند. لذا مراد از هجده هزار عالم، عالم بزرگ و عظیم است که آن ده عقل، سماوات، چهار عنصر و سه موالید است. ممکن است این قول از معصوم باشد و هجده هزار عالم از انواع کواکب و حیوانات و غیرهما موجود باشد، و الله الخالق أعلم بالحقایق.
انتهی.
چون این امور دانسته شد، گفته می شود: شاید، - و العلم عند الله - نکته آوردن روح القدس، حضرت بقیّه الله را در هرچهل روز نزد پدر بزرگوارش و بازپس بردن آن سرور بعد از ملاقات، این باشد که آن بزرگوار در هراربعینی از آن، هجده اربعین، استعداد تربیتی خود را، برای هزار عالم از آن هجده هزار عالم تکمیل فرماید و این با فرمایش حضرات ائمه (علیهم السلام) منافات ندارد که فرموده اند: «إنّ عندنا العلم ما کان و ما هو کائن إلی یوم القیامه»(59).
چنان چه در روایت بصائر الدّرجات(60)، بنابر نقل علّامه مجلسی (رحمه الله) در بحار از حضرت صادق (علیه السلام) روایت شده است، زیرا در آخر آن خبر هم از آن سرور وارد شده؛ بعد از این که جهاتی از علوم خود را به ابو بصیر می فرماید؛ ابو بصیر عرض می کند: هذا و الله هو العلم.
حضرت می فرماید: این علم است، لکن آن علمی نیست که نزد خانواده ماست، که «ما یحدّث باللّیل و النّهار، الأمر بعد الامر و الشّیء بعد الشّیء إلی یوم القیمه». اگر آن بزرگواران علم بما کان و ما هو کائن الی یوم القیمه داشتند، پس چه باقی می ماند تا این که برای ایشان، علم به آن حاصل شود، در لیل و نهار به امری بعد از امری و به چیزی بعد از چیزی تا روز قیامت.
اخبار هردو طرف به حدّ استفاضه است و از این جاست که علمای اعلام در صدد جمع بین این دو طایفه از اخبار برآمده اند و سه وجه از جهت جمع میان آن ها گفته شده است:
وجه اوّل: این است که علم، آن نیست که از شنیدن و خواندن کتب، حاصل گردد و از حفظ آن چه در آن هاست، معلوم شود. چه این تقلید است، نه علم. بلکه علم آن است که روز به روز و ساعت به ساعت از جانب خدا بر قلب مؤمن افاضه شود، پس به سبب آن حقایق و معارف، منکشف گردد، آن چه که به وسیله آن، نفس، مطمئن شده، صدر منشرح و قلب نیز منوّر گردد.
وجه دوّم: این است که بر آن بزرگواران تفاصیلی افاضه می شود که مجملات آن ها نزد ایشان است؛ اگر چه برای ایشان ممکن باشد آن تفاصیل را از آن چه از اصول علم و موادّ آن نزد آن هاست اخراج نمایند و استنباط فرمایند.
وجه سوّم: این است که آن بزرگواران در دو نشأه، یعنی نشأه سابق بر حیات بذی و نشأه لاحقه بعد از فوت، در معارف ربّانیه غیر متناهیه بر اعلی مدارج کمال عروج می فرمایند، زیرا انتهایی برای معرفت و قرب باری تعالی نیست.
علّامه مجلسی (رحمه الله) در بحار(61)، وجه اخیر را تقویت نموده و فرموده است: این وجه از بسیاری اخبار استفاده می شود؛ ظاهر است که آن بزرگواران هرگاه در بدو امامتشان علمی را تعلیم گرفتند، در آن مرتبه نمی ایستند بلکه به سبب مزید قرب و طاعات، زواید علم و حکمت و ترقّیات - فی معرفه الربّ تعالی شأنه - بر ایشان حاصل می شود.
چگونه برای ایشان زواید علم و حکمت و ترقیّات در معرفه الله حاصل نشود! حال آن که این برای سایر خلق با وجود نقص قابلیّت و استعدادشان حاصل می شود.
بنابراین ائمّه (علیهم السلام) اولی به زواید و احرای به آن می باشند. از آن رو فرموده است:
شاید این یکی از وجوه استغفار و توبه آن بزرگواران باشد - در هرروزی هفتاد مرتبه یا بیشتر - زیرا هنگام عروج فرمودن آن بزرگواران به درجه رفیعه ای از درجات عرفان، می بینند در مرتبه سابق بر آن، در منقصت و نقصان بوده اند. لذا در آن درجه رفیعه، از درجه وضیعه ای که سابقا در آن بوده اند، استغفار و توبه می فرمایند. ترجمه عبارت علّامه مزبور تمام شد، البسه الله فی الجنّه من حلل النّور. انتهی.
[تکمیل امام در اربعینیّات]:
اعاده النکته بعباره طرفه:
از آن چه مذکور شد، معلوم گردید شخص شریف امام، آنا فانا به واسطه کمال استعداد و قابلیّت و وعاء و ظرفیّت وجودیّه اش در تلقّی فیوضات حضرت ربّ الأرباب در تزاید و تکامل است، چه مضایقه است که گفته شود حضرت امام زمان، قطب دایره امکان، در هریک از آن اربعینیّات هجده گانه زمان رضاع، اسباب تربیت و ایصال فیوضاتش را نسبت به هریک از آن هجده هزار عالم تکمیل و تحصیل فرموده باشد.
نکته اختصاص این موهبت خاصّه و عنایت مخصوصه - که تلقّی فیوضات در آن اربعینیّات باشد - به وجود شریف امام عصر و ناموس دهر، از میان ائمّه طاهرین و اسلاف معصومین آن بزرگوار، شاید به این لحاظ باشد: چون در علم الله گذشته که آن جناب در مدّت متمادیّه که مساوق با انقراض دنیاست؛ با نبودن حجّتی در میان خلق غیر از آن سرور، باید در پس پرده غیبت باشد و البتّه این شخص شریف، با چنین وصف منیف، باید اسباب تربیتش اکثر از خلایق و وسایل ایصال فیوضاتش اوفر از آن ها باشد.
حدیث مروّی در شرح باب حادی عشر فاضل مقداد که ذکر ائمّه در آن است «تسعه من ذریّه الحسین تاسعهم قائمهم أعلمهم و فی روایه أخری، تاسعهم، قائمهم افضلهم»(62).
مشعر بر دعوی است و آن چه در حدیث وصیّت است که پیغمبر در امر وصیّت به امیر المؤمنین فرمود: «و أنا أدفعها إلیک یا علی! و أنت تدفعها إلی وصیّک و یدفعها وصیّک إلی أوصیائک من ولدی واحدا بعد واحد، حتّی تدفع إلی خیر اهل الأرض بعدک الحدیث...»(63).
اشاره گر بر مدّعی است، به استثنای امام حسن و امام حسین (علیهما السلام). چون افضلیّت آن دو بزرگوار از حجّت غایب از انظار به حدیث: «هما سیّدا شباب اهل الجنّه»(64) و اجماع منقول در کلام بعض، اجلّه کالنّار علی المنار است. کما لا یخفی.
چنان که افضلیّت جدّ و پدر آن دو سرور، بر آن ها و بر ائمه دیگر کالنّقش فی الحجر ثابت و مستقر است. کما هو الواضح.
[روشن ساختن مطلب]:
تنویر فی تنظیر:
بدان نظیر این نکته که این ناچیز برای این خبر ذکر نمودم، نکته ای است که بعضی از محقّقین، آن را از برای حدیث شریف: «من أخلص لله أربعین صباحا، ظهرت له ینابیع الحکمه من قلبه علی لسانه»(65)، بیان فرموده اند، چنان چه در بحار و سایر کتب معتبره از اخبار مروی است.
چه در تعیین عدد اربعین چنین گفته: چون حق سبحانه و تعالی خواست آدم را به خلافت خود در زمین نصب کند و معمار جهان گرداند، اصل او را از خاک قرار داد تا مناسب این عالم باشد و آن را چهل شبانه روز ترشیح و تخمیر کرد.
چنان که فرموده: «خمّرت طینه آدم بیدی أربعین صباحا»(66)، هر صباحی از آن، اشاره به وجود صفتی در آدم است که سبب تعلّق او به این عالم گردید و هرتعلّقی برای او از مشاهده جمال، حجابی شود؛ هریک از آن حجب، سبب بعدی از عالم غیب و هر بعدی، علّت قربی به عالم شهادت تا وقتی که حجب متراکم شد، بعد، آن حضرت متأصّل گشت و صلاحیت عمارت این عالم در او تمام شد.
پس نکته تعیین چهل صباح این باشد - و الله العالم - که برعکس ترتیب اوّل، به هر صباحی، حجابی مرتفع شود و قربی پدید آید تا به وجود چهل صباح، حجب چهل گانه مرتفع و منکشف گردد.
[روایات عطسه]:
السادس: مسعودی - علیه الرحمه و الغفران - در اثبات الوصیّه(67) از علّان روایت نموده؛ گفت: نسیم که خادم حضرت امام حسن عسکری (علیه السلام) بود، به من خبر داد و گفت: بعد از ولادت حضرت صاحب الزّمان (عجّل الله فرجه) به یک شب، من خدمتش شرفیاب شده بودم، پس نزد آن سرور عطسه کردم، حضرت فرمود: یرحمک الله!
نسیم خادم گفت: مسرور شدم.
فرمود: آیا تو را در عطسه بشارت ندهم؟
گفتم: بلی!
فرمود: آن امان است از مردن تا سه روز.
این ناچیز گوید: که عطسه، بنابر آن چه حضرت بقیّه الله (عجّل الله فرجه الشریف) به نسیم خادم فرمود که امان است از مردن تا سه روز؛
هم چنین دلیل است بر صدق کلامی که در اثنای آن، عطسه واقع شود، چنان که شیخ کلینی در کافی از حضرت ابو عبد الله روایت کرده است که فرمود: قال رسول الله (صلّی الله علیه و آله): «إذا کان الرجل یتحدّث بحدیث، فعطس عاطس، فهو شاهد»(68).
نیز از جناب رسول مروی است که فرمود: «تصدیق الحدیث عند العاطس»(69).
هم چنین در آن کتاب از حضرت رضا (علیه السلام) روایت نموده که فرموده است:
«التّثاؤب من الشّیطان و العطسه من الله عزّ و جلّ»(70).
اشکوری بعد از نقل این روایات، در کتاب محبوب القلوب خود فرموده است: از کتاب نوادر الاصول نقل شده: «العطاس تنفّس الروح و سطوعه إلی الملکوت حنینا إلی قرب الله، لأنّه من عنده جاء و من لطفه و کرمه لعبده و لو لا الأرواح، لم ینتفع بهذه الجوارح؛ فإذا عطس المؤمن، فإنّما ذلک وقت ذکر الله لعبده و تعزّیه للرّوح بما وقع فیه من الضّیق؛ فإذا خلص، تاق الی موطنه، فتلک الصّیحه منه».
ایضا در محبوب القلوب در ترجمه ابو جعفر بن بابویه که از ملوک سیستان بوده، بعد از ستودن او به این عبارت «کان قویّا فی علم الّسیاسات مع المرّوه الظّاهره و العفاف الغالب و ضبط النّفس عند عارض الهوی»، گفته است: آورده اند که او بیش از حدّ، حکمت و حکما را دوست داشت و ساعتی بی حضور آن طایفه و مصاحبت ایشان به سر نمی برد؛ همواره مجلسی ترتیب داده، اهالی فضل نزد او حاضر می شدند و از هرقبیله درباره مسأله ای از مسایل متعلّقه به هرعلمی صحبت می کردند.
زمانی، ابو حیّان توحیدی و ابو اسحاق اسفراینی و جماعتی دیگر از فضلا و فقها و اهل ادب را نزد خود دعوت فرمود؛ و از هرمقوله ای صحبت به میان آمد، از جمله صحبت به این جا کشید که ابو جعفر گفت: در این مطلب چه گویید که چون در بین صحبت و حدیثی که به میان می آید، شخص عطسه کند، عطسه را دلیل و شاهد گیرند بر صدق آن حدیث و صحبتی که به میان آمده است.
پس تمامی علما و فضلایی که در آن جا حضور داشتند ساعتی سر به زیر انداخته، بعد از آن گفتند: أیّها الملک آن چه اکنون در باب عطسه ای که بین کلام می آید و گویند شاهد بر صدق خبر است، به خاطر می رسد، این است که عطسه از آثار و انذارات طبیعت و تابع زیادت و کمی اخلاط است.
عطسه، حرکتی خاصّه برای دماغ است به جهت دفع خلط یا موذی که از خارج به او برسد؛ به استعانت هوایی که استنشاق می شود و از طریق بینی دفع می گردد.
در زیادت اخلاط، مانند زکام است که طبیعت، آن را دفع می نماید، مانند سرفه ای که طبیعت، خلط موذی سینه را دفع می کند.
در کمی اخلاط، آثار قوّت دماغ است، در حالی که از زیادتی اخلاط نباشد؛ بیعت، اختیار می نماید و به مثل این قبیل اشیا اطّلاع می دهد از باب اطّلاع نفس انسانی بر اکثر امور که بر طبیعت ظاهر می شود و آن از باب سریان و جریان قوای نفسانی در خارج و داخل است و چون در ضمن حدیث طبیعت، عطسه آورد، آن را دلیل بر صدق امری آوردند که نیّت نمایند و بر حسن عاقبت و خاتمت آن دلیل گیرند.
ابو جعفر چون این بیانات را شنید، زیاد از حدّ آن را پسندید و مصدّق این بیانات را که با حکمت و طبّ موافق است ذیل حکایت قطب الدین محمد اشکوری، صاحب محبوب القلوب، آن احادیثی که از کافی و غیره نقل شدند، مذکور داشته.
ایضا او آورده است: برای هرحسّی از حواسّ ظاهر و باطن انسانی، وظیفه و شأنی برای عبادت صانع و خالق خود است. پس وظیفه قوّه سامعه، استماع کلام صدق و وظیفه زبان و قوّه نطقیّه، گفتن کلمات حقّه است. لذا هنگام رسیدن حدیث به قوّه سامعه، نفس از بابت شعوری که دارد، بر صدق آن اطّلاع پیدا می کند و در آن حال مستعدّ نزول رحمت خداوندی می شود. پس امر گردد به باد تا جریان کند در بدن او و مرور نماید در قوای انسانی و چون به دماغ عبور کند، منضغط و منقبض می سازد قوّه نفسانی را و حرکت می دهد بدن را بیشتر عطسه و خروج آن از راه بینی.
اما در ظاهر چنان می نماید که طبیعت خواهد خلط موذیی را که مرور می کند بر سطوح دماغ دفع کند و یک دفعه شخص را عطاس حادث می شود. پس در آن حال که طبیعت آن موذی از دماغ را که محلّ روح انسانی است، دفع کند، شکر خداوند تبارک و تعالی بر عاطس واجب است(71).
این ناچیز گوید: مرادش از وجوب، وجوب عقلی است نه شرعی، کما لا یخفی.
بالجمله فرموده است: شکر باری تعالی بر او واجب است، چنان که در حدیث وارد است: «إنّ الله یحبّ العطاس و یکره التّثائب، فاذا عطس، فحمد الله، فحقّ علی کلّ مسلم سمعه، أن یشمته»(72).
تشمیت، دعا نمودن عاطس به دوری از شماتت و نزدیکی به خیر و برکت است.
تسمیت به سین مهمله نیز روایت شده که از سمت باشد یعنی هیأت نیکو، حاصل آن که، دعا نماید او به شکل و هیأت نیکو بگردد، چون حین عطسه هیأت شخص از جهت عطاس برمی گردد، به این جهت صاحب عطاس را دعا کند.
عطسه مسامات را تفتیح، سنگینی بدن را زایل، سر را سبک، کدورت و تیرگی نفس را برطرف و روح حیوانی را مصفّی می کند.
بنابراین عطسه چیزی محبوب و مطلوب طبیعت و دلیل بر صحّت است، لذا حمد را عقب آن مقرّر فرموده اند.
تثائب، کشیده شدن عضلات فک است از جهت دفع فضولی که در عضلات فکّ محتبس شده که طبیعت، محض تمدّد عضلات را دفع کند. زیادی این حالت، یعنی تمدّد، انذار بر زیادت اخلاط و آمدن قشعریره است. این حالت که در انسان پیدا گردد، سبب غفلت و کسالت در امور دین و دنیا شود.
[عطسه حضرت آدم هنگام دمیدن شدن روح]:
این ناچیز گوید: مؤیّد بیانات فاضل نحریر در سرّ عطسه، نکته ای است که بعضی از ارباب تفاسیر، سرّ عطسه حضرت آدم هنگام دمیدن روح در بدن مبارکش و الحمد لله ربّ العالمین گفتن و جواب یرحمک ربّک از ساحت قدس حضرت واهب العطایا شنیدنش را به حیّز تحریر درآورده اند.
آن نکته، این است: زمانی که روح آن حضرت از در آمدن به قالبش امتناع می نمود، سبب آن، ظلمت خلقت بود که انّ الله خلق خلقه فی ظلمه(73) تا آن که از رشاش نور، قطره ای در مشام آدم چکانید که ثمّ رشّ علیه من نوره، چون بوی گلاب رشاش به دماغ آدم (علیه السلام) رسید، چنان که افراد زکام عطسه زنند، عطسه زد و گفت: الحمد لله ربّ العالمین.
گویا به او گفتند: ای آدم به موجب ﴿خُلِقَ الْإِنْسانُ ضَعِیفاً﴾ (نساء: 28)، چون قوای طبیعی ارباب جاه را ضعفی پیدا شود، منزل بدل می کنند و جا عوض می نمایند و به جایی می برند که در آن هوای دلگشا باشد. اکنون تو باید به بهشت روی. این بود که او را به بهشت بردند.
[متولّدین نیمه شعبان]:
السابع: آن که در بحار(74) از خطّ شیخ شهید نقل فرموده، از حضرت صادق (علیه السلام) روایت نموده که فرمود: همانا در شبی که قائم (علیه السلام) متولّد شده است، هیچ مولودی متولّد نمی شود مگر آن که مؤمن باشد و اگر در زمین اهل شرک متولّد شود، خداوند به برکت امام (علیه السلام) او را به سوی ایمان نقل فرماید.
این ناچیز گوید: مضمون این روایت منافی با اختیاری بودن ایمان و کفر در مکلّف است؛ چه اگر مراد، ایمان فطری باشد که تمامی مردم به مفاد «کل مولود یولد علی الفطره و إنّما ابواه یهوّدانه و ینصّرانه و یمجّسانه»(75)، بر این ایمان هستند و اگر مراد، ایمان کسبی باشد، باید به اختیار مکلّف حاصل گردد.
مگر این که گفته شود: خداوند درباره چنین مولودی، اسباب توفیق را توجیه می فرماید تا او ایمان فطری خود را به درجه فعلیّت و کسب و اختیار برساند و از روی اختیار، مؤمن گردد.
[اختفای امام حسن عسکری (علیه السلام) از شیعیان]:
الثامن: آن که شیخ مسعودی در اثبات الوصیّه(76) و حضینی در هدایه(77) نقل کرده اند: حضرت ابو الحسن صاحب العسکر (علیه السلام) خود را از بسیاری از شیعیان پنهان می کرد مگر از عدّه قلیلی از خواصّ خود. چون امر به حضرت امام حسن (علیه السلام) منتهی شد، از پشت پرده با خواصّ و غیر خواصّ تکلّم می فرمود؛ مگر در اوقاتی که برای رفتن به خانه سلطان سوار می شد.
این عمل از آن جناب و پدر بزرگوارش، پیش از او، برای غیبت حضرت صاحب الزّمان (عجل الله تعالی فرجه الشریف) مقدّمه بود که طایفه شیعه به این مألوف شوند، از غیبت وحشت نکنند و عادت در احتجاب و اختفا جاری شود.
این ناچیز گوید: از این که این دو بزرگوار علّت اختفا و احتجاب این دو امام را به روایت و حدیثی از معصوم اسناد نداده اند معلوم می شود از استنباط خود ایشان باشد.
بنابراین ممکن است گفته شود شاید یکی از علل اختفای آن بزرگواران نگاهداری هیمنت و ابهّت و هیبت خودشان در قلوب ضعفای شیعه بوده است.
چه خلیفه وقت آن دو سرور را زیاده از حدّ تحقیر نمود. چنان که نشاندن حضرت هادی در خان الصّعالیک، گوشزد هرحاضر و باری است.
هم چنین اهانات وارده بر حضرت عسکری از طغاه متّکیه بر حسان عبقریّ در کتب سیر و تواریخ، مذکور و در زیر احادیث و اخبار، مزبور و زبانزد هرنزدیک و دور است. «و الله العالم بأسرار أفعال امنائه و الحاکم بین عباده یوم فصل قضائه».
[اشکال در تولد حضرت حجّت (علیه السلام) و حضرت سجاد (علیه السلام)]:
التّاسع: بعضی از دانشمندان، در خصوص تولّد حضرت بقیّه الله از نرجس خاتون که به حسب ظاهر، نصرانیّه بوده و نیز در تولّد حضرت سیّد السّاجدین از شهربانویه که به حسب ظاهر زردشتیّه و گبر بوده، اشکالی وارد آورده و دو جواب به آن داده اند.
خوش دارم آن اشکال و دو جواب را به اختصار در این مقام و مضمار به رسم ارمغان و یادگار، ایراد نمایم.
فرموده: از نصوص متظافره ثابت و محقّق گردیده که انوار ائمّه (علیهم السلام) لا یزال در اصلاب شامخه و ارحام مطهّره نقل و انتقال می شدند، در وعاء طیّب و طاهر مکان داشته و از ارحام و اصلاب انجاس و اخباث مقرّ نگرفتند.
حال آن که مادران بعضی ائمّه، کافر بودند، مانند مادر خاتم الأوصیا، نرجس خاتون که در ظاهر نصرانی و مادر سیّد السّاجدین (علیه السلام) کافر بوده و از اصلاب و ارحام مذهب گبریّه به وجود آمده، مع ذلک وعاء انوار ائمّه گردیدند.
جواب اوّل: ولادت مولودهای نورانیّه، به دو لحاظ و اعتبار محقّق گردیده: یکی به اعتبار نورانیّت و دیگری به اعتبار و مادّه و صورت.
ولادت به اعتبار اوّل در تحقّق و وجود به لحاظ فعل و انفعال، تأثیر و تأثّر خواهد بود؛ بدیهی است این نحو از ولادت به مادّه احتیاج ندارد و در تمام موجودات من السّماء إلی الثّری، ساری و جاری است؛ ابوّت این مقام، به اعتبار نحوه و جنبه یلی الربّی است و امّیّت او، به اعتبار جنبه یلی النّفسی است، برای این که مناط در ابوّت به افاضه و فاعلی است و مدار امّیّت به استفاضه و انفعالی است - شبهه نیست که در تحقّق این نحو از ابوّت و امّیّت، افتقار به مادّه و هیولای عنصری نیست و همان جهات نورانی و لحاظ اشباحی، کافی است.
لذا موجودات مجرّد، از ملایکه و دون ملایکه از ارواح نورانیّه، به این نحو، متولّد گردیدند و دارای أب و أمّ شدند، برای آن که تمام آن ها ممکن اند و هرممکن، متولّد و منفعل است؛ أب فاعلی یلی الربّی و أمّ انفعالی یلی النّفسی دارند، لکن هرکدام از فاعل و منفعل، از نورند و أب و أمّ این مقام، محسوب از نورند.
چنان که در کافی شریف در وصف مؤمن، از حضرت صادق (علیه السلام) روایت نموده:
«المؤمن اخ المؤمن، ابوهما النّور و امّهما الرحمه»(78) و بدیهی است که این ولادت نوریّه، مادّه، مدّت، زمان و مکان لازم ندارد و در ساعت، خلق می شود. مولود آن ولادت، مصداق آیه ﴿وَ ما أَمْرُنا إِلَّا واحِدَهٌ کَلَمْحٍ بِالْبَصَرِ﴾ (قمر: 50) می گردد و به ابوین مادّی محتاج نمی باشد.
مانند حضرت آدم که پدر و مادر لازم ندارد و مانند حضرت عیسی (علیه السلام). چگونه می شود که حضرت عیسی و آدم (علیهما السلام) بدون پدر و مادر صوری موجود گردند، آیه الله شوند، با آن که مانند حضرت خلیل از شیعیان امیر المؤمنین (علیه السلام) و اولاد طاهرین او، بودند.
مسلّما تابع بر متبوع مقدّم نخواهد شد و الّا تابع نخواهد بود. پس ولادت ائمّه، اسبق از آن ها شده و الّا امام نبوده، ترجیح مفضول بر فاضل می شود و عقلا قبیح می باشد؛ از این جا هویدا می گردد که وجود ائمّه بدون پدر و مادر صوری، ممکن بوده زیرا در رتبه، پست تر و کمتر از آدم و عیسی (علیهما السلام) که از شیعیان ایشان بوده، نشده اند.
لذا حمل آن ها معلوم نبوده و وضع حمل به هرموضع از مواضع امّهات ایشان می شده، برای این که ولادت، ولادت نوریّه بوده و از برای ظهور نور، حاجب و مانعی نبوده؛ از هرکجا توجّه کند، ظاهر می شود و الّا نور نمی باشد. آن چه از مواضع وضع حمل، مذکور شده که از ران مادر بوده و یا از پهلوی او درآمده، من باب مثال بوده، و الّا هر نقطه، اقتضای خروج ایشان را داشته است؛ برای این که حال امام، مثل حال ناقه صالح بوده، که از سنگ ظاهر شد.
اما قسم دوّم از ولادت، ولادت مادّی و صوری بوده که به اعتبار هیولا و موادّ عنصری تولّد یافتند. یعنی در ظهور نور روحانی در موطن دار شهودی و دنیایی، محتاج به مادّه، مدّت، زمان و مکان می باشند؛ بدون این ها ظهور و وجود نمی یابند و در عالم اوّل خود می مانند.
به عبارت دیگر، آن نور، در ظهور به هیولای عنصری و استعداد مادّی نیاز دارد تا صورت بگیرد و موجود شود. در این نحو از ولادت، ترتّب آمده و مولود به أب و أمّ صوری و مادّی محتاج شده، چون نظم خلقت موجودات، این اقتضا را نموده است.
هرگاه امام برخلاف نظم خلقت، خلق می شد، موجب نقص بود، گرچه ناقص، امام نبوده است. علاوه بر این در ولادت مادّی، لحاظ، ظاهر مولود بوده، در واقع تولّد مولود، مترتّب بر مقتضای نظم خلقت بوده که در ظاهر هم باید بشود تا عنوان ظاهر به باطن تطبیق گردد.
لذا هرمولود هادی، پدر و مادر صوری لازم دارد، شکّی نیست که هیولای عنصری و لحاظ ولادت مادّی، قابلیّت هرگونه صورتی را دارد که در او نقش ببندد و مولود شود؛ هم قابلیّت قبول صورت نوری و اولیا و انبیا و مؤمنین را دارد و هم قابل قبول صورت عمری و اتباع او می باشد.
وقتی افاضه نور و صورت از فاعل صادر گردد، مادّه قابلیّت دارد به هرصورتی تحقّق گیرد، چون استعداد قبول هرصورتی را دارد، پس به هرصورت نقش بگیرد، به استعداد خودش شده و ربطی به فاعل و مفیض ندارد؛ چه نقش صورت عمری و اتباع او بگیرد، چه نقش صورت علوی و اتباع او. در هردو، به اختیار استعداد خود، اختیار استعدادی دارد و یکی را قبول می کند که به جاعل ربطی ندارد.
بنابراین مادّه ای که به صورت اشقیا نقش بسته، به اختیار خود بوده و خود او قصور کرده، پس تقصیر جاعل نبوده تا جبر لازم بیاید.
[رفع شبهه جبر]:
از این جا شبهه جبر در موجودات بعون الله و قوّته مرتفع شده، زیرا اختیارات، به استعدادات هیولا و مادّه عنصری راجع گردیده و از شؤون جاعل و فاعل فارغ شده؛ پس در واقع و نفس الأمر بعض از موادّ، استعداد صوری سعدا را داشت، هرچند از کافر متولّد شده، خودش طیّب و طاهر بوده، گرچه ولادت مادّی او از کافر بوده است.
لذا از کافر، مؤمن و از مؤمن، کافر تولّد یافته و این نبوده مگر به استعداد موادّ که در قبول صورت، مختار استعدادی بوده و آیه ﴿یُخْرِجُ الْحَیَّ مِنَ الْمَیِّتِ وَ یُخْرِجُ الْمَیِّتَ مِنَ الْحَیِ﴾ (روم: 19) به این نکات گواهی می دهد و از آن جایی که امام اگر چه از کافر متولّد شده باشد، موادّ قابله طاهره را تمیز می دهد، لذا کافر را برای قبول محل و ولادتش قبول می کند.
حکایت شهربانو، مادر سیّد الساجدین و نرجس خاتون، مادر خاتم المعصومین که آن ها را برای تحمّل حمل امام، پسندیدند و مقام استعداد ایشان را فهمیدند؛ هر چند از کافر متولّد شده اند و آیه ﴿وَ لا تَزِرُ وازِرَهٌ وِزْرَ أُخْری﴾ (فاطر: 18) بر این اشاره، گواهی می دهد. بنابراین مقرّ امام، همیشه در ارحام طاهره بوده است.
حکایت خواب شهربانو که در عالم اشباح حضرت صدّیقه و امام حسین و ائمّه (علیهم السلام) را دیده و پیش از آن که به دست مسلمین اسیر گردد، مسلمه شده و نیز حکایت نرجس خاتون قبل از این که برای حضرت عسکری خریده شود، بر این نکات دلالت دارد.
جواب دوّم: ممکن است مراد از اصلاب شامخه و ارحام مطهّره، طهارت از زنا باشد. یعنی انوار ائمّه (علیهم السلام) در اصلاب ولد الزنا قرار نمی گیرد؛ چون خبث ذاتی دارد.
چنان چه از کلام امام جعفر صادق (علیه السلام) استفاده می شود که مادر من، امّ فروه از اولاد قاسم بن محمد بن ابی بکر است که ابو بکر، طهارت مولد داشت.
شکی نیست که طهارت مولد هرمذهب به اعتبار احکام همان مذهب است. هر چند آن احکام در مذهب ما و اسلام باطل باشد و طهارت مولد نیاورد و نیز اولاد را از زنا بیرون نبرد، لکن همین که در آن مذهب زنا نشده، مولود، طهارت مولد دارد، زیرا شرع ما احکام هرمذهب را امضا فرمود و در شرع خود قرار داده: «ألزموهم بما ألزموه علی أنفسهم»(79).
لذا ممکن است حامل انوار عالیه نبوّت و امامت از اصلاب شامخه و ارحام مطهّره، یعنی طاهر از زنا بوده و چون در کیش و آیین خود به عقد نکاح درآورده، شرع هم آن را امضا کرده است.
پس صحیح شرعی شده، از ولد الزنا خارج گردیده، طهارت مولد پیدا کرده و وعاء انوار عالیه شده است.
امید است به همین مقدار که در این مقام اشاره شد، کفایت نماید و لازم به زیاده نباشد. و الله هو الهادی إلی الصّواب.
[ایراد کابلی بر زمان تولّد امام عصر (عجّل الله فرجه)]:
العاشر: آن که خواجه ملّا نصر الله کابلی، متعصّب عنید، در مطلب چهاردهم از مقصد چهارم از کتاب مواقع که ردّ بر امامیّه و مملوّ از اکاذیب و مزخرفات است، گفته: در میلاد آن حضرت، اختلاف کردند.
جمعی گفتند: متولّد شد صبح شب برائت، یعنی نیمه شعبان سنه دویست و پنجاه و پنج، بعد از گذشتن چند ماه از قران اصغر چهارم از قران اکبر، واقع در قوس و طالع، درجه بیست و پنجم از سرطان بود که زحل در دقیقه دوّم از سرطان و مشتری نیز در آن جا راجع بود.
مرّیخ در دقیقه سی و چهارم از درجه بیستم جوزا بود، آفتاب در دقیقه بیست و هشتم از درجه چهارم اسد و زهره در دقیقه بیست و نهم از جوزا بود. عطارد در دقیقه سی و هشتم از درجه چهارم از اسد و ماه در دقیقه سیزدهم از درجه بیست و نهم از دلو و رأس در دقیقه سیزدهم از درجه بیست و هشتم از حمل و ذنب در دقیقه پنجاه و نهم از درجه بیست و هشتم از میزان بود.
جمعی گفتند: صبح بیست و سوّم شعبان سنه مذکور متولّد شد که طالع سی و هفتم از درجه بیست و پنجم از سرطان بود. آفتاب در دقیقه بیست و هشتم از درجه دهم از اسد و عطارد در دقیقه سی و هشتم از درجه بیست و یکم از اسد بود.
زحل در دقیقه هجدهم از درجه هشتم از عقرب، مشتری و ماه در دقیقه سیزدهم از درجه سی ام از دلو، مرّیخ در دقیقه سی و چهارم از درجه بیستم از حمل و زهره در دقیقه هفدهم از درجه بیست و پنجم از جوزا بود و این اختلافات، نصّ است بر این که آن چه امامیّه گمان کردند، بدون ریبه افتراست.
و ما این کلام را با ردّ آن، که اوّلا: این ترتیب زایجه از مجعولات خود آن کابلی است و نسبت دادن آن به کتب غیبت، خصوصا به کتاب اعلام الوری، از اکاذیب است.
ثانیا: ضرر نداشتن آن به مدّعای ما که طول عمر حضرت بقیّه الله است، در اواخر عبقریّه پنجم از بساط سوّم که بالصّبح الأسفر ملقّب است و به کمال تفصیل، ایراد نموده ایم، مراجعه شود.
[اسامی حضرت نرجس خاتون]:
خاتمه للتّذنیبات، حاسمه للتّضلیلات:
در بشارت الظهور است که بدان در اخبار و احادیث، از مادر والا گهر نور الله الأقهر و سراج الله الأزهر، خاتم الأئمّه الاثنی عشر (عجّل الله فرجه) به اسما و القاب مختلفه کثیره تعبیر شده است.
به حسب ظاهر، چنان می نماید که در نام نامی و اسم سامی آن مهین صدف، بهترین گهر عزّ و شرف، اختلاف است. لکن بعد از تتبّع در اخبار، بر نقّادین آثار معلوم می شود که اختلاف در الفاظ از باب اختلاف در مسمّی نیست، بلکه از جهت تعدّد اسما و القاب برای شخص واحد است. شاهد این امر، خبری است که شیخ صدوق در کمال الدین (80) از غیاث بن اسد روایت کرده:
«قال: ولد الخلف المهدی (عجل الله تعالی فرجه الشریف) یوم الجمعه و أمّه، ریحانه و یقال لها، نرجس و یقال، صقیل و یقال، سوسن؛ إلّا أنّه قیل بسبب الحمل صقیل». گفت: حضرت خلف مهدی - صلوات الله علیه - در روز جمعه ولادت یافت.
مادر آن حضرت، ریحانه است و نرجس و صقیل و سوسن هم گفته می شود؛ جز این که در حمل او به سبب نورانیّتی که به نور مقدّس، در وی پدید شد، او را صقیل گفتند.
[بررسی ایرادات ابو الجحد گلپایگانی]:
چون این مطلب معلوم شد، بیا قدری در ادلّه محکمه ای نظر کن که جناب ابو الجحد، یعنی ابو الفضل گلپایگانی در مقام انکار وجود حضرت حجّت بن الحسن - ارواحنا فداه - در کتاب بحر العرفان اقامه نموده، اگر چه ذکر این خرافات و تعرّض جواب آن، مایه تضییع اوقات و اوراق کتاب است. لکن ما برای تفریح خاطر دوستان در سیر این بوستان، مختصری را ذکر می کنیم:
[گفتار ابو الجحد]:
دلیل بر این که این اعتقادات، یعنی مهدویّت پسر امام حسن عسکری (علیه السلام) در اوّل زمان رحلت امام حادی عشر، حضرت امام حسن عسکری نبوده، به چند وجه است:
وجه اوّل: آن که بعد از ارتحال آن حضرت، اکثر شیعیان آن بزرگوار به امامت جعفر، برادر آن حضرت معتقد شدند...، الخ.
وجه ثانی: آن که بعد از انتقال آن حضرت، به امر خلیفه، ابواب حجرات خانه حضرت را بند نمودند و تمام آن ها را مقفّل و مختوم ساختند؛ نیز خلیفه قابله ها را فرستاد تا آن که به دقّت، تمام جواری امام را تفحّص و تفتیش نمودند. پس از رسیدگی، احتمال حمل یکی از جواری می رفت. قابله ای بر او گماشت تا این که بطلان حملش معلوم و محقّق گردید.
بعد از تحقیق و رسیدگی، مخلّفات آن حضرت را قسمت کردند و اگر خلفی برای حضرت، باقی بود، هنگام تقسیم متروکات، حرفی گفته شده بود.
وجه ثالث: اسم پدرش با احادیث و اخبار اختلاف دارد، به این علّت که ضروری مذهب می دانند که قائم موعود باید از صلب امام حسن عسکری باشد و در بسیاری از کتب معتبره چون عوالم، بحار الانوار، حدیقه الشّیعه و غیره وارد شده که رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) فرمودند: إسمه إسمی و إسم أبیه، کاسم أبی (علیه السلام)(81).
[رفع ایرادات]:
وجه رابع: در اسم والده اش هم، محلّ خلاف است.
اقول: روایاتی را نقل کرده که در آن ها به اختلاف الفاظ از والده ماجده آن حضرت تعبیر شده، تا آن جا که گوید: بنابر احادیث مذکور، در نام مادرش، فی ما بین هشت نام خلاف است. در حقیقت معلوم و معیّن و مفهوم نیست در کدام سنه و ماه و روز متولّد شده، چنان که روایتی در سیزدهم شعبان، بنابر خبری دیگر، نیمه رمضان، در حدیثی، بیست و سوّم رمضان، به روایتی شب جمعه و در خبری روز جمعه.
اما سنه تولّد: در روایتی سنه دویست و پنجاه و چهار و روایتی پنجاه و پنج تا پنجاه و هشت، چنان که در بحار(82)، اصول کافی(83)، عوالم، انوار و غیره(84) مفصّلا مرقوم و مسطور است.
[دیگر ایرادات ابو الجحد و پاسخ آن ها]:
وجه خامس: در اختلاف تولّد است، چنان که در بحار از حکیمه نقل می کند:
قابله آن حضرت من بودم، چندی پس از تولّدش رفتم ولی مولود را ندیدم. از إمام حسن (علیه السلام) سؤال کردم.
فرمود: او را نزد خدا ودیعه گذاشتم.
از این حدیث، چنین مفهوم می شود که آن مولود از دنیا رحلت فرموده بود.
دیگر صاحب بحار الانوار(85) در باب تولّد می فرماید: ابراهیم بن ادریس می گوید:
امام حسن (علیه السلام) برای من گوسفندی فرستاده، فرمود: این را برای پسرم عقیقه نموده، بخور و به اهلش بده. به فرموده او عمل کردم و بعد از آن، به خدمت حضرت رسیدم، به من فرمود: پسرم وفات نمود.
در حدیقه الشّیعه(86)، روایتی از حکیمه نقل می کند: سه روز بعد از تولّد قائم، رفتم و مادرش را ملاقات کردم، لکن آن حضرت را ندیدم.
پس دالّ بر این است که آن مولود از دار دنیا به دار عقبی ارتحال فرموده، تا این که در صفحه 59 بعد از نقل کلام صاحب جنّات الخلود، گفته: با این اختلاف کثیره چگونه می تواند ضروری مذهب باشد که قائم موعود، باید از صلب امام حسن عسکری (علیه السلام) و بطن نرجس و حیّ و غایب باشد؟
این ناچیز گوید: از معجزات باهره و خوارق عادات ظاهره حضرت حجّه بن الحسن - عجل الله تعالی فرجه - است که از منکر آن ولیّ حضرت منّان در مقام اثبات انکار خود، چنین کلمات ظاهره البطلان و ادلّه واهیه البنیان صادر شود که مضحکه هر عارف و عامی و هردانا و نادان است.
اگر چه بحمد الله تبارک و تعالی، این جا خود حدّ معاند با تیشه قلم خویش، قدم عقل خود را شکسته و ریشه فضل خود را درآورده و برای بطلان خرافاتش جوابی در خور نیست؛ مع ذلک برای توضیح بر افهام بعضی برادران دینی، جوابی مختصر گفته می شود.
جواب از وجه اوّل: بعد از طلوع طلیعه جمال بی مثال آخرین حجّت خداوند ملک متعال، چون حضرت امام حسن عسکری (علیه السلام) در استتار و اختفای آن مظهر انوار حضرت ذو الجلال می کوشید، آن وجود مبارک را فقط به خواصّ اصحاب و محرمان اسرار، ارائه می داد و اکیدا به آن ها امر می فرمود که در حیات من، امر را مکتوم دارید، سپس شیعیان را بیاگاهانید.
لذا پس از ارتحال حضرت عسکری (علیه السلام) که اوان شدّت حیرت بود، عوام شیعه که خبایای امور بر آن ها مخفی و مستور بود، از راه این که زمین باید حجّت داشته باشد و آن ها فرزندی از امام حسن عسکری نمی دانستند، لذا متحیّر شده، راه اختلاف سپردند و برخی به امامت جعفر، معتقد گشتند. این که گفته اکثر شیعیان به امامت او معتقد شدند، کذب و افتراست. لکن در بدایت امر چنین بود، بعد از اندک زمانی که عوام شیعه به خواص رجوع نمودند و رشد از غیّ متبیّن گردید، بر آن ها معلوم شد که حضرت عسکری را فرزندی ارجمند و خلفی است که پایه جلالش بس بلند است.
فرق مختلف از عقاید خود رجوع نموده، بر امامت و مهدویّت آن حضرت، اتّفاق نمودند، چنان چه تا اواخر غیبت صغری، دیگر نشانی از آن فرق مختلف باقی نماند.
آن چه بر اهل خبر و سیر بیان گردید، کالشّمس فی رائعه النّهار، آشکار است.
جناب ابو الجحد در همان اخباری که وارد شده که مردم بعد از فوت امام حسن عسکری (علیه السلام)، جعفر کذّاب را تعزیت، سپس تهنیت می گفتند و به امامت و مهدویّت فرزند آن بزرگوار تصریح شده و اخباری که متضمّن این معناست. اوّل، برای حضرت عسکری (علیه السلام) فرزند اثبات می کند و بعد از آن، اشتباه بعضی از عوام شیعه را بیان می نماید.
اگر آن اخبار صحیح است، مبدأ و منتهی همه صحیح و اگر فاسد است، همه فاسد می باشد. ایمان به بعض و کفر به بعض یعنی چه؟ ﴿أَ فَتُؤْمِنُونَ بِبَعْضِ الْکِتابِ وَ تَکْفُرُونَ بِبَعْضٍ فَما جَزاءُ مَنْ یَفْعَلُ ذلِکَ مِنْکُمْ إِلَّا خِزْیٌ فِی الْحَیاهِ الدُّنْیا وَ یَوْمَ الْقِیامَهِ یُرَدُّونَ إِلی أَشَدِّ الْعَذابِ وَ مَا الله بِغافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُونَ﴾ (بقره: 85).
جواب وجه ثانی: خلاصه وجه دوّم این است که چون زمان تقسیم ترکه حضرت عسکری (علیه السلام)، کسی پیدا نشد که بگوید من پسر آن حضرت هستم، ارث مرا بدهید، پس معلوم می شود برای آن حضرت، فرزندی نبوده.
در حقیقت این سخن در قبال شیعه اثنا عشری، بی نهایت مضحک است. زیاده از دو هزار خبر معتبر در تحتّم غیبت برای مهدی موعود وارد و بیش از هزار سال است که در همه اعصار و امصار، چندین کرور شیعه اثنا عشری، تمام اصقاع عالم را پر از ناله و رنین و آه آتشینشان کرده اند که امام دوازدهم به حکم حضرت علّام الغیوب از انظار اغیار مخفی و محجوب است.
در هردوره، علمای این مذهب، کتاب ها نگاشتند و دفترها پرداختند و مطابق اخبار متواتره، غیبت امام ثانی عشر را با ادلّه قاطع، روشن و مبرهن نمودند و از روی احادیث متکاثر، مدلّل داشته اند که حمل و ولادت مهدی موعود، از بیم فراعنه این امّت، بر سنّت حضرت کلیم است.
شما تازه از خواب گران بیدار شده، دست به چشم خود نمالیده، می گویید: چون نیامده با جعفر کذّاب معارضه کند و دعوی ارث نماید، پس وجود نداشته. به راستی شما مثل آن کرد هستید که به امر حاکم، مفلسی را بر شترش سوار کرد و از بامداد تا شام در هرکوی و بازار گردانید و منادی جلویش ندا داده است.
شعر:
مفلس است و او ندارد هیچ چیز * * * قرض تا ندهند او را یک پشیز(87)
کرد صاحب شتر، از صبح تا شام با منادی دوید و ندای او را شنید. شب هنگام، مفلس به زیر آمد، راه سرای خویش پیش گرفت، کرد گریبانش را گرفت و از او کرایه شتر خواست. مفلس به آن کرد بی مایه گفت:
طبل افلاسم به چرخ سابعه * * * رفت و تو نشنیده ای این واقعه
گوش تو پر بوده است از طمع خام * * * پس طمع کر می کند گوش ای غلام(88)!
آری طمع و غرض، گوش دل را کر و چشم دل را کور می کند. ﴿صُمٌّ بُکْمٌ عُمْیٌ فَهُمْ لا یَرْجِعُونَ﴾ (بقره: 18).
چون غرض آمد، هنر پوشیده شد * * * صد حجاب از دل به روی دیده شد(89)
سبحان الله! کسی که پدران بزرگوارش، حالات و خصایص او را پیش از ولادت، خبر دادند که حمل و ولادت، رضاع، نشو و زندگانی او مخفی است، بلکه از شرّ اعادی، امر فرمودند به نام مبارکش تصریح نکنند و از او به القاب و کنایات و تلویحات و اشارات، تعبیر نمایند؛ کدام عاقل، عدم ظهورش برای دعوی ارث را دلیل عدم وجود او قرار می دهد؟
جناب ابو الجحد! مگر شما این خبر را ندیده اید که در حق مهدی موعود فرمودند:
«و هو الّذی یقسّم میراثه و هو حیّ»(90)، چنان چه در اخبار بشارت امام حسین (علیه السلام) گذشت و جدّ دیگرش هم حضرت باقر (علیه السلام) فرمود: «انّ للغلام غیبه قبل أن یقوم و هو المطلوب تراثه»(91)، چنان چه در احادیث بشارت آن حضرت، روایت شد.
جناب ابو الجحد خود نوشته اید که خلیفه، قابله ها را بر جواری آن حضرت فرستاد تا این که به دقّت تفحّص نمودند و بر یکی از آن ها که احتمال حمل می رفت، قابله ای گماشت تا بطلان حملش معلوم شد.
﴿اقْرَأْ کِتابَکَ کَفی بِنَفْسِکَ الْیَوْمَ عَلَیْکَ حَسِیباً﴾ (اسرا: 14). از شما می پرسم این دقّت و اهتمام خلیفه برای چه بود؟
اگر بگویی برای به دست آوردن حمل و کشتن او بود؛ چنان چه مفادّ اخبار متواتره است، پس فرزند امام حسن عسکری (علیه السلام) چگونه خود را ظاهر نمود و اگر بگویی اهتمامات خلیفه از روی شفقت و عطوفت و برای ترتیب ارث بوده، بر هیچ کس پوشیده نیست که این سخن فقط از روی عناد و الحاد است و در حقیقت مایه رسوایی خود توست. آری:
چون خدا خواهد که پرده کس درد * * * میل او بر طعنه پاکان برد(92)
جواب وجه ثالث: بدان، اخباری که در خصوص حضرت مهدی موعود وارد شده، بر سه قسم است:
بسیاری از اخبار نسبت به نسب آن برگزیده پروردگار، لسانی ندارند. در بیش از دویست خبر معتبر مرویّه از طرق عامّه و خاصّه که ما همه را با اسناد آن ها در این کتاب ذکر نمودیم، تنصیص و تصریح شده که قائم منتظر و مهدی موعود، امام ثانی عشر، فرزند صلبی امام حسن عسکری (علیه السلام) می باشد.
اخبار دیگر که در آن ها تصریح نشده، لکن ظهور دارند یا تلویحا و اشارتا دلالت دارند، از حوصله شمار خارج اند.
یک صنف از اخبار روایت شده از طریق عامّه و خاصّه، که مضمون آن ها یکی است، هرچند در الفاظ مختلف اند این است: «لو لم یبق من الدّنیا الّا یوم واحد، لطوّل الله ذلک الیوم، حتّی یبعث الله رجلا منّی یواطی، اسمه اسمی. یملأ الأرض قسطا و عدلا، کما ملئت جورا و ظلما»(93).
سلسله این اخبار متّحد المآل، به چهار نفر منتهی می شود: امیر المؤمنین (علیه السلام) و امّ سلمه، ابو سعید، عبد الله مسعود و ابو هریره و در تمامی آن اخبار فقط اسمه اسمی می باشد، مگر در خبری که ابی داود سجستانی از عامّه در سنن از طریق زائده از عاصم روایت کرده و شیخ طوسی از خاصّه در کتاب «غیبت» از علی بن قادم، از قطر، از عاصم روایت کرده.
اما محدّثین عامّه خبری که ابی داود روایت کرده تضعیف کرده اند و نزد آن ها از درجه اعتبار ساقط و برای بی اعتباری آن کافی است؛ آن چه را ابو عبد الله محمد بن یوسف گنجی شافعی - که از او در لسان عامّه به شیخ و حافظ تعبیر می شود - در کتاب البیان(94) فی اخبار صاحب الزّمان بیان فرموده و ما ترجمه عبارات او را عینا ذکر می کنیم.
پس از ایراد خبر گفته، ترمذی این خبر را ذکر کرده و لفظ «و اسم ابیه، اسم ابی» را ذکر نکرده، ولی ابی داود این کلمه را در روایت خود ذکر نموده. در معظم روایات حفّاظ و ثقات ناقلین اخبار، فقط «اسمه اسمی» می باشد و آن کس که «و اسم ابیه اسم ابی» را روایت کرده مردی زائده نام است و عادت او این بوده که بر احادیث می افزوده است.
بر فرض که این خبر صحیح باشد، معنی آن، این است که کنیه پدر او، یعنی حسین، نام پدر من یعنی ابو عبد الله است. در این مقام، اسم گفته و کنیه اراده فرموده است. کنایه از این که او از فرزندان حسین است نه حسن و محتمل است که فرموده باشد: «اسم ابیه، اسم ابنی» یعنی نام پدرش، نام پسر من است که حسن باشد، زیرا نام پدر مهدی نیز حسن است.
پس راوی به وهم افتاده، تصحیف نموده و ابنی را ابی گفته است. بنابراین حمل خبر بر این معنی واجب است تا میان روایات جمع شود و این تکلّفی در تأویل این روایات است.
قول فصل در خصوص این خبر آن است که امام احمد حنبل با کمال حفظ و اتقانی که در نقل احادیث دارد؛ این حدیث را در چند موضع مسند خود، بدون کلمه «و اسم ابیه اسم ابی» روایت کرده است.
این ناچیز گوید: بعد از روایت خبر به سند متّصل از احمد بن حنبل، حافظ ابو نعیم نیز، طرق این حدیث را از جمع بسیاری در کتاب مناقب المهدی گفته و جمع کرده که تمامی آن طرق به عاصم بن ابی النّجود از زرّ بن جیش از عبد الله مسعود از حضرت رسول (صلّی الله علیه و آله) پیوند گیرد.
اقول: سی و یک نفر را نام برده که اغلب به طرق کثیره، سند خبر را به عاصم متّصل کرده اند. بعد گفته تمامی این اشخاص، «اسمه اسمی» را روایت کرده اند مگر خبری که از طریق عبید الله بن موسی از زائده از عاصم روایت شده، او منفردا «و اسم ابیه اسم ابی» را روایت کرده و به هیچ عاقل شکّ و تردیدی روی ندهد در این که به این زیادت اعتباری نیست به جهت اجتماع ائمّه فنّ برخلاف آن. چون این مقدّمه معلوم شد، در جواب گوییم:
اوّلا: این خبر که بر این زیادت مشتمل است؛ نزد مهره فنّ حدیث و افاخم محدّثین خود عامّه، در نهایت وهن و به کلّی از درجه اعتبار ساقط است.
ثانیا: این خبر نزد امامیّه، با قطع نظر از معایب متوجّه به آن، به هیچ وجه، حجّت ندارد؛ چه مروی ابو داود و چه مروی شیخ طوسی، زیرا روات این خبر، امامی مذهب نیستند.
ثالثا: بر فرض صحّت این خبر، چون در مقابل، اخبار متواتره قطعیّه دارد، از قبیل شبهه در بدیهیّات است. به طور کلّی هرگاه، خبر شاذّ نادری، هرچند در نهایت صحّت باشد، با اخبار متواتره قطعیّه معارض شود؛ قانون عقلایی این است که اگر قابل توجیه باشد، توجیه می شود و گرنه مطرود و مردود و مضروب بر جدار است.
[تأویل علما بر خبر اسم ابیه اسم ابی]:
علمای عامّه و خاصّه نیز برای این خبر توجیهاتی کرده اند:
اوّل: آن که ابی، مصحّف ابنی باشد، چنان که شیخ حافظ گنجی شافعی گفته و ما برای این توجیه شاهدی داریم که خبر مروی از امالی شیخ طوسی(95) است، چنان چه در بشارات مطلقه رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) در مقصد اوّل، مسطور گردید.
دوّم: آن که مراد از پدر، جدّ و مراد از اسم، کنیه باشد. چنان چه محدّث مزبور اجمالا اشاره نمود، بنابراین توجیه معنی عبارت خبر این می شود: کنیه جدّ او، نام پدر من، یعنی ابو عبد الله است. الشیخ الامام کمال الدین بن طلحه شافعی این توجیه را به تمهید دو مقدّمه، وجیه نموده:
اوّل: آن که در زبان عرب، اطلاق لفظ پدر بر جدّ اعلی، شایع است، چنان چه خدا فرموده ﴿مِلَّهَ أَبِیکُمْ إِبْراهِیمَ﴾ (حج: 78). هم چنین خدای تعالی از یوسف حکایت فرموده ﴿وَ اتَّبَعْتُ مِلَّهَ آبائِی إِبْراهِیمَ﴾ (یوسف: 38) و در حدیث معراج است که جبرییل گفت: «هذا ابوک إبراهیم»(96).
مقدّمه دوّم؛ آن که لفظ اسم بر کنیه و صفت اطلاق می شود، چنان چه بخاری(97) و مسلم(98) روایت کرده اند: «إنّ رسول الله سمّی علیّا أبا تراب و لم یکن اسم أحبّ إلیه منه». بعد از این دو مقدّمه گفته: چون حجّت از فرزندان حضرت ابی عبد الله الحسین (علیه السلام) است، پس حضرت رسول لفظ اسم را بر کنیه اطلاق فرموده و این طریق جامع اشارتی موجز به بودن حجّت منتظر از فرزندان حسین (علیه السلام) است.
توجیه سوّم: آن که چون کنیه امام حسن عسکری (علیه السلام) ابو محمد است، پس اسم بر کنیه اطلاق شده است. این توجیه را مجلسی (رحمه الله) از بعضی معاصرین خود نقل فرموده. ما در صبیحه پنجم از عبقریّه اوّل از بساط سوّم، این خبر زائده را با توجیهات آن به کمال تفصیل ذکر نموده ایم، مراجعه شود.
خلاصه کلام: آن که بر هیچ منصف خردمند و فرزانه هوشمند پوشیده نیست با وجود آن همه اخبار متکاثره و نصوص قطعیّه متواتره که ما در این کتاب ذکر نمودیم؛ به واسطه یک خبر غیر معتبر مردود متشابه که صراحتی هم برخلاف ندارد، نام پدر حضرت مهدی موعود را مختلف فیه شمردن، راه لجاج و عناد سپردن و صرف چشم پوشیدن از حق و حقیقت است، فماذا بعد الحقّ إلّا الضّلال.
[رفع اختلاف در اسم مادر امام زمان (عجّل الله فرجه)]:
جواب وجه رابع:
اوّلا؛ سابق بیان شد که در اسم والده ماجده حضرت حجّه بن الحسن - ارواحنا له الفدا - اختلاف نیست. بلکه در هرخبری از آن مخدّره عظمی به لقبی از القاب مبارکه تعبیر شده.
ثانیا؛ بر فرض که در اسم مادر آن حضرت، اختلاف باشد؛ اختلاف در اسم مادر کسی، دلیل بر عدم وجود آن کس نمی شود، چنان چه در اسم مادر بسیاری از بزرگان عالم که از آن جمله، غالب ائمّه هدی (علیهم السلام) هستند، اختلاف است.
ثالثا؛ بر فرض که اسم مادر آن حضرت به هیچ وجه معلوم و مذکور نباشد، ابدا به ضرورت وجود آن غایت ایجاد هرموجود ضرری نمی رساند. زیرا ما بالضروره به موجود شدن حضرت نوح، ادریس، ابراهیم و بسیاری از عظمای سلاطین و علما و حکما و از جمله مردان تاریخی دنیا علم داریم، با این که به اسم مادر آن ها علم نداریم.
پس بنابر بیان ابو الجحد باید علم بطلان محض و لیس صرف و عدمیّت بحث بر صفحه وجود جمیع رجال بزرگ و اشخاص تاریخی دنیا که اسم مادرشان بر ما معلوم نیست، کشیده شود.
رابعا؛ بر خردمندان پر هویداست که کثرت اختلاف در جزییّات و فروعات امری از امور، با اتّفاق در اصل و ما به الاشتراک کل، دلیل بر ثبوت و تحقّق و وجود اصل مشترک است نه برهان بر عدم و نفی او.
از عقلای عالم انصاف می خواهیم که حکایت شخص واحد از واقعه ای بیش تر مایه حصول علم و یقین به اصل واقعه می شود یا حکایت جمعی کثیر با اختلاف در جزییّات و اتّفاق در اصل وقوع.
جناب ابو الجحد از شما سؤال می شود اگر یک خبر در اسم مادر حضرت حجّه بن الحسن (علیه السلام) و کیفیّت ولادت آن حضرت روایت شده بود؛ اصل وقوع ولادت را بهتر اثبات می نمود یا روایات کثیره وفیره که به زبان واحد، وقوع ولادت را حکایت کنند و نهایتا در نام والده آن حضرت و پاره ای جزییّات دیگر، به اختلاف سخن رانند.
خامسا؛ پس از وضوح جواب سابق می گوییم؛ بحمد الله شما من حیث لا یشعر، خواستید قدح کنید، مدح کردید. اراده فرمودید نفی نمایید، اثبات کردید. زیرا اگر فقط همین اخباری که شما در اثبات اختلاف اسم والده حضرت حجّه بن الحسن (علیه السلام) و اختلاف تاریخ ولادت و سایر اختلافات ذکر کرده اید، وجود داشته باشد، هر آینه برای ما کافی است.
چه این اخبار کثیره که متواتر یا قریب به حدّ تواترند، اصل ولادت و وجود و حیات آن حضرت را که ما به الاشتراک کل است، بالقطع و الیقین، برای غیر معاند متعصّب، ثابت می نماید.
بدیهی است که شما وجود باب و بها را به این درجه نمی توانید اثبات کنید، قال عزّ من قائل: ﴿وَ لَئِنْ سَأَلْتَهُمْ مَنْ خَلَقَ السَّماواتِ وَ الْأَرْضَ لَیَقُولُنَّ اللهُ﴾ (لقمان: 25؛ زمر: 38).
[استدلال دیگر ابو الجحد و پاسخ وی]:
از این مضحک تر و بامزه تر استدلال او بر عدم ضرورت بودن مهدی موعود، فرزند صلبی امام حسن عسکری (علیه السلام) نزد شیعه اثنا عشریّه، در همین وجه رابع به اختلاف در تاریخ ولادت آن حضرت بر حسب روز و ماه و سال است.
خلاصه سخن او این که: چون خبری بر وقوع ولادت در روز جمعه، خبری در ماه شعبان و خبری در ماه رمضان دلالت دارد، هکذا در سال نیز اختلافاتی است، پس ضرورت وجود او باطل است.
جواب:
اوّلا؛ عرض می کنیم: الحق، جناب ابو الجحد با اقامه این ادلّه محکمه متقنه بر نفی وجود و مهدویّت حضرت حجّه بن الحسن (عجل الله تعالی فرجه الشریف) ارواحنا لتراب مقدّمه الفداء، روان جناب میرزا علی محمد باب و میرزا حسینعلی بهاء را از خود شاد و خرسند، چهره بابیان و بهاییان را سفید و درخت آرزوی آنان را شاداب و برومند فرموده اند.
ثانیا؛ با کمال ادب خدمت جناب ابو الجحد عرض می کنم؛ دیگر ما از شما گله نداریم که چرا وجود فرزند امام حسن عسکری (علیه السلام) را منکر هستید؟
زیرا بنابراین بیان، شما باید کلیّه وقایع عظیمیه تاریخیّه عالم را که سایر ملل بر وقوع آن متّفق اند، منکر شوید، بلکه رجال بزرگ دنیا که ضروری الوجودند را غیر مولود پندارید.
برای این که اگر بخواهید یک واقعه مهمّه نشان بدهید که در روز یا ماه یا سال و یا جمیع آن ها اختلاف نباشد، نمی توانید؛ چرا که تواریخ دنیا ما را ملزم می کند که در جزییّات کلیّه حوادث مهمّه ضروریّه الوقوع، اختلاف واقع شده، خواه آن واقعه مختص به قوم و ملّتی باشد یا نباشد.
مثلا در دوره اسلامیّه، اختلاف تاریخ وقوع حادثه عظمی، مصیبت کبرا، داهیه دهیا؛ شهادت حضرت سیّد الشّهدا (علیه السلام) از جمیع وقایع بزرگ اسلامی کمتر است. زیرا به اتّفاق جمیع محدّثین و مورّخین در روز دهم محرّم که به عاشورا معروف است، واقع شده. مع ذلک در این که جمعه بوده یا شنبه یا دوشنبه، اختلاف است.
اگر بگویید: اختلاف در تاریخ جزئیّات آن وقایع، ضرری به ضرورت اصل وقوع واقعه ندارد، در جواب گوییم: ولادت و وجود حضرت حجّت بن الحسن (عجل الله تعالی فرجه الشریف) نیز چنین است و اگر بخواهید فرق بگذارید، البتّه تفکیک شما، تحکّم و بلا دلیل خواهد بود.
پس میان دو امر مخیّرید؛ یا اختلاف در تاریخ ولادت و نام مادر و سایر جزییّات احوال فرزند صلبی حضرت عسکری (علیه السلام) را با ضرورت وجود او منافی ندانید، یا ضرورت وجود جمله انبیا و اوصیا و ضرورت تحقّق بسیاری از حوادث فخیمه عالم را نیز انکار کنید.
اگر شقّ اوّل را اختیار می فرمایید؛ نعم الوفاق و اگر مختار شما قسم ثانی است، دیگر حق ندارید به آیات کتاب عهد عتیق و عهد جدید، آیات قرآن مجید، احادیث نبویّه و اخبار ائمّه (علیهم السلام) استدلال نمایید، چون وجود هیچ یک نزد شما مسلّم نیست، زیرا در تاریخ ولادت و وفات و جزییّات حالات تمامی آنان، اختلاف است، هم چنین نام مادر اغلب آن ها غیر معلوم و یا مختلف فیه است. فأختر لنفسک ما شئت.
ثالثا؛ شما با این سلیقه و طریقه از عهده اثبات چه امری از امور می توانید برآیید؟
اگر کسی از شما بخواهد وجود باب و بها را اثبات کند، با این مسلک به کدام دلیل می توانید وجود آن ها را ثابت نمایید و خصم خود را ملزم کنید. خوب است در مقام نفی دیگران، یک پرده از پیش چشم خود برداشته و برای خود راه اثباتی باقی گذارید.
رابعا؛ چرا این کارخانه قوّه سوفسطاییه را فقط در وجود و مهدویّت حضرت حجّه بن الحسن (علیهم السلام) به کار می اندازید؟
به میدان اثبات میرزا علی محمد و الوهیّت میرزا حسینعلی که قدم می گذارید، قلب ماهیّت شما شده؛ گذشته از این که آن خیالات و توهّمات سوفسطاییه، به کلّی از کلّه شما بیرون می رود، اوّل قطّاع دنیا و نخست خوش باور عالم می شوید. عمومات و مطلقات و متشابهات را نصّ صریح و خبر واحد شاذّ ضعیف را متواتر صحیح می شمارید. حدیث «إذا سمعتم بالمهدی فاتوه فبایعوه»(99) را برهانی قاطع بر مهدویّت باب می دانید و هرخبر که در لفظ عجم یافت شود، دلیل ساطع بر الوهیّت میرزا حسینعلی می پندارید.
همانا شما آن مرد بنی اسراییلی را مانید که حضرت موسی پس از عودت از میقات پروردگار، او را بر پرستش گوساله معتکف دید. در معرض عتابش درآورد و فرمود: تو آن همه معجزات و خوارق عادات از من دیدی، مع ذلک در پذیرفتن من به پیغمبری، اندیشه ها نمودی و به گمان خود، فطانت و متانت ورزیدی؛ لکن آن اندیشه ها چه شد که با یک صدای گاو بر الوهیّت آن، یک دل و یک جهت شدی؟
عجب این است که این مرد با این درجه عناد و الحاد، سینه پر غرض و دل پر مرض، انحراف از مسلک استقامت و انصاف، انغمار در لجّه لجاجت و اعتساف و اعراض و اغماض آن حق، و انهماک در باطل و اعمال اعلی درجه لجاج و اعوجاج در مقام استدلال و احتجاج - که بر هیچ منصف پوشیده نیست - آیه وافی هدایت:
﴿وَ الَّذِینَ جاهَدُوا فِینا لَنَهْدِیَنَّهُمْ سُبُلَنا﴾ (عنکبوت: 69) می خواند و خود را مصداق این آیه فرقانی و کلام ربّانی می داند. غافل از این که او از افراد جلیّه این آیات بیّنات است:
﴿وَ إِنْ یَرَوْا سَبِیلَ الرشْدِ لا یَتَّخِذُوهُ سَبِیلًا وَ إِنْ یَرَوْا سَبِیلَ الغَیِّ یَتَّخِذُوهُ سَبِیلًا﴾ (اعراف: 146).
﴿أَ فَرَأَیْتَ مَنِ اتَّخَذَ إِلهَهُ هَواهُ وَ أَضَلَّهُ الله عَلی عِلْمٍ﴾ (الجاثیه: 23).
﴿ثُمَّ کانَ عاقِبَهَ الَّذِینَ أَساؤُا السُّوای أَنْ کَذَّبُوا بِآیاتِ الله وَ کانُوا بِها یَسْتَهْزِؤُنَ﴾ (روم: 10).
﴿قُلْ هَلْ نُنَبِّئُکُمْ بِالْأَخْسَرِینَ أَعْمالًا * الَّذِینَ ضَلَّ سَعْیُهُمْ فِی الْحَیاهِ الدُّنْیا وَ هُمْ یَحْسَبُونَ أَنَّهُمْ یُحْسِنُونَ صُنْعاً﴾ (کهف: 104).
﴿وَ مِنَ النَّاسِ مَنْ یُجادِلُ فِی الله بِغَیْرِ عِلْمٍ وَ لا هُدیً وَ لا کِتابٍ مُنِیرٍ * ثانِیَ عِطْفِهِ لِیُضِلَّ عَنْ سَبِیلِ الله لَهُ فِی الدُّنْیا خِزْیٌ وَ نُذِیقُهُ یَوْمَ الْقِیامَهِ عَذابَ الْحَرِیقِ﴾ (حج: 8 - 9).
جلال الدین رومی این اشخاص را گوید؛
ای خری کاین از تو خر باور کند * * * خویش را بهر تو کور و کر کند
خویش را از رهروان کمتر شمر * * * تو حریف رهزنانی، گه مخور
خویشتن را عاشق حق ساختی * * * عشق با دیو سیاهی باختی(100)
الکلام؛
[ایراد ابو الجحد اختلاف، در تولد]:
جواب وجه خامس: به حسب تصریح خود، وجه خامس را اختلاف در تولّد قرار داده، سپس با سه روایت بر اثبات مدّعای خودشان استدلال کرده:
اوّل: خبر مروی از بحار که عین عبارتش این است: چنان که در بحار از حکیمه نقل می کند؛ قابله آن حضرت من بودم. پس از چندی که از تولّدش گذشت...، الخ.
دوّم: خبر ابراهیم بن ادریس.
سوّم: خبر حدیقه الشیعه از حکیمه.
اوّلا: هر بی شعور می داند که این ادلّه، ضدّ مدّعای او را ثابت می کند. چون این سه خبر نصّ صحیح صریح بر وقوع ولادت اند و هیچ یک به هیچ نحو بر عدم وقوع ولادت، دلالت ندارند.
ثانیا: فرض می کنیم که جناب ابو الجحد در این مقام به غلط افتاده، خواسته بگوید؛ اختلاف در حیات و ممات، گفته: اختلاف در تولّد.
با این فرض می گوییم: اما خبر ابراهیم بن ادریس که سابقا شرحی از آن بیان شد و جناب میرزا تدلیس کرده، خبر را تقطیع کرده اند و ما این خبر را در بشارات حضرت عسکری (علیه السلام) ذکر کردیم.
اما خبر بحار؛ اوّلا: خبری به این عبارت در بحار روایت نشده، بلکه عبارت خبر مرویّ در بحار این است: «استودعته عند الّذی استودعته امّ موسی»(101)؛ یعنی فرزندم را نزد کسی امانت گذاشتم که مادر موسی، فرزند خود را نزد او امانت گذاشت.
بر هرخردمند و بی خرد هویداست که این کلام نصّ در حیات و محروس بودن آن مولود در کنف حمایت حضرت مجیب المسئلات است و استدلال او به عبارت مرویه بر موت مولود، ادلّ دلیل و بهترین معرّف برای مراتب فهم و فضل و یا مجاهده او، به راستی در راه خداست.
ثانیا: بر فرض که چنین عبارتی در خبری باشد ولی به هیچ وجه، دلالتی بر موت ندارد، بلکه در حیات صراحت دارد، زیرا در عرف شایع است که این کلمه را در مقام اخبار از بقا، محروسا عن الآفات یا دعا بر بقا، محفوظا عنها، استعمال می نمایید، چنان چه حضرت رسول خدا در حق حسنین می فرماید: «استودعکما الله و صالح المؤمنین»(102).
در عرف عجم هم جمله «تو را به خدا سپردم» یا «او را به خدا سپردم» را در استبقا و استحفاظ استعمال می نمایند نه در موت.
ثالثا: بر فرض که در لفظ، چنین احتمالی برود، اخبار دیگر که حکیمه در همین مقام روایت نموده و در آن ها حضرت عسکری (علیه السلام) در جواب حکیمه به غیبت تصریح فرموده، بر همان معنی عرفی قرینه است. هرکس از روی انصاف در روایات صادره از حکیمه خاتون نظر نماید - بر فرض که چنین عبارتی در خبری باشد - احتمال اراده موت از آن نمی دهد.
اما خبری که از حدیقه الشّیعه نقل کرده: اوّلا؛ در هیچ خبری از اخبار حکیمه خاتون، رفتن بعد از سه روز توقیت نشده، مگر در یکی از روایات شیخ طوسی (قدّس سرّه) که علّامه مجلسی (رحمه الله) در جلد سیزدهم بحار نقل فرموده و ما اندکی از آن را سابقا ذکر کردیم؛ مضمون خبر این است که حکیمه خاتون می فرماید:
بعد از سه روز از ولادت با سعادت آن مولود رفتم ولی او را ندیدم. از حضرت عسکری (علیه السلام) حیا کردم که بپرسم. خود آن حضرت، ابتدا به سخن کرده، فرمود: «یا عمّه! فی کنف الله و حرزه و ستره و غیبه حتّی یأذن الله له...، الخ»(103).
رابعا: بر فرض که چنین خبری بدون ضمیمه وارد شده باشد، این که حکیمه می گوید: روز سوّم ولادت، به خانه حضرت عسکری (علیه السلام) رفتم ولی مولود را ندیدم؛ چگونه بر موت مولود دلالت دارد؟
چه مسلّم است که عدم الوجدان، لا یدلّ علی عدم الوجود تا چه رسد که بر اثبات العدم دلالت کند. از خردمندان پرسش می شود اگر کسی بگوید من زید را در حمّام یا مسجد یا بازار ندیدم، آیا این کلام، هیچ دلالتی بر موت زید دارد؟
خامسا: ما شبهه را قوی می گیریم که این عبارت احتمال موت هم بدهد، آیا احتمال نمی رود که ندیدن به امور دیگر مستند باشد، اذا جاء الإحتمال، بطل الاستدلال.
سادسا: بر فرض که جناب ابو الجحد خود را به زحمت انداخته، یک یا دو خبر به دست آورد که نصّ صریح بر موت باشد این از قبیل شبهه در مقابل بداهت است. زیرا خبر واحد در مقابل اخبار متواتره قطعیّه، مقاومت ننماید.
واضح تر آن که یک یا دو خبر که چند صد نصّ قاطع معتبر، معارض او باشد، نزد هیچ خردمند، مولّد وهم و قابل اعتنا نبوده و نیست. گذشته از تمامی این ها، اگر فرض شود انسان عاقلی، تازه از ینگی دنیا آمده باشد، یا از میان زمین بیرون آید که حتی یک خبر از اخبار غیبت را ندیده و نشنیده باشد، این عبارت را در صفحه ای نوشته، به دست او دهند که شخصی گفته؛ من سه روز بعد از ولادت فلان مولود به منزل وی رفته، او را ندیدم، البتّه از این عبارت، موت مولود را نمی فهمد.
بنابراین چه قدر عجیب است که ابو الجحد با این که دو هزار خبر معتبر در تحتّم وقوع غیبت برای مهدی موعود و قائم آل محمد دیده و فریاد و فغان چندین کرور شیعه اثنا عشری را شنیده، مع ذلک با کمال بی حیایی در کتاب خود می نویسد:
در حدیقه الشّیعه روایتی نقل می کند که حکیمه می گوید: سه روز بعد از تولّد قائم رفتم و مادرش را ملاقات کردم. لکن آن حضرت را ندیدم. پس دالّ بر این است که آن مولود از دار دنیا به دار عقبی ارتحال فرموده است.
تنبیه:
بر خردمندان پرهویدا است که این ترّهات و هذیاناتی که در مقام نفی و اثبات از جناب ابو الجحد، مسمّی به ابی الفضل صادر شده - گذشته از ابو الفضل عاقل - معقول نیست که از هیچ ابو الهزل جاهل صدور یابد.
لذا امر از دو شقّ بیرون نیست؛ یا این مرد در نفس الامر از اعادی باب و بها است و به این وسیله مایه و لباس سستی پایه و اساس مذهب فاسد جدید الاختراع وسواس خنّاس را اراده و به اوضح بیان، آشکار نموده.
یا آن که هنگام آهنگ جنگ با حجّت بالغه الهیّه خلّاق متعال و خداوند قادر ذو الجلال، نظر به عنایت قدیمه ای که به دین قویم و منهاج مستقیم خود دارد، برای احقاق حق و ابطال باطل، عقلش را ربوده و خرد از او مسلوب فرموده، تا با تفوّه به این ادلّه سخیفه و تکلّم به این براهین ضعیفه بر اهل عالم معلوم و مدلّل گردد که هرکس با دین مبین ربّانی و آیین متین سبحانی درافتد و هرکس در مقام معارضه با مظهر حق قویم الهی برآید، هرچند صاحب عقل و فضل باشد، جز جهل و هزل از وی نتراود، سحبان باقل و رسطالیس جاهل شود.
چنان چه در زمان نزول قرآن مجید و فرقان حمید، فصحای عدنان و بلغای قحطان که همه، فرسان میدان فصاحت و خداوندان ایوان بلاغت بودند، چون اندیشه نمودند با کلام معجز نظام ربّانی و وحی و الهام آسمانی معارضه نمایند، هرچند در بحر تفکّر، سباحت و در برّ تدبّر، سیاحت کردند؛ به جای جزل، جز هزل نیافتند و در قبال آیات بیّنات قرآن، غیر از کلمات پر از تعقید و تنافر نیافتند. کارشان از فصاحت به فضاحت کشیده و از بلاغت به بلادت و شناعت رسید.
بالاخره از میدان معارضه با قرآن گریختند و سلاح حرب ریختند. همگی به عجز و انکسار خویش اعتراف نمودند و بر درگاه عظمتش جبهه ذلّت و مسکنت سودند.
ما حوربت قطّ الّاعاد من هرب * * * اعدی الأعادی الیها ملقی السلّم
﴿سُنَّهَ الله فِی الَّذِینَ خَلَوْا مِنْ قَبْلُ وَ لَنْ تَجِدَ لِسُنَّهِ الله تَبْدِیلًا﴾ (أحزاب: 62).
و اگر نه این که یکی از دو احتمال مزبور باشد، خردمندان را به انصاف می خوانیم که چگونه می توان تصوّر نمود که شخص عاقلی بخواهد از روی حقیقت بر ابطال مذهب خصم خود، دلیل و برهان اقامه کند، آن گاه ادلّ دلایل و اعظم براهین او برای ابطال ضرورت وجود امام آن طایفه، وقوع اختلاف در نام مادر و تاریخ ولادت او باشد و در مقابل کسانی که اساس مذهب آن ها تحتّم وقوع غیبت است، به عدم ظهور برای دعوی ارث و عدم رؤیت او در زمان خاصّ استدلال نماید.
در حقیقت به آن چه عین مدّعای خصم و برهان حقّانیّت او است، تمسّک جوید و استدلال نماید و از آن طرف در مقام اقامه برهان بر اثبات مذهب خود، حدیث إذا سمعتم بالمهدی را برای مهدویّت باب، دلیلی کافی شمارد و خبر «و لکن الله تبارک و تعالی لم یزل منذ قبض نبیّه هلم جرّ أیمنّ بهذا الدین علی أولاد الأعاجم»(104) را که در صفحه... مذکور شد، به جهت اثبات الوهیّت میرزا حسینعلی برهانی وافی پندارد و در حقیقت، خود را پیش عقلا و خردمندان بنی آدم، مفتضح و رسوا دارد و کتابی که بر خرافات عقل و سخافت رأی و به مفاد کتاب المرء عنوان عقله برهانی باهر است را در صفحه روزگار به یادگار گذارد.
در نهایت چون شقّ اوّل بعید می نماید، پس شقّ ثانی متعیّن است. ﴿ذلِکُمْ وَ أَنَّ اللهَ مُوهِنُ کَیْدِ الْکافِرِینَ﴾ (انفال: 18)؛ ﴿وَ أَنَّ الله لا یَهْدِی کَیْدَ الْخائِنِینَ﴾ (یوسف: 52)؛ ﴿لِیُحِقَّ الْحَقَّ وَ یُبْطِلَ الْباطِلَ وَ لَوْ کَرِهَ الْمُجْرِمُونَ﴾ (انفال: 8)؛ ﴿إِنَّ کَیْدَ الشَّیْطانِ کانَ ضَعِیفاً﴾ (نسا: 76)؛ ﴿یُرِیدُونَ أَنْ یُطْفِؤُا نُورَ الله بِأَفْواهِهِمْ وَ یَأْبَی الله إِلَّا أَنْ یُتِمَّ نُورَهُ وَ لَوْ کَرِهَ الْکافِرُونَ﴾ (توبه: 32)، «صدق الله العلیّ العظیم».
[مطالبی از کتاب الحق المبین]:
تنبیه للنبّیه بدان برای عالم جلیل معاصر - الواصل الی (رحمه الله) - الملک الودودی الحاج شیخ احمد الشاهرودی در آخر کتاب الحقّ المبین خود که در ردّ طایفه بابیّه نوشته، کلماتی تنبیهیّه و بیاناتی نصحیّه است؛ خوش داشتم آن ها را به خاطر مناسبت مقام و ارمغان به جهت برادران خواص و عوام، در حیّز تسطیر و ارقام درآورم.
در خاتمه کتاب مذکور در بیان حال ادلّه این طایفه و مبانی فاسده استدلالات ایشان فرموده:
چون غالب برادران نوعی و اخوان اسلامی به واسطه عدم اطّلاع از صحّت و فساد ادلّه و عامی بودن، بسیار گول و خدعه و فریب پاره ای از طرّاران و لسان های شیطان را می خورند که صورت استدلالی از قرآن یا تورات و انجیل یا از اخبار و آثار به عوام القا می کند و آن بیچاره به واسطه بی خبری و عدم اطّلاع، گمان دلیل تمام می نماید، لذا محض تنبیه غافل و ارشاد جاهل، حال اجمالا عرض می نمایم که اختلال و فساد هر یک از ادلّه به چه طریق است.
اما چون بیان تفصیلی و ذکر شواهد هریک، مورث طول کلام می شود؛ پس از آن اعتراض می نماییم. ولی تکلیف بیچاره ای که مبتلا می شود آن است که به اهل خبره و عالم دانشمندی رجوع نماید تا عیب آن دلیل را به او بفهماند.
پس می گوییم: تمام استدلالات این طایفه از طرقی است که تمامی فاسد است.
اوّل: تمسّک آن ها به متشابهات و مجملات است که از آن نهی صریح شده و عقلا به آن امور استدلال نمی کنند. از همین باب است آن چه به کتب عهد عتیق و جدید و امثال آن استدلال نموده اند، مثلا از قبیل انبائات دانیال و مکاشفات یوحنّا.
حال آن که تمامی فرمایشات دانیال، یوحنّا، اشعیا و پاره ای از ملاحم که در لسان انبیا، در خبر از حوادث بعد واقع شده، از قبیل رمز و کنایه و سخنان سربسته است که مبدأ و منتهای آن ها غیر معلوم و احتمالات عدیده در آن ها می باشد و به طرق مختلف می توان آن ها را صرف و تأویل نمود، چنان چه از ملاحظه آن ها معلوم می شود و شرعا و عقلا واضح است که امور متشابه مجمله خاصّتا در مقابل محکمات دلیل نمی شود.
دوّم: تمسّک آن ها به ظواهر و اخبار آحاد در مسأله اصول دین که عدم حجیّت آن ها و مطلق ظنّ در اصول عقاید عقلا مبرهن شده، خاصّه در برابر قطعیّات و مسلّمات و متواترات.
سوّم: فتح باب تأویل علیل و تصرّف بلا دلیل در کلمات حجج الهیّه که آن هم طرا برخلاف رویّه عقلا است.
چهارم: تحریف در کلمات انبیا و اولیا با زیاد کردن چیزی و با تغییر دادن صورت آن ها.
پنجم: اسقاط صدر یا ذیل خبر به جهت موافقت با مقصود خود.
ششم: داخل کردن و ضمّ مقدّمات غیر مسلّمه در ادلّه، به هوای نفس خود برای تمامیّت استدلال.
هفتم: تطبیق مفاهیم کلّیه بر مصادیق جزئیّه و معلوم است که انطباق، دلیل نخواهد بود.
هشتم: قیاسات بر وجه مغالطه و بیاناتی بر وجه طریق تمویه و تلبیس.
نهم: جعل، افترا، تهمت و دروغ در خبر یا اسناد، به مخبر.
دهم: استحسانات ظنّیه و اعتبارات ذوقیّه حدسیّه و التجا به ذکر اشباه و نظایر غیر مطرّده.
نصیحه فصیحه.
ایضا در آن جا در نصیحت به برادران فرموده: نوعی است از کسانی که از دیانت اسلامیّه و شریعت محمدیّه خارج شده و دست کشیده، دین اخری اختیار نموده و از عقیده امامیّه و اعتقاد به این که مهدی قائم، حجّت بن الحسن است، ارتداد و رجوع نموده و غیر او را مهدی قائم دانسته. در اندرز ایشان است که خدا را شاهد حال و گواه مقال می گیرم که جز خیراندیشی و صلاح بینی، غرض و مقصودی ندارم. چه آن که غالب برادران خود را می بینم که در امر دین، سهل انگاری و بی مبالاتی نمودند و تحقیق نکرده از دین خود دست برداشتند. با آن که خود را عوام می بینند، به علما و دانشمندان عصر خود رجوع نکرده و نمی کنند تا شبهات ایشان را رفع نمایند.
دعات این طایفه، به زبان چرب و شیرین، در دل های ایشان شکّ و وسوسه القا می کنند، ایشان هم به اهل خبره و بصیرت رجوع نکرده؛ با عامی بودن و بی اطّلاعی، فریفته سخنان آن ها می شوند و در چنین مهلکه ای که مایه هلاکت و خسران ابدی است داخل می شوند، قدر دین را ندانسته، آن را کوچک می شمرند.
لا محاله این متاع باقیه را که مایه حیات ابدی، نور باطنی، روسفیدی نزد خدا و سربلندی نزد اولیاست، به اندازه زخرف فانیه اعتنا نمایند که اگر از خزف دنیا به ایشان داده شود، البتّه به صرّاف و اهل خبره نشان می دهند و سراغ حالش می نمایند، ولی به سهولت و به زودی، بدون رجوع به خبره، از جان عزیزتر، یعنی از دین شریف و آیین منیف دست برمی دارند. حال آن که ناله جان سوز پدران مهربان بلند است که: «الله الله، فی أدیانکم لا یزیلنّکم عنها إحدا و الحذر الحذر، اذا فقد الخامس من أولاد السّابع»(105).
پس می گوییم آیا سزاوار است که با آن همه تأکیدات و صریح از بیانات حجج پروردگار در بقای اسلام و عدم نسخ آن که در دلیل اوّل از مقاله ثانیه به بعضی از آن ها اشاره شد که لااقلّ برای شما شبهه و تردیدی حاصل نشود که لا محاله در مقام تحقیق برآیید که شاید این شریعت هم، مانند سایر شرایع کاذب باشد که صاحبان آن، خود را مظاهر خدا دانسته، کتابی به خدا نسبت داده، پیروانی تحصیل کرده و سال های دراز، امرشان پایدار بوده، بلکه جمله از آن ها، تاکنون باقی اند.
آیا سزاوار است بدون تفحّص و تجسّس درباره مهدی موعود از تمامی نصوصات سابق اخبار معتبر و زیارات و ادعیه که بالغ به سی صد فقره بود، دست برداشته، به واسطه زمزمه دعات و بدون تفتیش، در خود احتمال خطا و شبهه ندهی؟ مگر نه این است که از ارتداد مردم از دین خود خبر دادند؟ مگر نه این است که درباره مهدی قائم فرمودند: ظاهر نشود تا آن که کسانی که به امامت او قایل بودند از او برگردند و بیشتر مردمانی که او را موعود و مهدی می دانسته، از این اعتقاد رجوع کنند و به سیزدهمی قائل شوند؟
آیا از پیروان سید باب که او را مهدی می دانسته اند، کسی برگشته؟
آیا قبل از ظهور سید باب، کسی سید علی محمد شیرازی را مهدی می دانسته و منتظر این شخص بوده که بعد، از او برگشته باشد؟ بلکه منکرین باب، قبل و بعد از ظهورش، از اصل، اعتقادی به او نداشته اند، نه این که داشته و برگشتند. لذا رجوع کنندگان همان کسانی از شیعه بودند که قائم را حجّت بن الحسن دانستند، ولی بعد، از او به باب رجوع کردند.
آیا احتمال نمی دهید شما از آن اشخاص باشید؟ چرا تحقیق نمی کنید؟! مگر نه این است که از ظهور کاذبان و مفتریان، به اسم مهدویّت و نبوّت و مسیحیّت و بلند شدن رایات مشتبه و صداهای باطل خبر دادند.
آیا احتمال نمی دهید این مدّعیان از آن ها باشند؟ چرا تأمّل نمی کنید؟ مگر نه این است که فرمودند: موعود کسی است که درباره او گفته می شود؛ «مات او هلک»(106). یعنی اعتقاد موت درباره او دروغ است.
آیا غیر شما کسی قائل موعود بوده و آیا کسی قبل از موت باب، به موتش قائل شده؟
آیا نمی ترسید از ممتحنان و غربال شدگان باشید؟
آیا نمی ترسید از رفتنی ها باشید؟
آیا نشنیدید طول غیبت، سبب حیرت و ضلالت و شکّ و شبهه می شود؟
آیا سزاوار است به هرصدا و ندا گوش داد؟
آیا سزاوار است نصیحت پدران را که تحذیر از فتن آخر الزّمان نمودند، فراموش کرد؟
آیا سزاوار است دستور العمل ایشان را پس پشت انداخت که به صبر و سکون و بودن فرش خانه امر فرمودند؟ باقی بودن بر امر و اعتقاد اوّل تا این امر، به خودی خود، مثل صبح صادق و روشنایی آفتاب واضح شود.
آیا سزاوار است در این ظلمات و یافت شدن راه ها و بلند شدن صداها از گوشه و کنار، دلیل راه، تحصیل ننمود و بی چراغ و دلیل و راهنما در مهالک داخل شد؟
آیا جان دیگری دارید که اگر هلاک شدید، به وسیله آن جان، زندگی کنید؟
آیا نمی ترسید عاق پدران مهربان باشید، کفران نعمت و نقض بیعت و نکث عهد کرده باشید؟ با دوست، دشمنی و با دشمن، دوستی و در عوض نیکی ها، بدی کرده باشید؟
باری مقصود از این جمله آن است که لااقلّ احتمال خطا در خودتان بدهید، به علمای کامل و اهل بصیرت و خبره، رجوع و کتب سابقین را ملاحظه و تفحّص و تجسّس نموده، کورکورانه و عامیانه و غافلانه خود را در تیه جهالت و ضلالت نیندازید.
﴿وَ الَّذِینَ جاهَدُوا فِینا لَنَهْدِیَنَّهُمْ سُبُلَنا﴾ (عنکبوت: 69)، ﴿وَ ما عَلَی الرسُولِ إِلَّا الْبَلاغُ﴾ (نور: 54).
نختم الکلام فی هذا المقام.

عبقریّه سوّم [اسامی، القاب و کنیه های آن بزرگوار]

در بیان اسامی و کنی و القاب آن جان جهان و امام عالمیان و وجوه مناسبت و علّت تسمیّه ای است که در بعضی از آن ها گفته شده و این ناچیز، از تمامی آن ها، اسم به معنی الاعمّ تعبیر می نمایم.
چون استادنا المحدّث النوری - زاد الله فی انوار تربته - در نجم ثاقب، آن ها را به ترتیب حروف تهجّی نقل نموده و در بعضی از آن ها وجه مناسبت یا علّت تسمیتی ذکر فرموده، احقر نیز ذیل بیان ایشان، وجه یا علّتی که در نظر آمده، ذکر نموده ام و در بعضی که ایشان، ذیل آن، چیزی ذکر نفرموده اند، این ناچیز بیانی نموده ام.
در بعضی از آن ها، ایشان، متفرّد در بیان وجه مناسبت و علّت تسمیه اند، چنان چه در بعضی دیگر، بدون وجه مناسبت و علّت تسمیّه، فقط همان اسم را ذکر نموده. لذا این عبقریّه را مشتمل بر سه فأره(107) قرار دادم.
فأره اوّل [بیان بعضی از اسمای حضرت حجّت]:
در بیان بعضی از اسمای آن بزرگوار که مرحوم محدّث نوری و احقر، ذیل آن، وجه مناسبتی ذکر نموده ایم؛ و در آن چند مسکه می باشد.
[اصل] 1 مسکه:
بدان یکی از القاب شریفه حضرت ولیّ عصر (عجّل الله فرجه) را «اصل» می دانند. چنان که شیخ کشی در رجال(108) خود از ابی حامد بن ابراهیم مراغی روایت کرده؛ گفت: ابو جعفر بن احمد بن جعفر قمی عطّار نوشت: او ثالثی در زمین در قرب به اصل برای او و توصیف ما برای صاحب ناحیه نبود. پس جواب بیرون آمد؛ الخبر.
استادنا المحدّث النوری - اعلی الله مقامه - در نجم ثاقب این لقب را به ملاحظه ابتدای حروف، اسامی و کنی و القاب آن سرور را به ترتیب حروف تهجّی، اوّل یک صد و هشتاد و دو اسم و لقب و کنای آن حضرت ذکر فرموده و بعد از نقل آن، فرموده:
ظاهر آن است که مراد از اصل و صاحب ناحیه و توقیع، امام عصر (عجل الله تعالی فرجه الشریف) باشد.
تا آن که فرموده: و از بعضی ظاهر می شود که خبر اوّل به امام حسن (علیه السلام) متعلّق است که همین خبر باشد؛ چه بعد از آن، روایت حسن بن نصر را که در کافی(109) است و خبر دوّم می شود، نقل کرده.
بالجمله فرموده: در کتب رجالیّه مذکور است که مراد از اصل، امام است و به همین خبر استشهاد نموده اند. گویا معیّن نشد خبر، به کدام یک از ایشان متعلّق است، لکن در اراده امام سخنی از آن نیست.
نکته اصل بودن امام عصر یا هرامامی، ظاهر است. چون اصل هرعلم و خیر و برکت و فیض ایشانند و هیچ حقّی در دست احدی نیست؛ مگر آن که لابدّ به ایشان منتهی شود، نعمت به احدی نمی رسد مگر به سبب ایشان. آن ها مرجع و ملاذ عباد در دنیا و برزخ و آخرت و مقصود اصلی از خلقت جمیع عوالم علویّه و سفلیّه اند.
با بدل نمودن احقر، لفظ وجه را در عبارت ایشان به «نکته» عبارت ایشان تمام شد.
محتمل است: مراد از اصل در خبر، حضرت بقیّه الله و این اطلاق بر آن جناب، به ملاحظه نوّاب خاصّه آن حضرت باشد. چه آن ها نسبت به آن حضرت به منزله فرع بودند. چنان که در لغت، اصل را مقابل وصف و فرع هم، اطلاق می کنند.
چنان که در محیط المحیط است که الأصل، ما یقابل الوصف و الفرع، کاصل النّبات و این قرینه معیّنه بر بودن خبر از حجّت (علیه السلام) باشد.
[باسط] 2 مسکه:
بدان یکی از القاب مبارکه حضرت بقیّه الله، باسط است. چنان که در نجم از هدایه حضینی(110) و مناقب قدیمه نقل فرموده است.
در نکته این لقب مبارک برای آن جناب، چنین مرقوم داشته که آن به معنای فراخ کننده و گسترنده است و چنان چه خود فرمودند، فیض آن حضرت، مانند آفتاب به همه جا رسیده و هرموجودی از آن بهره دیده و ایّام حضور و ظهور عدل آن سرور، چنان منبسط و عام شود که گرگ و گوسفند با هم چرا کنند.
در تفسیر شیخ فرات بن ابراهیم مروی است که ابن عبّاس گفت: در ظهور حضرت قائم، یهودی و نصرانی و صاحب ملّتی باقی نماند، مگر آن که در اسلام داخل می شود تا این که گوسفند، گرگ، گاو، شیر، انسان و مار، مأمون می شوند و موش، خیک را پاره نمی کند(111).
شیخ مقدّم احمد بن محمد بن عیّاش در مقتضب الأثر(112) به سند خود از عبد الله بن ربیعه مکّی از پدرش روایت کرده؛ گفت: من از کسانی بودم که با عبد الله زبیر در کعبه کار می کردیم و او به عمله امر کرده بود در رفتن به زمین - یعنی برای پایه - مبالغه کنند.
گفت: به سنگی مانند شتر رسیدم و روی آن نوشته ای یافتم. تا آن که می گوید: آن را خواندم؛ در آن بود: بسم الله، الاوّل لا شیء قبله، لا تمنعوا الحکمه أهلها فتظلموهم و لا تعطوها غیر مستحقّها فتظلموها و آن طولانی است.
در آن بعثت رسول خدا، صفات حمیده، کردار جمیله، مقرّ و مدفن آن جناب و هم چنین هریک از ائمّه طاهرین ذکر شده تا آن که در حقّ حضرت عسکری (علیه السلام) گفته:
در مدینه محدّثه مدفون می شود، آن گاه بعد از او منتظر و اسم او، اسم پیغمبر است.
به عدل امر می کند و خود به آن رفتار می نماید، از منکر نهی می کند و خود از آن اجتناب می نماید. خدا به سبب او تاریکی ها را برطرف و به وسیله او، شکّ و کوری را دور می کند. در روزگار او گرگ با گوسفند چرا می کند، ساکن در سما، مرغان در هوا و ماهیان در دریا از او خشنود می شوند.
ای چه بنده ای که چه قدر بر خداوند تبارک و تعالی، ارجمند است! خوشا به حال آن که از او اطاعت کند و وای بر آن که نافرمانی او کند. خوشا به حال آن که پیش روی او مقاتله کند، پس بکشد یا کشته شود. درودها و رحمت از پروردگار بر ایشان باد! ایشان هدایت یافتگان، رستگاران و فیروزشدگان هستند. عبارت نجم ثاقب تمام شد.
این ناچیز گوید: باسط یکی از اسمای حسنای الهیّه و معنی آن در لغت، نشر و توسیع است. شاید نکته لقب بودنش برای ولیّ عصر، به این لحاظ باشد که برای خداوند، انحای توسیع و نشر هست که نمونه آن ها در وجود شریف حجّت و زمان ظهورش یافت می شود.
فلذا آن سرور به این لقب ملقّب گردیده، چه از جمله بسط الهی در ارزاق عباد است که: الله یبسط الرزق و آن باعث حیات بدن ایشان است. هم چنین به وجود آن بزرگوار و ظهور آن نور کردگار، علوم و معارف بسط می شود که آن علاوه بر بسط ارزاق ظاهریّه، باعث حیات روح بندگان است.
چنان که در خبر حمران که در بحار(113) سیزدهم است از حضرت باقر، مروی است که فرمود: قائم هرسال دو عطیّه به مردم عطا کند، در هرماه، رزق و در آن زمان، حکمت و علم شریعت به نحوی به خلایق داده شود که زنان در خانه ها به کتاب خدا و سنّت رسول حکم کنند.
در بحار(114) بنابه روایت محمد بن جعفر از حضرت صادق (علیه السلام) مروی است که فرمود: چون قائم در هریک از اقلیم های روی زمین مردی را نصب کند، به ایشان فرماید: هر وقت امر و مسأله ای بر شما مشکل شود و ندانید، به کف دست های خود نظر کنید و هرچه در آن بینید، عمل کنید که آن عهدنامه و دستور العمل من باشد.
از جمله بسط حضرت ربوبیّ در سحاب و ابر است که: ﴿الله الَّذِی یُرْسِلُ الریاحَ فَتُثِیرُ سَحاباً فَیَبْسُطُهُ فِی السَّماءِ کَیْفَ یَشاءُ﴾ (روم: 48). هم چنین برای وجود شریف امام عصر (عجل الله تعالی فرجه الشریف) ، بسط سحاب است، چنان که در نجم ثاقب است که هفدهم - یعنی از خصایص آن بزرگوار - سایه انداختن پیوسته ابری سفید بر سر مبارک آن حضرت و ندا کردن منادی در آن ابر به نحوی که ثقلین و خافقین آن را می شنوند.
چنان که در خبر لوح، روایت شیخ طوسی است که او مهدی آل محمد (صلّی الله علیه و آله) است، زمین را پر از عدل می کند، چنان چه از جور پر شده باشد(115).
در نجم ثاقب است: شیخ مفید در اختصاص(116) و صفّار در بصائر(117) به سندهای متعدّد از حضرت باقر (علیه السلام) روایت کرده اند؛ فرمود: آگاه باشید به درستی که ذو القرنین را میان دو ابر مخیّر کردند، پس ذلول، یعنی آرام را برگزید و صعب برای صاحب شما ذخیره شد.
راوی پرسید: صعب کدام است؟
فرمودند: ابری که رعد و صاعقه یا برق در آن باشد. صاحب شما بر آن ابر سوار می شود، در راه های هفت آسمان و زمین او را بالا می برد که پنج تای آن، معمور و دو تای آن، خراب است.
از جمله، بسط الهی در ظلال و انوار است: ﴿أَ لَمْ تَرَ إِلی رَبِّکَ کَیْفَ مَدَّ الظِّلَ﴾ (فرقان: 45).
هم چنین در زمان آن جان جهان و امام عالمیان، خلایق تماما زیر سایه معدلتش غندوه و نور عدالتش، مشرق تا مغرب عالم را نورانی فرموده، چنان که این بسط در کلام استادنا المحدّث النّوری - نور الله مرقده - به بیان اوفی و شواهد مستقصی، ذکر شد.
از جمله، بسط الهی در ارواح است، چنان که فخر رازی در لوامع البیّنات ذیل شرح این دو اسم شریف که القابض و الباسط است، گفته: یکی از انحای قبض و بسط الهی، قبض و بسط ارواح است. چون نزد قبض آن ها موت و نزد بسط آن ها حیات حاصل می شود.
هم چنین زمان آن حضرت، قبض ارواح از ناحیه مقدّس حضرت، نسبت به کفّار و منافقین است که آن ها را از دم شمشیر آب دار در جهنّم، آرام و قرار می دهد و بسط آن نسبت به جمع کثیری است، چنان چه شیخ سدید، مفید در ارشاد روایت نموده: بیست و هفت نفر از قوم موسی، اصحاب کهف، یوشع بن نون، سلمان، ابو دجّانه انصاری، مقداد و مالک اشتر، از انصار آن جناب خواهند بود و حکّام بلاد خواهند شد(118).
نیز در کتاب ارشاد(119)، مروی است؛ حضرت صادق (علیه السلام) فرمود: چون خروج آن حضرت نزدیک شود، در جمادی الاخر و ده روز از رجب، بر مردم باران ببارد، بارانی که خلایق، مانند آن ندیده اند. خداوند به آن، گوشت مؤمنین و بدن هایشان را در قبور می رویاند و اخبار به این مضمون، بسیار است.
اگر گفته شود: بسط ارواح از جانب باری تعالی است، نه از جانب آن حضرت.
می گوییم: چون نشر اموات و بسط ارواح به جهت وجود مقدّس آن جناب و تشریفی نسبت به ساحت قدس او است. گویا بسط ارواح از آن شخص شریف شده و در مناسبت به همین قدر، کفایت می شود.
[جابر] 3 مسکه:
بدان یکی از القاب شریفه امام عصر و ناموس دهر، جابر است، چنان که آن را در نجم ثاقب از هدایه حضینی(120) و مناقب قدیمه نقل نموده و در نکته این لقب برای آن سرور، چنین مرقوم داشته: جابر، درست کننده و شکسته بند است.
این لقب از خصایص آن حضرت است که فرج اعظم و گشایش همه کارها، جبر همه دل های شکسته، خرسندی همه قلوب پژمرده، انبساط همه نفوس منقبضه محزونه و شفای امراض مزمنه مکنونه، به وجود مسعود او است. انتهی.
این ناچیز گوید: حقیقتا معنی جابر همین است که استادنا المحدّث النّوری - نوّر الله مرقده - مرقوم داشتند. لکن باید دانست، جابریّت آن حضرت، مقصود بر شکستگی واقعی نیست.
بلکه، بسا از اعضا و جوارح شیعیان که به ظاهر از دست مخالفین شکسته شده اند؛ حضرت جبر فرموده و صحیح و سالم نموده و ما به دو قضیه از آن ها اشاره می نماییم:
اوّل: آن که در یاقوته ششم از عبقریه پنجم از بساط چهارم که به الیاقوت الأحمر ملقّب است، جبر کسر رأس غازی صفّینی را به دست مبارک آن حضرت ذکر نموده ایم، مراجعه شود.
دوّم: آن که در یاقوته هفتم از عبقریّه یازدهم از همان بساط، جبر کسر اعضای ابو راجح حمامی که او را به امر مرجان، حاکم حلّه به واسطه سبّ نمودنش به خلفا چندان زدند که اعضایش درهم شکسته شد، به حضرت ولیّ عصر متوسّل شده و حاضر شدن حضرت بر بالین او و جبر فرمودن شکستگی اندامش را ذکر نموده ایم، مراجعه شود.
[جمعه] 4 مسکه:
بدان یکی از اسامی یا از القاب شریفه حضرت امام عصر و ناموس دهر، جمعه است، چنان که در نجم ثاقب بعد از جهاتی که برای اختصاص این روز به حضرت بقیّه الله ذکر نموده، فرموده: بلکه جمعه از اسامی مبارک حضرت صاحب الامر (علیه السلام) یا کنایه از آن شخص شریف یا سبب نامیده شدن جمعه، به جمعه است.
چنان که صدوق در خصال(121) از صقر بن ابی دلف روایت کرده از امام علی النّقی (علیه السلام) در شرح حدیث رسول خدا که فرموده: با روزها دشمنی نکنید که آن ها با شما دشمنی خواهند کرد؛ فرمود: روزها، ما هستیم و جمعه، پسر پسر من است که اهل حق و صدق به سوی او جمع می شوند.
صدوق (رحمه الله) فرموده: ایّام، ائمّه (علیهم السلام) نیست، لکن کنایه از ایشان است تا آن که معنی آن را غیر از اهل حق نفهمد.
چنان چه خدای عزّ و جلّ به تین، زیتون، طور سینین و بلد امین، از پیغمبر، علی، حسن و حسین - صلوات الله علیهم - کنایه فرموده و امثله دیگر از این قسم، ذکر کرده است.
این ناچیز گوید: در این خبر شریف به نکته جمعه نامیدن آن جناب اشاره شده که آن، جمع شدن اهل حق و صدق بر آن حضرت است، چون تا زمان آن سرور، اهل حق و صدق، آن چنان که باید، تجمّعی در خدمت هیچ یک از ائمّه (علیهم السلام) پیدا ننموده اند، کما لا یخفی.
چنان که ممکن است نکته آن، اختصاص این روز از جهاتی به آن حضرت باشد.
اوّل: آن که ولادت با سعادتش در این روز بوده، چنان که در عبقریّه اوّل از این بساط به روایت حضینی ذکر شد.
دوّم: آن که ظهور موفور السرور آن حضرت، در این روز خواهد بود و ترقّب و انتظار فرج در این روز، بیشتر از روزهای دیگر است. چنان که در جمله ای از اخبار به این تصریح شده و در زیارت مختصّ آن جناب در روز جمعه است: «یا مولای! یا صاحب الزّمان! صلوات الله علیک و علی ال بیتک، هذا یوم الجمعه و هو یومک المتوقّع فیه ظهورک و الفرج فیه للمؤمنین علی یدک»(122).
سوّم: آن که روز جمعه از اعیاد عظیم مسلمین است. پس با سرور کلّی مسلمین مناسب است که ظهور حضرت در آن روز می شود.
بلکه بنابر فرمایش استادنا المحدّث النّوری در نجم ثاقب، عید بودن روز جمعه و آن را از اعیاد چهارگانه شمردن، حقیقتا به جهت آن روز شریف، یعنی روز ظهور آن بزرگوار است.
برای مؤمنین مخصوص که چشم و دلشان به جهت پاک و پاکیزه دیدن زمین از لوث شرک و کفر و قذرات معاصی و از وجود جبّارین، ملحدین، کافرین و منافقین، ظهور کلمه حق و اعلای دین و شرایع ایمان و شعار مسلمین بی مزاحمت و ممانعت احدی از اعدای خداوند و اولیای او، در آن روز، روشن و خرسند خواهد شد.
چنان که در دعای بعد از طلوع آفتاب روز جمعه، اشاره ای به این مطلب فرموده اند. در جمال الاسبوع(123) آمده است که حضرت کاظم (علیه السلام) در روز جمعه به محمد بن سنان فرمودند: آیا امروز واجب از دعا را خواندی؟
پرسید: کدام است؟
فرمود: بگو: «السلام علیک ایّها الیوم الجدید المبارک! الّذی جعله الله عیدا لأولیائه المطهّرین من الدّنس الخارجین من البلوی المکرورین مع اولیائه المصفّین من العکر الباذلین، انفسهم فی حجّه اولیاء الرحمن تسلیما».
یعنی سلام بر تو ای روز تازه مبارک! که خداوند آن را برای دوستان مقیّد گردانده که پاک شدگان از قذرات، بیرون شدگان از فتنه، رجعت کنندگان به اولیای او (علیهم السلام) و تصفیه شدگان از درد و کثافات عقاید و اعمال قبیح می باشند و جان های خود را در محبّت اولیای خداوند بذل می کنند.
پس فرمود: آن گاه به آفتاب ملتفت شو و بگو: «السلام علیک ایّها الشمس الطّالعه»... الدّعاء!
در موهبت ششم از شعاع دوّم نور اوّل از جزء اوّل کتاب انوار المواهب که ملقّب بالعسل المصفّی و در بیان روز ولادت پیغمبر است، فصلی مشبع در فضیلت روز جمعه ذکر شده که تذکّر آن، مناسب مقام است.
[خلف و خلف صالح] 5 مسکه:
بدان یکی از القاب خاصّه حضرت بقیّه الله (عجّل الله فرجه)، خلف و خلف صالح است و در السنه ائمه (علیهم السلام) این لقب، مکرّر ذکر شده، بلکه در نجم ثاقب از تاریخ ابن خشاب(124) نقل نموده که گفته: آن جناب مکنّی به ابو القاسم است و دو اسم دارد: خلف و محمد.
آخر الزّمان، ظاهر می شود؛ ابری بر سر او است که از آفتاب بر او سایه می افکند و هر جا برود، با او سیر می کند. به آواز فصیح ندا می کند: «هذا هو المهدی»، این است مهدی، یعنی آن مهدی موعود که همه منتظرش بودید.
نیز در همان تاریخ از حضرت رضا (علیه السلام) روایت کرده؛ فرمود: خلف صالح از فرزندان ابی محمد، حسن بن علی است. او صاحب الزّمان و مهدی است(125).
ایضا از حضرت صادق (علیه السلام) روایت کرده؛ فرمود: او خلف صالح از فرزندان من و مهدی است. اسم او محمد و کنیّه اش ابو القاسم است و آخر الزّمان خروج می کند(126).
این ناچیز گوید: خلف در لغت معانی بسیاری دارد. آن چه در مقام از آن ها، محتمل است، دو معنی است.
اوّل: آن که به معنای عوض و بدل باشد، چنان چه در محیط المحیط است:
«الخلف، البدل و العوض و ما استخلف من شیء یقال: اعطاک الله خلفا عن تلف، أی عوضا عمّا تلف لک و هم کرام خلفا عن سلف، أی متوارثون الکرامه أبناء عن آباء».
بنابراین، نکته این اسم شریف یا لقب مبارک، این است که آن بزرگوار، بدل و عوض و جانشین جمیع انبیا و اوصیای گذشته است، جمیع علوم و صفات و حالات و خصایص آن ها را دار و مواریث الهیّه ای که از آن ها به یکدیگر رسیده، در آن حضرت جمع است.
در حدیث لوح معروف که جابر آن را نزد حضرت صدّیقه (علیها السلام) دید، بعد از ذکر عسکری (علیه السلام) مذکور است: آن گاه این را به پسر او، خلف، کامل می کنم که برای جمیع عالمیان رحمت است و کمال صفوت آدم، رفعت ادریس، سکینه نوح، حلم ابراهیم، شدّت موسی، بهای عیسی و صبر ایّوب بر او است(127).
در حدیث مفصّل مفضّل(128)، مشهور است که چون آن جناب ظاهر شود، به کعبه معظّمه تکیه کند و بفرماید: ای گروه خلایق! آگاه باشید هرکه خواهد به آدم و شیث نظر کند؛ اینک، منم آدم و شیث. به همین نحو نوح، سام، ابراهیم، اسماعیل، موسی، یوشع، عیسی، شمعون، رسول خدا و سایر ائمّه (علیهم السلام) را ذکر نماید و به روایت نعمانی می فرماید: منم بقیّه الله از آدم، ذخیره ای از نوح و مصطفی و ابراهیم و صفوت از محمد (صلّی الله علیه و آله و سلّم).
در نجم ثاقب در نکته این لقب فرموده: محتمل است که چون حضرت عسکری (علیه السلام) فرزندی نداشت و مردم می گفتند که جانشین ندارد، جماعتی به همین اعتقاد باقی ماندند؛ پس از تولّد آن حضرت، شیعیان به یکدیگر بشارت می دادند که جانشین، ظاهر شد. به جهت اشاره به این مطلب، شیعیان، بلکه ائمّه او را به این لقب خواندند.
این ناچیز گوید: نکته ای که فرمودند با اطلاق خلف به معنی بدل و جانشین در حالتی مناسب است که بدون قید صالح و توصیف به آن ذکر شود. حال آن که در بسیاری از اوقات در آثار و اخبار، این اسم یا لقب مبارک به وصف صالح ذکر شده است. کما لا یخفی علی المتتبّع الخبیر و النّاقد البصیر.
نکته ای که در توصیف خلف به این معنی با صالح در نظر این احقر، جلوه گر است، آن است که چون مرکوز ذهن عامّه مردم، این بود که حضرت عسکری (علیه السلام) بلا عقب است، چنان چه استادنا المحدث - اعلی الله مقامه - به آن تصریح فرمود و تولّد حضرت بقیّه الله را مخفی و مستور می داشتند، چنان که مصرّح به اخبار کثیره است، پس ذهن عامّه، به این متوجه بود که خلف و جانشین آن بزرگوار، برادرش جعفر کذّاب است که مردی فاجر و طالح است.
فلذا شیعیان با توصیف خلف به صالح، به همدیگر می فهماندند که جانشین صالح خلف، آن سرور است و یا ائمّه این معنی را به واسطه این توصیف، به آن ها می فهماندند تا ذهن آن ها از جانشین طالح، منصرف شده و به حضرت (عجّل الله فرجه الشریف) متوجّه گردد. و العلم عند الله.
دوّم: آن که به معنای ولد صالح باشد، چنان که در محیط المحیط است: «و الخلف، مصدر و الولد الصّالح، فان کان فاسدا اسکنت اللّام».
نکته این اسم یا لقب، بنابراین معنی، بسی واضح است و نکته توصیف آن به صالح، با آن که در معنی خلف در حاق لغت، قید صلاح اخذ شده است، چه اگر ولد فاسد باشد، بر او خلف به سکون لام اطلاق می کنند نه خلف به فتح لام، چنان که از محیط المحیط نقل شده، پس شاید این باشد که احیانا هریک از این دو لفظ را در جای دیگری استعمال می کنند.
چنان که جوهری گفته: «الخلف بسکون اللّام و الخلف بفتحه ما جاء من بعد یقال: هو خلف سوء من ابیه و خلف صدق من ابیه بالتّحریک أی بتحریک اللّام إذا قام مقامه، قال الأخفش: هما سواء منهم من یحرّک و منهم من یسکّن فیهما جمیعا إذا اضاف.»
بنابراین توصیف به وصف صالح، برای تثبیت و تأکید و رفع توهّم این استعمال باشد. و الله العالم علی حقایق الأمور.
[خلیفه الله] 6 مسکه:
بدان یکی از القاب شریفه حضرت ولی عصر - خلیفه الله - است. چنان که در کشف الغمّه(129) از رسول خدا روایت نموده که فرمود: مهدی (علیه السلام) خروج می کند، ابری بر سر او و در آن منادی است که ندا می کند: این مهدی، خلیفه الله است، او را پیروی کنید.
ایضا از آن جناب روایت کرده و در خبری که ذکر آن حضرت را نموده، فرمود:
همانا او خلیفه الله، مهدی است(130).
نیز در کتاب بیان فی اخبار صاحب الزّمان(131)، تألیف گنجی شافعی، این خبر را ذکر نموده. خلیفه در لغت به معنی جانشین و قائم مقام است.
آن چه این ناچیز در نکته اختصاص این لقب مبارک به حضرت بقیّه الله در نظرم جلوه گر است، آن که چون آن بزرگوار هنگام ظهور در میان خلایق به احکام واقعیّه الهیّه عمل می فرماید، پس حضرت خلیفه خدا است در حکم بین مکلّفین از خلقش به حکم واقعی الهی که در هرقضیّه ای عند الله ثابت است.
فلذا به خلاف جدّ بزرگوار و آبای اطهارش به این لقب، مخصوص شد. چه ایشان به ظاهر مأمور بودند و حکم به باطل نمودن، مخصوص آن حضرت است. اخبار مستفیضه بر این مضمون عزّ صدور یافته و مؤیّد این آیه مبارکه: ﴿یا داوُدُ إِنَّا جَعَلْناکَ خَلِیفَهً فِی الْأَرْضِ فَاحْکُمْ بَیْنَ النَّاسِ بِالْحَقِ﴾ (ص: 26) است.
چه در تفسیر کبیر آمده: خلیفه بودن داود ممکن است از انبیای سابق او باشد. زیرا خلیفه مرد، کسی است که جانشین او باشد و این درباره شخصی که غیبت و پنهانی او جایز است، صحیح و مجوّز می باشد، نه درباره باری تعالی.
ممکن است خلیفه از خود باری تعالی باشد و چون حقیقتا خلافت الهیّه ممتنع است، در ساحت قدس باری تعالی، غیبت و حضور راه ندارد؛ پس به انضمامش به آیه ﴿وَ آتَیْناهُ الْحِکْمَهَ وَ فَصْلَ الْخِطابِ﴾ (ص: 20) مراد، مالک بودن برای مردم و نفوذ حکم الهی میان ایشان است.
چه در تفسیر روح البیان است: «آتیناه الحکمه أی العلم بالأشیاء علی ما هی علیه و العمل بمقتضاه، ان کان متعلّقا بکیفیّه العمل».
در تفسیر فصل الخطاب از شرح جندی نقل نموده: «هو الأفصاح بحقیقه الأمر و قطع القضایا و الأحکام بالیقین، من غیر ارتیاب و لا شکّ».
بالجمله چون آن حضرت در میان تمامی إسلاف طاهرینش به حکم واقعی الهی عمل می کند، چنان که داود و سلیمان کثیرا ما به این نحو عمل می نمودند و داود به صریح قرآن خلیفه الله بود، لذا حضرت را هم، خلیفه الله لقب دادند.
از جمله اخباری که بر حکم نمودن او هنگام ظهور به علم امامت که علم الله است و بیّنه و شاهد نخواستن از احدی دلالت دارد؛ خبری است که صفّار آن را در بصائر الدّرجات(132) از حضرت صادق (علیه السلام) روایت نموده که فرمود: هرگز دنیا نخواهد رفت، تا این که مردی از ما اهل بیت خروج و به حکم داود و آل داود حکم کند و از مردم، بیّنه سؤال نکند.
به روایت دیگر فرمود: به هرنفسی حکم او را عطا خواهد کرد.
نیز از آن جناب روایت کرده که فرمود: هرگاه قائم آل محمد (علیهم السلام) خروج کند، به حکم داود و سلیمان حکم می کند و از مردم شاهدی نمی پرسد(133).
در ارشاد از حضرت صادق (علیه السلام) مروی است که فرمود: هرگاه قائم آل محمد (علیهم السلام) برخاست، میان مردم به حکم داود حکم می کند و به بیّنه احدی محتاج نمی شود؛ خدای تعالی او را الهام می کند. پس به علم خود حکم می کند و به آن چه در دل خود مخفی نموده اند، خبر می دهد. اخبار بر این مضمون، بسیار است.
اعاده للنّکته ببیان طرفه:
و اگر خواهی بگو: آن بزرگوار، صورتا و معنا خلیفه الله است.
امّا صورتا؛ چنان که بناء بر بنّاء دلالت دارد، هم چنین ذات و صفات حضرت بر ذات و صفات باری تعالی دلالت دارد. چه لا مکانیّت آن حضرت و لا جهتیّت آن که نمی توان تعیین نمود آن جناب در حال غیبت در چه مکان است؛ بر لا مکانیّت و لا جهتیّت باری تعالی دلالت دارد.
حیات او از حیات باری خلیفه است، قدرتش از قدرت او، اراده اش از اراده او، سمعش از سمیعیّت او، بصرش از بصیریّت او، کلامش از کلام او، علمش از علم او و هکذا سایر اوصاف کمالیه آن جناب که از اوصاف کمالیّه الهیّه خلیفه اند.
امّا معنا؛ به جهت این که در عالم، مصباحی که بتواند از نار نور الله استضائه نماید؛ انوار اوصافش روی زمین ظاهر شود. خلافت عن الله نیست، مگر ذات بی همال آن جان جهان، امام عالمیان، قلب عالم امکان، روشنی دهنده کون و مکان، فریادرس درماندگان و دستگیر واماندگان.
[حکمت احتیاج خلق به خلیفه الله]:
تذییله للبیانات المسطوره الطریفه فی حکمه احتیاج الخلق الی الخلیفه:
«قال: بعض المحقّقین فی حکمه احتیاج الخلایق إلی خلیفه الله ما هذا لفظه:
اعلم، أنّ الله تعالی یحفظ العالم بالخلیفه، کما یحفظ الخزائن بالختم، فالبدء کان بآدم (علیه السلام) و الختام یکون بالحجّه بن الحسن العسکری (علیهما السلام) و التّحیّه و الأکرام».
و الحکمه فی الإستخلاف قصور المستخلف علیه عن قبول فیضه تعالی و تلقّی أمره بغیر واسطه لأنّ المفیض تعالی شأنه فی غایه التّنزّه و التّقدّس و المستفیض منغمس غالبا فی العلائق الدّنیئه، کالأکل و الشّرب و غیرهما و العواتق الطّبیعیّه، کالأوصاف الذّمیمه فالأستفاضه منه إنّما تحصل بواسطه ذی جهتین أی ذی جهه التّجرّد وجهه التّعلّق و هو الخلیفه.
لذا لم یستبنیء الله ملکا فانّ البشر لا یقدر علی الإستفاده منه لکونه خلاف جنسه الا تری انّ العظم لمّا عجز عن أخذ الغذاء من اللّحم لما بینهما من التّباعد.
جعل الله تعالی بحکمته بینهما الغضروف المناسب لهما لیأخذ من اللّحم و یعطی العظم و جعل السّلطان الوزیر بینه و بین رعیّته، إذ هم اقرب إلی قبولهم منه و جعل المستوقد الحطب الیابس بین النّار و بین الحطب الرطب، انتهی.
و این ناچیز در عنوان یک صد و بیست و دوّم از جزء اوّل کتاب الجنّه العالیه ده نکته از آیه مبارکه: ﴿یا داوُدُ إِنَّا جَعَلْناکَ خَلِیفَهً فِی الْأَرْضِ فَاحْکُمْ بَیْنَ النَّاسِ بِالْحَقِ﴾ (ص: 26) بیان نموده ام؛ فارجع.
[سیّد] 7 مسکه:
بدان یکی از القاب خاصّه حضرت ولیّ عصر و ناموس دهر (عجّل الله فرجه) سید است و حضرت در جمله ای از اخبار، به این لقب مذکور شده است. از جمله در کمال الدین(134) صدوق (رحمه الله) از علی خیزرانی، از کنیزکی که او را برای حضرت عسکری (علیه السلام) هدیه کرده بود روایت کرده و چون خانه آن حضرت را غارت نمودند، فرار کرد و به خانه مولای اوّل خود برگشت، روایت کرده است که او نقل کرده؛ هنگام ولادت سید حاضر شده بود و این که مادر سیّد، صقیل بود و امام حسن (علیه السلام) به آن چه بعد از رحلتش بر عیال او جاری می شود، به او خبر داده بود. سپس از آن جناب مسألت نمود تا دعا کند خداوند، مردنش را پیش از آن حضرت قرار دهد. پس در حیات آن حضرت فوت شد و بر قبر او لوحی بود که بر آن نوشته بود: این قبر مادر (م ح م د) - صلوات الله علیه - است.
کنیزک گفت: چون سید متولّد شد، نوری بر آن جناب دید که از او ساطع بود و تا آسمان رسید. مرغان سفیدی دید که از آسمان فرود می آیند و بال خود را بر سر و صورت و سایر جسد آن بزرگوار می مالند. آن گاه پرواز می کردند.
پس گفت: از آن کیفیّت به امام حسن (علیه السلام) خبر دادیم.
حضرت خندید و فرمود: آن ها ملایکه آسمان ها بودند. نازل شدند تا به او متبرّک شوند، چون وقت ظهور، انصار او هستند.
این ناچیز گوید: در سرّ اختصاص این لقب شریف به آن حضرت از میان سایر ائمّه (علیهم السلام)، چند نکته در نظر جلوه گر است:
نکته اوّل: آن که یکی از معانی سیّد، رییس کبیر در میان قوم خود است که مطاع و متّبع باشد.
بدیهی است وقت ظهور، سیادت و سودد آن بزرگوار، میان قوم خود، بلکه میان تمامی اهل عالم از همه آبا و اجداد معصومینش، اکبر و اعظم و مطاعیّتش ارفع و افخم است. کما لا یخفی.
«قال فی مجمع البحرین(135): السیّد، الرئیس الکبیر فی قومه، المطاع فی عشیرته».
نکته دوّم: آن که یکی از معانی سیّد، فایق در خیرات و راقی در مبرّات است، چنان که در مجمع است: «و السیّد الّذی یفوق فی الخیر»(136).
بدیهی است در زمان ظهور آن بزرگوار، به واسطه آن نور کردگار، انواع خیرات و انحای برکات، چه از علوم و معارف و حکم که خیرات واقعیّه اند و چه از ارزاق و معایش و نعم که مبرّات ظاهریّه اند از زمان آبا و اجداد آن بزرگوار، بلکه از زمان آدم تا وقت ظهور آن سلطان تاج دار به اضعاف مضاعف، اوفر و به مراتب کثیره بثیره، اکثر است.
روایت دست گذاردن آن حضرت بر سر هرمردی و کامل شدن عقل او به اندازه چهل مرد، مشهور و خبر دیدن آن که در مشرق است واقف به مغرب را، در کتب معتبره، مذکور و زیاد شدن باران، گیاه، درختان، میوه، سایر برکات و نعم ارضیّه، به نحوی که حالت زمین در آن وقت با حالت آن در اوقات دیگر، مغایرت پیدا کند و قول خدای تعالی که فرموده: ﴿یَوْمَ تُبَدَّلُ الْأَرْضُ غَیْرَ الْأَرْضِ﴾ (ابراهیم: 48) راست آید.
در کتاب غیبت نعمانی از کعب روایت کرده که ذیل آیه شریفه: ﴿یَوْمَ تُبَدَّلُ الْأَرْضُ غَیْرَ الْأَرْضِ﴾ گفته: مهدی چنین کند و مراد، تبدیل صورت زمین، به صورتی دیگر در عهد آن حضرت است؛ به جهت کثرت عدل، باران، اشجار، گیاه و سایر برکات(137).
در نجم ثاقب این را از خصایص آن بزرگوار شمرده و در کشف الغمّه(138) از رسول خدا روایت نموده که فرمود: امّت من از برّ و فاجر در زمان مهدی به نعمتی متنعّم می شوند که هرگز مانند آن متنعّم نشده بودند. آسمان باران پی درپی بر ایشان می فرستد و زمین چیزی از نبات خود را ذخیره نمی کند.
به روایت گنجی در بیان(139): زمین میوه های خود را به ایشان می دهد و چیزی را پنهان نمی کند.
به روایت بغوی: آسمان از باران خود چیزی نمی گذارد مگر آن که آن را پی درپی می فرستد و زمین از گیاه خود چیزی نمی گذارد مگر آن که آن را ظاهر می کند تا آن که زندگان مردگان را آرزو می کنند، که ای کاش زنده می شدند و می دیدند(140)!
نکته سوّم: آن که یکی از معانی سیّد، حلیم و بردبار و تحمّل کننده بر اذیّت و ایذا است، چنان که در مجمع، همراه با ذکر معانی سید گفته: و الحلیم المتحمّل أذی قومه.
خدا داناست که این ذات اقدس و وجود مقدّس، از وقت رحلت پدر بزرگوارش که به منصب امامت مستقر گردیده، الی یومنا هذا که روز چهارشنبه، دهم رجب المرجّب سال هزار و سی صد و پنجاه و یک هجری است تا روز ظهور که علمش نزد باری تعالی است، چه اذیّت ها که از اقارب و اجانب دیده و خواهد دید و چه مرارت ها که از دوست نادان و دشمن با کینه و عدوان چشیده و خواهد چشید و اگر نباشد، مگر ویرانی قبور عمّ و اجدادش در این تاریخ در بقیع، هر آینه در گواه بودن تحمّل اذیّتش نزد هرشریف و وضیع کافی است، اللّهمّ عجّل فرجه و سهّل مخرجه.
نکته دیگر در این مقام در نظر بود که طوینا عن ذکرها کشحا روما للاختصار و خوفا عن الأطاله و ملاله النّظار
اشارتان:
الأولی؛ إعلم، انّ أصل السیّد، السّیودا علّ بقلب الواو، یاء و إدغامه فی الیاء.
الثانیه: قال: الفرّاء: یقال: هذا سیّد قومه، أی الیوم، فإذا أردت أنّه عن قلیل یکون سیّدهم تقول: هو سائد قوم، أی عن قلیل یکون سیّدهم، انتهی.
و فی محیط المحیط بعد نقل کلام الفراء، قال: و الفرق بینهما أنّ السّید، صفه مشبّهه تنصرف إلی زمان الحال و السّائد، اسم فاعل یتطرق إلی زمان الإستقبال، فتأمّل، فانّه لا یخلو عن النّظر.
[صاحب الامر] 8 مسکه:
بدان یکی از اسامی آن بزرگوار، صاحب الامر است. صاحب کاشف الریبه که از دانشمندان معاصر است، در سرّ تسمیه و تلقّب آن حضرت به این لقب، بیاناتی ذکر نموده، خوش دارم آن ها را به طریق ارمغان برای خلّص اخوان، توسّط بنان با خسران، اظهار و اعلان دارم. در کتاب مزبور فرموده:
ریب؛ مراد و معنی امر چیست که حضرت خاتم الاوصیا (علیه السلام) به آن ملقّب گردیده؛ به صاحب الامر معروف و مشهور شده و غیر از او، هیچ کدام از انبیا و اولیا به این لقب مشهور نشده اند؟
کشف؛ محتمل است مراد از امر، خون ابا عبد الله الحسین (علیه السلام) باشد که صاحب و ولیّ و منتقم او، وجود حضرت است؛ گویا آن حضرت به همین واسطه، در لسان خدا و رسول الله و ائمّه هدی (علیهم السلام) به منتقم تعبیر شده.
خداوند در انکشافات ملکوت برای انبیا، خصوصا برای حضرت خلیل الله، پس از سؤال آن ها از قائم بین اشباح و بهذا انتقم من اعدائی فرمود و در قرآن: ﴿وَ مَنْ قُتِلَ مَظْلُوماً فَقَدْ جَعَلْنا لِوَلِیِّهِ سُلْطاناً فَلا یُسْرِفْ فِی الْقَتْلِ إِنَّهُ کانَ مَنْصُوراً﴾ (اسرا: 33) بر این مدّعا اشاره نمود.
شاید به همین سبب آن حضرت شاهر به سیف خواهد شد و تمام اعقاب و اخلاف قاتلین حضرت ابی عبد الله را مقتول خواهد نمود. مقتضای این معنی؛ این لقب مخصوص آن وجود خواهد بود و در هیچ کدام از انبیا و اولیا متحقّق نخواهد شد. لکن محتمل است مراد و مقصود از امر، عالم امر، مقابل عالم خلق باشد.
توضیح مقام:
بدیهی است خداوند، دو عالم ایجاد نمود. یکی به عالم امر و دیگری به عالم خلق معروف شد. موجودات عالم امر را زیاده از لفظ کن، احتیاج نبود؛ به همان امر کن، موجود شدند. به خلاف موجودات عالم خلق، که علاوه بر امر کن، به مادّه احتیاج داشتند.
به عبارت دیگر تمام عوالم مادّیات را، عالم خلق و کلّیه عوالم مجرّدات را، عالم امر می خوانند. چنان چه آیه ﴿أَلا لَهُ الْخَلْقُ وَ الْأَمْرُ﴾ (اعراف: 54)، ناظر به این مقام و کاشف همین مرام است.
مقصود از ملقّب گشتن آن حضرت به این لقب، برای آن است که این لقب، به خواصّ و نکاتی اشاره دارد. هرچند این لقب به این معنی به آن حضرت اختصاص ندارد، بلکه در حقّ خاتم الأنبیاء و ائمّه هدی و نیز در حقّ تمام انبیای اولو العزم جریان دارد. حتی ممکن است درباره غیر اولو العزم از سایر انبیا و اولیا تصویر شود.
حاصل از جمله نکات، شاید این باشد که آن وجود، خارج از مادّیات و داخل در مجرّدات است. برای او عوائق و موانع در عالم مادّیات نخواهد بود، تمام عوالم مادّیات را به طرفه العین، سیر خواهد نمود، به تمام وقایع و حوادث آن، مطّلع و مستحضر خواهد شد و بما کان و ما یکون آن، عالم خواهد بود.
شبهه نشود که وجود امام چگونه از عالم امر و در عداد مجرّدات است؛ حال آن که او بشر و در عداد مخلوقات ناسوتی است و الّا با اساس مذهب، منافی است. برای آن که در محلّش مقرّر شده، مناط و مدار شیئیّت شیء، به جهت غلبه و رجحان او است.
بدیهی است در وجودات معصومین، غلبه با جهت امری است نه خلقی و مادّی. لذا ظهورات آثار امری ایشان، زیاده از ظهورات آثار خلقی است. برای آن که خفای ولادت و حمل، از آثار عالم امر است، به هیچ وجه دیده نمی شوند و دفعتا به دنیا می آیند، خود را مصداق آیه ﴿وَ ما أَمْرُنا إِلَّا واحِدَهٌ کَلَمْحٍ بِالْبَصَرِ﴾ (قمر: 50)، قرار می دهند.
مانند ناقه صالح و وجود حضرت عیسی (علیه السلام) که بغتتا به دنیا آمدند و به آیات الله معروف شدند. پس از رجحان جانب امریّت، شبهه نمی ماند که ایشان نسبت به مادون خود و عالم خلق، عایق ندارند.
از جمله نکات، شاید این باشد که او از سنخ مجرّدات و مقام او، فوق عوالم مادّیات است. میان ملایکه سیر می کند، خود را به آن ها محشور می سازد، با آن ها انس و الفت می گیرد و نشوونما می کند. اخباری که بعد از تولّدش، حضرت عسکری (علیه السلام) او را به مرغ ها سپرده، چهل یوم مرغ ها بر سر او صف کشیده و چهل یوم او را معاودت داده اند، بر این ادّعا شهادت می دهند.
از جمله نکات، شاید این باشد که آن حضرت از مجرّدات می باشد، در نظر مخلوق مادّیات، محسوس نمی گردد و مادّیات، قابلیّت ادراک و احساس او را ندارند، مگر آن که خود را تلطیف کنند، جانب ربوبیّت خود را ترقّی دهند و نحوه مادیّت خود را ضعیف سازند تا قابلیّت ادراک آن وجود را پیدا کنند یا مصلحت خدایی تعلّق گیرد که آن حضرت، خود را به صورت خلقی و مادّی جلوه دهد، برای آن که مخلوقات، مادیّت او را احساس کنند. مانند ظهور ناقه صالح و حضرت عیسی (علیه السلام) با آن که از مجرّدات و اهل عالم امر بودند، ولی در انظار، محسوس گردیدند.
احادیث خفای آن وجود، از مخلوق آن زمانه، حتی از بعض اهل خانه و ظهور او برای بعض أجله خارجه، اگر چه از بلاد بعیده بوده باشد، به این دعوی گواهی می دهد.
از جمله نکات، شاید این باشد که آن حضرت، شاغل حیّز نمی شود و به موجب متعارف مخلوق مادّی حرکت نمی کند، تمام حرکاتش بر خارق عادت می باشد که به حسب متعارف بشری، استبعاد دارد، به شؤون مجرّدات رفتار می کند، آثارش نظیر ملایکه، بل، عقول محضه می پروراند، چنان چه مثل جدّش سایه ندارد.
اخباری که بر خفای حمل آن حضرت دلالت نموده و کسی از مادرش حمل او را مشاهده نکرده و احتمالش را هم نداده، با آن که متعارف از حمل مادّیات، آثار ظاهره مشهوده دارد و شکم مادر را پر می کند؛ هرکس به او، ملتفت می شد؛ در حمل او، این آثار و شواهد را نمی دید، حتی حضرت حکیمه خاتون با آن که امام به او فرموده، از ولادت او خبر داده و او از آن حضرت، از مادرش که از کدام یک از جواری باید متولّد شود، سؤال نموده، چون در تمام جواری آن حضرت، آثار حملی مشاهده نکرده، بلکه ولادت حضرت تا وقت سحر قدری طول کشیده و حکیمه خاتون به شکّ افتاد، دلیل بر این مدّعا خواهد بود.
از جمله نکات، شاید این باشد که آن حضرت از مصادیق مجرّدات می باشد؛ در حیات، بقای ابدی یا طولانی دارد و بقای او، موقوف به بقاء الله می باشد، نه به ابقاء الله و لو لا المانع، مانند ملایکه و مجرّدات می ماند. اخبار طول غیبت او، بر این گواهی می دهد.
از جمله نکات شاید این باشد که آن حضرت، حیات سابق بر ولادت دارد، برای آن که از مجرّدات و عالم امر است و وجود موجودات عالم امر بر عالم خلق مقدّم است. لذا ولادت از مادر خلقی و ظاهری و صوری به مقتضای عالم خلقی و بشری خواهد بود. رشته ترتیب تناسل متعارفی ملحوظ شد، و الّا آن وجود، قبل از ولادت موجود بود و در عالم کون و فساد سیر می نمود. خداوند در عالم اشباح به حضرت خلیل (علیه السلام) فرمود: «و بهذا انتقم».
اخباری که بر کیفیّت ولادت امام (علیه السلام) دلالت می کند، یک دسته می رساند که ولادت امام از ران مادرانش می باشد، دسته دیگر از پهلوهای مادرها بیرون می آیند و وضع حمل می شوند و دسته دیگر بر مواضع دیگر، ولادت می یابند هم چنین طیّب و طاهر، پاک و پاکیزه به دنیا می آیند و ختنه کرده می باشند، برای این ادّعا کفایت خواهد نمود.
زیرا از مجموع این اخبار استفاده می شود ولادت آن حضرت، غیر از ولادت متعارف بشری بوده، ظهور و طلوعش برخلاف مرسوم خلقی شده، بلکه دلالت می کنند آن حضرت به بدن اشباحی ولادت یافته، چنان چه به همان بدن، حیات قبلی داشته. اگر چه به صورت بدن عنصری دنیوی جلوه نموده، با سایر مخلوقات، شباهت به هم رسانده و مانند آن ها وضع حمل شده؛ لکن برای مصلحتی بوده، چون برای همچو وجوداتی، تجلّیّات و عوالمی مقرّر گردیده و در هرعالم به نحوه آن عالم، جلوه گر شدند.
در عالم بشری، مانند بشر سلوک می کنند، در عالم علوی، مثل ملایکه سیر دارند و در عالم عقول مربّی آن ها می شوند. این خصایص، مخصوص به او نبوده و در حقّ اکثر انبیا وجود یافته است.
حضرت آدم (علیه السلام) بعد از هبوط، در عالم اعلی، اشباح و حضرت خلیل، ملکوت را مشاهده کرده. حضرت نوح آثار علم اعلی را واجد شده، حضرت موسی، خفای حمل و ولادت را به هم رسانده و حضرت عیسی (علیه السلام) به آسمان صعود نموده، این ها همه از عالم امریّت آن ها کشف می کند نه خلقی. خصوصا درباره اجداد آن حضرت از خاتم الانبیا گرفته تا وجود مبارک او منتهی شده؛ تمام آثار عوالم امری، از ایشان مشاهده گردیده.
خاتم انبیا غالبا به سما عروج داشته و با ملایکه هم صحبت و همنشین شده.
حضرت امیر (علیه السلام) قبل از او و پیشاپیش او در آن عوالم سیر می نموده و معلّم ملایکه شده.
حضرت فاطمه زهرا، ملایکه را می دیده، صحبت می کرده و صاحب مائده و صحیفه سماویّه شده.
حضرت مجتبی (علیه السلام) تمام عوالم را احاطه نموده، طرفه العین خود را به چین رسانده، از وقایع عوالم امکان مطّلع بوده؛ در صورتی که به ظاهر، مدینه تشریف داشته.
قنداقه حضرت سیّد الشّهدا در آسمان ها، محلّ تفریح ملایکه گردیده و هکذا هر کدام از ائمّه تا حضرت خاتم الاوصیا. این آثار همه آثار موجود عالم امر است، نه خلق.
از این اشارات و نکات، نکته آن که حضرت امیر (علیه السلام) در غسل بدن پیغمبر، به ابن عبّاس امر فرمود: چشم خود را ببند، ظاهر شد. چون چشم او، قابل احساس جسد شریف پیغمبر نبود، هرگاه باز می بود، یقین بدن حضرت پیغمبر را نمی دید! چنان چه موجودات عالم امر را نمی دید، قدرت بر احساس ملایکه نداشت، برای او شبهه می شد و تولید بعضی سخن ها می نمود، لذا به بستن چشم، مأمور شد.
هم چنین حالات سایر ائمّه، بعد از وفات ابدان ایشان را، کسی غیر از امام نمی تواند غسل بدهد و کفن کند، شاید برای این نکته بوده که اشاره شده. از این جهت است که در اخبار، وارد شده که غسل امام با امام است.
هم چنین از این اشارت مفادّ حدیثی کشف شد که هرگاه پیغمبر در غرب، مدفون باشد و وصیّ او در شرق، وفات کند، بعد از وفات، او را نزد آن پیغمبر می برند.
خبری که تابوت حضرت رضا (علیه السلام) به آسمان صعود نموده و بعد از مدّتی معاودت کرده، بر این نکات دلالت دارد. از این جا معنی قول معصوم (علیه السلام): «لنا مع الله حالات»، ظاهر شده.
حاصل: هرکس به این نکات تأمّل نماید و در انصاف به سوی خود بگشاید، تمام مشکلات از عجایب احوال انبیا و اولیا، مخصوصا حضرت خاتم الانبیا و ائمّه هدی و حضرت خاتم الاوصیا، برایش حلّ می شود و برای احدی مجال نمی ماند، بلکه فوق آن مقامات را متوقّع می شود.
ریب؛ شبهه ندارد. از براهین عقلیّ و نقلیّ ثابت گردیده وجود حضرت خاتم الانبیا، اشرف مخلوقات و اکمل موجودات بوده و بروز آثار عالم امر، زیاده از خاتم الاوصیا از او تحقّق یافته، زیرا برای بدن مبارک او، سایه نبوده، حواس ظاهره و باطنه او همیشه در کار بوده، تغافل ابدا در وجود او صورت نیافته، خواب و بیداری او یکسان شده، در زمین، ملایکه آسمان ها را می دیده، از احوالات آن ها به اهل زمین خبر می داده، به همین بدن، آسمان ها را سیاحت کرده، بهشت و جهنّم را مشاهده کرده و از گزارشات اهل آن ها باخبر شده و خبر داده.
آیه ﴿قابَ قَوْسَیْنِ أَوْ أَدْنی﴾ (نجم: 9)، در حقّ او نازل شده - چرا به این لقب ملقّب نگردیده با آن که اولی و احقّ بوده؟ - ظهورات آن عالم در او اکثر شده، به علاوه خاتم الاوصیا از فروع اتباع او بوده، از فاضل طینت او خلق گردیده و از آن چشمه آب حیات، نوشیده. مع ذلک به این لقب عالی النسب مشهور گردیده و آن وجود مبارک که اصل بوده، به این لقب معروف نگردیده.
کشف؛ از قواعد متقن، محقّق و ثابت گردیده که تمام موجودات من الدّره البیضا إلی الذّرّه السّفلی، بل کلّ الموجود در عالم، وجود ایشان را دو لحاظ، ملحوظ افتاده، یک لحاظ، به اعتبار نزول ایشان از حق به سمت خلق بوده، چنان چه آیه ﴿أَ لَمْ تَرَ إِلی رَبِّکَ کَیْفَ مَدَّ الظِّلَّ وَ لَوْ شاءَ لَجَعَلَهُ ساکِناً ثُمَّ جَعَلْنَا الشَّمْسَ عَلَیْهِ دَلِیلًا﴾ (فرقان: 45) گواهی می دهد و لحاظ دیگر به اعتبار صعود از خلق به سمت حق شده، چنان چه آیه:
﴿کَما بَدَأَکُمْ تَعُودُونَ﴾ (اعراف: 29) شاهد می شود.
در لسان اساطین حکما و متکلّمین این دو اعتبار به قوس نزول و قوس صعود تعبیر می گردد و در مقامش مقرّر شده، چنان چه مرارا در این مختصر اشاره گردیده تمام موجودات در مقام نزول خود، سائق و هادی و منذر لازم دارند.
آیه ﴿أَنْتَ مُنْذِرٌ وَ لِکُلِّ قَوْمٍ هادٍ﴾ (رعد: 7)، بر این اشاره، شاهد قوی می شود و در مقام صعود هم، سائق و هادی و پیشوا می خواهند که سبل ایشان گردد.
آیه شریفه ﴿وَ الَّذِینَ جاهَدُوا فِینا لَنَهْدِیَنَّهُمْ سُبُلَنا﴾ (عنکبوت: 69)، به اعتبار تأویل و معنی بر این ادّعا گواهی می دهد. خفا ندارد که سائقین و منذرین در مراتب نزولیّه مخلوقات، انبیا و اوصیای ایشان بودند.
از آن جایی که مراتب نزولیّه مقام، وحدت در کثرت بود، هادین و منذرین متعدّد لازم شد که خلق را به حسب استعدادهایشان به سوی حق سوق نمایند، به همان تفصیل که در اشارات متعدّد این مختصر، توضیح یافته. از اشارت سابقه و توضیحات واضحه گذشت که وجود ختمی مرتبت، حضرت محمد بن عبد الله (صلّی الله علیه و آله)، اکمل و اشرف و افضل از تمام سائقین و منذرین بوده، بلکه مدار و مرجع تمام ایشان شده، همه آن ها از آن چشمه حیات، آب خورده، بلکه چنان چه گذشت، مناط خلقت عالم و عالمیان بوده، همه به وجود او خلق شده و علوم را من السّماء الی الثّری از او آموخته اند، تمام سابقین از انبیای مرسلین و اوصیای مرضیّین، مقدّمه وجود او بودند که مخلوق را برای انذار او مستعدّ کنند.
بنابراین آن وجود مبارک در مقام قوس نزولی و انذار خلقی، موجود و مبعوث شده و وظیفه او، انذار قوس نزولی بوده که خلایق را به حدّ کمال برساند و ایشان را از اوراث قوس نزولی به جانب قوس صعودی میل دهد.
غایه الأمر، اکمل و اشرف از تمام سائقین انبیا و مرسلین گردیده، لکن وظیفه او از انذار خارج نشده، منتهی المقال در مرتبه کمال از انذار واقع شده. لذا فرموده: «بعثت لأتمّم مکارم الأخلاق»(141).
بعد از او جز به رسم نیابت و خلافت مقامی برای انذار نمانده، چنان چه وظیفه اوصیا و خلفای او گردیده. لذا به «لا نّبی بعدی» اظهار نموده و امر نبوّت را بعد از خود منقطع ساخته، برای آن که مرتبه و مقامی برای انذار نماند.
او تمام مراتب انذار را کامل کرده، عموم احکام ظاهری که راجع به مقام قوس نزول است را به سرحدّ کمال رسانده و ذرّه ای از آن فروگذار نکرده. پس مقام نبوّت که وظیفه او انذار بوده، منقطع شده و آن وجود مبارک خاتم الانبیا گردیده است.
امّا خاتم الاوصیا، قدم در مقام قوس صعود نهاده که مقام میل کثرت به سمت وحدت است. لذا کثرات را منهزم ساخته، تمام ادیان را مضمحل نموده و دین را منحصر به دین می کند. تمامی امم مختلف را، امّت جدّ خود قرار می دهد، همه خلایق را موحّد می کند و الّا به قتل می رساند؛ برای آن که مرتبه رجوع کثرت به سمت وحدت، تعدّد برنمی دارد.
لذا خاتم الأوصیا که وظیفه اش سوق از کثرت به وحدت شده، واحد گردیده و وصیّ بعد از او معقول و منقول نشده است.
از این جا هویدا گردید: در عهد او، باطن احکام بروز می کند، ادوار سابقین منقلب می شود. احکام او، مثل احکام جدید و تازه می ماند، زمین اثقال خود را بیرون می ریزد، اموات سر از قبور بیرون می آورند و ملایکه صعود و نزول می کنند.
مقام و تری الأرض غیر الأرض مشاهده می شود، معین و یاور او ملایکه می شوند.
حضرت عیسی (علیه السلام) از آسمان نزول می کند و به او اقتدا می نماید و اموات، انصار او می گردند. تمام این امورات، از شؤونات قوس صعودی است که خلع از ما سبق باشد.
عالم دیگر جلوه می کند، امور عجیب ملاحظه می گردد؛ گویا همچو آثار و اطواری قبل از این دیده نشده و در دنیا این گونه چیزها به وجود نیامده.
لذا در زمان عالم رجعت که مقام احیای اموات باشد، محقّق می شود، بعد از او قیامت کبری موجود می گردد، چنان چه در اخبار آمده؛ ظهور قیامت، چهل یوم بعد از ظهور حضرت می باشد. هرچند تأویل می رود، لکن مناسبت مقام دارد.
ملخّص کلام؛ مقام بروز و ظهور حضرت، در مرتبه قوس صعود است که از قوس نزول، به قوس صعود رجوع می شود. مقام استکمال ظاهریّ موجودات تمام گردیده، خود را به مقام استکمال احکام باطنی می رسانند. بالبداهه مقام صعود، پس از نزول از عالم امر، به عالم خلق، مقام عود به عالم امر است.
در رجوع به عالم امر، مبدع و منشأ سائق او، حضرت خاتم الأوصیا گردیده، به وجود و ظهور او، مدّت قوس النّزول منتهی شده، بدئت و شروع به قوس صعود گردیده؛ به خلاف انبیا و اولیا که در عصر و زمان آن ها، آثار عالم امر و قوس صعودی آشکار نگردیده، فقط همان آثار قوس نزولی بوده که خلایق را به استکمال برسانند تا قابلیّت قوس صعودی پیدا کنند.
لذا در هرکدام از انبیا و اولیا که از موجودات عالم امر بودند، آثار امری بر آثار مادّی و خلقی غلبه داشت، حتی خاتم انبیا و سایر اوصیای او، مجرّد عالم امر بودند که هیاکل ظاهری ایشان، ابدا سایه نداشتند و مانند ملک بودند. هرگاه در بعضی موارد، ظلّ و سایه از ائمّه (علیهم السلام) هویدا می شد، به جهت تقیّه و لحاظ خلقیّه بوده و الّا برای اجسام ایشان، سایه نبوده است.
تأیید فیه تسدید:
این ناچیز گوید: مؤیّد قول این دانشمند، از سایه نداشتن حضرات ائمّه معصومین، چیزی است که در احسن الکبار در سرّ تلقّب حضرت رضا (علیه السلام) به این لقب ذکر نموده؛ چه در آن جاست که نکته تلقّب آن حضرت به این لقب، این است که از ثقات معتبر و راویان مشتهر روایت است: وی را از آن سبب رضا گفتند که هریک از برادران او گفتند: من امامم.
برادر بزرگ تر گفت: هرکه صفت امام در او باشد، او امام است و آن صفت این است که هرکس در آفتاب بایستد و سایه اش بر زمین نیفتد، او امام باشد.
جمله برادران بدین قول راضی شدند، یک یک در آفتاب می ایستادند و سایه ایشان بر زمین می افتاد. چون نوبت به حضرت رضا - سلام الله علیه - رسید، آن جناب در آفتاب ایستاد و سایه او بر زمین نیفتاد. پس همه به شرطی که کرده بودند، رضا دادند و راضی شدند که او امام است و به این سبب او را رضا خواندند که برادران بر امامت او رضا دادند.
بالجمله؛ با این که خاتم الانبیا و اوصیای او، مجرّد عالم امر بودند، مع ذلک به آن لقب ملقّب نشدند؛ برای این که ایشان در مقام استکمال بودند، خلق را انذار می کردند تا از قوس نزول، به قوس صعود برسانند.
در عصر ایشان، آثار عالم امر در خلق ظاهر نبوده تا سابق آن زمان، به صاحب الامر ملقّب گردد؛ هرچند خود از عالم امر باشد. به خلاف حضرت صاحب الامر (علیه السلام) که در عصر او، آن چه از خلق ظاهر و مشاهده می شود، همه از آثار عالم امر است. لذا به این لقب، ملقّب و مشهور گردید.
از این توضیحات واضح گردید که تمام اهل کمال عالم، من الآدم الی الخاتم، کمال خود را از حضرت خاتم الانبیا (صلّی الله علیه و آله) اخذ نمودند؛ چه در باطن و غیبت، مانند انبیا و اولیای قبل از او و چه در ظاهر و شهود، مانند ائمّه هدی. پس اصل دین و احکام، ظاهرا و باطنا از او است.
غایه الأمر، بعضی به وظیفه ابلاغ ظاهر مأمور بودند، مثل انبیای سلف، حتی نفس خودش و احدی عشر از اوصیای او.
بعضی هم به اظهار باطن، مأمور شدند، مثل خاتم الاوصیا که مکمّل دین جدّ خود بوده و دین او را اظهار داشته. چون دوره او دوره دیگری بوده و با دوره آبا و اجداد خود مغایر شده، لذا در ظهور احکام، به ظاهر، بینونت افتاده، تأمّل باید نمود تا در عالم امر را گشود.
[غوث] 9 مسکه:
بدان یکی از القاب شریف حضرت ولیّ عصر و حجّت زمان (عجّل الله فرجه الشریف) غوث است، چنان که در نجم ثاقب فرموده: این از القاب خاصّه آن بزرگوار است که در زیارات معتبر وارد شده و معنی آن فریادرس است.
حقیقت معنی این لقب الهی - که مجرّد اسم نیست - محقّق نشود تا آن که صاحب آن، دارای قوّه سامعه باشد که هرکس، در هرجا و به هرلسان در مقام استغاثه برآید، بشنود، بلکه دارای علمی که به حالات درماندگان احاطه کرده باشد و بی استغاثه و توسّل، از حالش آگاه باشد، چنان که در فرمانی که برای شیخ مفید نوشتند، به این مقام، تصریح فرمودند.
نیز دارای قدرت و توانایی باشد که اگر صلاح دانست، درمانده مستغیث به لسان حال یا مقال را نجات دهد و از گرداب بلا درآرد. این مقام را شایستگی ندارد، جز کسی که دارای مقام امامت باشد و پا در بساط ولایت، گذارده باشد. انتهی.
این ناچیز گوید: در این معنی که استادنا المحدّث النّوری - نوّر الله مرقده - برای غوث فرموده اند، تمامی ائمّه شرکت دارند و مخصوص وجود شریف آن بزرگوار نیست.
در نکته ممکن است اختصاص گفته شود چون نزد عرفا، قطب، یکی از القاب خاصّه آن سرور است، چنان که در مسکه آتیه بیان خواهد شد و این لقب، متفرّع بر آن است، چه نزد اهل سلوک، هنگامی که به او ملتجی می شوند، غوث را قطب گویند و در غیر التجا، او را غوث ننامند و چون قطب از القاب خاصّه آن بزرگوار است، پس غوث هم از القاب خاصّه اش خواهد بود.
در محیط المحیط است: الغوث عند اهل السّلوک، هو القطب حینما یلتجی إلیه و لا یسمّی فی غیر ذلک الوقت، غوثا.
[فجر] 10 مسکه:
بدان یکی از القاب آن بزرگوار، فجر است، چنان که شیخ جلیل شرف الدین نجفی در کتاب تأویل الآیات الظّاهره(142) از حضرت صادق (علیه السلام) روایت نموده: مراد از فجر در قول خداوند که فرموده: ﴿وَ الْفَجْرِ * وَ لَیالٍ عَشْرٍ﴾ (فجر: 1 - 2)، وجود مقدّس حضرت بقیّه الله، قائم آل محمد (عجّل الله فرجه) است.
در سرّ این تأویل - و الله یعلم - ده وجه به نظر این عبد ذلیل رسیده است:
وجه اوّل [طلوع فجر برطرف کننده ظلمت شب و ظهور برطرف کننده ظلمت ظلم]:
آن که چنان چه وقت طلوع فجر، غسق لیل و ظلمت شب برطرف و عالم روشن می گردد؛ هم چنین وقت طلوع و ظهور آن وجود مقدّس، ظلمت ظلم ظالمین که درباره آن، الظّلم، ظلمات یوم القیمه، وارد شده است، از معصوم (علیه السلام) زدوده و عالم به واسطه انتشار نور معدلت آن بزرگوار، روشن و نورانی می شود.
وجه دوّم [هنگام فجر کمی از مردم در حرکتند هنگام ظهور هم کمی از مردم به او می پیوندند]:
آن که چنان چه از وقت طلوع فجر تا زمان طلوع شمس، خلایق فی الجمله بعضی از آن ها در سیر و حرکت اند و بعد از طلوع آفتاب، نوعا در سیر و حرکت می باشند؛ چنان که این مطلب، مشاهد و محسوس است، هم چنین در بدو ظهور آن حضرت، تا برهه ای از زمان، مردم جوقه جوقه، دسته دسته و طایفه بعد طایفه، به آن بزرگوار ایمان آورند و بعد از انتشار اسم مبارک و شیوع صیّت ظهور موفور السرورش، تمامی مردم به او ایمان آورند.
وجه سوّم [زمان فجر و زمان ظهور هر دو زمان شریفی است]:
آن که چنان چه وقت طلوع فجر بما هو، وقت شرفی است، چه بنابر مضمون جلیّ از اخبار، از ساعات بهشت محسوب می شود؛ هم چنین زمان ظهور آن بزرگوار هم، زمان شریفی است و شرافت آن به درجه و مرتبه ای است که مردم با نظر کردن بر کف دست های خود، احکام الهیّه را دریابند و عالم گردند.
وجه چهارم [طلوع فجر و طلوع ظهور را طایفه ای از مردم مواظبند نه همه]:
آن که چنان چه همیشه زمان طلوع فجر را طایفه خاصّه ای از مردم، یعنی صائمین و متهجّدین و مستغفرین در اسحار مراقب و مواظب اند؛ هم چنین طلوع آن فجر حقیقی را همیشه طایفه ای از خلایق، مترصّد و مترقّب اند و آن ها منتظرین فرج و ظهور آن بزرگوارند.
وجه پنجم [فجر صادق و کاذب دارد ظهور هم کاذبان و صادقان]:
آن که چنان چه فجر، دو طلوع دارد؛ یکی به نحو استطاله که از آن به کاذب و دیگری به نحو استطاره که از آن به صادق تعبیر می شود؛ هم چنین، بسیار متمهّدیان کاذب پیدا شده و می شوند که مقدّمه الجیش مهدی صادق اند، یا بگو آن بزرگوار دو طلوع دارد؛ یکی در مکّه معظّمه به هیأت شبان با چند رأس گوسفند لاغر که - و الله یعلم - هیأت و وضع آن بزرگوار با آن گوسفندان لاغر نزار، از منصب واقعی و صورت اصلی شیعیان کشف می نماید که به واسطه ابتلای ایشان به شکنج ظلم و جور ظالمین و فاسقین از غذای حقیقی و مائده واقعی خود که معارف و علوم آن بزرگوار و آبای اطهار او است، محروم مانده و به هزال و اندراس حال، مبتلا گردیده اند.
این طلوع سرور، نظیر طلوع استطاله فجر و طلوع دیگر که در مدینه منوّره و کوفه و سایر بلاد دارد نظیر طلوع استطاره فجر است.
وجه ششم [در هر دو منادی ندا میدهد]:
آن که چنان چه هنگام طلوع فجر، منادیان خدایی و مؤذّنان الهی، ندا می دهند و مردم را به طلوع فجر و دخول وقت فریضه صبح اعلام می نمایند؛ هم چنین هنگام طلوع و ظهور این فجر حقیقی، منادی حضرت اله که جبریل (علیه السلام) است، میان زمین و آسمان ندا می دهد و مردم را از طلوع و ظهور آن بزرگوار، اعلام می فرماید.
وجه هفتم [در هنگام فجر و ظهور دو منادی یکی حق و یکی باطل ندا میدهند]:
چنان چه وقت طلوع فجر، منادیان بر دو قسم اند؛ یک قسم، منادیانی که بر حقّ اند، یعنی کسانی که شهادت بر ولایت علی بن ابی طالب (علیه السلام) را، تبعا لذکر الرسول و تالیا للإقرار و الشّهاده بنبوّته (صلّی الله علیه و آله) و تیّمنا بذکر اسمه (علیه السلام) ذکر می نمایند و قسم دیگر، منادیانی که برخلاف آن ها هستند؛ هم چنین وقت طلوع این فجر حقیقی، دو قسم منادی باشد؛ یکی منادی بر حق که جبرییل (علیه السلام) است و دیگری منادی بر باطل و ضلالت که شیطان می باشد.
وجه هشتم [قبل از فجر ستاره ای درخشنده در آسمان ظاهر میشود قبل ظهور هم ستاره های درخشنده چون علما و نقبا و... ظاهر میشوند]:
آن که چنان چه قبل از طلوع فجر، ستاره ای که درخشنده تر از سایر ستارگان است، ظاهر و طالع می شود و بعد از آن فجر طلوع می کند؛ هم چنین قبل از طلوع این فجر حقیقی، وجود علمای ربّانی مثل ستارگان و وجود اوتاد، ابدال، نقبا، نجبا و رجال الغیب، مثل آن ستاره سحر و قبل از طلوع فجراند؛ در روشنی دادن به مردم در اهتدا و راهنمایی به دین قویم و صراط مستقیم.
وجه نهم [بین فجر و طلوع خورشید برزخی است بین زمان غیبت و ظهور هم برزخ]:
آن که چنان چه از وقت طلوع فجر تا طلوع شمس، برزخ ما بین شب و روز است، یعنی، نه به تاریکی شب است و نه به روشنی روز؛ هم چنین زمان طلوع و ظهور آن فجر حقیقی، برزخ میان زمان دنیا و نشئه برزخیّه و آخرت است که نه به کثافت این زمان و نه به لطافت آن هاست.
از لطافت زمان طلوع آن نور موفور السرور، نسبت به زمان حالیّه است که در آن وقت، ملایکه محسوس شوند و با آدمیان مصافحه نمایند، جنّیان مرئی گردند و با آن ها مجالست کنند. چنان چه در ضمن حدیث مفضّل بن عمر علی ما فی البحار است.
وجه دهم [خواب بین الطلوعین مکروه خواب و غفلت بین زمان غیبت و حضور هم موجب حرمان]:
آن که چنان چه در بین طلوع فجر و طلوع آفتاب، خوابش مکروه، نومش لعنت و موجب حرمان رزق است؛ هم چنین هنگام طلوع آن فجر حقیقی و ظهور آن نور موفور السرور و پهن شدن آثار معدلت آن بزرگوار آفتاب وار بر روی زمین، در خواب غفلت بودن، مذموم، بلکه نومش به این صفت، باعث خذلان ابدی و موجب حرمان از عطایای حظوظ روحانیّه حضرت احدی است.
این بیان آن ده وجه به نحو اجمال بود. هرکس تفاصیل آن را طالب باشد، به تضاعیف مطالب مندرج در این کتاب رجوع نماید؛ چه در آن ها ما یشفی العلیل و یروی الغلیل و الله الهادی إلی سواء السّبیل است.
[قطب] 11 مسکه:
بدان یکی از القاب خاصّه حضرت بقیّه الله، قطب است. در نجم ثاقب فرموده: این از القاب شایع آن جناب نزد طایفه عرفا و صوفیّه است.
شیخ کفعمی در حاشیه جنّه الواقیه(143) در دعای امّ داود، آن جا که فرموده: اللّهمّ صلّ علی الابدال و الأوتاد...، الخ، گفته: دنیا، خالی از قطب، چهار اوتاد، چهل ابدال، هفتاد نجیب و سی صد و شصت صالح نیست.
قطب، مهدی (علیه السلام) است و اوتاد، کمتر از چهار نمی شود، زیرا دنیا مانند خیمه و مهدی - صلوات الله علیه - مانند عمود است و این چهار نفر، طناب های آن خیمه اند.
گاه اوتاد، بیشتر از چهار، ابدال، بیشتر از چهل، نجبا، بیشتر از هفتاد و صلحا، بیشتر از سی صد و شصت می شوند.
ظاهر این است که خضر و الیاس از اوتاداند. لذا ایشان با دایره قطب ملاصق اند.
و امّا صفت اوتاد؛ ایشان قومی هستند که طرفه العینی از پروردگار خود غفلت و از دنیا مگر قوت روز جمع نمی کنند و از ایشان، لغزش های بد صادر نمی شود. عصمت از سهو و نسیان در ایشان، شرط نیست، بلکه همان عصمت از فعل قبیح در ایشان و در قطب، این، یعنی عصمت از سهو و نسیان، شرط است.
امّا ابدال؛ در مراقبت پست تر از ایشان اند در مراقبت و گاهی از ایشان غفلت صادر می شود. پس آن را به تذکّر تدارک می کنند و عمدا معصیتی نمی کنند.
امّا نجبا؛ ایشان پست تر از ابدال اند.
امّا صلحا؛ ایشان پرهیزگاران و به عدالت موصوف اند، گاهی از ایشان معصیت صادر می شود، پس آن را به استغفار و پشیمانی تدارک می کنند.
خدای تعالی فرموده: ﴿إِنَّ الَّذِینَ اتَّقَوْا إِذا مَسَّهُمْ طائِفٌ مِنَ الشَّیْطانِ تَذَکَّرُوا فَإِذا هُمْ مُبْصِرُونَ﴾ (اعراف: 201). همانا آنان که پرهیزگاری نمودند، چون آینده به ایشان رسد و طواف کننده ای در قلبش از ایشان، به این که ایشان را وسوسه کند تا رنجی به ایشان رساند که از جنس وسوسه و سودا و جنون باشد، خدا را یاد کنند و نام خدا برند، پس ناگهان ایشان به سبب آن تذکّر و یادآوری بیننده باشند که یکی از چهار رکن توبه است.
شیخ کفعمی فرمود: خدای تعالی ما را از اقسام اخیر قرار دهد که ما از اقسام اوّلیه نیستیم ولی خدای تعالی را در دوست داشتن و ولایت ایشان، فرمان می بریم و کسی که قومی را دوست دارد، با ایشان محشور می شود.
گفته شده هرگاه یکی از اوتاد چهارگانه کم شود، بدل آن را از چهل نفر، یعنی از ابدال می گذارند، هرگاه یکی از چهل نفر کم شود، بدل او، از هفتاد نفر گذاشته می شود، هرگاه یکی از هفتاد نفر کم شود، بدل او، از سی صد و شصت نفر گذاشته می شود و هرگاه یکی از سی صد و شصت نفر کم شود، بدل او، از سایر مردم گذاشته می شود.
کلام شیخ مذکور تمام شد و تاکنون در ترتیب مذکور، خبری به نظر نرسیده و لکن شیخ مذکور (رحمه الله) در اطّلاع و تتبّع، سرآمد عصر خود بود و بسیاری از کتب قدما نزد او بود که در این اعصار، اثری از آن ها نیست. البتّه تا در محلّ معتبری ندیده بود، در چنین کتاب شریفی ضبط نمی کرد، در کتب جماعت صوفیه سنیّه، قریب به آن عبارت هست، اما نه ذکری از امام عصر (علیه السلام) در آن است و نه پایه ای برای کلمات ایشان. کلام استادنا المحدّث المزبور تمام شد، البسه الله فی الجنّه من حلل النّور.
بالجمله؛ بودن این لقب از القاب خاصّه آن بزرگوار در السنه و افواه شیعه، کالشمس فی رائعه النّهار است و، لقب نبودنش برای این بزرگوار در لسان اخبار، کاشف از این است که آن بعد از زمان ائمّه و غیبت آن بزرگوار بر آن حجّت کردگار، اطلاق شده، کما لا یخفی.
آن چه در نکته اختصاص این لقب به وجود شریفش در نظر این ناچیز جلوه گر است - و الله یعلم - این است: چنان که قطب، آن ستاره کوچکی است که در میان جدی و فرقدین واقع شده که مدار فلک بر او است؛ بنابر آن چه در محلّ خود تحقیق شده است؛ «قال فی المجمع: القطب، کوکب صغیر بین الجدی و الفرقدین، مدار الفلک علیه»(144)؛ وجود مقدّس حضرت صاحب الزّمان و ولیّ خداوند رحمان هم، چنین است؛ چه وجود زمین و آسمان، بود کون و مکان، حیات ملک و جنّ و حیوان و انسان، دایر مدار وجود آن امام و ریزه خوار خوان انعام او است: «بیمنه رزق الوری و بوجوده ثبتت الأرض و السّماء».
اگر خواهی بگو: چنان چه اثر مطلوب از رحی و آسیا جز به قطب حاصل نمی شود که آن آهنی است وسط سنگ زیرین آسیا که اگر آن نباشد، آسیا ثمره و فایده ندارد؛ هم چنین ثمره مطلوبی از ولایت کبری و خلافت عظمای الهیّه که آن هدایت انام، تبلیغ احکام، نظام امور مسلمین و انتظام امر دنیا و دین است، جز به وجود آن جان جهان و خلیفه خداوند عالمیان حاصل نمی شود.
چنان که در موهبت سیزدهم از این ضوء، مذکور شد؛ چنان چه حفظ خزاین به خاتم ملوک است، هم چنین حفظ عوالم امکانیّه بسته به وجود خلیفه و امام است، زیرا او متلقّی فیوضات از ساحت قدس معطی السّؤولات و رساننده آن ها است بکلّ ذرّه و درّه، کلّ علی حسب مرتبته و استعداده و وعائه و قابلیّته و لیس بعد جدّه و آبائه، أحد بهذه المنزله الّا وجوده الشّریف. فلذا انحصر هذا اللّقب، بعنصره اللّطیف؛ قال جدّه امیر المؤمنین (علیه السلام) فی خطبه الشقشقیّه: امّا و الله لقد تقمّصها ابن ابی قحافه! و انّه لیعلم إنّ محلّی منها، محلّ القطب من الرحی(145).
و قال (علیه السلام) فی الکلام المأه و الثّامن عشر من النّهج: و انّما أنا قطب الرحی، تدور علیّ و انا بمکانی، فاذا فارقته استحار مدارها و اضطرب ثقالها(146).
[قائم] 12 مسکه:
بدان یکی از القاب خاصّه حضرت ناموس دهر و حجّت عصر (عجّل الله فرجه الشریف) قائم است، چنان که در نجم ثاقب فرموده: این از القاب خاصّه مشهور آن حضرت است.
در ذخیره گفته: این، اسم آن جناب، در زبور سیزدهم، در کتاب «برلبوموا» است(147)؛ مراد از ذخیره، کتاب ذخیره الألباب فاضل المعیّ، میرزا محمد نیشابوری است که به دو اثر العلوم معلوم است و از تضاعیف اخبار و السنه اخیار در سرّ تلقّب آن بزرگوار به این لقب محمدت شعار، چندین نکته، استکشاف و استظهار می گردد.
نکته اوّل [آن که چون حضرت قیام به حق می نماید، فلذا به این لقب ملقّب گردیده]:
آن که چون حضرت قیام به حق می نماید، فلذا به این لقب ملقّب گردیده، چنان که شیخ مفید، در ارشاد(148)، از حضرت رضا (علیه السلام) روایت نموده که فرموده: چون حضرت قائم (علیه السلام) برخیزد، مردم را به اسلام تازه بخواند، تا آن که فرمود: او را قائم نامیدند، برای آن که قیام به حق می نماید.
نکته دوّم [به این جهت که آن حضرت برپا شونده در فرمان حق تعالی است]:
آن که او را قائم گویند، به این جهت که آن حضرت برپا شونده در فرمان حق تعالی است. چه آن جناب، پیوسته در شب و روز، مهیّای فرمان الهی است که به محض اشاره، ظهور نماید.
چنان که در مجمع البحرین(149) است؛ و عن الصّادق (علیه السلام): إنّ منّا إماما مستترا فإذا أراد الله اظهار أمره نکت فی قلبه، فظهر، فقام بامر الله.
نکته سوّم [به جهت این که او، برمی خیزد بعد از آن که می میرد]:
آن که آن جناب را قائم می گویند، به جهت این که او، برمی خیزد بعد از آن که می میرد، چنان که شیخ طوسی در غیبت(150) از ابی سعید خراسانی روایت کرده؛ گفت: به حضرت صادق (علیه السلام) گفتم: مهدی و قائم، یکی است؟
فرمود: آری، تا آن که فرمود: قائم نامیده شد، زیرا او برای امر عظیمی برمی خیزد.
در نجم ثاقب بعد از نقل این خبر فرموده: مراد از موت، یا موت ذکر آن جناب است، یعنی اسمش از میان مردم می رود و شاید لفظ ذکر در خبر بوده و از نسخه شیخ یا از قلم راوی به قرینه خبر صقر، سقط شده.
بلکه صدوق در معانی الأخبار(151) فرموده: قائم (علیه السلام) را قائم نامیدند، زیرا او بعد از موت ذکرش برمی خیزد و یا آن که به گمان بعضی از بی خردان، مراد، بعد از مردن او باشد که کلام آن در باب چهارم بیاید.
این ناچیز گوید: این بعض، علاء الدّوله سمنانی و قاضی حسین میبدی است که کلمات ایشان در باب مذکور از نجم ثاقب منقول است.
استادنا المحدّث فرموده: مویّد این احتمال، روایت شیخ نعمانی، در غیبت(152) خود، از امام محمد باقر (علیه السلام) است که فرمود: هرگاه فلک دور زد و گفتند مرد یا هلاک شد و به کدام وادی رفت؟ و جوینده او گوید: کجا خواهد شد، حال آن که استخوان های او پوسیده؟! در این حال، امیدوار ظهور او باشید.
نیز از جناب صادق (علیه السلام) روایت کرده؛ فرمود: به درستی که چون قائم برخیزد، مردم گویند: این چگونه خواهد بود، حال آن که استخوان های او پوسیده شده بود؟
به روایت دیگر، در حضور آن حضرت، ذکر قائم (علیه السلام) به میان آمد. پس فرمود: آگاه باشید! هرگاه آن جناب برخیزد، هر آینه مردم می آیند و می گویند: این چگونه است، حال آن که استخوان های او از فلان زمان پوسیده(153)؟
نکته چهارم [به جهت این که او به امامت، اقامت خواهد نمود]:
آن که او را قائم نامیده اند، به جهت این که او به امامت، اقامت خواهد نمود، چنان که در کمال الدین(154) از صقر بن ابی دلف روایت کرده؛ گفت: از حضرت امام محمد تقی (علیه السلام) شنیدم، فرمود: امام بعد از من، علی فرزند من است، امر او، امر من، گفته او، گفته من و طاعت او، طاعت من است. امامت بعد از او، در فرزندش حسن است و امر حسن، مانند امر پدر او، فرموده او، فرموده پدر او و اطاعت او، اطاعت پدر او است، سپس حضرت ساکت شد.
عرض کردم: یا بن رسول الله! امام بعد از حسن کیست؟
حضرت گریست، گریستن شدیدی، آن گاه فرمود: امام بعد از حسن، پسر او، قائم به حق و منتظر است.
عرض کردم: یا بن رسول الله! چرا او را قائم نامیدند؟
فرمود: برای این که او بعد از خاموشی ذکرش و مرتد شدن اکثر آن ها که به امامتش قایل بودند، به امامت، اقامه خواهد نمود.
نکته پنجم [به جهت متابعت نمودن از حضرت باری تعالی که آن جناب را به این اسم، نام برد]:
آن که او را قائم نامیدند به جهت متابعت نمودن از حضرت باری تعالی که آن جناب را به این اسم، نام برد، چنان که در کمال الدین، از ابو حمزه ثمالی روایت کرده؛ گفت: از حضرت امام محمد باقر - صلوات الله علیه - سؤال کردم یا بن رسول الله! آیا شما قائم نیستید؟
فرمود: بلی! همه، قائم به حقّ هستیم.
گفتم: پس چگونه حضرت صاحب الامر (علیه السلام) را قائم به حقّ نامیدند؟
فرمود: چون جدّم حسین (علیه السلام) شهید شد، ملایکه در درگاه الهی صدا به گریه و ناله بلند کردند و گفتند: ای خداوند و سید ما! آیا از قتل برگزیده خود، فرزند پیغمبر پسندیده خود و بهترین خلقت غافل می شوی؟
حق تعالی به سوی ایشان وحی کرد: ای ملایکه من! قرار بگیرید. به عزّت و جلالم قسم! هر آینه از ایشان انتقام خواهم کشید، هرچند بعد از زمان ها باشد.
سپس حق تعالی حجاب ها را برداشت و نور امامان از فرزندان حسین را به ایشان نمود و ملایکه به آن، شاد شدند. آن گاه یکی از انوار را دیدند که میان آن ها ایستاده و به نماز مشغول بود. حق تعالی فرمود: به این ایستاده از ایشان، انتقام خواهم کشید(155).
نکته ششم [قائم، از قام بالأمر و أقام به مأخوذ باشد که به معنی قیام به امر و اتیان به او است]:
آن که بعضی احتمال داده اند قائم، از قام بالأمر و أقام به مأخوذ باشد که به معنی قیام به امر و اتیان به او است، به طوری که آن چنان که باید و شاید، حقّ او را ادا نماید.
چنان که در قاموس گفته: قام بالأمر و أقام، إذا جاء به معطی حقوقه و چون آن حضرت حقّ ولایت کبرا و خلافت عظمای الهیّه را ادا می نماید که آن، امامت است؛ به نحوی که هیچ یک از آبای طاهرین و اجداد معصومین آن بزرگوار، به حسب ظاهر و به واسطه سدّ سادّین و منع مانعین متمکّن از ادای آن نشدند؛ لذا از این جهت، او را قائم گفته اند.
نکته هفتم [قائم، از قائم سیف مأخوذ باشد]:
آن که بعضی دیگر احتمالا ذکر کرده اند: شاید قائم، از قائم سیف مأخوذ باشد که آن مقبض و جایی از شمشیر است که آن را به دست خود گیرند.
چنان که در مجمع البحرین(156) است: قائم السّیف و قائمته مقبضه و چون حضرات ائمّه، نسبت به کفّار و منافقین شمشیر انتقام الهی اند و تا شمشیر مقبض نداشته باشد، کارگر نیست؛ چنان که آن بزرگواران، - کما ینبغی - در عهد خود کارگر نبودند.
بنابراین وجود نازنین امام زمان به مثابه مقبض از آن، شمشیر است، فلذا آن بزرگوار را قائم نامیدند.
نکته هشتم [قائم، از قائم الظهیره مأخوذ باشد]:
چیزی که بعض دیگر احتمال داده اند: قائم، از قائم الظهیره مأخوذ باشد و مراد از آن، نصف النّهار است که نور شمس به حدّ استوا رسیده و به این جهت قائمش گویند که در آن هنگام سایه ظاهر نمی شود، چنان که ایضا در مجمع البحرین است: «و قائم الظهیره، نصف النّهار و هو استواء حال الشّمس، سمّی قائما لأنّ الظّلّ لا یظهر حینئذ.»
چون آن جناب هنگام ظهور در منتهی الیه و حدّ استوای لمعان نور امامت و خلافت است؛ به نحوی که معاندین و کفّار و منافقین که به منزله ظلّ اند، ظهور و بروزی برای ایشان نیست. پس بدین واسطه، به این لقب شریف ملقّب گردیده است و العلم عند الله.
[کارّ] 13 مسکه:
بدان یکی از القاب خاصّه حضرت بقیّه الله - عجل الله فرجه - کارّ است؛ چنان که در نجم ثاقب، آن را از هدایه حضینی و مناقب قدیمه نقل فرموده و گفته: آن به معنی رجوع کننده و برگرداننده است.
از مجامع آن چه در آن کتاب ذیل این لقب و اختصاصش بیان فرموده، چند نکته استفاده می شود:
نکته اوّل [آن حضرت از عالم غیب و استتار برمی گردد]:
آن که فرموده: ظاهر است که آن حضرت از عالم غیب و استتار و مجانبت مساکن اشرار، برمی گردد.
نکته دوّم [جمعی از مردگان را برمی گرداند]:
آن که فرموده: جمعی از مردگان را برمی گرداند، چنان که شیخ مفید در ارشاد(157) و دیگران(158) از حضرت صادق (علیه السلام) روایت کرده اند که فرمود: پانزده نفر از ظهر کوفه با قائم خروج می کنند؛ بیست و پنج نفر از قوم موسی (علیه السلام) که به حق، هدایت و به عدل و انصاف حکم می نمودند و هفت نفر از اهل کهف، یوشع بن نون، سلمان فارسی، ابو دجّانه انصاری و مالک اشتر. آن گاه پیش رویش از انصار او می شوند و حکّام بلاد می گردند.
نکته سوّم [رجوع، بعد از مردن ذکر او یا موتش است]:
آن که فرموده: یا مراد به اعتقاد جهّال، رجوع، بعد از مردن ذکر او یا موتش است، چنان چه در لقب قائم گذشت.
نکته چهارم [برگرداننده قرآن اصلی به سوی مردم است]:
چیزی که در نظر این ناچیز است: یا مراد، برگرداننده قرآن اصلی به سوی مردم است، چنان که اخبار متکاثره بر این مطلب وارد شده و ما در این مقام، به نقل خبر احتجاج شیخنا الطبرسی (رحمه الله)(159)، اکتفا می نماییم چه در آن کتاب از ابو ذر غفاری روایت فرموده: چون رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) وفات نمود، امیر المؤمنین (علیه السلام) قرآن را جمع کرد، آن را نزد مهاجرین و انصار آورد و بر ایشان عرضه داشت؛ چون پیغمبر او را به این، وصیّت فرموده بود.
چون ابو بکر آن را باز کرد، در صفحه اوّل، فضایح قوم بیرون آمد، عمر برخاست و گفت: یا علی! آن را برگردان که ما را به آن حاجتی نیست. سپس حضرت آن را گرفت و برگشت.
تا این که می گوید: چون عمر خلیفه شد، از آن جناب سؤال کرد که آن قرآن را به او بدهد تا در میان خود آن را تحریف کنند. پس گفت: یا ابا الحسن! اگر آن قرآن را که نزد ابو بکر آوردی، می آوردی که بر آن مجتمع شویم؟
فرمود: هیهات! به آن راهی نیست! آن را نزد ابی بکر نیاوردم مگر آن که حجّت بر شما تمام شود و روز قیامت نگویید ما از این غافل بودیم یا بگویید آن را نزد ما نیاوردی. همانا قرآنی که نزد من است را جز مطهّرون و اوصیا از فرزندان من مسّ نمی کند.
عمر گفت: آیا وقت معلومی برای اظهار آن هست؟
فرمود: آری! هرگاه قائم از فرزندان من خروج کند، آن را ظاهر می کند و مردم را بر آن وامی دارد، پس سنّت بر آن، جاری می شود.
نکته پنجم [برگرداننده رایت رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) است]:
ایضا چیزی که در نظر ناچیز است که: یا مراد، برگرداننده رایت رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) است که چون ظهور کند، آن رایت با آن جناب باشد و آن جز در جنگ بدر و روز جمل دیگر باز نشده است.
شیخ نعمانی(160) از حضرت صادق (علیه السلام) روایت نموده که در خبری فرمود: جبرییل روز بدر، رایت رسول خدا را نازل نمود. و الله آن نه از کتان، نه از پنبه، نه از ابریشم و نه از حریر بود.
راوی عرض کرد: پس از چه بود؟
فرمود: از برگ بهشت. رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) روز بدر آن را باز کرد. آن گاه آن را پیچید و به علی بن ابی طالب (علیه السلام) داد. پیوسته نزد آن جناب بود تا روز بصره شد.
امیر المؤمنین (علیه السلام) آن را باز کرد و خدای تعالی برای او فتح کرد. سپس آن را پیچید و آن، این جا نزد ماست؛ احدی آن را باز نمی کند تا این که قائم برخیزد. هرگاه برخاست، آن را باز می کند. پس احدی در مشرق و مغرب نمی ماند مگر آن که آن را ملاقات می کند و رعب از پیش روی آن، به مسافت یک ماه و از راست آن یک ماه سیر می کند.
ایضا در آن کتاب از حضرت صادق (علیه السلام) روایت نموده؛ فرمود: چون میان اهل بصره و امیر المؤمنین (علیه السلام) تلاقی شد، رایت رسول خدا را باز کرد. پس قدم های آن ها بلرزید و آفتاب زرد نشد مگر آن که گفتند: ای پسر ابو طالب، ما را امان ده!
و فرمود: چون روز صفّین شد، از حضرت سؤال کردند تا آن رایت را باز کند، اجابت نفرمود، آن گاه جناب امام حسن و امام حسین (علیهما السلام) و عمّار یاسر را شفیع حاجت خود قرار دادند.
حضرت به امام حسن (علیه السلام) فرمود: ای فرزند من! برای این قوم، مدّتی است که باید به آن برسند، به درستی که این رایتی است که جز قائم (علیه السلام) آن را بعد از من باز نمی کند(161).
این ناچیز گوید: شاید ملقّب بودن آن حضرت به لوای اعظم، این نکته را تأیید نماید، چنان که در هدایه حضینی است؛ به علاقه حاملیّت و محمولیّت، نظیر اطلاق حال و محلّ بر یکدیگر، فتأمّل.
نکته ششم [برگرداننده مواریث تمامی انبیا و مرسلین است]:
ایضا چیزی که در نظر این ناچیز است: یا مراد، برگرداننده مواریث تمامی انبیا و مرسلین است، چنان که یکی از القاب خاصّه آن بزرگوار، بنابر آن چه در مناقب قدیمه و هدایه(162) حضینی است، وارث است.
در خطبه غدیریّه رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) است که او درباره آن بزرگوار فرمود: «الا انّه وارث کلّ علم و المحیط به.»
بدیهی است آن جناب، وارث علوم و کمالات و مقامات و آیات بیّنات جمیع انبیا و اوصیا و آبای طاهرین (علیهم السلام) خود است و وراثت حضرتش منحصر در این ها نیست، بلکه اشیای خاصّه و ادوات مخصوصه ای که به آن بزرگوار اختصاص داشته نیز وارث است، چه تمامی آن ها را با نفس نفیس، عودت دهد و بازگرداند.
چنان که در حدیث طولانی مفضّل است که حضرت صادق (علیه السلام) فرمود: چون لشکر حسنی وارد کوفه شود، حسنی از لشکر خود جدا شود و با حضرتش میان دو لشکر بایستند، حسنی به حضرتش گوید: اگر تو مهدی آل محمدی، پس کجاست عصای جدّ تو، رسول خدا (صلّی الله علیه و آله)، انگشتر او، برد او، زره او که آن را فاضل می گفتند، عمّامه او که سحاب و اسبش که مربوع نام داشت، ناقه غضبای او، استر دلدل او، حمار او که به آن یعفور می گفتند، شتر سواری او، براق و قرآنی که امیر المؤمنین (علیه السلام)، بدون تغییر و تبدیل و تأویل آن را جمع کرد؟
حضرت، جوالی حاضر نماید یا مانند آن که آن را سفط می گویند و در آن است، آن چه او خواسته.
مفضّل گفت: ای آقای من! همه آن ها در سفط است؟
فرمود: بلی! و الله و ترکه جمیع پیمبران، حتی عصای آدم، آلت نجّاری نوح، ترکه هود و صالح، مجموعه ابراهیم، صاع یوسف، مکیال شعیب و آینه او و عصای موسی و تابوتی که در او است و بقیّه آن چه از آل موسی و آل هارون ماند که ملایکه برمی دارند، زره داود، عصای رسول خدا (صلّی الله علیه و آله)، انگشتر سلیمان و تاج او، رحل عیسی و میراث جمیع پیغمبران در آن سفط است(163).
در غیبت فضل بن شاذان است که اوّل کاری که آن حضرت می کند، این است که به انطاکیه می فرستد تا عصای موسی و خاتم سلیمان و تورات که در غاری می باشند، می آورند(164).
در غیبت نعمانی(165) است که هنگام خروج، پیراهن پیغمبر را که در آستین چپ آن، خون دندان شکسته اش می باشد، بر تن دارد.
کشف خفاء و رفع غطاء:
بدان علّامه مجلسی (رحمه الله)(166)، در بحار فرموده: از اخبار ظاهر می شود که نزد ائمّه (علیهم السلام)، دو زره بوده است، یکی از آن ها علامت امامت بود که بر بدن هرامامی راست می آمد و دیگری علامت حضرت قائم بود که جز بر بدن آن جناب، راست نیامد، چنان که در روایت بصائر(167) است که حضرت صادق (علیه السلام) فرمود: قائم ما کسی است که چون زره رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) را بپوشد، آن را پر کند؛ یعنی زیاد و کم از اندام مبارکش نشود. به درستی که ابو جعفر آن را پوشید، از قامتش زیاد بود.
راوی عرض کرد: شما سمین ترید یا ابو جعفر؟
فرمود: ابو جعفر از من سمین تر بود. به تحقیق من هم آن را پوشیدم، اندکی زیادتر و به استوا نزدیک تر بود.
در روایت خرایج(168) از ابو بصیر، از حضرت صادق (علیه السلام) است که فرمود: ای ابو محمد! به درستی که پدرم زره رسول خدا را پوشیده و آن را بر زمین می کشید. هر آینه من آن را پوشیدم، پس نزدیک تر بود به این که به اندازه باشد. آن زره بر بدن قائم (علیه السلام) می باشد، چنان که از رسول خدا بود. دامنش از زمین مرتفع است، به نحوی که گویا پیش روی آن را با دو حلقه بلند کرده اند.

نکته هفتم [برگرداننده عزّت اسلام و مسلمین است]:
ایضا چیزی که در نظر این ناچیز است: یا مراد آن است که حضرتش، برگرداننده عزّت اسلام و مسلمین و عوددهنده شوکت ایمان و مؤمنین است، چنان که حافظ ابو نعیم، در حدیث بیست و هشتم از چهل حدیثی که آن ها را در امر حضرت مهدی و کیفیّت حالات و گزارشات زمان آن حضرت تألیف نموده و روایت کرده که آن ها را در کشف الغمّه(169) از حذیفه از حضرت رسول (صلّی الله علیه و آله) نقل فرموده و روایت کرده که فرمود:
هرگاه خدای عزّ و جلّ اراده فرماید، اسلام را عود دهد در حالی که عزیز باشد، هر جابر عنید را درهم می شکند و خدا بر آن چه اراده اش تعلّق بگیرد، قادر است. این که، امّتی را بعد از فساد آن ها به اصلاح بیاورد، پس فرمود: ای حذیفه! اگر از دنیا مگر یک روز نماند، هر آینه خدا آن روز را طولانی می کند تا این که یکی از اهل بیت من سلطنت نماید که ملاحم، بر دو دست او جاری می شود و اسلام را ظاهر بفرماید و در دعای ندبه معروف است که «أین معزّ الأولیاء و مذلّ الأعداء، اللّهمّ عجّل فرجه و سهّل مخرجه.»
[هادی و مهدی] 14 مسکه:
در نجم ثاقب است که در تاریخ جهضمی، در باب القاب ائمّه (علیهم السلام) گفته: لقب قائم، هادی و مهدی است و در اخبار و ادعیه و زیارات به این لقب، یعنی لقب هادی، مکرّر مذکور است و در لقب مهدی، اخباری که در وجه تلقّب آن بزرگوار به این لقب است را ذکر نموده و فرموده: در این اخبار اشکالی است، زیرا آن چه فرمودند، با معنی هادی مناسبت دارد که به معنی راه نماینده است، نه با مهدی که به معنی هدایت یافته به راه راست است.
این ناچیز گوید: علّامه مجلسی (رحمه الله) در بحار از حضرت باقر (علیه السلام) روایت فرموده:
مهدی، به معنی هدایت کرده شده و راه نموده شده است، چون خداوند، راه های چیزهای پنهانی را به آن حضرت می نمایاند، از این جهت او را مهدی نامیده اند که آن حضرت امور مخفی را می داند. آن جناب، به نوعی از اسرار مردم مطّلع است که هر کس در خانه خود سخن گوید، می ترسد دیوار خانه، نزد او شهادت دهد.
بالجمله می فرماید و به ضمّ میم هم نشاید، زیرا او کسی است که برای کسی هدیه می فرستد، توضیح جواب این اشکال، در لقب هادی خواهد آمد. در لقب هادی، بعد از ذکر آن چه در اوّل مسکه از ایشان نقل نمودیم، فرموده: خدای تعالی کسی را برای کافّه عالمیان هادی نکند و به سوی ایشان نفرستد؛ بلکه وعده ندهد که کارش را به انتها رساند مگر بعد از آن که خود، به حقیقت، هدایت یافته، جمیع راه های به سوی حق و حقیقت برایش مفتوح شده، به مقاصد رسیده و مستعدّ هدایت کردن شده باشد.
پس کسی که خدای تعالی او را هادی کرده و به این لقب سرافراز نموده، باید مهدی باشد و آن جناب مهدی نامیده نمی شود مگر آن که دارای آن مقام از هدایت شود که بتواند از جانب حضرت مقدّسش، در مقام هدایت خلق برآید و هرکس را به راهی که داند و تواند بر حسب استعدادش به مقصد خویش برساند. با این ملاحظه تفسیر هر یک به دیگری جایز است. چنان چه در لقب مهدی گذشت که چون از جناب صادق (علیه السلام) معنی مهدی را پرسیدند، فرمود: آن که مردم را هدایت کند... الخ.
یعنی، آن مهدی که خدای تعالی او را مهدی نامیده، کسی است که مقام هدایت یافتنش به جایی رسیده که از جانب اقدسش می تواند در مقام هدایت کردن برآید.
تنویر فی تنظیر:
پس از آن فرموده: نظیر اشکال تفسیر مهدی به هادی، اشکالی است که در لقب مبارک امیر المؤمنین رسیده، چنان چه در معانی الاخبار(170) و علل(171)، از امام باقر (علیه السلام) مروی است که از آن جناب پرسیدند: چرا امیر المؤمنین را، امیر المؤمنین می گویند؟
فرمود: «لأنّه یمیرهم العلم» زیرا آن حضرت، طعام علم برای ایشان می آورد. آیا کتاب خداوند ﴿وَ نَمِیرُ أَهْلَنا﴾ (یوسف: 65) را نشنیده ای؟
وجه اشکال: میره که به معنی جلب طعام است، از مار، یمیر، میرا و امیر، از امرا یأمر به معنی فرمان دهنده است.
بعضی گفتند: امیر، فعل مضارع بر صیغه متکلّم است، خود حضرت نیز این کلام را فرموده، آن گاه به آن مشتهر شد، چنان چه در تأبّط شرّا گفته اند.
وجه سوّم گفته اند: امرای دنیا امیر شدند به جهت آن که ایشان هم متکفّل جلب طعام برای خلق اند و هم آن چه در امور معاش خود به زعم خودشان به آن محتاج اند و اما امیر المؤمنین، پس امارت او به جهت امری بزرگ تر از این است، زیرا آن جناب با مشارکت امرا در میره جسمانیّه برای ایشان جلب طعام روحانی می کند که سبب حیات ابدیّه و قوت روحانیّه ایشان است.
علّامه مجلسی (رحمه الله) این وجه را پسندیده و بهتر همان است که در تفسیر مهدی گفتیم که امارت از جانب خداوند نشود مگر بعد از تکمیل و استعداد و رسیدن به درجه ای از مراتب علوم که هرکس به هرچه محتاج باشد بتواند به او تعلیم نماید.
لذا تا خود، عالم راسخ نشود، نمی تواند بر مسند امارت الهیّه بنشیند، پس خداوند به هرکس از این مقام علمی خبر دهد، می توان گفت به مقام امارت رسیده و هرکس را امیر خواند، ناچار درجات علوم را طی نموده؛ نه مثل امارت مخلوق که هر جاهل نادانی را امیر کنند. شاید بتوان وجه سوّم را به این راجع نمود. و الله العالم.
این ناچیز گوید: در موهبت دهم از ضوء دوّم از نور دوّم کتاب انوار المواهب که به طبع رسیده و آن جزء «بالکوکب الدّری» ملقّب است، پنج وجه که تماما مدلول اخبارند برای تلقّب حضرت ولایت مآب به لقب امیر المؤمنین ذکر نموده ایم و چون کلام استادنا العلّام حاوی مزایا و خصوصیّاتی بود که در آن جا فوت شده بود، لذا آن را به تمامه نقل نمودیم.
اگر لسان قلم در نکت و لطایف هریک از یک صد و هشتاد و دو اسم و لقب و کنیه حجّت زمان، بنابر آن چه در نجم ثاقب است مفتوح گردد، همانا دفتری عظیم لازم است، پس در این مقام به همین قدر قناعت شد.
در نکت اسم عبد الله و احمد و محمد، کنیّه ابو القاسم، لقب یعسوب الدین و کنیّه ابو تراب که برای حضرت ولیّ عصر است، به تضاعیف مواهب شعاع سوّم از نور اوّل کتاب انوار المواهب رجوع شود که بالعسل المصفّی ملقّب است و به ضوء دوّم از نور سوّم آن کتاب که بالکوکب الدّری ملقّب است، چه در آن ها بیان نکت و لطایف این هاست، ما لا یوجد فی غیر ذلک الکتاب. و الله الهادی إلی الصّواب.
فاره دوّم: در بیان اسمایی که در نجم ثاقب آن مرحوم منفردا بعد از بیان آن ها وجه مناسبتی را ذکر فرموده و در آن چند مسکه می باشد.
[احمد، ابو القاسم و ابو عبد الله] 1 مسکه:
بدان در نجم ثاقب است که شیخ صدوق در کمال الدین(172) از امیر المؤمنین (علیه السلام) روایت کرده که یکی از اسمای آن حضرت احمد است و فرمود: مردی از فرزندان من در آخر الزّمان بیرون می آید تا آن که فرمود: برای او، دو اسم است: اسم مخفی و اسم ظاهر. اما اسم مخفی، احمد است...، الخ.
در غیبت شیخ طوسی(173) از حذیفه مروی است که گفت: شنیدم رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) مهدی را ذکر کرد، پس فرمود: میان رکن و مقام، با او بیعت می کنند، اسم او احمد و عبد الله و مهدی است؛ این، نام های او می باشد.
در تاریخ ابن خشّاب و غیره(174) مروی است: آن جناب، صاحب دو اسم است و ظاهر امر، آن دو اسم مبارک رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) باشد.
ایضا در نجم ثاقب است که از جمله اسمای آن بزرگوار، یکی ابو القاسم است، چنان که در اخبار مستفیضه، به سندهای معتبر از خاصّه و عامّه از رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) مروی است که فرمود: مهدی از فرزندان من است، اسم او، اسم من و کنیه او، کنیه من است(175).
در کمال الدین(176) از ابی سهل نوبختی از عقید خادم مروی است که گفت: آن جناب مکنّی به ابی القاسم است.
در تاریخ ابن خشّاب از جناب صادق (علیه السلام) مروی است که فرمود: خلف صالح از فرزندان من می باشد. او مهدی است، اسمش محمد و کنیه اش ابو القاسم است، نیز از قاسم بن عدی روایت کرده که گفت: می گویند کنیه خلف صالح، ابو القاسم است(177).
در بعضی اخبار از کنیه گذاشتن به ابو القاسم، در صورتی که اسم، محمد باشد، نهی رسیده و بعضی به حرمت ذکر آن حضرت، به این کنیه در مجالس تصریح کردند و این که حکم آن، حکم اسم اصلی آن جناب است که بیاید.
از اسمای دیگر آن بزرگوار، ابو عبد الله است، چنان که در نجم ثاقب از گنجی شافعی در کتاب بیان در احوال صاحب الزّمان (علیه السلام)(178) از حذیفه، از رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) روایت کرده؛ فرمود: اگر از دنیا مگر یک روز نماند، هر آینه خداوند مردی را برمی انگیزاند که اسم او، اسم من و خلق او، خلق من و کنیه او، ابو عبد الله است. بیاید آن جناب که مکنّی به کنیه جمیع اجداد طاهرین خود است.
[ابو جعفر، ابو محمّد و ابو ابراهیم و ابو تراب]:
از جمله اسمای آن بزرگوار، ابو جعفر و ابو محمد و ابو ابراهیم است، چنان که ایضا در نجم ثاقب از حضینی روایت کرده که در هدایه(179) گفته است: کنیّه آن جناب، ابو جعفر و ابو محمد و ابو ابراهیم است.
از اسامی دیگر آن جناب، ابو تراب است که کنیه حضرت امیر المؤمنین (علیه السلام) است، چنان که ایضا در نجم ثاقب است که مراد از ابو تراب، صاحب خاک و مربّی زمین باشد، چنان چه یکی از وجوه قرار دادن این کنیه برای آن حضرت است.
در تفسیر آیه شریفه ﴿وَ أَشْرَقَتِ الْأَرْضُ بِنُورِ رَبِّها﴾ (زمر: 69) بیاید که فرمودند: ربّ زمین، امام زمین است و این که مردم به نور حضرت مهدی (علیه السلام) از نور آفتاب و ماه مستغنی شوند.
[ابو صالح]:
دیگر از اسامی آن جناب، ابو صالح است، چنان که در ذخیره اللّباب ذکر کرده: عبّاد مکنّی به ابو صالح است و این کنیه معروف آن حضرت، میان عرب های بلدی و بادیه نشین است که پیوسته در توسّلات و استغاثات خود، آن جناب را به این اسم می خوانند و شعرا و ادبا در قصاید و مدایح خود ذکر می کنند. از بعضی قصص آینده معلوم می شود که سابقا شایع بوده است. در باب نهم، ذکر مأخذی برای این کنیه خواهد شد، ان شاء الله تعالی.
[امیر الأمره]:
از اسامی دیگر آن جناب، امیر الأمره است که امیر المؤمنین (علیه السلام) آن جناب را به آن خواندند، چنان چه ثقه جلیل، فضل بن شاذان، در کتاب غیبت(180) خود از امام صادق (علیه السلام) از آن حضرت روایت کرده که بعد از ذکر جمله ای از فتن و حروب و آشوب ها فرمود: دجّال بیرون می آید و در اغوا و اضلال مبالغه می کند، پس امیر امره و قاتل کفره و سلطان مأمول ظاهر می شود که عقول در غیبت او متحیّر است. ای حسین! او نهم از فرزندان تو است. بین رکنین ظاهر می شود و بر ثقلین غلبه می کند.
[ایدی]:
از جمله اسامی آن جناب، ایدی است، چنان که در نجم ثاقب از هدایه حضینی(181) و مناقب قدیمه از القاب آن جناب، آن را شمرده اند. ظاهرا مراد از ایدی که جمع ید است، در این جا به معنی نعمت باشد، چنان چه صدوق در کمال الدین(182) و ابن شهر آشوب در مناقب(183) از جناب کاظم (علیه السلام) روایت کردند که در تفسیر آیه شریفه:
﴿وَ أَسْبَغَ عَلَیْکُمْ نِعَمَهُ ظاهِرَهً وَ باطِنَهً﴾ (لقمان: 20) فرموده: امام ظاهر، نعمت ظاهره و امام غایب، نعمت باطنه است. در مواضع بسیاری از قرآن، نعمت به امام (علیه السلام) تفسیر شده است.
[بقیه الله]:
از دیگر اسامی آن بزرگوار، بقیّه الله است، چنان که در ذخیره گفته: این، نام آن جناب است.
در کتاب ذوهر و در غیبت(184) فضل بن شاذان از جناب صادق (علیه السلام) مروی است که ضمن احوال قائم (علیه السلام) فرمود: چون خروج کرد، پشت به کعبه می دهد و سی صد و سیزده مرد جمع می شود. اوّل چیزی که تکلّم می فرماید، این آیه است: ﴿بَقِیَّتُ الله خَیْرٌ لَکُمْ إِنْ کُنْتُمْ مُؤْمِنِینَ﴾ (هود: 86). آن گاه می فرماید: منم بقیّه الله و حجّت و خلیفه او بر شما. سلام کننده ای بر او سلام نمی کند مگر آن که می گوید: السلام علیک یا بقیّه الله فی أرضه!
شیخ فرات بن ابراهیم در تفسیر(185) خود از عمران بن واهر روایت کرده که گفت:
مردی خدمت حضرت صادق (علیه السلام) عرض کرد: آیا به امره المؤمنین به حضرت قائم (علیه السلام) سلام کنیم، یعنی به او بگوییم یا امیر المؤمنین؟
فرمود: نه! این اسمی است که خداوند، امیر المؤمنین (علیه السلام) را به آن نامید، که احدی پیش از او و بعد از او نامیده نمی شود مگر آن که کافر باشد.
گفت: پس چگونه بر او سلام کنیم؟
فرمود: بگویید السلام علیک یا بقیّه الله! آن گاه حضرت، بقیّه الله خیر لکم ان کنتم مؤمنین را خواند.
[بئر معطّله]:
از دیگر اسامی آن بزرگوار، بئر معطّله است، چنان که در نجم ثاقب از علی بن ابراهیم است که در تفسیر(186) خود از جناب صادق (علیه السلام) روایت کرده؛ در تفسیر آیه شریفه ﴿وَ بِئْرٍ مُعَطَّلَهٍ﴾ (حج: 45) فرمود: این مثلی است که برای آل محمد (علیهم السلام) جاری شده؛ بئر معطّله چاهی است که از آن آب کشیده نمی شود.
آن امامی است که غایب شده، پس تا وقت ظهور علم از او اقتباس نمی شود؛ یعنی به اسباب ظاهره متداوله برای هرکس در هروقت، چنان چه در عصر هرامامی میسّر بود، غیر از آن جناب که اگر مانع خارجی نبود، قصر مرتفع بودند، پس منافات ندارد با آن چه از تمکّن انتفاع به علم و سایر فیوضات آن جناب، به غیر اسباب متعارف برای خواصّ بلکه غیر ایشان ذکر خواهیم نمود.
[بقیه الانبیاء] 2 مسکه:
بدان یکی از اسامی آن بزرگوار بقیّه الانبیا است، چنان که ایضا در نجم ثاقب است که این اسم با چند لقب دیگر در خبری که حافظ برسی در مشارق الأنوار(187) از حکیمه خاتون روایت کرده مذکور است، به نحوی که عالم جلیل سید حسین مفتی کرکی، سبط محقّق ثانی در کتاب دفع المناوات از او نقل کرده و گفت: تولد قائم (علیه السلام)، شب نیمه شعبان بود تا آن که می گوید: آن جناب را نزد برادرم حسن بن علی (علیهما السلام) آوردم، حضرت به دست شریف بر روی نور او مسح فرمود که نور انوار بود و فرمود: ای حجّت الله، بقیّه انبیا، نور اصفیا، غوث فقرا، خاتم اوصیا، نور اتقیا و صاحب کره بیضا سخن گو!
فرمود: «اشهد ان لا اله الّا الله»...، تا آخر آن چه در ولادت آن حضرت ذکر شد.
لکن در نسخه مشارق چنین است: ای حجّت الله، بقیّه انبیا، خاتم اوصیا، صاحب کره بیضا و مصباح دریای عمیق شدید الضّیا سخن بگو! سخن بگو ای خلیفه اتقیا و نور اوصیا...، الخ.
[تأیید]:
از دیگر اسامی آن حضرت، تأیید است، چنان که در هدایه(188)، آن را از القاب آن حضرت شمرده و آن به معنی نیرو و قوّت دادن است.
در کمال الدین(189) از امیر المؤمنین (علیه السلام) مروی است که بعد از ذکر شمایل و نام های آن جناب فرمود: دست خود را بر سرهای عباد می گذارد. پس مؤمنی نمی ماند مگر آن که دلش سخت تر از پاره آهن می شود و خداوند به آن مؤمن، قوّت چهل مرد می دهد.
[تمام]:
و از جمله اسامی آن بزرگوار، تمام است، چنان که در هدایه(190)، آن را از القاب شمرده و معنی آن واضح است، چه آن حضرت در صفات حمیده و کمال، افعال و شرافت نسب، شوکت، حشمت، سلطنت، قدرت و رأفت، تامّ و تمام، بی عیب و منقصت و زوال است.
محتمل است مراد از تمام، متمّم و مکمّل باشد، چه به وسیله آن جناب خلافت و ریاست الهیّه در زمین، آیات باهره، علوم و اسرار انبیا و اوصیا تمام شود و این اطلاق، در استعمال شایع است.
[ثائر]:
و از جمله اسامی آن جناب، ثائر است، چنان که در نجم ثاقب از مناقب قدیمه نقل کرده و آن را از القاب آن جناب شمرده. ثائر، کینه خواه را گویند که آرام نگیرد تا قصاص نماید و خواهد آمد که آن جناب خون جدّ بزرگوار خود، بلکه خون جمیع اصفیا را مطالبه کند. در دعای ندبه است؛ «این الطّالب بذحول الأنبیا و ابناء الانبیاء، أین الطّالب بدم المقتول بکربلا».
[جعفر]:
از جمله اسامی آن حضرت، جعفر است، چنان که شیخ صدوق (رحمه الله) در کمال الدین(191) از حمزه بن الفتح روایت کرده؛ گفت: برای ابی محمّد (علیه السلام) مولودی شد که به کتمان او امر فرمود.
حسن بن منذر از او پرسید: اسمش چیست؟
گفت: محمد نامیده و به جعفر کنیه گذاشته شد.
ظاهرا مراد، کنیه معروف نباشد بلکه مقصود آن است که به اسم آن جناب تصریح نمی کنند بلکه به کنایه از او، به جعفر تعبیر می کنند از ترس عمویش جعفر که شیعیان چون با یکدیگر سخن گویند، بگویند: جعفر را دیدیم یا او امام است یا از او توقیع رسید یا این مال را نزد او ببر و هکذا که تابعان جعفر نفهمند.
در غیبت شیخ نعمانی(192)، دو خبر از امام محمد باقر (علیه السلام) است که در آن جا از القاب آن جناب شمرده اند؛ به عموی خود کنیه گذاشته شد یا از او به عمویش کنایه کنند.
ظاهرا مراد از آن دو خبر، همین باشد.
علّامه مجلسی احتمال داد شاید کنیه بعضی از عموهای آن جناب، ابو القاسم بوده یا کنیه آن جناب ابو جعفر یا ابی الحسین یا ابی محمد نیز باشد که این ها کنیه حضرت مجتبی (علیه السلام) و سید محمد معروف، عموی آن حضرت است و بعد از آن، احتمالی که ما دادیم را ذکر نمود. آن گاه فرمود: اوسط اظهر است؛ چنان چه در خبر حمزه بن الفتح گذشت...، الخ و این بسیار غریب است، چون در نسخ کمال الدین، حتی در نسخه خود آن مرحوم که نقل کردند؛ جعفر است نه ابی جعفر(193).
در منتهی الأرب گفته: «و یقال: فلان یکنّی بابی عبد الله مجهولا و لا یقال یکنّی بعبد الله»؛ این کلام برای دفع توهّم است که مثلا جایی که کنیه ابی عبد الله یا ابی جعفر است، نباید گفت: کنی بعبد الله یا بجعفر.
بنابراین آن جا که چنین کلامی صادر شد، غرض خود آن اسم است. و الله العالم.
[حق] 3 مسکه:
ایضا در نجم ثاقب، یکی از اسامی آن جان جهان و امام عالمیان، حقّ است که در مناقب قدیمه و هدایه(194)، آن را از القاب شمرده اند.
در کافی(195) از جناب باقر (علیه السلام) مروی است که در آیه شریفه: ﴿وَ قُلْ جاءَ الْحَقُّ وَ زَهَقَ الْباطِلُ﴾ (اسراء: 81)...، الخ فرمود: چون قائم (علیه السلام) خروج کند، دولت باطل برود. بنابراین تفسیر، تعبیر به صیغه ماضی به جهت تأکید وقوع آن و بیان این که شکّی در آن نیست و گویا واقع شده است.
در زیارت آن جناب است: «السلام علی الحقّ الجدید». ظاهر است که جمیع حالات، صفات، افعال، اقوال، اوامر و نواهی آن حضرت، تمام منافع و خیرات و مصالح ثابته باقیّه تامّه را داراست که در آن، ضرر و مفسده و خطایی، نه در دنیا و آخرت و نه برای خود و احدی از پیروان آن جناب راه ندارد.
[جوار الکنّس]:
و از جمله اسامی آن بزرگوار، جوار الکنّس است؛ یعنی ستاره های سیّاره که زیر شعاع آفتاب پنهان می شوند؛ چون وحشیان که در خوابگاه درآیند و، در آن جا پنهان شوند.
در کمال الدین(196) و غیبت شیخ طوسی(197) و غیبت نعمانی(198) در تفسیر آیه شریفه: ﴿فَلا أُقْسِمُ بِالْخُنَّسِ * الْجَوارِ الْکُنَّسِ﴾ (تکویر: 15-16) از جناب باقر (علیه السلام) مروی است؛ فرمود:
مراد از آن، امامی است که سنه دویست و شصت غایب شود، آن گاه مانند شهاب درخشان در شب تاریک ظاهر شود. سپس به راوی فرمود: اگر آن زمان را درک کردی، چشم هایت روشن خواهد شد.
[حجّت و حجّت الله]:
و دیگر از اسامی آن حضرت، حجّت و حجّت الله است، چنان که در عیون(199) و کمال الدین(200) و غیبت شیخ(201) و کفایه الاثر(202) علی بن مجد خرّاز، از ابی هاشم جعفری مروی است که گفت: شنیدم امام علی النّقی (علیه السلام) می فرماید: جانشین بعد از من، حسن پسر من است. حال شما با جانشین بعد از جانشین من چگونه خواهد بود؟
گفتم: چرا، فدایت شوم؟
فرمود: به جهت آن که شخص او را نمی بینید و بردن نام او برای شما حلال نیست.
گفتم: پس چگونه او را ذکر کنیم؟
فرمود: بگویید حجّت از آل محمد (علیهم السلام).
این از القاب شایع آن جناب است که در ادعیّه و اخبار بسیاری به همین لقب مذکور شده اند و بیشتر محدّثین، آن را ذکر نموده اند. سایر ائمّه (علیهم السلام) در این لقب، شریک اند و همه از جانب خداوند حجّت های بر خلق اند، لکن این لقب چنان به آن جناب اختصاص دارد که در اخبار هرجا بی قرینه و شاهدی ذکر شود، مراد، آن حضرت است.
بعضی گفتند: لقب آن جناب، حجّت الله؛ به معنی غلبه یا سلطنت خدا بر خلایق است، چه این دو به واسطه آن حضرت به ظهور خواهد رسید.
نقش خاتم آن جناب، أنا حجّه الله و به روایتی أنا حجّه الله و خالصته است و به همین مهر، روی زمین حکومت کند.
[خداشناس]:
از جمله اسامی آن بزرگوار، خداشناس است، چنان چه ایضا در مناقب قدیمه و هدایه است که این، نام آن حضرت می باشد.
شامکونی که به اعتقاد کفره هند، پیغمبر صاحب کتاب بوده و گویند بر اهل خطا و ختن مبعوث شده و مولد او، شهر کیلواس بوده، گوید: دنیا و حکومت آن به فرزند سید خلایق دو جهان، یشن - که به زبان ایشان، نام رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) است - برسد، او بر کوه های مشرق و مغرب دنیا حکم براند، فرمان دهد و بر ابرها سوار شود؛ فرشتگان، کارکنان او و پری زادان و آدمیان، در خدمت او باشند.
از سودان که زیر خطّ استواست تا عرض تسعین که زیر قطب شمالی است و ماورای اقلیم هفتم را که گلستان ارم و کوه قاف باشد، صاحب شود و دین خدا یک دین باشد، نام او ایستاده و خداشناس است(203).
[داعی]:
از جمله اسامی آن حضرت، داعی است، چنان که ایضا آن را در هدایه(204) از القاب شمرده و در زیارت مأثوره آن جناب است: السلام علیک یا داعی الله. و آن جناب از جانب خداوند داعی خلایق برای خداوند و به سوی خداوند است.
انجام این دعوت را به آن جا رساند که در دنیا دینی جز دین جدّ بزرگوار خود (صلّی الله علیه و آله و سلّم) نگذارد. به وجود و دعوت او صدق وعده صادق الوعد ظاهر شود که لیظهر علی الدین، چنان چه تفسیر آن بیاید...، بلکه در تفسیر علی بن ابراهیم(205) در آیه شریفه ﴿یُرِیدُونَ لِیُطْفِؤُا نُورَ الله﴾ (توبه: 32)...، الخ مروی است: خداوند نور خود را به قائم آل محمد (علیهم السلام) تمام می کند.
[ساعه] 4 مسکه:
بدان یکی از القاب و اسامی شریف آن بزرگوار، ساعه است.
در حدیث طولانی مفضّل و غیر آن از جناب صادق (علیه السلام) مروی است: مراد از ساعه در آیه شریفه: ﴿یَسْئَلُونَکَ عَنِ السَّاعَهِ أَیَّانَ مُرْساها﴾ (اعراف: 187؛ نازعات: 42)، در آیه مبارکه ﴿یَسْئَلُونَکَ عَنِ السَّاعَهِ...﴾، الخ، در آیه شریفه: ﴿وَ عِنْدَهُ عِلْمُ السَّاعَهِ﴾ (زخرف: 85)، در آیه کریمه: ﴿هَلْ یَنْظُرُونَ إِلَّا السَّاعَهَ﴾ (زخرف: 66) و در آیه شریفه: ﴿وَ ما یُدْرِیکَ لَعَلَّ السَّاعَهَ﴾ (أحزاب: 63؛ شوری: 17) تا قوله تعالی ﴿أَلا إِنَّ الَّذِینَ یُمارُونَ فِی السَّاعَهِ لَفِی ضَلالٍ بَعِیدٍ﴾ (شوری: 18)؛ در تأویل حضرت مهدی (علیه السلام) است.
مفضّل سؤال کرد: معنی یمارون چیست؟
فرمود: می گویند کی متولّد شد، چه کسی او را دیده، کجاست و کی ظاهر می شود.
همه این ها به جهت استعجال در امر الهی و شکّ در قضای او است. مشابهت آن حضرت با ساعه از جهات بسیار است که مخفی نیست(206)؛ مثل آن چه فرمود و مثل آمدن هردو بغتتا و شراکت در علامات بسیار از خسف و مسخ، ظهور آتش و غیر آن؛ امتیاز مؤمن از کافر به سبب هردو، هلاکت جبّارین، وقت قرار ندادن خداوند برای آمدن آن دو نزد انبیا و ملایکه و اخبار جمیع پیغمبران به آمدن هردو.
در تفسیر آیه شریفه: ﴿وَ ذَکِّرْهُمْ بِأَیَّامِ الله﴾ (ابراهیم: 5) که خطاب به جناب موسی (علیه السلام) است که ایّام خداوند را متذکّر کند و یاد بنی اسراییل آورد، رسیده: ایّام خداوند سه روز است؛ روز قائم (علیه السلام)، روز رجعت و روز قیامت(207). در بعضی اخبار به جای رجعت، روز موت ذکر شده.
مسعودی در اثبات الوصیّه(208) روایت کرده: آن روز که حضرت موسی (علیه السلام) ایّام الله را برای بنی اسراییل ذکر می کرد، زیر منبر او، هزار پیغمبر مرسل بودند.
در غیبت فضل بن شاذان(209) مروی است: امام حسن مجتبی (علیه السلام) از رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) پرسید: ای رسول خدا! قائم ما اهل بیت کی خروج خواهد کرد؟
فرمود: ای حسن! جز این نیست که مثل او مثل ساعه، یعنی روز قیامت است که خدای تعالی علم آن را بر اهل آسمان ها و زمین پنهان داشته، نمی آید مگر ناگاه و بی خبر.
در کافی(210) مروی است که در آیه شریفه: ﴿حَتَّی إِذا رَأَوْا ما یُوعَدُونَ إِمَّا الْعَذابَ وَ إِمَّا السَّاعَهَ﴾ (مریم: 75) فرمود: مراد از ﴿ما یُوعَدُونَ﴾، خروج قائم (علیه السلام) است و او، ساعه می باشد، آن روز می دانند چه از خداوند به دست قائم او بر ایشان نازل شده و می شود.
[شرید]:
از جمله اسامی آن بزرگوار، شرید است که در لسان ائمّه (علیهم السلام)، خصوصا امیر المؤمنین و جناب باقر (علیهما السلام) مکرّر به این لقب مذکور شده.
شرید به معنی رانده شده است؛ یعنی از این خلق منکوس که نه جنابش را شناختند، نه قدر وجود نعمتش را دانستند و نه در مقام شکرگزاری و ادای حقّش برآمدند، بلکه پس از یأس اوایل ایشان از غلبه و تسلّط بر آن جناب و قتل و قمع ذرّیّه طاهره اجلاف ایشان به اعانت زبان و قلم، در مقام نفی و طردش از قلوب برآمدند، بر اصل نبودن و نفی تولّدش ادلّه اقامه نمودند و خاطرها را از یادش محو کردند.
خود آن حضرت به ابراهیم بن علی بن مهزیار فرمود: پدرم به من وصیّت نمود از زمین منزل نگیرم، مگر جایی که از همه جا مخفی تر و دورتر باشد به جهت پنهان نمودن امر خود و محکم کردن محلّ خود از مکاید اهل ضلال.
تا آن که می فرماید: پدرم به من فرمود: ای پسرم! بر تو باد به ملازمت جاهای نهان از زمین و طلب کردن دورترین، زیرا برای هرولیّی از اولیای خداوند، دشمنی مغالب و ضدّی منازع الخبر است.
[صاحب الناحیه] 5 مسکه:
از جمله اسامی آن نور کردگار، صاحب الناحیه است، چنان چه در نجم ثاقب ذکر فرموده و اطلاق آن در اخبار بر آن جناب بسیار است. لکن علمای رجال فرمودند: بر امام حسن (علیه السلام)، بلکه بر امام علی النّقی (علیه السلام) نیز اطلاق می شود(211).
سید علی بن طاوس در اقبال(212) و محمد بن مشهدی در مزار(213) و غیر ایشان روایت کردند: سنه دویست و پنجاه و دو از ناحیه بیرون آمد بر دست شیخ محمد بن غالب اصفهانی زیارت معروفه ای که مشتمل بر اسامی شهدا است.
علّامه مجلسی (رحمه الله) در بحار(214) فرموده: در خبر اشکالی است به جهت تقدّم تاریخ آن بر ولادت قائم (علیه السلام) به چهار سال، شاید نسخه، دویست و شصت و دو بوده و احتمال دارد از حضرت امام حسن (علیه السلام) صادر شده باشد.
از این کلام، قلّت اطلاق آن بر غیر امام زمان (علیه السلام) معلوم می شود بلکه کفعمی در حاشیه مصباح خود گفته: ناحیه، هرمکانی است که صاحب الأمر - صلوات الله علیه - در غیبت صغرا آن جا بوده است.
[ضحی]:
از دیگر اسمای آن بزرگوار، ضحی است، چنان که در تأویل الآیات(215) شیخ شرف الدین نجفی در تأویل سوره مبارکه ﴿وَ الشَّمْسِ وَ ضُحاها﴾ (شمس: 1) مروی است؛ شمس، رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) است و ضحای شمس که نور و ضیای آفتاب است؛ چون بتابد، قائم (علیه السلام).
در بعضی نسخ، خروج آن جناب است. ظاهر است که پرتو نور رسالت و شعاع خورشید آن حضرت توسط آن جناب در شرق و غرب عالم زمین، بر هرصغیر و کبیر و برنا و پیر خواهد تابید.
[صبح مسفر]:
از جمله اسامی آن حضرت، صبح مسفر است، چنان که در هدایه(216) آن را از القاب شمرده و محتمل است آن را از آیه شریفه: ﴿وَ الصُّبْحِ إِذا أَسْفَرَ﴾ (مدثر: 34) استنباط کرده یا در تأویل آن به حضرت، خبری به نظر او رسیده، مناسبت آن به حضرت، چون صبح صادق روشن و هویداست.
[غیب]:
از دیگر اسمای شریف آن بزرگوار، غیب است، چنان که در نجم ثاقب، آن را از ذخیره نقل نموده و از نام های آن حضرت شمرده که در قرآن مذکور است(217).
در کمال الدین(218) صدوق از جناب صادق (علیه السلام) مروی است که در آیه شریفه:
﴿هُدیً لِلْمُتَّقِینَ * الَّذِینَ یُؤْمِنُونَ بِالْغَیْبِ﴾ (بقره: 2-3)، فرمود: متّقون، شیعیان علی بن ابی طالب (علیه السلام) هستند و اما غیب، او حجّت غایب است.
شاهد بر این قول، خدای تعالی است که فرموده: ﴿وَ یَقُولُونَ لَوْ لا أُنْزِلَ عَلَیْهِ آیَهٌ مِنْ رَبِّهِ فَقُلْ إِنَّمَا الْغَیْبُ لله فَانْتَظِرُوا إِنِّی مَعَکُمْ مِنَ الْمُنْتَظِرِینَ﴾ (یونس: 20)؛ می گویند: چرا آیتی از جانب پروردگارش بر او فروفرستاده نشد، پس بگو: غیب نیست مگر برای خدا، پس منتظر باشید، به درستی که من با شما از منتظرانم؛ یعنی برای آمدن آن غیب که از آیات خداوندی است.
[غریم]:
از دیگر اسمای شریف آن بزرگوار، غریم است، چنان که علمای رجال(219) تصریح نمودند، از القاب خاصّه است و در اخبار اطلاق آن بر حضرت، شایع است.
غریم، هم به معنی طلبکار و هم به معنی بدهکار است، در این جا به معنی اوّل است. این لقب، مثل غلام از روی تقیّه بود، چون شیعیان می خواستند مالی نزد آن جناب یا وکلایش بفرستند یا وصیّت کنند یا از جانب آن حضرت مطالبه کنند و نظایر این مقام، او را به این لقب می خواندند. او از غالب ارباب زرع و تجارت و حرفه و صناعت، طلبکار بود.
شیخ مفید در ارشاد(220) از محمد بن صالح روایت کرده که گفت: چون پدرم مرد و امر به من راجع شد و دستکی از مال غریم برای پدرم بر مردم بود.
شیخ فرمود: این رمزی بود که قدیم شیعه آن را میان خود می شناختند و خطاب ایشان به آن حضرت برای تقیّه بود.
[فتح]:
از جمله اسامی آن بزرگوار، فتح است، چنان که در هدایه(221) آن را از القاب شمرده.
در اخبار ولادت گذشت که حکیمه خاتون به نرجس خاتون گفت: خداوند امشب غلامی به تو می بخشد که در دنیا و آخرت سید است و او فرج مؤمنین می باشد.
در کتاب تنزیل و تحریف احمد بن محمد سیّاری، مروی است که در آیه شریفه: إِذا جاءَ...، الخ فرمودند: مراد از فتح، فتح قائم (علیه السلام) است.
در تفسیر علی بن ابراهیم(222) در تفسیر آیه شریفه: ﴿نَصْرٌ مِنَ الله وَ فَتْحٌ قَرِیبٌ﴾ (صف: 13) مذکور است: یعنی در دنیا به فتح قائم (علیه السلام).
[فقیه]:
دیگر از اسامی آن بزرگوار، فقیه است، چنان چه شیخ طوسی در تهذیب(223)، در باب حدّ حرم حسین (علیه السلام) از محمد بن عبد الله بن جعفر حمیری روایت کرده؛ گفت: به فقیه (علیه السلام) نوشتم، از او سؤال کردم آیا جایز است مرد، به خاک قبر حسین (علیه السلام) تسبیح بفرستد و آیا فضلی در او هست؟
پس جواب داد، توقیع را خواندم و از آن نسخه کردم: به آن تسبیح بفرست. پس چیزی افضل از تسبیح نیست و از فضل او این است که مسبّح، تسبیح را فراموش می کند و آن سبحه را می چرخاند. پس آن را برای او تسبیح می نویسند.
نیز از او روایت کرده: به فقیه (علیه السلام) نوشتم، از او سؤال کردم از خاک قبر آن حضرت که با میّت در قبرش گذارده می شود، آیا جایز است یا نه؟
پس جواب داد، توقیع را خواندم و از آن نسخه کردم: با میّت در قبرش گذاشته می شود و با حنوط او مخلوط کنند، ان شاء الله و مراد از فقیه در این جا، یقینا آن جناب است.
[فیذموا] 6 مسکه:
ایضا یکی از اسامی آن بزرگوار، فیذمواست، چنان که شیخ اقدم، احمد بن محمد بن عیّاش در مقتضب الاثر(224)، از جابر بن یزید جعفی روایت کرده؛ گفت: شنیدم سالم بن عبد الله بن عمر بن الخطاب می گفت: شنیدم رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) می فرمود: به درستی که خدای عزّ و جلّ در آن شبی که مرا به سوی خود برد به من وحی فرستاد: ای محمد! چه کسی را در زمین بر امّت خود جانشین خود کردی و او به این داناتر بود؟
گفتم: برادرم را ای پروردگار من!
فرمود: ای محمد! علی بن ابی طالب؟
گفتم: آری!
فرمود: ای محمد! من بر زمین واقف و آگاه شدم، پس تو را از آن برگزیدم، ذکر نمی شوم تا آن که تو با من ذکر شوی. آن گاه در رتبه دوّم با نظر علمی به آن نگاه کردم، پس علی بن ابی طالب را از آن اختیار کردم و او را وصیّ تو گرداندم، پس تویی سید انبیا و علی است سید اوصیا.
آن گاه اسمی از نام های خود برای او مشتق کردم، پس منم اعلی و او علی است.
به درستی که علی (علیه السلام)، فاطمه (علیها السلام)، حسن (علیه السلام)، حسین و ائمّه (علیهم السلام) را از یک نور خلق کردم، آن گاه ولایت ایشان را بر ملایکه عرضه داشتم، پس هرکه آن را قبول کرد، از مقرّبین شده و هرکس آن را انکار نمود، از کافرین شد.
ای محمد! اگر بنده ای از بندگان مرا عبادت کند تا آن که منقطع شود، سپس با انکار ولایت ایشان، مرا ملاقات کند، او را در آتش خود داخل می کنم.
پس فرمود: ای محمد! آیا دوست داری ایشان را ببینی؟
گفتم: آری!
فرمود: پیش برو در جلو خود، پیش رفتم، ناگاه دیدم علی بن ابی طالب، حسن، حسین، علی بن الحسین، محمد بن علی، جعفر بن محمد، موسی بن جعفر، علی بن موسی، محمد بن علی، علی بن محمد، حسن بن علی و حجّت قائم (علیهم السلام) را که گویا ستاره ای درخشان وسط ایشان بود.
گفتم: ای پروردگار من! این ها کیستند؟
فرمود: ایشان امامان اند و این که ایستاده، حلال را حلال و حرام را حرام می کند و از اعدای من انتقام می کشد. ای محمد! او را دوست دار، زیرا من او را و کسی که او را دوست دارد، دوست دارم.
جابر گفت: چون سالم از حجر کعبه برگشت، او را متابعت کردم. گفتم: ای ابا عمرو! تو را به خداوند قسم می دهم، آیا کسی غیر از پدرت تو را به این نام ها خبر داد؟
گفت: اما حدیث از رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم)، پس نه و لکن با پدرم نزد کعب الأحبار بودم، از او شنیدم که می گفت: به درستی که ائمّه این امّت بعد از پیغمبر خود بر عدد نقبای بنی اسراییل است، پس علی بن ابی طالب (علیه السلام) پیدا شد. کعب گفت: این مقفّی اوّل ایشان و یازده نفر از فرزندان او است. آن گاه ایشان را به نام هایشان در تورات نامید:
«نقرثیب، قیذوا، دبیرا، مفسورا، مسموعاه، دوموه، مثیوا، هذار، یثیموا، بطور، نوقس، فیذموا.»
ابو عامر هشام دستوانی راوی این خبر، گفت: شخصی یهودی را در حیره ملاقات نمودم که نزدیک کربلاست، او را عتوا بن اوسوا می گفتند و او عالم یهود بود. این اسماء را از او سؤال کردم.
گفت: این ها اسم نیستند. اگر اسم بودند، هر آینه در سلک اسما رقم می شد، لکن این ها برای اقوامی اوصاف جمیله و به زبان عبرانی صحیح است، آن ها را در تورات می یابیم و اگر از غیر من آن ها را سؤال کنی، هر آینه از معرفت آن ها کور خواهد بود یا خود را به کوری زند.
گفت: چرا چنین کند؟
گفت: کوری، از روی جهل به آن ها و به کوری زدن، برای آن که بر فساد دین خود معین نباشد و به این، بصیرت پیدا نکنند.
این که من برای تو به این اوصاف اقرار کردم، برای آن است که من مردی از فرزندان هارون بن عمران هستم و به محمد (صلّی الله علیه و آله و سلّم) مؤمنم. ایمان خود را از خواصّ خود پنهان می کنم، از یهودانی که اسلام را برای ایشان اظهار نمی کنم و هرگز برای احدی بعد از تو اظهار نخواهم کرد تا آن که بمیرم.
گفتم: چرا؟
گفت: زیرا در کتب پدران گذشته خود یافتم که در ظاهر به این پیغمبری که اسم او محمد (صلّی الله علیه و آله و سلّم) است ایمان نیاوریم، ولی در باطن به او ایمان بیاوریم تا آن که مهدی قائم از فرزندان او ظاهر شود، پس هرکس از ما او را درک کند، به او ایمان آورد و آخر آن نام ها به او، وصف کرده شده است.
گفتم: به چه مدح کرده شده؟
گفت: به این که بر جمیع دین ها غالب می شود، مسیح با او خروج می کند، به دین او درمی آید و مصاحب او می شود.
گفتم: این اوصاف را برای من وصف کن.
گفت: آری! و آن را ستر کن مگر از اهل و موضعش، ان شاء الله تعالی.
امّا نقرثیب، او اوّل اوصیا و وصیّ آخر انبیاست.
و قیذوا، ثانی اوصیا و اوّل عترت اصفیا است.
امّا دبیرا، دوّم عترت و سید الشهداست.
مسفورا، سید کسانی است که خدا را از بندگانش عبادت کردند.
امّا مسموعاه، او وارث علم اوّلین و آخرین؛
مثیوا، بهترین محبوس در زندان ظالمین؛
هذار، مقهور دور شده از وطن ممنوع است.
امّا یثیموا، کوتاه عمری است که آثارش طولانی است.
بطور، اسم چهارم او؛ یعنی علی (علیه السلام) است،
امّا نوقس، هم نام عمّ خود است.
امّا فیذموا، او مفقود از پدر و مادر خویش و به امر خداوند غایب است و حکم او را برپا می دارد.
نعمانی در غیبت(225) خود فرموده: عبد الحکیم بن حسن سمرّی (رحمه الله)، چیزی را بر من قرائت کرد که آن را مردی از یهود در ارجان املا نموده بود، او را حسن بن سلیمان می گفتند و از علمای یهود بود. در آن جا اسمای ائمّه (علیهم السلام) به زبان عبرانی و عدد ایشان بود و من به لفظ او بیان می کنم و در آن بود آن چه خواندم که خداوند پیغمبری را از فرزندان اسماعیل مبعوث می فرماید، اسم اسماعیل در تورات اشموعیل و اسم آن پیغمبر، میمی ماد؛ یعنی محمد (صلّی الله علیه و آله و سلّم) است، او بزرگ خواهد شد و از آل او دوازده نفر ائمّه و بزرگان اند که به ایشان اقتدا می شود. نام های ایشان ثقرثیب...، تا آخر آن چه گذشت. از او سؤال کردند این اسامی در کدام سوره است؟
گفت: در مسد سلیمان؛ یعنی در قصّه او.
مخفی نماند که کلمه فیذموا در بیشتر نسخ، با قاف و در بعضی با فا است و چون زبان، عبری و نسخ قدیمه، غیر مقرّوه است، در ضبط آن و غیر آن اطمینانی نیست.
[منصور]:
دیگر از اسامی آن بزرگوار، منصور است، چنان که در ذخیره و تذکره(226) مذکور است: این، اسم آن جناب در کتاب دید براهمه است که به اعتقاد ایشان از کتب آسمانی است.
در تفسیر شیخ فرات بن ابراهیم کوفی(227) از جناب باقر (علیه السلام) مروی است که در تفسیر آیه شریفه: ﴿وَ مَنْ قُتِلَ مَظْلُوماً فَقَدْ جَعَلْنا لِوَلِیِّهِ سُلْطاناً﴾ (اسراء: 33) فرمود: آن حسین است؛ یعنی او، مظلوم کشته شده. فَلا یُسْرِفْ فِی الْقَتْلِ إِنَّهُ کانَ مَنْصُوراً. فرمود: خداوند مهدی (علیه السلام) را منصور نامید، چنان چه احمد، محمد و محمود (صلّی الله علیه و آله و سلّم) و عیسی (علیه السلام)، مسیح نامیده شد.
شاید نکته تعبیر از آن جناب به امام منصور در زیارت عاشورا، آیه مذکور باشد به مناسبتی که وجه آن واضح است، و الله العالم.
[منتقم] 7 مسکه:
بدان یکی از اسامی آن بزرگوار، منتقم است، چنان که در نجم ثاقب از مناقب قدیمه و ذخیره نقل کرده که آن را از القاب شمرده اند.
در خطبه غدیریّه رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) در اوصاف آن جناب است: ألا انّه المنتقم من الظالمین.
در خبر طولانی مشهور جارود بن منذر، به روایت ابن عیّاش در مقتضب(228) است که رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) فرمود: آن شب که مرا به آسمان بردند، خداوند به من وحی نمود که سؤال کنم که رسولان پیش از من بر چه امر مبعوث شدند؟
گفتم: بر چه مبعوث شدید؟
گفتند: بر نبوّت تو و ولایت علی بن ابی طالب و ائمّه (علیهم السلام) که از شما خواهند بود.
آن گاه به من وحی نمود: از طرف راست عرش ملتفت شو. ملتفت شدم. دیدم علی و حسن، حسین، علی بن الحسین، محمد بن علی، جعفر بن محمد، موسی بن جعفر، علی بن موسی، محمد بن علی، علی بن محمد، حسن بن علی و مهدی را که در بیابانی از نور، نماز می کردند.
پروردگار تبارک و تعالی فرمود: این ها حجّت من برای اولیای من هستند و این، یعنی مهدی (علیه السلام)، منتقم از اعدای من است.
در علل الشّرایع از جناب باقر (علیه السلام) مروی است؛ فرمود: آگاه باشید! هرگاه قائم ما خروج کند، زنی را به سوی او برمی گردانند تا او را برای دختر محمد (صلّی الله علیه و آله و سلّم)، فاطمه، حدّ و انتقام کشد.
راوی از او پرسید: چرا او را حدّ می زند؟
فرمود: برای افترای او بر مادر ابراهیم.
گفت: چرا خداوند آن را برای قائم (علیه السلام) تأخیر انداخت؟
فرمود: زیرا خداوند تبارک و تعالی محمد (صلّی الله علیه و آله و سلّم) را رحمت و قائم (علیه السلام) را نقمت مبعوث فرمود.
در کافی(229) از آن جناب مروی است که فرمود: هرگاه یکی از شما قائم (علیه السلام) را تمنّا می کند، او را در عافیت تمنّا کند، زیرا خداوند محمد را (صلّی الله علیه و آله و سلّم) رحمت مبعوث فرمود و قائم (علیه السلام) را نقمت مبعوث می فرماید.
در کمال الدین(230) مروی است: آن حضرت در سنّ سه سالگی به احمد بن اسحاق فرمود: «أنا بقیّه الله فی أرضه و المنتقم من اعدائه.»
از جمله اسامی آن حضرت، منتظر است، چنان که در کمال الدین(231) از امام محمد تقی (علیه السلام) مروی است؛ فرمود: امام بعد از حسن (علیه السلام)، پسر او قائم به حق است که منتظر می باشد.
راوی پرسید: چرا او را منتظر نامیدند؟
فرمود: زیرا برای او غایب شدنی است که روزهای آن بسیار خواهد بود و مدّت آن طول خواهد کشید. مخلصان خروج او را انتظار خواهند کشید، شکّ کنندگان او را انکار خواهند کرد، جاحدین به یاد کردن او استهزا خواهند نمود، وقت قراردهندگان دروغ خواهند گفت، شتاب کنندگان غیبت هلاک خواهند شد و تسلیم کنندگان، در آن ایّام رستگاری خواهند یافت؛ یعنی آنان که گردن به تسلیم گذارند و به چون وچرا که سبب توقّف چیست و چرا خروج نمی کند، کار ندارند.
بنابراین خبر، منتظر به فتح تا است؛ یعنی انتظار برده شده که همه خلایق پیوسته منتظر مقدم وی هستند.
[ماء معین]:
از جمله اسامی آن بزرگوار، ماء معین، یعنی آب جاری بر روی زمین است، چنان که در کمال الدین(232) و غیبت شیخ(233) از جناب باقر (علیه السلام) مروی است که در آیه شریفه: ﴿قُلْ أَ رَأَیْتُمْ إِنْ أَصْبَحَ ماؤُکُمْ غَوْراً فَمَنْ یَأْتِیکُمْ بِماءٍ مَعِینٍ﴾ (ملک: 30)؛ خبر دهید اگر آب شما در زمین فرورفت، پس کیست که برای شما آب روان بیاورد، فرمود: این آیه برای شما، در حقّ قائم (علیه السلام) نازل شده که خداوند می فرماید: اگر امام شما از شما غایب شد و نمی دانید او کجاست، پس کیست که برای شما امام ظاهری بیاورد که او برای شما اخبار آسمان و زمین و حلال و حرام خداوند عزّ و جلّ را بیاورد. آن گاه فرمود: و الله تأویل این آیه نیامده و لابدّ تأویل آن خواهد آمد.
چند خبر دیگر قریب به این مضمون در آن جا، غیبت نعمانی(234) و تأویل الآیات(235) آمده است. وجه مشابهت آن جناب به آب که سبب حیات هرچیزی می باشد، ظاهر است. بلکه حیاتی که به سبب وجود معظّم او آمده و می آید، به چندین رتبه، اعلی و اتمّ و اشدّ و ادوم از حیاتی است که آب آورد، حتی حیات خود آب، از آن حضرت است.
در کمال الدین(236) از جناب باقر (علیه السلام) مروی است که در آیه شریفه: ﴿اعْلَمُوا أَنَّ الله یُحْیِ الْأَرْضَ بَعْدَ مَوْتِها﴾ (حدید: 17) فرمود: بدانید خدای تعالی زمین را بعد از مردنش به سبب کفر اهلش زنده می کند و کافر مرده است.
به روایت شیخ طوسی (رحمه الله)(237) در آیه مذکور، خداوند زمین را، بعد از مردنش؛ یعنی بعد از جور اهل مملکتش به قائم آل محمد (صلّی الله علیه و آله) اصلاح می کند.
مخفی نماند چون در ایّام ظهور، مردم از این سرچشمه فیض ربّانی به آسانی استفاضه کنند و بهره برند؛ مانند تشنه که در کنار نهر جاری گوارایی باشد و جز اغتراف، حالت منتظره ای نداشته باشد، لهذا از آن جناب به ماء معین تعبیر فرمودند.
در ایّام غیبت که لطف خاصّ حقّ به جهت سوء کردار خلق، از ایشان برداشته شد، باید به رنج و تعب، عجز و لابه و تضرّع و انابه، فیضی از آن جناب به دست آورد، خیری گرفت و علمی آموخت؛ مانند تشنه ای که بخواهد با تنها آلات و اسبابی که باید به زحمت به دست آورد، از چاه عمیق آبی کشد و آتشی فرونشاند، لهذا از آن حضرت به بئر معطّله تعبیر فرمودند و مقام، گنجایش شرح بیش از این ندارد، انتهی.
[موعود] 8 مسکه:
ایضا یکی از اسامی آن بزرگوار، موعود است، چنان که در هدایه(238) آن را از القاب شمرده است.
شیخ طوسی(239) از حضرت سجاد (علیه السلام) روایت کرده که درباره آیه شریفه: ﴿وَ فِی السَّماءِ رِزْقُکُمْ وَ ما تُوعَدُونَ﴾ (ذاریات: 22) رزق شما و آن چه وعده کرده می شوید و به شما وعده داده اند، در آسمان است. ﴿فَوَ رَبِّ السَّماءِ وَ الْأَرْضِ إِنَّهُ لَحَقٌّ مِثْلَ ما أَنَّکُمْ تَنْطِقُونَ﴾؛ پس قسم به پروردگار آسمان و زمین که آن حق است، مثل آن که شما سخن گویید؛
فرمود: این، برخاستن و خروج قائم آل محمد (علیهم السلام) است.
ابن عبّاس نیز مثل آن را نقل کرده و احتمال می رود غرض حضرت در آیه، تأویل رزق به ظهور آن جناب باشد که به سبب نشر ایمان و حکمت و انواع علوم و معارف است که حقیقت رزق و مدد حیات انسانی و عیش جاودانی است، چنان چه طعام را در آیه شریفه: ﴿فَلْیَنْظُرِ الْإِنْسانُ إِلی طَعامِهِ﴾ (عبس: 24)، به علم و آن چه بعد از آن از حبّ، انگور، زیتون، نخل، بساتین، چراگاه و غیره ذکر شده، به انواع علوم تفسیر فرمودند.
در غیبت نعمانی(240) از جناب باقر (علیه السلام) مروی است که فرمود: در زمان آن حضرت، به خلق حکمت داده می شود تا آن جا که زن در خانه خود به کتاب خداوند و سنّت رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) حکم می کند.
یا آن که مقصود، تفسیر ﴿وَ ما تُوعَدُونَ﴾ باشد؛ یعنی موعودی که به شما داده شده و جمیع انبیا، امّت های خود را به آمدن او، وعده دادند، آمدن آن جناب است، چنان چه در زیارت آن حضرت است: «السلام علی المهدیّ الّذی وعد الله به الأمم أن یجمع به الکلم.»
هم چنین در یکی از زیارات جامعه در اوصاف آن جناب است: و الیوم الموعود و شاهد و مشهود.
[مظهر الفضایح و مبلی السرائر]:
از جمله اسامی آن بزرگوار، مظهر الفضایح و مبلی السرائر است که اوّلی را در مناقب قدیمه و هدایه(241) و دوّمی را در هدایه (4) از القاب شمرده اند، از سیر در سیره آن حضرت، حقیقت این دو لقب معلوم می شود.
در غیبت نعمانی(242) از جناب صادق (علیه السلام) روایت کرده که فرمود: در بین آن که مردی بالای سر حضرت قائم (علیه السلام) ایستاده و به او امر و نهی می فرماید و فرمان می دهد او را پیش روی حضرت بیاورند، پس او را به آن جا می آورند. ناگاه حکم می کند گردنش را بزنند، پس چیزی در خافقین نمی ماند، جز کسی که از او می ترسد.
در روایت دیگر: همان جا که ایستاده، امر می فرماید گردنش را بزنند.
[مبدیء الآیات]:
از جمله اسامی آن حضرت، مبدیء الآیات، یعنی ظاهرکننده آیات خداوندی یا محلّ بروز و ظهور آیات الهیّه است، چنان که در هدایه(243) است.
چه از آن روز که بساط و مسند خلافت در زمین گسترده شد و انبیا و رسل با آیات بیّنات و معجزات باهرات، برای هدایت خلق بر این بساط پا نهادند و در مقام ارشاد و اعلای کلمه حقّ و ازهاق باطل برآمدند، خدای تعالی برای احدی، چنین تکریم و اعزاز نفرموده و با احدی، آن مقدار آیات نفرستاده که برای مهدی خود - صلوات الله علیه - فرستاده و روانه خواهد کرد و عمری طولانی که خدا داند به کجا خواهد کشید.
چون ظاهر شود در هیأت و سنّ مردان سی ساله است، پیوسته ابری سفید بر سرش سایه افکند و به زبان فصیح از او ندا رسد: او است مهدی آل محمد (علیه السلام). بر سر شیعیانش دست گذارد، عقولشان کامل شود. در اردوی مبارکش، لشکری از ملایکه و عسکری از جنّ باشد که ظاهر باشند و مردم آن ها را ببینند، چنان چه تا عهد ادریس نبی (علیه السلام) می دیدند.
در اردویش طعام و شرابی نباشد جز سنگی که حمل شود و طعام و شرابشان از آن باشد. زمین از نور جمالش چنان نورانی و روشن شود که به مهر و ماه حاجت نیفتد، شرّ و ضرر از درندگان و حشرات برود، خوف و وحشت از آن ها، از میان برخیزد و زمین، گنج هایش را ظاهر نماید.
چرخ از سرعت سیر بماند، عسکرش بر روی آب راه روند، کوه و سنگ، کافری که خود را به آن ها مخفی کرده، نشان دهند و کافر را به سیما بشناسند، بسیاری از مردگان در رکاب مبارکش باشند و بر فرق زنده شمشیر زنند و غیر این ها از آیات عجیبه و هم چنین آیاتی که پیش از ظهور و خروج ظاهر شود که عدد آن ها احصا نشود و بسیاری از آن در کتب غیبت، ثبت شده که همه آن ها مقدّمه آمدن آن جناب است و عشری از آن، برای آمدن هیچ حجّتی نشده.
[محسن، منعم و مفضل] 9 مسکه:
بدان از جمله اسامی آن بزرگوار، یکی محسن و دیگری منعم و مفضل است، چنان که در نجم ثاقب هرسه را از هدایه(244) نقل نموده که آن ها را از القاب شمرده است.
هر سه آن ها از اسمای حسنی است و خدای تعالی آن جناب را مظهر اعظم آن ها قرار داده، چنان چه سید جلیل علی بن طاوس (رحمه الله) در کتاب اقبال(245) به سند صحیح در خبر طولانی روایت کرده:
چون رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) برای دعوت نصارا به نجران رفت، علمای ایشان برای تحقیق صدق دعوای آن جناب جمع شدند، کتب آسمانی را حاضر کردند و تفتیش نمودند. از آن جمله صحیفه کبرای حضرت آدم صفی الله که در آن، علم ملکوت خداوند جلّ جلاله و آن چه در آسمان و زمین خود آفرید، سپرده شده بود.
در مصباح دوّم آن بعد از فقراتی چند یافتند: آن گاه آدم به سوی نوری نظر کرد که درخشید. پس فضای شکافته شده را سدّ کرد و مطالع مشارق را گرفت، آن گاه به همین نحو سیر نمود تا آن که تمام مغارب را گرفت.
بعد از آن، بالا رفت تا آن که به ملکوت آسمان رسید. پس نظر نمود، دید نور محمد (صلّی الله علیه و آله و سلّم) است و دید جمیع اکناف از بوی خوش او معطّر شدند و نیز چهار نور دید که اطراف آن نور را از راست و چپ، پیش رو و پشت سر گرفتند و در نور، شبیه ترین چیزها به آن نور بودند و در پی آن ها هم نورهایی بود که آن ها از آن انوار استمداد می نمودند و دیدند این انوار در ضیا و عظمت و خوشبویی به آن ها شبیه اند.
آن گاه به آن انوار نزدیک شد، به آن احاطه نمود، اطراف آن را گرفت و نظر نمود، انواری دید که بعد از آن به عدد ستاره ها و به غایت، از مراتب آن انوار سابق پست تر بود. پاره ای از این انوار، روشن تر از بعضی و در نورانیّت به غایت با یکدیگر متفاوت بودند.
سپس سیاهی مانند شب ظاهر شد و چون سیل از هرطرفی رو آورد، چنان رو آوردند که صحراها و تپّه ها را پر کردند و دید آن ها قبیح ترین چیزها در صورت و هیأت و متعفّن ترین آن ها در بو هستند.
پس آن چه از این ها دید آدم را متحیّر کرد و گفت: ای علّام الغیوب، ای غافر الذنوب و ای صاحب قدرت قاهره و مشیّت عالیه! این خلق سعیدی که او را بر عالمیان ارجمند و بلند مرتبه نمودی، کیست؟ و این نورهای منیف که جوانب آن را گرفتند، کیستند؟
خداوند به سوی او وحی فرستاد: ای آدم! این و این ها وسیله تو و هرکسی هستند که از خلق خود نیک بخت کردم. این ها، سابقین، مقرّبین و شافعین اند که شفاعت آن ها پذیرفته است.
این احمد، سید ایشان و سید مخلوقات است. به علم خود او را برگزیدم و اسم او را از اسم خود جدا کردم. منم محمود و او است محمد.
این صنواو و وصیّ او است، او را به محمد تقویت کردم و برکات و تطهیر خود را در عقب او گرداندم.
این، سیّده کنیزان من و باقی مانده از احمد، پیغمبر من است و این ها دو سبط و دو خلف برای ایشان اند و این ذواتی که نورشان آن انوار را شکافت، بقیّه ایشان است.
آگاه باش! هر کدام را برگزیدم، از آلایش پاک نمودم، بر هریک برکت و رحمت خود را فرستادم و هریک را به علم خود، پیشوای بندگان و نور بلاد خود قرار دادم.
نظر نمود، پس شبحی را آخر ایشان دید که در این صفحه می درخشید؛ چنان چه ستاره صبح برای اهل دنیا می درخشد.
خداوند تبارک و تعالی فرمود: و به این بنده سعید خود غل ها را از بندگان باز می کنم و بار را از ایشان برمی دارم و به وجود او زمین خود را از مهربانی و رأفت و عدل پر می نمایم، چنان چه پیش از او از قسوت و جور پر شده باشد.
نیز در آن خبر شریف است که آن جماعت به صلوات ابراهیم (علیه السلام) مراجعه کردند، در آن جا مذکور بود که خداوند به آن حضرت، تابوت آدم (علیه السلام) را به میراث داد و آن تابوت هرعلمی را که خداوند به آن، بر جمیع ملایکه تفضّل فرموده بود، متضمّن بود.
پس ابراهیم در آن تابوت نظر نمود، در آن، خانه هایی به عدد صاحبان عزم از پیغمبران و رسولان و اوصیای بعد از ایشان دید و نظر نمود، پس خانه محمد (صلّی الله علیه و آله و سلّم) را آخر انبیا دید و از راست او علی بن ابی طالب (علیه السلام) را که دامان او را گرفته، سپس شکل عظیمی دید که نورش می درخشید و در آن بود که این صنو او و وصیّ او می باشد که به نصر مؤیّد است.
ابراهیم عرض کرد: الهی و سیّدی! این خلق شریف کیست؟
خداوند به او وحی کرد: این بنده و برگزیده من، فاتح خاتم و این، وصیّ و وارث او است.
گفت: ای پروردگار من! فاتح خاتم کیست؟
فرمود: این محمد، برگزیده و اوّل مخلوق و حجّت بزرگ من در آفریدگان است، پیغمبرش کردم و او را برگزیدم؛ آن گاه که آدم، میان گل و جسد بود تا این که می فرماید: و ابراهیم نظر نمود، دوازده بزرگ را دید که از غایت نیکویی شکل، نزدیک بود نور از آن ها درخشان شود.
آن گاه از پروردگار عزّ و جلّ سؤال کرد و گفت: پروردگارا! مرا به نام های این صورت ها خبر ده که به صورت محمد و وصیّ او - صلوات الله علیهما - مقرون است، پس خداوند به سوی او وحی فرستاد: این کنیز من و باقی مانده پیغمبر من، فاطمه صدّیقه زاهره است و او را به همراه خلیلش برای پیغمبر خود عصبه قرار دادم.
این دو حسنان اند، این فلان است و این، فلان. این کلمه من است که به وسیله او رحمت را در بلاد خود منتشر می کنم و به واسطه او دین خود و بندگان خود را بعد از یأس و ناامیدی ایشان بیرون می آورم که به فریاد ایشان برسم...، الخ.
در این مقام مضمون این خبر شریف کافی است که ابن طاوس آن را از اصل کتاب عمل ذی الحجّه حسن بن اسماعیل بن اشناس برداشته که او از معروفین قدما، معروف به ابن اشناس و صاحب یکی از نسخ صحیفه کامله است که در ترتیب و مقدار و کلمات با نسخه متداول، بسیار مغایرت دارد و محلّ اختلاف آن در محلّش مذکور است.
از آن چه ذکر گردید، وجه لقب معلوم می شود.
[موتور] 10 مسکه:
از دیگر اسامی آن بزرگوار، موتور است، چنان چه در چند خبر شریف به این لقب، مذکور شده. موتور به والد، آن است که پدرش کشته شده و خونخواهی او نشده است.
مجلسی (رحمه الله) فرموده: مراد به والد، یا حضرت عسکری (علیه السلام) یا امام حسین (علیه السلام) یا جنس والد است که همه ائمّه (علیهم السلام) را شامل باشد(246).
در خبری، موتور بابیه دارد که آن هم، مثل سابق است و چون خون امامان گذشته طلب نشد، و ارث امامت به او رسید و آن حقّ، به آن حضرت منتقل شد؛ لذا خون جمیع را طلب خواهد کرد، بلکه چون وارث جمیع انبیا و مرسلین و اوصیای راشدین است، خون همه را که شهید شدند، طلب خواهد کرد.
چنان چه در دعای ندبه صریحا مذکور است و به ملاحظه ای تمام آن ها به منزله والد برای آن جناب اند که از همه ارث برده، پس موتور به تمام آن سلسله علّیه الهیّه است.
در غیبت نعمانی(247) از جناب صادق (علیه السلام) در حدیثی مروی است که به ابی بصیر فرمود: ای ابا محمد! به درستی که قائم (علیه السلام)، موتور خشمناک خروج می کند و بر بدن او، پیراهن رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) است که روز احد بر بدن آن جناب بود؛ یعنی آن پیراهن خون آلود؛ چنان چه در وارث بیاید.
[مأمول]:
دیگر از اسمای شریف آن بزرگوار، مأمول است، چون مؤمّل؛ یعنی کسی که آرزو و امید او را دارند، چنان چه در غیبت نعمانی(248) از جناب صادق (علیه السلام) مروی است که بعد از ذکر جمله ای از علامات، فرمود: آن گاه قائم مأمول و امام مجهول برمی خیزد...، الخ و در غیبت فضل، فرمود: سلطان مأمول.
در زیارت مأثوره آن جناب است: السلام علیک ایّها الأمام المأمول.
در مصباح شیخ طوسی(249) و غیره(250) از عاصم بن حمید مروی است که حضرت صادق (علیه السلام) عملی را برای حاجت ذکر نمود که آن، روزه گرفتن روز چهارشنبه و پنج شنبه و جمعه، غسل، پوشیدن لباس نظیف، رفتن بر بام خانه و دو رکعت نماز گزاردن و خواندن دعایی است که یکی از فقرات آن این است: به واسطه تو به بقیّه باقی متقرّب می شوم و به مقیم بین اولیای خود که او را برای نفس خود پسندیدی و طیّب، طاهر، فاضل، خیّر، نور زمین و عماد او، رجای این امّت و سید ایشان، آمر به معروف و ناهی از منکر، ناصح امین که مؤدّی از پیغمبران و خاتم اوصیای نجبای طاهرین - صلوات الله علیهم اجمعین - است.
[مضطرّ]:
از جمله اسامی آن بزرگوار عالی مقدار، مضطرّ است، چنان که در نجم ثاقب از تفسیر علی بن ابراهیم(251) از جناب صادق (علیه السلام) نقل کرده که در آیه شریفه: ﴿أَمَّنْ یُجِیبُ الْمُضْطَرَّ إِذا دَعاهُ وَ یَکْشِفُ السُّوءَ وَ یَجْعَلُکُمْ خُلَفاءَ الْأَرْضِ﴾ (نمل: 63) فرمود: در حقّ قائم (علیه السلام) نازل شده، و الله مضطرّ اوست.
هرگاه دو رکعت نماز در مقام بخواند؛ یعنی مقام ابراهیم (علیه السلام) و خدا را بخواند، او را اجابت و سوء را برطرف می کند و او را خلیفه زمین می گرداند.
در تأویل الآیات(252) شیخ شرف الدین از جناب باقر (علیه السلام) مروی است که فرمود: آیه مذکور در حقّ قائم (علیه السلام) نازل شده؛ چون خروج کند، عمّامه بر سر نهد، در مقام، نماز کند و به سوی پروردگار خود تضرّع نماید، هرگز رایتی از او برنگردد؛ یعنی به هرجا فرستد، فتح کند.
نیز از جناب صادق (علیه السلام) روایت کرده که فرمود: به درستی که قائم (علیه السلام) چون خروج کند، داخل مسجد الحرام شود، رو به کعبه و پشت به مقام ابراهیم (علیه السلام) نماید، سپس دو رکعت نماز بجای آورد، برخیزد و بگوید: ای مردم! من سزاوارترین مردم به ابراهیم و به اسماعیل و به محمد (صلّی الله علیه و آله و سلّم) هستم.
آن گاه دست های خود را به آسمان بلند کند، دعا نماید و تضرّع کند تا این که به رو درافتد و این است قول خدای تعالی: ﴿أَمَّنْ یُجِیبُ الْمُضْطَرَّ...﴾، الخ.
[مقتصر]:
از جمله اسامی آن امام والا مقام، مقتصر است، چنان که در مناقب قدیمه آن را از القاب شمرده.
شاید مراد این باشد که جمیع انبیا و اوصیای گذشته، در ایّام ریاست و عزلت به معاشرت و مؤانست و مصاحبت، بلکه مواصلت و مناکحت با منافقین و فاسقین مبتلا بودند و به جهت حفظ و بقای دین و عصابه مؤمنین به مدارات و مؤالفت با آن ها مأمور بودند.
و لکن حضرت مهدی، - صلوات الله علیه - از انصار و اعوان و مصاحب، به مؤمنین مخلص و عباد صالح اقتصار خواهد فرمود که خدای تعالی از ایشان مدح فرموده و خبر داده: ﴿عِباداً لَنا أُولِی بَأْسٍ شَدِیدٍ﴾ (اسراء: 5)، چنان چه عیّاشی(253) روایت کرده و به قول خود: ﴿أَنَّ الْأَرْضَ یَرِثُها عِبادِیَ الصَّالِحُونَ﴾ (انبیاء: 105)، چنان چه علی بن ابراهیم روایت کرده است.
بالمرّه رشته الفت و مجالست و مؤانست با کفّار و منافقین گسسته خواهد شد، صالح و طالح و طیّب و خبیث از یکدیگر جدا شوند و هرگز به احدی از ایشان، متعیّن نشود، چنان چه بسیار می شد که جدّ اکرمش به اعانت منافقین، با مشرکین جهاد می کرد.
احتمال می رود کلمه مذکور، منتصر، یعنی داد گیرنده باشد و از آیه شریفه: ﴿وَ لَمَنِ انْتَصَرَ بَعْدَ ظُلْمِهِ فَأُولئِکَ ما عَلَیْهِمْ مِنْ سَبِیلٍ﴾ (شوری: 41) اخذ شده باشد، چنان چه در تفسیر قمی(254) از جناب باقر (علیه السلام) مروی است که فرمود: یعنی قائم (علیه السلام) و اصحاب او چون خروج کرد، از بنی امیّه و کذّابین و ناصبیان داد گیرد.
[ناقور] 11 مسکه:
یکی از اسامی شریف آن حضرت، ناقور؛ یعنی صور است، مانند شاخ و مثل آن، که در آن می دمند.
در غیبت نعمانی(255) از جناب صادق (علیه السلام) مروی است که در آیه شریفه: ﴿فَإِذا نُقِرَ فِی النَّاقُورِ﴾ (مدثر: 8)، فرمود: هرگاه در صور دمیده شد، امامی مستقرّ برای ماست و هرگاه خدای عزّ و جلّ اراده فرمود؛ اظهار امر خود را در دلش بیفکند، پس ظاهر شود و به امر خدای عزّ و جلّ خروج کند.
در تفسیر سیّاری از آن جناب مروی است که در آیه مذکور فرمود: در گوش قائم (علیه السلام) دمیده می شود و او را در خروج اذن می دهد(256).
در اثبات الوصیّه(257) مسعودی از مفضّل بن عمر مروی است که گفت: از حضرت صادق (علیه السلام) درباره تفسیر جابر سؤال نمودم، فرمود: به آن، سفله را خبر مده که آن را افشا خواهند نمود.
آیا در کتاب خدای عزّ و جلّ: ﴿فَإِذا نُقِرَ فِی النَّاقُورِ﴾ نخواندی؟ به درستی که از ما امامی پنهان خواهد بود، هرگاه خداوند عزّ و جلّ، اراده فرمود؛ اظهار امر خود را در قلبش می افکند، پس ظاهر می شود تا این که به امر خداوند جلّ ثناوه برمی خیزد.
[ناطق]:
از جمله اسامی آن جان جهان و امام عالمیان، ناطق است، چنان چه در مناقب قدیمه و هدایه(258) آن را از القاب شمرده اند.
در مقتضب الاثر(259) در خبری طولانی مروی است که رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) اسامی ائمّه (علیهم السلام) را برای سلمان ذکر نمود تا این که فرمود: پس حسن بن علی، صامت امین عسکری و پسر او حجّه الله بن الحسن المهدی النّاطق القائم بامر الله.
به روایت ابن قولویه(260) در زیارت عاشوراست: و أن یرزقنی ثارکم مع امام مهدیّ ناطق لکم.
به روایت شیخ طوسی(261): «مع امام مهدی ظاهر ناطق منکم». ناطق بودن آن حضرت ظاهر است، چه آبای طاهرینش از علوم و اسرار و معارف و حکم، مهر خموشی بر لب زده بودند، به جهت نبودن حمله، جز اندکی نفرمودند، بلکه بسیاری از احکام به جهت خوف اعدا در پرده خفا ماند.
محمد بن طلحه شافعی گفته: حضرت امیر المؤمنین (علیه السلام) رابطین می گفتند؛ یعنی مبطن و مخفی کننده علوم و اسرار، که رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) به جهت نداشتن محلّ قابل و خوف و نبودن مجال به او آموخته بود و نیز همه این گنج های الهیّه ذخیره شده که از لسان مبارک آن حضرت به مردم رسد.
در دعای ماه مبارک است که خدایا! دین و سنّت پیغمبر خود را ظاهر کن تا آن که از بیم احدی از خلق، چیزی از حق را مخفی نکنند.
[نهار]:
از دیگر اسامی آن نور بی فتور امامت، نهار است، چنان که شیخ فرات بن ابراهیم در تفسیر(262) خود از جناب باقر (علیه السلام) روایت کرده که فرمود: حارث اعور به حسین (علیه السلام) عرض کرد: یا بن رسول الله! فدایت شوم، مرا از قول خداوند در کتاب خود: ﴿وَ الشَّمْسِ وَ ضُحاها﴾ (شمس: 1) خبر ده، فرمود: وای بر تو ای حارث! این محمد، رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) است.
گفتم: فدایت شوم و قول خداوند: ﴿وَ الْقَمَرِ إِذا تَلاها﴾ (شمس: 2)، فرمود: این، امیر المؤمنین علی بن ابی طالب است که در پی محمد (صلّی الله علیه و آله و سلّم) آمده.
گفتم: قول خداوند: ﴿وَ النَّهارِ إِذا جَلَّاها﴾ (شمس: 3)، گفت: این قائم از آل محمد (علیهم السلام) است که زمین را از عدل و داد پر کند.
در تفسیر علی بن ابراهیم(263) از جناب باقر (علیه السلام) مروی است که در آیه شریفه:
﴿وَ اللَّیْلِ إِذا یَغْشاها﴾ (شمس: 4) فرمود: شب در این جا، دوّمی است که امیر المؤمنین (علیه السلام) را در دولت خود فروپوشانید که برای او بر آن جناب جاری شد و به امیر المؤمنین (علیه السلام) امر فرمود در دولت ایشان صبر کند تا آن دولت منقضی شود.
﴿وَ النَّهارِ إِذا تَجَلَّی﴾ (لیل: 2)؛ فرمود: نهار، قائم از ما اهل بیت است که هرگاه برخاست، بر دولت باطل غلبه کند، در قرآن، مثل ها زده شده و به آن ها مخاطبه نموده؛ یعنی خدای تعالی به پیغمبر خود و به ما اهل بیت، پس غیر از ما آن را نمی داند.
[نور آل محمّد]:
از جمله اسامی آن بزرگوار، نور آل محمد (علیهم السلام) است، چنان چه در خبری است که بیاید. از جناب صادق (علیه السلام) است که آن را از اسامی آن جناب شمرده که در قرآن مذکور است و در چند خبر که بعضی گذشت و بعضی خواهد آمد، در آیه شریفه: ﴿وَ الله مُتِمُّ نُورِهِ﴾ (صف: 8) مذکور است؛ یعنی به ولایت قائم (علیه السلام) و به ظهور آن جناب و در آیه شریفه:
﴿وَ أَشْرَقَتِ الْأَرْضُ بِنُورِ رَبِّها﴾ (زمر: 69) که مراد، روشن شدن زمین به نور آن جناب است.
در یکی از زیارات جامعه در اوصاف آن حضرت است: نور الأنوار الّذی تشرق به الأرض عمّا قلیل.
در غایه المرام(264) و غیره از جابر بن عبد الله انصاری مروی است که گفت: داخل مسجد کوفه شدم در حالی که امیر المؤمنین (علیه السلام) با انگشتان مبارک می نوشت و تبسّم می فرمود.
گفتم: یا امیر المؤمنین! چه تو را به خنده آورد؟
فرمود: عجب دارم از آن که این آیه را می خواند ولی آن را به حقّ معرفت نمی شناسد.
گفتم: یا امیر المؤمنین کدام آیه است؟!
فرمود: الله نُورُ السَّماواتِ وَ الْأَرْضِ...، تا آخر.
﴿مَثَلُ نُورِهِ کَمِشْکاهٍ﴾، مشکات محمد (صلّی الله علیه و آله و سلّم) است، ﴿فِیها مِصْباحٌ﴾، مصباح در زجاجه منم، ﴿الزُّجاجَهُ﴾، حسن و حسین (علیهما السلام)، ﴿کَأَنَّها کَوْکَبٌ دُرِّیٌّ﴾، علی بن الحسین و ﴿یُوقَدُ مِنْ شَجَرَهٍ مُبارَکَهٍ﴾، محمد بن علی است.
﴿زَیْتُونَهٍ﴾، جعفر بن محمد، ﴿لا شَرْقِیَّهٍ﴾، موسی بن جعفر، ﴿وَ لا غَرْبِیَّهٍ﴾ علی بن موسی الرضا، ﴿یَکادُ زَیْتُها یُضِیء﴾، محمد بن علی، ﴿وَ لَوْ لَمْ تَمْسَسْهُ نارٌ﴾ علی بن محمد و نُورٌ عَلی نُورٍ، حسن بن علی است.
﴿یَهْدِی الله لِنُورِهِ مَنْ یَشاءُ﴾ مهدی قائم است (علیه السلام).
در جمله اخبار معراج مذکور است: نور آن جناب در عالم اظلّه، میان انوار و اشباح ائمّه (علیهم السلام) مانند ستاره درخشان در میان سایر کواکب و در خبری چون ستاره صبح برای اهل دنیا بود.
[وارث] 12 مسکه:
بدان یکی از اسامی آن بزرگوار، وارث است، چنان که در مناقب قدیمه و هدایه(265) آن را از القاب شمرده اند و در خطبه غدیریّه رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) بیاید که فرمود: «ألا انّه وارث کلّ علم و المحیط به».
هویداست که آن جناب، وارث علوم و کمالات، مقامات و آیات بیّنات جمیع انبیا و اوصیا و آبای طاهرین خود (علیهم السلام) می باشد.
در حدیث طولانی مفضّل است که حضرت صادق (علیه السلام) فرمود: چون لشکر حسنی وارد کوفه شود، حسنی از لشکر خود جدا شود، حضرت مهدی - صلوات الله علیه - نیز از لشکر خود جدا شود. سپس میان دو لشکر بایستند، حسنی به حضرت گوید:
اگر تو مهدی آل محمدی، پس عصای جدّ تو، رسول خدا کجاست و انگشتر او، برد او، زره او که آن را فاضل می گفتند، عمّامه او که سحاب و اسبش که مربوع نام داشت، ناقه غضبای او، استر دلدل او، حمار او که یعفور می گفتند، براق، شترسواری او و قرآنی که امیر المؤمنین (علیه السلام) آن را بدون تغییر و تأویل جمع کرد؟
حضرت جوال یا چیزی مانند آن، که سفط می گویند، حاضر نماید و آن چه او خواسته، در آن است.
مفضّل گفت: ای آقای من! همه آن ها در سفط است؟
فرمود: و الله بلی! و ترکه جمیع پیمبران، حتی عصای آدم، آلت نجّاری نوح، ترکه هود و صالح، مجموعه ابراهیم، صاع یوسف، مکیال شعیب و آینه او، عصای رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم)، و انگشتر سلیمان و تاج او، رحل عیسی و میراث جمیع پیغمبران و مرسلین در آن سفط است(266).
شیخ ابو الفتوح رازی در تفسیر خود روایت کرده که از صادقین (علیهما السلام) رسیده: تابوت و عصای موسی در دریای طبرستان است که در عهد حضرت صاحب الزمان (علیه السلام) از آن جا برآرند(267).
در غیبت نعمانی(268) از جناب صادق (علیه السلام) مروی است که فرمود: عصای موسی از شاخه درخت آس بود که در بهشت کاشته شده بود و جبرییل (علیه السلام) آن را برای حضرت آورد؛ هنگامی که به سمت مدین متوجّه شد. هم چنین تابوت آدم در دریاچه طبریّه است، کهنه و متغیّر نمی شود تا این که قائم (علیه السلام)، چون خروج نماید، آن ها را بیرون آورد.
در چند خبر رسیده که، کتب اصلیّه سماویّه در غاری در انطاکیه است و آن حضرت، آن ها را بیرون خواهد آورد.
در غیبت فضل بن شاذان از جناب باقر (علیه السلام) مروی است که فرمود: اوّل چیزی که قائم به آن ابتدا می فرماید، این است که به انطاکیه می فرستد و از آن جا تورات را از غاری بیرون می آورد که در آن عصای موسی و خاتم سلیمان است(269).
در غیبت نعمانی(270) از حضرت صادق (علیه السلام) مروی است که به یعقوب بن شعیب فرمود: آیا پیراهن قائم (علیه السلام) را که در آن خروج می کند، به تو نشان دهم؟
گفتم: بلی!
پس کتاب دانی را طلبید، آن را باز کرد و پیراهن کرباسی از آن بیرون آورد و پهن کرد. در آستین چپ او خونی دید، فرمود: این پیراهن رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) است، آن روز که دندانش را شکستند بر بدن مبارکش بود و قائم (علیه السلام) در او خروج می کند. آن خون را بوسیدم و بر روی خود گذاشتم.
آن گاه آن را پیچید و برداشت.
در آن جا(271) و کافی(272)، مروی است که فرمود: صاحب این امر با میراث رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) از مدینه به سوی مکّه بیرون می رود.
راوی پرسید: میراث رسول خدا چیست؟
فرمود: شمشیر رسول خدا، زره او، عمّامه آن جناب، عصای او، اسلحه و زین او.
از جمله اسامی آن حضرت، ید الباسطه است، چنان که در هدایه(273) آن را از القاب خاصّه شمرده؛ یعنی دست قدرت و نعمت خداوندی که به وسیله آن رحمت و رأفت و لطف خود را بر بندگان می گستراند، روزی را بر ایشان فراخ می فرماید و بلا را از ایشان دفع می نماید.
شیخ صدوق (رحمه الله) در امالی(274) از عبد الله بن عبّاس روایت کرده که رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) فرمود: چون مرا به آسمان هفتم، از آن جا به سوی سدره المنتهی و از سدره به سوی حجاب های نور بردند، پروردگار جلّ جلاله مرا ندا کرد: ای محمد! تو بنده منی و من پروردگار تو، پس برای من خضوع کن، مرا پرستش نما، بر من توکّل کن و به من اعتماد نما. به درستی که من به تو راضی شدم که بنده منی و من پروردگار تو، پس تو حبیب و رسول و نبیّ من باشی و به برادر تو علی (علیه السلام) راضی شدم که خلیفه و باب باشد، پس او حجّت من بر بندگان و پیشوا برای خلق من است. به وسیله او، دوستان من از دشمنان شناخته می شوند. به او حزب شیطان از حزب من جدا می شود، دین من به او برپا و حدود من، حفظ و احکام من نافذ می شود.
به تو و او و ائمّه از فرزندان او به بندگان و کنیزان خود رحم می کنم، به قائم از شما زمین خود را به تسبیح و تقدیس و تهلیل و تکبیر و تمجید خود، معمور و آباد می کنم و به او زمین را از دشمنان خود پاک می کنم.
به اولیای خود میراث می دهم، کلمه آنان که به من کافر شدند، به وسیله او پست و خوار می گردانم، کلمه خود را بلند و به او زنده می کنم و بندگان و بلاد خود را به علم خود حیات می دهم.
گنج ها و ذخیره ها و اسرار و ضمایر را به اراده خود برای او ظاهر می کنم و او را به ملایکه خود امداد می کنم که بر انفاذ امر من و اعلان دین من مؤیّد او شوند، این به حق ولیّ من و به راستی مهدی بندگان من است.
[وهوه ل] 13 مسکه:
بدان یکی از اسامی آن بزرگوار، (وهوه ل) است، چنان که شیخ احمد بن محمد بن عیّاش در جزء ثانی مقتضب الاثر(275) به اسناد خود از حاجب بن سلیمان بن صورح السدوی روایت کرده که گفت: عمران بن خاقان را در بیت المقدّس، ملاقات کردم که به دست منصور، مسلمان شده بود، او به بیان و علمی که داشت، با یهود محاجّه کرده بود و به جهت آن چه از علامات رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) و خلفای بعد از او در تورات بود، نمی توانستند منکر او شوند.
روزی به من گفت: ای ابا موزج! ما در تورات سیزده اسم می یابیم که یکی از آن ها محمد است و دوازده نفر از اهل بیت او که آن ها اوصیا و خلفای اویند و در تورات مذکورند.
در پیشوایان بعد از آن حضرت کسی از تیم و عدی و بنی امیّه نیست و من گمان می کنم، آن چه این شیعه می گویند، حق باشد.
گفتم: مرا به آن خبر ده!
گفت: به من عهد و میثاق خداوندی بده که شیعه را به چیزی از آن خبر نکنی که با آن بر من غلبه کنند.
گفتم: چرا از این خوف داری و این قوم بنی عبّاس از بنی هاشم اند. گفت: نام های ایشان، نام های این ها نیست، بلکه آن ها از فرزندان اوّل ایشان، محمد (صلّی الله علیه و آله و سلّم) و از باقی مائده او در زمین؛ یعنی صدّیقه طاهره (علیها السلام) بعد از او هستند.
پس آن چه از پیمان ها خواست به او دادم و گفت: اگر پیش از تو مردم، پس از من از آن ها، خبر ده و گرنه بر تو نیست که احدی را به آن ها خبر دهی.
گفت: آن ها را در تورات شموعل، شماعیسحوا، وهی هر، حی ابثوا، بمامدتیم، عوشود، بسنم، بولید، و بشیر العوی، فوم لوم، کودود، عان لاندبود وهوه ل می یابیم.
نسخه چنین بود و صحّت و سقم آن بر عهده من نیست.
مخفی نماند که مراد از تورات، گاهی همان کتاب آسمانی منزل بر جناب موسی (علیه السلام) است که مشتمل بر پنج سفر است و گاهی بر تمام کتب آسمانی اطلاق می شود که از عهد آن حضرت تا قبل از جناب عیسی بر پیغمبرانی که در آن زمان ها بودند، نازل شده، آن ها را عهد عتیق نیز می گویند.
[یعسوب الدین]:
ایضا در نجم ثاقب است که یکی از اسمای آن بزرگوار، یعسوب الدین است، چنان که در غیبت شیخ طوسی(276) از جناب صادق (علیه السلام) مروی است که امیر المؤمنین (علیه السلام) می فرمود: مردم پیوسته در نقصان اند تا آن که الله گفته نمی شود؛ یعنی نام خدای تعالی برده نمی شود. هرگاه چنین شد، یعسوب دین با اتباعش ثابت می ماند. پس خداوند، گروهی را از اطراف زمین مبعوث می فرماید که مانند ابرهای تنک پاییز می آیند.
به خداوند قسم که اسم ها و قبیله های ایشان و اسم امیر ایشان را می شناسم، خداوند، ایشان را به نحوی برمی دارد که می خواهد از قبیله ای یک مرد و دو مرد، شمرد تا به نه رسید. پس، سی صد و سیزده مرد به عدد اهل بدر از آفاق جمع می شوند و این قول خداوند عزّ و جلّ است: ﴿أَیْنَ ما تَکُونُوا یَأْتِ بِکُمُ الله جَمِیعاً إِنَّ الله عَلی کُلِّ شَیْء قَدِیرٌ﴾ (بقره: 148)، هرجا که باشید، خداوند تبارک و تعالی همه شما را می آورد؛ به درستی که خداوند جلّ جلاله بر هرچیزی توانا است، حتی آن که مرد دست ها را گرد زانو حلقه کرده، در یکدیگر مشبّک می کند، پس نمی گشاید آن را تا آن که خداوند عزّ و جلّ او را به آن جا می رساند. جزء اوّل این خبر را سید رضی در کتاب شریف نهج البلاغه(277) نقل کرده و متن آن این است: «فاذا کان ذلک ضرب یعسوب الدین بذنبه فیجتمعون الیه کما یجتمع قزع الخریف». سیّد (رحمه الله) فرموده: یعسوب دین، سید عظیم، مالک امور مردم در آن روز است و قزع، پاره های ابری است که در آن آب نیست.
جزری در نهایه و زمخشری و دیگران این فقره را که کنایه از ظهور حضرت مهدی - صلوات الله علیه - است، نقل کرده، شرح نمودند. یعسوب در اصل، امیر مگس عسل است و ذنب، کنایه از انصار آن حضرت است، آن چه ترجمه شد، مطابق تفسیر زمخشری است.
فأره سوّم در بیان اسمایی که در کتاب مذکور، بدون وجه مناسبت و تسمیه ذکر شده و در آن چند مسکه می باشد.
[اوقیدمو، ایزدشناس و...] 1 مسکه:
بدان یکی از اسمای آن سرور، اوقیدمواست، چنان که فاضل المعی میرزا محمد نیشابوری در کتاب ذخیره الالباب، معروف به دوائر العلوم ذکر کرده، اسم آن جناب در تورات به لغت ترکوم، اوقیدمو است(278).
دیگر ایزدشناس و ایزدنشان که در کتاب مذکور، مسطور است این دو، نام آن جناب نزد مجوس است.
شیخ بهایی (رحمه الله) در کشکول فرموده: فارسیان، آن جناب را ایزدشناس و ایزدنشان گویند(279).
دیگر از اسامی آن حضرت، ایستاده است، نیز در آن جا ذکر کرده این، نام آن جناب در کتاب شامکونی است.
از جمله اسامی آن حضرت، ابو عبد الله است، چنان که گنجی شافعی در کتاب بیان در احوال صاحب الزمان (علیه السلام)(280) از حذیفه از رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) روایت کرده که فرمود:
اگر از دنیا مگر یک روز نماند، هر آینه خداوند مردی را برمی انگیزاند که اسم او، اسم من است، خلق او، خلق من و کنیه او، ابو عبد الله است. بیاید که آن جناب مکنّی به کنیّه جمیع اجداد طاهرین خود است.
دیگر از اسامی آن حضرت، ابو جعفر و ابو محمد و ابو ابراهیم است که حضینی در هدایه(281) گفته: کنیه آن جناب، ابو القاسم و ابو جعفر است.
روایت شده برای آن جناب، کنیه یازده امام از پدران و عمّ آن حضرت، امام حسن مجتبی (علیه السلام) است و در یکی از مناقب قدیمه که اوّل آن چنین است: احمد بن محمد بن سمط، سنه سی صد و سی و پنج در واسط به ما خبر داد، گفت: این کتاب را بر ابی الحسن علی بن ابراهیم انباری در واسط، در ماه ربیع الآخر قرائت کردم. گفت: ابو العلا احمد بن یوسف بن مؤیّد انباری در سال سی صد و بیست و شش به من خبر داد...، الخ. نیز مشتمل بر اجمالی از احوال همه ائمّه (علیهم السلام) است و تاکنون مؤلّف آن معلوم نشده؛ در آن جا این روایت را نقل کرده و القاب بسیاری برای آن جناب ذکر نموده و ما از آن به مناقب قدیمه تعبیر می کنیم، بنابراین خبر؛ یکی از اسمای آن حضرت، ابو الحسین است.
دیگر از اسامی آن جناب، ابو بکر و یکی از کنیه های جناب رضا (علیه السلام) است، چنان چه ابو الفرج اصفهانی در مقاتل الطالبین(282) و غیر او ذکر کردند.
دیگر از اسامی آن حضرت، احسان است؛
دیگر، اذن سامعه؛
دیگر، بلد الأمین است؛ یعنی قلعه محکم خداوند که کسی به آن تسلّطی ندارد.
فاضل متتبّع میرزا محمد رضای مدرّس در جنّات الخلود آن را از القاب آن جناب شمرده است.
دیگر از اسمای آن حضرت، بهرام؛
دیگر، بنده یزدان است. این دو اسم آن حضرت در کتاب ایستاع است(283)، چنان چه در ذخیره الالباب ذکر نموده.
دیگر از اسمای آن جناب، پرویز با باء پهلویّه است، چنان که در کتاب برزین از رفرس مذکور است(284).
دیگر از اسمای آن بزرگوار، برهان الله است که در کتاب انکلیون آن را ذکر نموده(285).
دیگر از اسمای آن حضرت، تالی است که یوسف بن قز علی سبط ابن جوزی آن را در مناقب از القاب آن جناب شمرده.
یکی از اسامی آن بزرگوار، جنب است، چنان که در هدایه(286) آن را از القاب شمرده و در اخبار متواتره و در تفسیر آیه شریفه: ﴿یا حَسْرَتی عَلی ما فَرَّطْتُ فِی جَنْبِ الله﴾ (زمر: 56) رسیده که امام (علیه السلام)، جنب الله است(287).
دیگر از اسامی آن جناب، حجاب است که در هدایه(288) آن را از القاب شمرده و در زیارت آن جناب است: السلام علی حجاب الله الأزلیّ القدیم.
دیگر از اسمای آن حضرت، حامد و دیگر، حمد است که هردو را در آن کتاب از القاب شمرده است.
دیگر از اسمای آن جناب، حاشر در صحف ابراهیم است، چنان که در تذکره الائمّه (علیهم السلام) مذکور است.
دیگر از اسمای آن جناب، خاتم الاوصیا و از القاب شایعه است که آن حضرت، خود را به همین لقب شناساند، چنان چه جمله ای از محدّثین از ابی نصر طریف، خادم حضرت عسکری (علیه السلام) روایت کردند که گفت: بر حضرت صاحب الزّمان - صلوات الله علیه - داخل شدم، به من فرمود: ای طریف! سندل سرخ برای من بیاور. آن را برای حضرت آوردم.
فرمود: مرا می شناسی؟
گفتم: آری.
فرمود: من کیستم؟
گفتم: تو مولای من و پسر مولای منی.
فرمود: این را از تو سؤال نکردم.
گفتم: فدایت شوم، پس برای من بیان کن، آن چه از آن سؤال کردی.
فرمود: منم خاتم الاوصیا، خداوند به سبب من، بلا را از اهل و شیعیان من رفع می کند که دین خدا را برپا می دارند(289).
[خاتمه الائمه، خجسته و...] 2 مسکه:
از جمله اسامی آن بزرگوار، خاتمه الائمّه (علیهم السلام) است، چنان چه در جنّات الخلود آن را از القاب آن جناب شمرده(290).
از دیگر اسمای آن حضرت، خجسته است، چنان که در ذخیره گفته این نام آن جناب، در کتاب کندرال فرنگیان است(291).
از دیگر اسمای آن جناب، خسرو است که در ذخیره و تذکره مذکور است که این، نام آن حضرت، در کتاب جاویدان خرد مجوس است(292).
یکی از اسمای آن حضرت، خازن است، چنان که در هدایه(293) آن را از القاب شمرده است.
از دیگر اسمای آن حضرت، خنّاس می باشد و آن ستاره های سیّاره است که برای ایشان رجوع است و گاهی از سیر مراجعت می کنند؛ مثل زحل و مشتری و مرّیخ و زهره و عطارد و برای آفتاب و ماه رجعت نیست.
حسین بن حمدان از جناب باقر (علیه السلام) روایت کرده که در آیه مبارکه: ﴿فَلا أُقْسِمُ بِالْخُنَّسِ﴾ (تکویر: 15) فرمود: او امامی است که در سنه دویست و شصت غایب می شود(294).
در کمال الدین(295) و غیبت شیخ نعمانی(296) از امّ هانی مروی است؛ گفت: حضرت امام محمد باقر (علیه السلام) را ملاقات کردم و از آن جناب، از آیه: ﴿فَلا أُقْسِمُ بِالْخُنَّسِ﴾ سؤال کردم.
فرمود: آن امامی است که در زمان خود پنهان می شود...، الخ.
از دیگر اسامی آن حضرت، خلیفه الاتقیا است، چنان چه در خبر مشارق الانوار(297) آن را نیز از القاب شمرده است.
از دیگر اسامی آن بزرگوار، رجل و از القاب اوقات تقیّه ایشان است که شیعیان، آن حضرت را به این اسم می خواندند، چنان چه موردی از آن در لقب آن جناب ذکر شد.
دیگر راهنماست، چنان چه در ذخیره و تذکره(298) مذکور است که این اسم آن جناب در کتاب باتنکل می باشد که صاحب آن از عظمای کفره است و از آن کتاب، کلماتی در بشارت به وجود و ظهور آن حضرت نقل کردند که ما را حاجتی به نقل آن نیست.
از جمله اسامی آن بزرگوار، زند افریس است که در ذخیره الالباب گفته این اسم آن جناب در کتاب ماریاقین است(299).
عبارت ذخیره این است: «و فی کتاب ماریاقین زند افریس». پس احتمال می رود اصل اسم، همان افریس باشد و مراد از زند، همان کتاب منسوب به زردشت یا صحف حضرت ابراهیم (علیه السلام) یا فصلی از آن باشد. و الله العالم.
از دیگر اسامی آن جناب، ربّ الأرض است، چنان چه در تفسیر آیه شریفه ﴿وَ أَشْرَقَتِ الْأَرْضُ﴾ (زمر: 69) رسیده و اخبار آن گذشت.
از اسامی دیگر آن بزرگوار، سروش ایزد است که در آن کتاب و تذکره(300) مذکور است که این، اسم آن جناب، در کتاب زمزم زردشت است، از دیگر اسامی آن حضرت، السّلطان المأمول است، چنان چه در القاب آن حضرت گذشت.
از جمله اسامی آن بزرگوار، سدره المنتهی است، چنان که در هدایه(301)، آن را از القاب شمرده است.
یکی از اسامی آن جناب، سناء و دیگر، سبیل است که هردو را در آن کتاب از القاب شمرده است(302).
از دیگر اسامی آن حضرت، شماطیل است، چنان چه در ذخیره گفته این اسم آن جناب در کتاب ارماطش است.
از جمله اسامی آن حضرت، صاحب است که از القاب معروفه آن جناب می باشد و علمای رجال به آن تصریح کردند.
در ذخیره گفته این، نام آن جناب در صحف ابراهیم (علیه السلام) است(303).
دیگر، صاحب الغیبه(304) و از دیگر اسامی آن جناب، صاحب الرجعه است، چنان که در هدایه(305) آن را از القاب شمرده است.
از دیگر اسامی آن جناب، صاحب الدار است که علمای رجال تصریح کردند از القاب خاصّه آن حضرت می باشد و در بعضی روایات است که فرمود: «أنا صاحب الدّار»(306).
از دیگر اسامی آن جناب، صاحب العصر است که این لقب نیز در شهرت و معروفیّت مثل صاحب الزّمان است (علیه السلام).
از دیگر اسامی آن بزرگوار، صاحب الکرّه البیضاء است که در هدایه(307) آن را از القاب شمرده است.
و از دیگر اسامی آن بزرگوار، صاحب الدوله الزهراء است که آن را در آن کتاب در عداد القاب درج نموده(308).
از جمله اسامی، صالح است که آن را صاحب تاریخ عالم آرا و عالم جلیل مقدّس اردبیلی در حدیقه الشیعه(309) از القاب آن جناب شمردند.
دیگر، صاحب الامر است، چنان چه در ذخیره و غیره(310) آن را از القاب شمرده و آن، از القاب شایعه متداوله است و دیگر، صمصام الاکبر است، چنان که در ذخیره گفته این نام آن جناب در کتاب کندرال است(311).
از دیگر اسامی، صدق است که در مناقب قدیمه و هدایه(312) آن را از القاب خاصّه محسوب داشتند.
از دیگر اسامی، ضیاء است، چنان که در آن کتاب(313) و در مناقب قدیمه است.
و دیگر، صراط که در هدایه(314) آن را از القاب شمرده و در کتاب و سنّت، اطلاق آن بر هرامام بسیار شده و شاهدی برای اختصاص، به نظر نرسیده، از اسامی دیگر آن بزرگوار، طرید است که مکرّر در اخبار به این لقب خوانده شده و معنی آن قریب به شرید است.
از جمله اسامی، عالم است که در ذخیره آن را ایضا از القاب آن حضرت شمرده، از دیگر اسامی آن بزرگوار عدل است، چنان چه در مناقب قدیمه و هدایه است(315).
و دیگر، عاقبه الدار، چنان چه در هدایه(316) است.
و دیگر، غرّه عین که آن را نیز، آن جا ذکر کرده است(317).
[عین، عصر، غایب و...] 3 مسکه:
از جمله اسامی آن بزرگوار، عین؛ یعنی عین الله است که نیز در آن جا می باشد، چنان چه در زیارت آن جناب است و اطلاق آن بر همه ائمّه (علیهم السلام) شایع است، دیگر، عصر است که در ذخیره، آن را از اسمای آن جناب شمرده که در قرآن مذکور است(318).
و دیگر، غایب که ایضا از القاب شایع آن جناب در اخبار است(319).
از دیگر اسامی آن جناب، غلام است که مکرّر در لسان روات و اصحاب به این لقب مذکور شده است.
از دیگر اسامی آن بزرگوار، غایه الطالبین.
و دیگر، غایه القصوی است که در هدایه(320) هر دو را از القاب شمرده است.
دیگر، غلیل که در ذخیره الالباب از القاب آن حضرت شمرده است.
دیگر، غوث الفقرا، چنان چه در لقب بیست و هشتم گذشت.
و دیگر، فردوس الاکبر که در ذخیره و تذکره مذکور است که این، اسم آن جناب در کتاب قبرس رومیان است(321).
دیگر، فیروز است که در ذخیره گفته این، اسم آن جناب نزد آمان به لغت ماچار است و در تذکره گفته در کتاب فرنگان ماچار الأمان(322).
دیگر، فرخنده است، چنان که در ذخیره گفته این، اسم آن جناب در کتاب شعیای پیغمبر است(323).
و یکی، فرج المؤمنین.
دیگر، الفرج الأعظم است که در هدایه، این دو را از القاب شمرده، دیگر، قابض است، چنان که در مناقب قدیمه و هدایه(324)، آن را از القاب آن جناب شمرده است.
از دیگر اسامی آن سرور، قیامت می باشد؛ چنان چه در هدایه است و در ساعه مناسبت این لقب معلوم شد.
از دیگر اسامی، قسط است، چنان که در آن دو کتاب مذکور است(325)، از دیگر اسامی آن جناب، قوّت است که در هدایه(326) آن را از القاب شمرده.
و دیگر اسامی آن بزرگوار، قاتل الکفره است که مستند آن در القاب آن جناب گذشت. از دیگر اسامی، قائم الزّمان است که در کمال الدین(327) در حدیث شخص ازدی مروی است که در مسجد الحرام خدمت آن جناب رسید، حضرت، سنگی را برای او طلا کرد، در حقّ او دعا نمود و فرمود: مرا می شناسی؟
گفت: نه!
فرمود: منم مهدی، منم قائم الزّمان، منم آن که زمین را پر از عدل و داد کنم، چنان چه از جور پر شده باشد.
از جمله اسامی آن بزرگوار، قیّم الزمان است، چنان چه در خبر علوی مصری است، دیگر، قاطع است، چنان چه در ذخیره گفته این، اسم آن جناب در کتاب قنطره است(328)، از دیگر اسامی آن حضرت، کاشف الغطاء است که در هدایه(329) و مناقب، آن را از القاب آن سرور شمرده است.
دیگر، کمال می باشد، چنان که در کتاب اوّل است(330).
دیگر، کلمه الحق است که در ذخیره گفته این، نام آن جناب در صحیفه است(331).
دیگر، کیقباد دوّم؛ یعنی عادل بر حق است، چنان که در ذخیره و تذکره(332) گفته این، نام آن جناب نزد مجوس و گبران عجم است.
دیگر، کوکما که در ذخیره مذکور است که این، نام آن جناب در کتاب بختا است(333)، از دیگر اسامی، لوای اعظم است که در هدایه(334) آن را از القاب شمرد.
از دیگر اسامی آن بزرگوار، لندیطار است که در ذخیره و تذکره(335) مذکور است این، اسم آن جناب در کتاب هزارنامه است.
دیگر لسان الصّدق که اسم آن جناب در صحیفه است، چنان چه در ذخیره گفته(336).
دیگر ماشع است که در ذخیره گفته این، اسم آن جناب در تورات عبریّه است و در تذکره(337) گفته؛ در توراتی که نزول او آسمانی است.
دیگر، مهمید الآخر که در آن دو کتاب است که این، اسم آن جناب در انجیل می باشد(338).
و از دیگر اسامی آن سرور، مسیح الزمان است که در هردو مذکور است که این اسم آن حضرت در کتاب فرنگیان است(339).
دیگر، میزان الحق است که در ذخیره گفته این، اسم آن جناب در کتاب آژی پیغمبر است(340).
از دیگر اسامی، منیه الصّابرین است که در هدایه(341) آن را از القاب شمرده.
و از دیگر اسامی ایشان، عبد الله می باشد، چنان چه در اسم احمد است که رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) فرمود: اسم مهدی (علیه السلام)، احمد و عبد الله و مهدی است.
دیگر، مؤمّل است، چنان که شیخ کلینی و شیخ طوسی(342) از حضرت امام حسن عسکری (علیه السلام) روایت کردند که فرمود: آن وقت که حجّت (علیه السلام)، متولّد شد، ظلمه گمان کردند مرا می کشند تا این که این نسل را قطع کنند. پس قدرت خداوند را چگونه دیدند. او را مؤمّل نامید و ظاهر آن است که به فتح میم دوّم باشد؛ یعنی آن که خلایق، آرزوی او را دارند و در دعای ندبه به این مضمون اشاره شده؛ «بنفسی أنت من امنیته شایق یتمنّی من مؤمن و مؤمنه.»
از جمله اسامی آن بزرگوار، مخبر بما یعلن.
و دیگر، مجازی بالأعمال است که اوّلی را در مناقب قدیمه و هدایه(343) و دوّمی را در هدایه از القاب آن جناب شمرده اند.
از دیگر اسامی آن جناب، مدبّر است، چنان که در مناقب قدیمه آن را از القاب آن حضرت شمرده.
و از دیگر اسما، مأمور است.
دیگر، مقدّره می باشد، چنان چه در هدایه(344) است و آن به معنی توانایی است، چه کثرت بروز و ظهور عجایب قدرت های الهیّه از آن جناب، به حدّی رسیده که گویا عین قدرت شده؛ چنان چه اطلاق عدل و قسط که بر آن حضرت گذشت به همین ملاحظه است.
از اسمای دیگر ایشان، مفرّج اعظم است که در مناقب قدیمه و هدایه(345) آن را از القاب آن سرور شمرده اند. شیخ مسعودی در اثبات الوصیّه(346) و حضینی در کتاب خود غیر از هدایه(347)، از جناب رضا (علیه السلام) روایت کردند؛ فرمود: هرگاه عالم شما از میانتان غایب شد، پس منتظر فرج اعظم باشید.
از دیگر اسامی آن بزرگوار، من لم یجعل الله له شبیها است که ایضا در مناقب قدیمه آن را از القاب آن جناب شمرده و در هدایه(348) سمیّا نقل کرده و به شبیها تفسیر نموده است. از فی الجمله تأمّلی معلوم می شود که احدی شبیه و نظیر آن جناب نبوده و به رتبه عزّت و جلالش نرسیده و نخواهد رسید. دیگر از اسامی، نور الاصفیاء و نور الاتقیاء است، چنان که گذشت و دیگر نجم است، چنان چه در ذخیره، آن را از اسامی آن جناب شمرده که در قرآن مذکور است.
[ناحیه مقدسه، واقید، وتر و...] 4 مسکه:
بدان یکی از اسامی آن جناب، ناحیه مقدّسه است که در جنّات الخلود گفته، گاهی آن حضرت را در ایّام تقیّه به این لقب می خواندند.
از جمله اسامی آن حضرت، واقیذ است که در کتاب مذکور، مسطور است که این لقب آن جناب در کتب سماویّه و به معنی غایب شونده مدّت مدید است، در تاریخ عالم آرا مذکور است که اسم ایشان در تورات، واقیذما نوشته شده.
از دیگر اسامی آن حضرت، وتر است که در مناقب قدیمه و هدایه(349)، آن را از القاب شمرده؛ یعنی تنها و طاق، فرد و متفرّد در کمال و فضایل که تحقّق آن در نوع بشر ممکن باشد؛
در خصایص و اکرامات مخصوص الهیّه که گذشت و خواهد آمد احدی از حجج، قبل از آن جناب به آن ها سرفراز نشده.
دیگر وجه است که در هدایه آن را از القاب شمرده و در زیارت آن جناب است:
«السلام علی وجه الله المتلقّب بین أظهر عباده».
دیگر از اسامی آن سرور، ولیّ الله است که در اخبار مکرّر به این لقب مذکور شده، خصوصا در لسان روات. در ید باسطه بیاید که خداوند در شب معراج فرمود: او - یعنی قائم (علیه السلام) - به راستی ولیّ من است(350).
در کفایه الاثر(351) خرّاز از رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) مروی است؛ فرمود: چون وقت خروج او برسد، برای او شمشیری غلاف کرده است، پس شمشیر او را ندا کند: ای ولیّ الله برخیز! و دشمنان خدا را بکش.
در خبر دیگر است که علم آن حضرت نیز در آن وقت همین طور ندا کند(352).
دیگر، یمین است که در هدایه(353) از القاب شمرده و آن، مثل ید باسطه است.
[حکمت اسامی و القاب حضرت]:
خاتمه للعبقریّه قابله للهدیّه: بدان بیشتر اسامی و القاب و کنیه هایی که ذکر شد، از جانب مقدّس حضرت باری تعالی و انبیا و اوصیا (علیهم السلام) است و نام گذاردن خدای تعالی و خلفایش، برای کسی مثل نام گذاردن متعارف خلایق نیست که در آن معنی اسم و وجود و عدم آن در شخص را رعایت و ملاحظه نکنند، چه بسا شود برای پست رتبه و فطرت و مذموم الخلقه و خصلت، اسامی شریف گذارند و لکن خدای تعالی و اولیایش تا معنی آن اسم در شخص راست نیاید، آن اسم را برای او نگذارند و شود که ملاحظه معانی و صفات متعدّد در یک اسم شریف شود و به جهت آن ها، آن اسم را به او بخشند.
از این باب است که در اخبار، مکرّر، ابتدا و در مقام جواب سائل، علّت اسما و القاب شریفه حجج (علیهم السلام) را بیان فرمودند و برای پاره ای، وجوه متعدّد ذکر نمودند، چنان چه در وجه کنیه بودن ابو القاسم برای رسول خدا (صلّی الله علیه و آله)، فرمودند: چون پسری داشت که او را قاسم می گفتند.
نیز فرمودند: چون آن جناب، پدر امّت و امیر المؤمنین (علیه السلام)، رییس امّت است و او قاسم بهشت و دوزخ است، پس آن حضرت، ابو القاسم، یعنی پدر امیر المؤمنین است.
هم چنین فرمودند: چون آن حضرت روز قیامت، رحمت را در میان خلق قسمت می کند و هکذا، در سایر اسامی و القاب.
از این جا معلوم می شود که کثرت اسامی و القاب الهیّه، کاشف از کثرت صفات و مقامات عالیه است که هریک بر خلق و صفتی و فضل و مقامی، بلکه بعضی بر جمله ای از آن ها دلالت کند و از آن ها باید به آن مقامات به قدری پی برد که در لفظ، گنجایش و فهم راه داشته باشد و نیز ظاهر شد؛ درک اندکی از مقام امام زمان (علیه السلام) از قوّه بشر بیرون است.

عبقریّه چهارم [نام اصلی حضرت و احکام آن]

در بیان اسم خاص و نام مخصوص حضرت بقیّه الله (عجّل الله فرجه الشریف) که آن بنابر مفادّ اخبار متواتره خاصّه و عامّه، محمد است نیز در بیان جواز بردن این اسم مبارک، قبل از ظهور آن بزرگوار در مجالس و محافل و حرمت آن است و در آن چند مسکه می باشد.
[نام اصلی آن حضرت] 1 مسکه:
بدان در نجم ثاقب ذیل اسم محمد فرموده: این، اسم اصلی و نام اولی الهی آن حضرت است، چنان چه در اخبار متواتره خاصّه و عامّه است که رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) فرمود: مهدی هم نام من است.
در خبر لوح، مستفیض، بلکه متواتر معنوی است که جابر برای حضرت باقر (علیه السلام) قبول کرد آن را نزد صدّیقه طاهره (علیها السلام) دیده و خدای عزّ و جلّ آن را برای رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) هدیه کرده بود و در آن جا اسامی اوصیای آن حضرت، ثبت بود و به روایت صدوق در کمال الدین(354) و عیون الاخبار(355)، اسم حضرت مهدی (علیه السلام) به این نحو ضبط شده بود: ابو القاسم محمد بن الحسن، هو حجّه الله القائم، مادر او، کنیزکی است که اسمش نرجس است - صلوات الله علیهم اجمعین -.
به روایت شیخ طوسی در امالی(356) و الخلف، محمد در آخر الزّمان خروج می کند، بر سر او ابر سفیدی است که از آفتاب سایه می افکند و به زبان فصیح ندا می کند که ثقلین و خافقین آن را می شنوند که او مهدی از آل محمد (علیهم السلام) است، زمین را پر از عدل می کند، چنان چه از جور پر شده باشد.
به روایتی جابر گفت: محمد را در آن در سه موضع و علی را در چهار موضع دیدم.
[حرمت بردن نام اصلی آن جناب] 2 مسکه:
بدان به مقتضای اخبار کثیره معتبره قریب به متواتره به حسب معنی، حرمت بردن این اسم مبارک در مجالس و محافل تا ظهور موفور السرور آن حضرت است.
این حکم از خصایص آن حضرت و نزد قدمای امامیّه از فقها و متکلّمین و محدّثین مسلّم است، حتی شیخ اقدم، ابو محمد حسن بن موسی نوبختی از علمای غیبت صغری در کتاب فرق و مقالات(357)، در ذکر فرقه دوازدهم شیعه بعد از وفات امام حسن عسکری (علیه السلام) فرموده: ایشان امامیّه اند، آن گاه مذهب و عقیده ایشان را نقل می کند تا آن که می فرماید: «و لا یجوز ذکر اسمه و لا السّؤال عن مکانه حتّی یؤمن بذلک».
از این کلام در این مقام معلوم می شود این حکم از خصایص مذهب امامیّه است و از احدی از ایشان، خلافی نقل نشده تا عهد خواجه نصیر الدین طوسی که آن مرحوم، قایل به جواز شدند و خلاف ایشان مضرّ نیست، چه به جهت قلّت زمان و کمی وقت برای مراجعت به کتب نقلیّه، گاهی به مذاهب نادره بلکه منحصر به خود، مثل انکار بداء و انکار توقیفی بودن اسمای حسنی قایل می شدند، حال آن که شیخ مفید - طاب ثراه - در کتاب مقالات(358) در مقام ذکر مقالات در صفات حضرت باری تعالی فرموده: «و اقول انّه لا یجوز تسمیه الباری تعالی الّا بما سمّی به نفسه فی کتابه أو علی لسان نبیّه (صلّی الله علیه و آله و سلّم) او سمّاه به حججه (علیهم السلام) و کذلک اقول فی الصّفات و بهذا تطابقت الأخبار عن آل محمّد (علیهم السلام) و هو مذهب جماعه الأمامیّه و کثیر من الزّیدیّه و البغدادیّین من المعتزله کافّه و جمهور المرجئه و اصحاب الحدیث الّا انّ هؤلاء الفرق یجعلون بدل الأمام الحجّه فی ذلک الأجماع،» انتهی.
غیر آن و پس از ایشان، از کسی جز از صاحب کشف الغمّه(359)، علی بن عیسی نقل خلاف نشده که علما در ترجیح و ردّ و قبول او، در امثال این مقام اعتنایی نمی کنند با آن که در این جا اشتباه عجیبی کرده و آن این است که در آن کتاب گفته:
«من العجب انّ الشّیخ الطّوسی و الشّیخ المفید (رحمه الله) قالا: لا یجوز ذکر اسمه و لا کنیّته ثم یقولون: اسمه اسم النّبیّ (صلّی الله علیه و آله و سلّم) و کنیّته کنیّته و هما یظنّان انّهما لم یذکرا اسمه و لا کنیّته و هذا عجب»؛ یعنی از عجب آن که شیخ طوسی و شیخ مفید (رحمه الله) گفتند:
ذکر اسم و کنیه آن حضرت جایز نیست، بعد از آن می گویند: اسم او، اسم پیغمبر و کنیه او، کنیه آن حضرت است و ایشان گمان می کنند اسم و کنیه آن جناب، را ذکر ننموده اند.
از این تعجّب او، باید تعجّب کرد که میان تلفّظ به اسم و کنیه - که حکم به حرمت فرمودند - و میان اشاره به آن ها فرق نکرده است.
بالجمله در عصر شیخ بهایی - علیه الرحمه - این مسأله نظری شد و میان فضلا محلّ تشاجر واقع شد تا آن که در آن، رسایل منفرده ای مانند شرعه التّسمیه محقّق داماد تألیف شد.
میر لوحی در کفایه المهتدی(360) گفته که این ضعیف نزد آن دو نحریر عدیم النّظیر، یعنی شیخ بهاء الدین محمد و امیر محمد باقر داماد - علیهما الرحمه - به تعلّم و تلمذه در میان ایشان بر سر جواز تسمیّه و حرمت آن در زمان غیبت تردّد داشت، مناظره و مباحثه روی نمود و آن گفتگو مدّتی در میان بود، لهذا سید مشار الیه، کتاب مذکور را تألیف نمود، انتهی.
رساله تحریم التّسمیه از عالم جلیل شیخ سلیمان ماحوزی، کشف التّعمیه از شیخ حرّ، فلک المشحون از جناب سید باقر قزوینی و در شرعه التّسمیه دعوای اجماع نموده.
ما عبارت او را به نحوی که تلمیذ رشید فاضل او، قطب الدین اشکوری در محبوب القلوب و جناب سید باقر در فلک المشحون نقل کردند، ذکر می کنیم.
قطب الدین فرموده:
«قال السّید السّند خاتم الحکماء و المجتهدین - طاب ثراه - فی کتابه شرعه التّسمیه فی زمان الغیبه:
انّ شرعه الدین و سبیل المذهب انّه لا یحلّ لأحد من النّاس فی زمننا هذا و اعنی به زمان الغیبه إلی أن تحین حین الفرج و یأذن الله سبحانه لولیّه و حجّته علی خلقه القائم بامره و الراصد لحکمه بسطوع الظّهور و شروق المخرج أن یسمیّه و یکنیّه - صلوات الله علیه - فی محفل مجمع مجاهر.
اسمه الکریم، معلنا بکنیته الکریمه و انّما الشّریعه المشروعه المتلّقاه عن ساداتنا الشّارعین - صلوات الله علیهم اجمعین - فی ذکرنا ایّاه مادامت غیبته الکنایه عن ذاته المقدّس بالقابه القدسیّه کالخلف الصّالح و الأمام القائم و المهدیّ المنتظر و الحجّه من آل محمّد (علیهم السلام) و کنیّته و علی ذلک اطباق اصحابنا السّالفین و اشیاخنا السّابقین الّذین سبقونا بضبط مأثر الشّرع و حفظ شعائر الدین - رضوان الله تعالی علیهم اجمعین - و الروایات النّاصّه، متظافره بذلک عن ائمّتنا المعصومین - صلوات الله علیهم اجمعین - و لیس یستنکره الّا ضعفاء التبصرّ بالأحکام و الأخبار و اطّفاء الإطّلاع علی الدّقائق و الأسرار و الّا القاصرون الّذین درجتهم فی الفقه و مبلغهم من العلم أن لا یکون لهم قسط من الخیره بخفیّات مراسم الشّریعه و معالم السّنّه و لا نصیب من البصیره فی حقایق القرآن الحکیم و لا حظّ من تعرّف الأسرار الخفیّه الّتی استودعها احادیث مهابط الوحی و معادن الحکمه و مواطن النّور و حفظه الدین و حمله السّر و عیبه علم الله العزیز».
سید نعمه الله جزایری در شرح عیون الاخبار، قول به حرمت را به اکثر علما نسبت داده و قول به جواز را جز به آن سه و بعضی از معاصرین خود به کسی نسبت نداده و الله العالم بالأمور.
[دلایل قول به حرمت] 3 مسکه:
بدان دلیل قول به حرمت ذکر این اسم مبارک در محافل و مجالس تا زمان ظهور موفور السّرور آن حضرت، اخبار معتبره کثیره ای است که در بحار و عوالم و غیر این ها ذکر شده است.
در نجم ثاقب به بعضی از آن ها اشاره نموده و فرموده:
اوّل:
حدیث سیزدهم از باب پنجم نصوص خاصّه که شیخ جلیل، فضل بن شاذان در کتاب غیبت(361) خود از جابر انصاری روایت کرده که جندل بن جناده که از یهودان خیبر بود، خدمت رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) فرمود: نام برده نشود تا زمانی که خداوند او را ظاهر سازد.
دوّم:
حدیث بیست و سوّم، آن جا که صدوق(362) و دیگران(363) آن را به طرق معتبره از عبد العظیم حسنی روایت کردند که او عقاید و معالم دین خود را خدمت حضرت إمام علی النّقی (علیه السلام) عرض کرد و امامان خود را تا آن جناب شمرد.
حضرت فرمود: بعد از من امام و خلیفه و ولیّ امر، فرزند من حسن است. پس عقیده مردمان، درباره خلف بعد از او چگونه است؟
گفت: ای مولای من! آن بر چه وجه است؟
فرمود: از آن جهت که شخص او را نبینند و بر زبان آوردن نام او حلال نباشد تا آن که خروج کند و زمین را از عدل و داد پر گرداند، آن چنان که از جور و ظلم پر شده باشد.
سوّم:
حدیث بیست و هفتم، آن جا که از ابراهیم بن فارس نیشابوری روایت کرده که چون خدمت حضرت عسکری (علیه السلام) رسید، حضرت حجّت (علیه السلام) پهلوی پدر بزرگوارش نشسته بود و از ضمیر او خبر داد، پس از حال آن جناب پرسید.
حضرت فرمود: او فرزند و خلیفه من بعد از من است تا آن که گفت: از نام آن حضرت پرسیدم.
فرمود: هم نام و هم کنیّه پیغمبر (صلّی الله علیه و آله) است و حلال نیست کسی او را به نام یا کنیه ذکر کند تا زمانی که خداوند، دولت و سلطنت او را ظاهر سازد(364).
چهارم:
خبر صحیح مشهوری است که آن را ثقه الاسلام در کافی(365) و صدوق در عیون(366) و کمال الدین(367) و طبرسی در احتجاج(368) از امام محمد تقی (علیه السلام) در خبری طولانی روایت کردند که حاصلش این است: روزی امیر المؤمنین (علیه السلام) در مسجد الحرام بود، ناگاه مردی خوش هیأت و خوش لباس پیش آمد، سلام کرد و چند سؤال نمود، حضرت به امام حسن (علیه السلام) حواله فرمود. آن جناب جواب داد.
آن شخص گفت: «أشهد أن لا اله الّا الله و لم ازل أشهد بها و أشهد انّ محمّدا رسول الله و لم ازل اشهد بذلک». آن گاه بر خلافت و وصایت آن جناب و یک یک اوصیای آن حضرت شهادت داد تا آن که گفت: و بر مردی از فرزندان حسن (علیه السلام) شهادت می دهم که به کنیه و اسم، نام برده نمی شود تا آن که امر او ظاهر شود. زمین را از عدل پر کند، چنان چه از جور پر شده باشد، او قائم به امر حسن بن علی است و «السلام علیک یا امیر المؤمنین و (رحمه الله) و برکاته.
آن گاه برخاست و رفت، سپس حضرت به امام حسن (علیه السلام) فرمود: پی او برو، ببین کجا می رود.
بیرون رفت و فرمود: چون پای خود را بیرون مسجد گذاشت، ندانستم کجای زمین رفت. حضرت فرمود: او خضر بود.
در این خبر شریف چند فایده است:
اوّل:
آن که نبردن نام شریف، از صفات معروفه آن حضرت بود که در زمان انبیا و اوصیای گذشته تداول داشت.
امّا دوّم:
آن که آن در جمیع عصرها از جمله تکالیف و معتقد اهل حقّ بود.
سوّم:
آن که این حکم ثابت است و مطابق اخبار سابقه و آینده تا زمان ظهور، اختصاصی به زمان غیبت صغرا یا اوقات تقیّه ندارد.
علّامه مجلسی (رحمه الله) در بحار(369)، بعد از ذکر چند خبر که حرمت را تا زمان ظهور تحدید فرمودند، فرموده: این تحدیدات، صریح در نفی قول آن است که این را به جهت اتّکال بر بعضی تعلیلات مستنبطه و استبعادات وهمیّه به زمان غیبت صغرا تخصیص داده.
پنجم:
در کافی(370) و کمال الدین(371) به سند صحیح از جناب صادق (علیه السلام) مروی است؛ فرموده: صاحب این امر، مردی است که نام او را کسی جز کافر به اسم او نمی برد.
فاضل صالح مازندرانی در شرح این خبر گفته: مراد به کافر در این جا تارک اوامر و فاعل نواهی است نه منکر پروردگار جلّ جلاله و مشرک به او و در آن در تحریم تصریح به اسم آن جناب مبالغه است و شاید آن به زمان تقیّه مختصّ باشد؛ به دلیل آن چه در مواضع متفرّقه ذکر نمودیم و نیز دلالت بعضی اخبار بر آن ظاهرا(372).
مؤیّد این کلام، باقی نبودن تحریم، در آن در جمیع اوقات و ازمان اتّفاقا است و هر گاه تخصیص به آن راه یافت، حمل آن بر آن چه ذکر نمودیم، جایز است. پس بر شمول تحریم تمام در زمان غیبت دلیل نمی شود، انتهی.
و جهات ضعف این کلام، بر ناظر، مخفی نیست، خصوصا جواز در ایّام ظهور را مخصّص عمومات ادلّه حرمت قرار دادن، با آن که در همه آن ها، آن زمان را غایت تحریم قرار دادند؛ پس گاهی داخل نبود تا به اتّفاق خارج شود و پیش از ظهور، قائلین به حرمت - که جمهور علمااند - هیچ زمانی را خارج نکردند و بر فرض تسلیم، خروج زمانی، سبب جواز تصرّف در عام نمی شود و حمل بر تقیّه در بسیاری از آن ها راه ندارد، بلکه در معدودی که احتمال می رود، شبهه ای است که خواهیم گفت.
[روایات مختلف در این زمینه] 4 مسکه:
ششم:
آن است که در کافی(373) و عیون و کمال الدین(374) و غیبت شیخ طوسی(375) و غیره(376) مروی است که حضرت امام علی النّقی (علیه السلام) به ابو هاشم داود بن قاسم جعفری فرمود:
خلف بعد از من، حسن پسر من است. پس حال شما با خلف بعد از خلف چگونه است؟
گفت: گفتم چرا فدایت شوم؟
فرمود: زیرا شما شخص او را نمی بینید و برای شما ذکر او به نامش حلال نیست.
هفتم:
در کافی(377) و کمال الدین(378) از ریّان بن صلت مروی است؛ گفت: شنیدم حضرت رضا (علیه السلام) در حالی که از آن جناب از قائم (علیه السلام) سؤال کرده بودند، می فرماید: جسمش دیده نمی شود و به اسم، نام برده نمی شود.
هشتم:
در کمال الدین(379) مروی است که حضرت صادق (علیه السلام) به صفوان بن مهران فرمود:
مهدی از فرزندان من و پنجمین از فرزند هفتم است، شخص او از شما غایب می شود و نام بردن او برای شما حلال نیست. همین خبر را در آن جا به سند دیگر از عبد الله بن یعفور روایت کرده است.
نهم:
نیز در آن جا(380) از حضرت کاظم (علیه السلام) روایت کرده که در ضمن ذکر قائم (علیه السلام) فرمود:
ولادت او بر مردم مخفی می شود و نام بردن او برای ایشان حلال نیست تا آن که خدای عزّ و جلّ او را ظاهر نماید. پس زمین را به وسیله او از داد پر کند، چنان چه از جور و ظلم پر شده باشد.
دهم:
نیز در آن جا(381) و خرّاز در کفایه الاثر(382)، از حضرت جواد (علیه السلام) روایت کردند؛ فرمود: قائم ما کسی است که ولادت او بر مردم مخفی می شود، شخص او از ایشان غایب می شود و نام بردن او بر ایشان حرام است. او هم نام رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) و هم کنیه او است.
یازدهم:
نیز در آن جا مروی است که در توقیعات صاحب الزّمان - صلوات الله علیه - بیرون آمد: ملعون است کسی که مرا در محفل مردم نام برد(383).
دوازدهم:
نیز در آن جا از محمد بن عثمان عمری - قدّس الله روحه - مروی است که گفت:
توقیع، به خطّ آن جناب بیرون آمد که آن را می شناختم؛ هرکس در مجمعی از مردم مرا به اسم من نام برد، پس لعنت خدای تعالی بر او باد(384)!
سیزدهم:
نیز در آن جا(385) از حضرت باقر (علیه السلام) مروی است که عمر از حضرت امیر المؤمنین (علیه السلام) از حال مهدی پرسید و گفت: ای پسر ابی طالب! مرا از مهدی خبر ده که اسم او چیست؟
فرمود: اما اسم، پس نمی گویم، زیرا حبیب و خلیل من به من وصیّت کرد او را به نام خبر ندهم تا آن که خدای عزّ و جلّ او را مبعوث فرماید و آن از اموری است که خدا در علم خود، آن را به رسول خود به ودیعت سپرده.
چهاردهم:
شیخ حسن بن سلیمان حلّی در کتاب مختصر از سید حسن بن کبش نقل کرده که در کتاب خود و به اسناد خود از جناب صادق (علیه السلام) روایت کرده که آن جناب - صلوات الله علیه - به پسر خود، حضرت موسی (علیه السلام) اشاره کرد و فرمود: پنجم از فرزندان او غایب می شود و ذکر او به اسمش حلال نیست(386) - صلوات الله علیه - ، الخبر.
[مؤیدات حرمت نام بردن] 5 مسکه:
بدان این اخبار کثیره معتبره که شرایط حجیّت آن ها، تمام و مؤیّد است، با اجماع منقول و شهرت محقّقه، در اثبات مدّعی وافی است که آن، حرمت نام بردن آن حضرت به این نام، در زمان غیبت است و با این حال مؤیّد آن چند چیز است:
اوّل:
در تمام اخبار معراج خدای تعالی اسامی یک یک امامان را برای پیغمبر خود نام برده، جز حضرت مهدی (علیه السلام) را که به لقب ذکر فرموده و آن اخبار متفرّقا در این باب و باب آینده بیاید.
دوّم:
آن که در جمیع اخبار نبویّه رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) نام هریک از اوصیای خود را ذکر فرمودند و جمله ای از آن ها بیاید که همه را به نام خود اسم بردند جز آن جناب که به لقب یاد کردند یا فرمودند: هم نام من، حال آن که حضرت باقر و امام محمد تقی نیز هم نام آن جناب بودند.
سوّم:
کثرت القاب شایع متداول آن جناب که پیش از ولادت و پس از آن در میان امّت شایع بود، حتی در جمیع امم سالفه که به ظهور آن جناب بشارت می دادند از خطبه روز غدیر رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) که فرمود: «ألا انّه قد بشربه من سلف بین یدیه»(387) و در نزد همه به لقب معروف و در زیارت آن جناب است: «السلام علی مهدیّ الأمم».
امّا حمل این اخبار بر تقیّه، از جهاتی جایز نیست:
اوّل:
تمام محدّثین خاصّه و عامّه، این فقره را از رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) نقل کردند که فرمود:
اسم مهدی، اسم من است، چنان چه به اسانید و مأخذ آن اشاره خواهد شد، لذا همه به اسم آن جناب دانا بودند، پس کیست آن که باید از او پنهان داشت.
دوّم:
در بسیاری از این اخبار و غیر آن، با نهی مذکور یا نبردن اسم، تصریح فرمودند: او همنام رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) است و با این کلام، راوی و سامع به نام اصلی دانا شدند، پس اگر تقیّه از آن ها بود، دانا شدند و اگر از غیر است، باید ایشان در جای دیگر ذکر نکنند، بنابراین عدم ذکر در آن مجلس، راهی ندارد، بلکه تنبیه ایشان لازم بود که نکردند.
سوّم:
ذکر نکردن جناب خضر، اسم آن حضرت را در محضر شریف امیر المؤمنین (علیه السلام)، اسم نبردن را از اجزای شهادت و صفات آن حضرت قرار دادن، هم چنین اسم نبردن رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) برای جندل یهودی خیبری، قابل حمل بر تقیّه نیست.
چهارم:
آن چه گذشت که غایت حرمت را ظهور قرار دادند با آن که حرمت، دایر مدار خوف باشد، جمع نشود.
پنجم:
اگر مجرّد ذکر این اسم، منشأ خوف و فساد بود با ملاحظه این که جبّارین در صدد قمع و قتل آن جناب بودند؛ چون به ایشان رسیده بود که زوال ملک جبّارین و انقطاع دولت ظالمین به دست آن حضرت است، لذا بهتر آن بود که به هیچ اسم و لقب معروفی ذکر نشود، خصوصا لقب مهدی که در همه وعده و وعیدهای نبوی آن جناب، به این لقب ذکر شده و به آن معروف شده بود تا آن که پسر خطّاب از امیر المؤمنین (علیه السلام) از حال مهدی و عبد الملک از زهری و منصور از سیف می پرسید، چنان چه بیاید.
پس در اختصاص به این اسم راهی جز بودن آن از اسرار مکنونه و خصایص الهیّه نباشد، مثل بودن امیر المؤمنین از خصایص جدّ بزرگوارش.
بعضی احتمال دادند شاید سبب حرمت آن باشد که عوام با شنیدن آن به اهل کتاب معتقد شوند که می گویند: پیغمبر آخر الزّمان بعد از این، ظاهر خواهد شد.
[احادیث جواز نام بردن] 6 مسکه:
بدان آن چه بر جواز دلالت می کند، چند خبر است که به حسب سند یا متن ضعیف اند، مثل خبری که در لقب سید گذشت که کنیز خیزرانی گفت: نرجس خاتون در حیات امام حسن (علیه السلام) وفات کرد و بر قبر او لوحی بود که در آن نوشته بود: «هذا قبر امّ محمّد»؛ این قبر مادر (م ح م د) است.
این خبر علاوه بر ضعف سند، مجهول بودن راوی، معلوم نبودن نویسنده و دلالت نکردن نوشتن بر جواز گفتن، با چند خبر معارض است و در بعضی بیاید که نرجس خاتون بعد از وفات آن حضرت، حیات داشت. نیز احتمال می رود امّ محمد، کنیه نرجس خاتون باشد. بنابراین دلالتی بر مدّعی نخواهد کرد.
در خبر همین کنیزک است که اسم مادر آن حضرت، صقیل بود و در کمال الدین(388) صدوق مروی است صقیل، هنگام وفات حضرت عسکری (علیه السلام) حاضر بود، او آب را با مصطکی جوش داد، خدمت آن جناب آورد و حضرت، نیاشامیده بعد از نماز صبح وفات کرد؛ مثل خبر لوح که در نهایت اعتبار است و لکن در متن آن اختلاف بسیار است و در بسیاری از آن، به لقب و کنیه ذکر شده.
اگر کسی بخواهد به جلد نهم بحار مراجعه کند که بیشتر آن ها را ضبط کرده، به علاوه، ذکر نام در آن، از اسرار مخزونه است و جز جابر کسی آن را ندید و این، دلالت بر جواز گفتن نمی کند و به طریقی که صدوق(389) روایت کرده، اسم، مذکور است و لکن بعد از ذکر خبر فرموده: خبر چنین رسیده و آن چه من اعتقاد دارم، نهی از نام بردن آن جناب است؛ مثل خبر علی بن احمد که نقل شده که در مسجد کوفه سنگ ریزه دید که در آن، این اسم مبارک به حسب خلقت نقش شده بود و ضعف دلالت آن نیز واضح است.
روایت ابی غانم که برای حضرت فرزندی شد و فلان اسم را بر او گذاشت؛ معلوم است در نام بردن او یا مثل او از روات غیر معروفین، حجّتی نباشد.
خصوصا نام نهادن، غیر از نام بردن است.
نیز، بعضی ادعیّه که به اسم مذکور شده، علاوه بر قلّت و معارضه، بیشتر به لقب ذکر شده و رسیدن به این نحو معلوم نیست، چون احتمال می رود امام اوّل را اسم بردند و باقی را به خواننده حواله کردند، چنان چه در مواضع بسیار تصریح شده، پس برگشت آن، به نادانی راوی باشد و بر جواز در غیر آن موضع دلالت نکند.
اضعف از همه، استشهاد به کنیه امام حسن (علیه السلام) که ابی محمد است، چه کنیه آن جناب به منزله اسم، علم شد و در آن التفاتی به ولد نیست؛ مثل ابو الحسن اوّل و ابو الحسن دوّم و اجزای اعلام مرکّب، بر جزء معنی دلالت نکند؛ مثل عبد شمس و ابی بکر و امثال آن ها.
بالجمله دست برداشتن از آن اخبار صحیح صریح، مؤیّد به اجماع و شهرت و وجوه سابق، به جهت این رقم اخبار، خروج از قانون استدلال و طریقه فقهاست.
[روایات منع] 7 مسکه:
در دار السلام عراقی است: بدان اصحاب ما - رضوان الله علیهم - از جمله شیخ مفید و شیخ طوسی - طیّب رمسهما - در این باب اختلاف کرده اند و از جماعتی از متأخّرین، قول به منع و حرمت و از علیّ بن عیسی، صاحب کشف الغمّه و خواجه نصیر الدین طوسی و شیخ بهائی - نور الله ضریحهم - جواز نقل شده.
منشأ این اختلاف، اختلاف اخبار در دلالت بر منع و رخصت است و از اخبار منع، روایت محمد بن همام است که گفت: شنیدم محمد بن عثمان عمروی می گفت: توقیع به خطّ آن حضرت بیرون آمد که آن را می شناختم: هرکس مرا به نام من ذکر کند، لعنت خدا بر او باد.
روایت صدوق به اسناد صحیح خود از صادق (علیه السلام) که فرمود: صاحب الامر (علیه السلام) کسی است که او را جز کافر نام نمی برد.
روایت دیّان بن صلت که گفت: از حضرت رضا (علیه السلام) از قائم (علیه السلام) سؤال کرده شد، فرمود: او کسی است که جسم او دیده و نام او برده نمی شود(390).
روایت امام باقر (علیه السلام) که فرمود: عمر از امیر المؤمنین (علیه السلام) از مهدی پرسید، فرمود:
اما اسم او پس خلیل و حبیب من، رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) از من عهد گرفته از نام او خبر ندهم تا آن زمان که خدا او را مبعوث کند و آن از علم خدا است که آن را به رسول خدا سپرده است.
روایت ابی هاشم جعفری که گفت: از حضرت ابی الحسن عسکری (علیه السلام) شنیدم که فرمود: خلف بعد از من، فرزندم حسن باشد و حال شما در خلف بعد از خلف چگونه باشد؟
عرض کردم: از چه جهت فدایت شوم؟
فرمود: از آن جهت که او را نمی بینید و ذکر نام او هم برای شما حلال نباشد.
عرض کردم: چگونه او را ذکر کنیم؟
فرمود: بگویید: «الحجّه من آل محمّد صلوات الله علیه»(391).
روایت ابن ابی یعفور از صادق (علیه السلام) که فرمود: پنجم از اولاد هفتم، غایب شود و نام او برای ایشان حلال نباشد.
روایت عبد الله عالجی که گفت: بعضی از اصحاب من، بعد از وفات ابو محمد از من سؤال کردند که از نام و مکان سؤال کنم.
در جواب توقیع بیرون آمد: اگر ایشان را بر اسم دلالت کنی، آن را شایع کنند و اگر مکان را به ایشان بشناسانی، مردم را بر آن دلالت کنند.
از جمله روایات، اخباری است که دلالت می کند ائمّه (علیه السلام)، از اسم شریف، به حروف مقطّعه؛ یعنی (م ح م د) و به کنایات تعبیر می نمودند؛ مثل آن که اسم او، اسم رسول الله است.
[بعضی روایات جواز] 8 مسکه:
ایضا در آن کتاب است که از جمله اخباری که بر جواز دلالت می کند، روایت علّان رازی است که گفت: بعضی اصحاب به من خبر دادند چون جاریه ابو محمد حامله شد، آن حضرت فرمود: زود باشد که به فرزندی حامله شوی که نام او محمد است و او قائم بعد از من می باشد(392).
روایت علی بن احمد رازی که گفت: بعض برادران من از اهل ری، بعد از وفات ابی محمد (علیه السلام) به طلب معرفت امام بیرون رفت. اتّفاقا روزی در مسجد کوفه در خصوص امری که برای آن بیرون رفته بود مغموم و متفکّر نشسته بود و با سنگ ریزه های مسجد دست خود را مشغول کرده و جستجو می نمود، ناگاه سنگ ریزه ای به دست او آمد که در آن نوشته بود: محمد.
آن مرد گوید: چون تأمّل نمودم، دیدم آن کتابت ثابت و مخلوق بود، نه منقوش و مصنوع(393).
روایت عطّار که گفت: خیزرانی از کنیز من خبر داد که او را به ابی محمد هدیه داده بودم که او هنگام ولادت قائم (علیه السلام) حاضر شده بود و ابو محمد چیزهایی را به مادر آن حضرت خبر داده بود که بر عیال او وارد می شود. لذا آن مخدّره از آن حضرت سؤال کرد تا دعا کند او قبل از آن حضرت، وفات کند. پس در حیات ابی محمد وفات کرد و بر قبر او لوحی گذاشتند که در آن مکتوب بود: «هذا قبر امّ محمّد»(394).
روایت ابی غانم خادم که گفت: فرزندی برای ابی محمد متولّد شد. او را محمد نام نهاد و روز سوّم او را به اصحاب خود نمود و فرمود: این، صاحب شما بعد از من و خلیفه من بر شما است(395).
از آن چه بر آن دلالت می کند این است که کنیه عسکری، ابو محمد است و برای آن بزرگوار، فرزندی که نامش محمد باشد، سوای صاحب دار نیست. پس اصحاب قول اوّل، به ظاهر روایات سابق تمسّک کرده اند و این اخبار را به عدم صحّت یا صراحت ردّ کرده اند و اصحاب قول دوّم، به این اخبار تمسّک کرده اند و آن اخبار را بر صورت خوف و تقیّه حمل کرده اند.
اظهر، قول اوّل است، زیرا روایات دالّ بر حرمت بیشتر است و علاوه بر اخبار مذکور، اخبار دیگری هم هست که ذکر نکردیم که اسانید آن ها بهتر و دلالتشان بر منع، اصرح یا اظهر است، بلکه انصاف این است که این اخبار دلالتی بر جواز ندارد.
امّا روایت اوّل؛ به جهت آن که نام بردن، غیر از نام گذاشتن است.
در دوّمی چاره ای از ذکر نام نیست و الّا نام نهادن وضع نشود و این روایت در این مقام باشد.
روایت علی بن احمد بر جواز نقش و کتابت دلالت می کند در حالی که محلّ کلام، ذکر نام بر زبان است. با این که کلام در تکلیف انسان است ولی مخلوق و مورد روایت، عمل خالق باشد.
از این جا جواب روایت عطّار نیز دانسته شد، زیرا آن چه بر لوح قبر بود، کتابت بود. با این که کنیّه بدون ولد هم، صحیح و واقع است و دلالت مرکّب، دلالت اجزا را لازم ندارد.
امّا روایت ابی غانم؛ جز به ذکر او به آن نام شریف دلالت ندارد و فعل غیر معصوم، حجّت نیست. نیز اخبار او که عسکری او را محمد نام گذاشت، اخبار از وضع است و دانسته شد وضع اسم، غیر از ذکر آن است.
بنابراین این اخبار دلالتی بر جواز ذکر اسم شریف ندارد و آن اخبار، صریح در منع است و حمل آن ها بر صورت خوف ضرر، صرف لفظ از ظاهر خود و بدون دلیل است و آن جایز نیست، با آن که بعضی از آن ها قابل این حمل نباشد. پس قول اوّل، اظهر و اقوی و احوط است. و الله العالم.
[نام آن جناب در آسمان و زمین] 9 مسکه:
در کفایه الموحّدین است: و اما اسم مبارک آن حضرت؛ آن چه از اخبار کثیره مستفاد می شود آن است که آن بزرگوار، همنام رسول خدا و برای ایشان دو اسم است:
یکی معروف در آسمان و آن (ا ح م د) و یکی معروف در زمین و آن (م ح م د) است.
در میان علمای امامیّه اختلاف است که آیا جایز است آن حضرت را به یکی از آن دو اسم نام برد، یا نام بردن آن نور الهی به این دو اسم، حرام است؟ مشهور، عدم جواز است و شیخ مفید و شیخ طوسی - قدّس سرّهما اللّطیف - و اکثر متأخّرین علمای امامیّه به عدم جواز قایل شده اند و جماعتی چون صاحب کشف الغمّه و خواجه نصیر الدین طوسی و از متأخّرین، شیخنا البهایی به جواز قایل شده اند.
اختلاف ایشان، ناشی از اختلاف اخبار است و الأحوط بل الاقوی، هو الأوّل، زیرا در کثیری از این اخبار بر عدم جواز در زمان غیبت تصریح شده است.
سپس شمّه ای از این اخبار که ما در منع نام بردن در زمان غیبت ذکر نموده ایم، نقل نموده و فرموده: قریب به این مضامین، اخبار بسیار وارد شده است که اکثر آن به صراحت بر حرمت تسمیه حضرت حجّت الله در زمان غیبت دلالت دارند، بلکه در بعضی از اخبار که ائمّه (علیه السلام) گاهی به اسم مبارک آن بزرگوار به حروف مقطّعه بدین نحو (م ح م د) تعبیر می کردند یا آن که می فرمودند: اسم مبارک او موافق اسم پیغمبر است به نحو کنایه می باشد و قایلین به جواز تسمیه، این اخبار را بر صورت خوف و تقیّه حمل کرده اند.
در بعضی اخبار، اشعاری است که وجه عدم تسمیه به جهت خوف و تقیّه است.
لکن آن مجرّد اشعار است و با اخبار صحیحه صریح در امتداد حرمت الی یوم الظّهور معارضه نخواهد نمود.
محتمل است؛ خوف حکمت برای حرمت تسمیّه باشد نه علّت. بلکه محتمل است تصریح به اسم آن حضرت در زمان غیبت، موجب شبهه برای عوام باشد، چنان که طایفه یهود می گویند: هنوز محمد خاتم الأنبیا نیامده و بعد از این خواهد آمد. پس چه بسا برای عوام النّاس، اسباب شبهه می شود به آن چه یهود می گویند.
لهذا از تسمیه نهی شده، با آن که اخبار مجوّزه، به جواز و عدم حرمت صراحت ندارند.
بعد از آن بعضی اخبار مجوّزه را نقل نموده و آن ها را به آن چه ما در ردّ آن ها ذکر نموده ایم، رد فرموده تا آن که گفته:
بالجمله دلالت اخبار مذکور بر جواز تسمیّه در نهایت ضعف است. کما لا یخفی.
محتمل است: حرمت تسمیه، مخصوص رعیّت باشد نه امام؛ یعنی تسمیه به اسم آن حضرت برای ائمّه جایز و برای تمامی مکلّفین، چنان که صریح اخبار است غیر جایز و حرام باشد و کیف کان باید حرمت تسمیه مخصوص غیر ادعیّه وارده باشد، چه آن که در بعضی از ادعیّه ماه مبارک رمضان دعایی وارد شده که به اسم مبارک آن حضرت تصریح شده و از باب تعبّد بما ورد من الدّعاء، باید به همان نحو خوانده شود، در واقع اذن خاصّی است که در باب ادعیّه رسیده است.
در اصول العقاید است که کنیه آن حضرت، کنیّه حضرت رسول (صلّی الله علیه و آله و سلّم) است؛ کنیه ای که گاهی از حضرت رسالت (صلّی الله علیه و آله و سلّم) به آن تعبیر می شود و به اراده آن بزرگوار گفته می شود و آن، ابو القاسم است. امر در باب ذکر حضرت صاحب الامر به این کنیه، مثل امر در باب نام بردن آن حضرت است.
خلاف و بعضی احادیث صریح دلالت دارند که یاد کردن آن حضرت به نام و کنیه جایز نیست و این معتمد است. انتهی.

عبقریّه پنجم [شمایل حضرت بقیه الله (علیه السلام)]

در ذکر شمّه ای از اوصاف شمایل حضرت بقیّه الله، الأمام الثانی عشر و الموعود المنتظر - علیه صلوات الله الملک الأکبر - و در آن چند مسکه می باشد:
[روایات شمایل] 1 مسکه:
در نجم ثاقب است: مخفی نماند که شمایل آن حضرت در اخبار متفرّقه به عبارات مختلف و متقارب از طرق خاصّه و عامّه مذکور است و چون ذکر کامل هرخبر با مأخذ آن، موجب تطویل است، به محلّ حاجت از متن هریک با ترجمه آن قناعت کرده و ترجیح بعضی بر بعضی در صورت اختلاف و عدم امکان اجتماع، خروج از وضع کتاب است.
شیخ صدوق در کمال الدین(396) روایت کرده که رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) فرمود: مهدی (علیه السلام)، شبیه ترین مردم در خلق و خلق به من است و به روایتی فرمود: شمایل او، شمایل من است(397).
خرّاز در کفایه الاثر(398) روایت کرده که آن جناب فرمود: پدر و مادرم فدای همنام من و شبیه موسی بن عمران!
در غیبت فضل بن شاذان(399) به سند معتبر از آن جناب مروی است که فرمود: نهم از امامان که از صلب حسین اند، قائم اهل بیت و مهدی امّت من و شبیه ترین مردمان در شمایل و افعال و اقوال به من است. در غیبت نعمانی(400) از کعب الأحبار مروی است که گفت: مهدی قائم (علیه السلام) از نسل علی (علیه السلام) است، شبیه ترین مردم در خلق و خلق و سیما و هیأت به عیسی بن مریم است...، الخ.
عامّه نیز روایت کرده اند: آن جناب شبیه ترین خلق به عیسی است(401).
در دو علوی در شمایل آن جناب است: «ابیض مشرب حمره»؛ سفیدی که سرخی به او آمیخته و بر او غلبه کرده(402).
در صادقی است: «اسمر یعتوره مع سمرته صفره من سهر اللّیل»؛ گندم گونی که با گندم گونیش، زردی از بیداری شب بر او عارض شود(403).
در شمایل رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) نیز این اختلاف لون شده. در آن جا جمع کردند به این که آن چه از جسد، برهنه و مواجه آفتاب می شد، گندم گون بود و آن چه به جامه مستور بود، سفید بود.
در اخبار عامّه است: «لونه لون عربیّ و جسمه جسم اسراییلیّ»؛ رنگش، رنگ عربی و جسمش، چون جسم بنی اسراییل است؛ یعنی در طول قامت و بزرگی جثّه(404).
در علوی است: «شاب مربوع»(405)؛ جوانی میانه قد است، در نبوی است: «اجلی الجبینین»(406)؛ پیشانی مبارکش فراخ است یا خوب رو که هردو موی پیشانی او رفته.
در صادقی است: «مقرون الحاجبین»(407)؛ ابروان مبارکش به هم پیوسته؛ «اقنی الأنف»؛ بینی مبارکش باریک دراز که وسطش فی الجمله انحدابی داشت.
در علوی است: «حسن الوجه و نور وجهه یعلو سواد لحیته و رأسه»(408)؛ نیکورو است، نور رخسارش چنان درخشان است که بر سیاهی ریش و سر مبارکش مستولی شده.
در نبوی است: «وجهه کالدینار»(409)؛ چهره اش در صفا و بی عیبی، مانند اشرفی است. «علی خدّه الأیمن خال، کأنّه کوکب درّی»(410)؛ بر روی راست آن جناب، خالی است که پنداری ستاره ای درخشان است.
در علوی است: «افلج الثّنایا»(411)؛ میان دندان های مبارکش گشاده است؛ «حسن الشعر یّسیل شعره علی منکبیه»(412)؛ نیکو مو است، موهایش بر کتف مبارکش ریخته و در خبر سعد بن عبد الله است: «و علی رأسه فرق بین و فرتین کأنّه الف بین واوین»(413).
در باقری است: «مشرف الحاجبین»؛ میان دو ابروانش بلند است؛ «غایر العینین»(414)؛ چشمانش در کاسه سر مبارکش فرورفته، یعنی برآمدگی ندارد؛ به وجه اثر، در روی مبارکش اثری است.
در صادقی است: «شامّه فی رأسه»(415)؛ در سر مبارک علامتی دارد، در علوی است:
«مبدّح البطن»(416) و نیز: «ضخیم البطن»(417)، در صادقی است: «منتدح البطن»(418)، معنی این فقرات، متقارب است؛ یعنی شکم مبارکش بزرگ و فراخ و پهن است. در باقری است: «واسع الصّدر مترسّل المنکبین، عریض ما بینهما»(419)؛ سینه مبارکش فراخ، کتف هایش فروهشته و میان آن پهن است.
در خبر دیگر: «عریض ما بین المنکبین»(420)، و در صادقی است: «بعید ما بین المنکبین»(421)؛ میان دو کتف مبارکش، عریض و دور است. و در علوی است: «عظیم مشّاش المنکبین»(422)؛ سر استخوان کتف شریفش بزرگ است.
«کثّ اللّحیه، اکحل العینین، برّاق الثنایا، فی وجهه خال، فی کتفه علائم نبوّه النّبی» (صلّی الله علیه و آله و سلّم)(423)؛ ریش مبارکش انبوه، چشمانش سیاه سرمه گون، دندانش درخشنده و در رخسارش، خالی است، در کتفش علامت های نبوّت پیغمبر (صلّی الله علیه و آله و سلّم) که به مهر نبوّت معروف است و در رنگ و شکل و نقش آن، اختلاف بسیار است.
[شمایل حضرت] 2 مسکه:
ایضا در نجم ثاقب است: «عریض الفخذین»(424)؛ ران های مبارکش عریض است، در علوی دیگر: «اذیل الفخذین فی الفخذه الیمنی شامّه»(425)، در بعضی نسخ و اربل؛ یعنی رانش، زیاد گوشت دارد و اذیل نیز کنایه از پهنایی است و در ران راستش علامتی است، در صادقی است: «احمش السّاقین»(426)؛ ساق های مبارکش باریک بود و در شکم و ساق، مانند جدّ خود امیر المؤمنین (علیه السلام) است.
در صادقی یا باقری است: «شامّه بین کتفیه من جانبه الأسیر تحت کتفیه ورقه مثل ورقه الأس»؛ میان دو کتف علامتی دارد، از طرف چپ، زیر دو کتف مبارکش ورقی مثل برگ درخت مورد است و در نبوی است: «اسنانه کالمنشار و سیفه کحریق النّار»(427)؛ دندان هایش در تیزی و حدّت یا در انفراج از یکدیگر مانند ارّه و شمشیرش، چون آتش سوزان.
در نبوی دیگر است: «کانّ وجهه کوکب درّی، فی خدّه الأیمن خال اسود»(428)؛ گویا رخسارش چون ستاره ای درخشان و در روی راستش، خال سیاهی است. «افرق الثّنایا»(429)؛ دندان هایش از یکدیگر جداست.
در نبوی دیگر: «المهدیّ طاوس اهل الجنّه وجهه کالقمر الدّری»(430)؛ مهدی (علیه السلام)، طاوس اهل جنّت است.
چهره مبارکش، مانند ماه درخشنده است؛ «علیه جلابیب النّور»؛ بر بدن مبارکش جامه هایی از نور است. در رضوی است: «علیه جیوب النّور تتوقّد بشعاع ضیاء القدس»(431)؛ حاصل مضمون بنابر بعضی از احتمالات: بر آن جناب، جامه های قدسیّه و خلق های نورانیّه ربانیّه است که به شعاع انوار فیض و فضل حضرت احدیّت، جلّت عظمت متلألأ است.
در خبر علی بن ابراهیم بن مهزیار، به روایت شیخ طوسی است: «کاقحوانه أرجوان قد تکاثف علیها النّدی و اصابها الم الهوی»(432)؛ در لطافت و رنگ، چون گل بابونه و ارغوانی که بر آن شبنم نشسته و شدّت سرخیش را هوا شکسته و شاید گندم گونی آن حضرت را بیان نموده که سفیدی و سرخی آن دو گل، با سمرت درآمیخته.
مجلسی احتمال داده اصل نسخه، اقحوانه و ارجوان بوده یا دوّمی، بدل اوّلی بوده و ناسخ هردو را ضبط نموده یا اقحوانه، ابیض بوده «کغصن بان أو کقضیب ریحان»؛ قدّش، مثل شاخه بان درخت بید مشک یا ساقه ریحان.
«لیس بالطّویل الشّامخ و لا بالقصیر اللّازق»؛ نه دراز بی اندازه و نه کوتاه به زمین چسبیده؛ «بل مربوع القامه، مدوّر الهامه»؛ قامتش معتدل و سر مبارکش مدوّر، «صلت الجبین»؛ پیشانی مبارکش فراخ یا تابان و نرم. «ازج الحاجبین»؛ ابروانش کشیده و مقوّس. «اقنی الأنف»، گذشت و «سهل الخدّین»؛ گوشت روی مبارکش کم است.
[حدیث شمایل] 3 مسکه:
ایضا در آن کتاب است: «علی خدّه الأیمن خال، کانّه فتات مسک علی رضراضه عنبر»(433)؛ بر روی راستش، خالی است که پنداری ریزه مشکی بر زمین عنبرین ریخته است.
در خبر مذکور به روایت صدوق (رحمه الله): «رأیت وجها مثل فلقه قمر لا بالخرق و لا بالنّزق»؛ رخساری مانند پاره ماه مشاهده کردم، نه درشت خو و زبر و نه سبک و بی وقار بود، «ارعجّ العینین»؛ چشم های سیاه گشاده داشت، «ناضع اللّون»؛ رنگش خالص و صاف و روشن بود، «واضح الجبین»؛ پیشانیش سفید و روشن بود، «ابلج الحاجب»؛ میان ابروانش گشاده بود، «منوّن الخدّ»؛ روی کشیده املسی داشت و «أشمّ»(434)؛ بینی مبارکش مرتفع و با بالای آن مساوی بود.
این با «قنا» که گذشت، جمع نشود مگر آن که در نظر او چنین می نماید و در واقع انحدابی در آن بوده؛ چنان چه در شمایل رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم): «یحسبه من لم یتأمّله اشمّ»(435)؛ کسی که به دقّت در روی مبارکش نظر نمی کرد؛ گمان می کرد آن جناب أشمّ است و این به جهت قلّت انحداب است که بی تأمّل محسوس نمی شود.
«اروع» از حسن و جمال و نور و بها، بیننده را به شگفت می آورد.
«کأنّ صفحه غرّته کوکب درّی»(436)؛ گویا پهنایی پیشانی مبارکش ستاره ای درخشان است، «بخدّه الأیمن خال کأنّه فتات مسک علی بیاض الفضّه»(437)؛ خال روی راست مبارکش، مانند ریزه مشکی بر نقره خام بود، «برأسه و فرقه شحما سمطه تطالع شحمه أذنه»(438)؛ سر مبارکش موی سیاه غیر مجعّدی دارد که تا نرمه گوشش رسیده و لکن آن را نپوشانده.
«له سمت ما رأت العیون أقصد منه»؛ هیأت نیک خوشی داشت که هیچ چشمی، هیأتی به آن اعتدال و تناسب ندید، صلّی الله علیه و علی آبائه الطاهرین، در این مقام به همین مقدار، اکتفا نمودیم.
[نرمی کف دست حضرت رسول (صلی الله علیه و آله) و حضرت مهدی (علیه السلام)] 4 مسکه:
بدان در اخبار کثیره که در کتب عامّه و خاصّه ضبط شده وارد است؛ حضرت رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) فرمود: مهدی شبیه ترین مردم به من، در خلق و خلق است و به روایتی فرمود: شمایل او، شمایل من است. از جمله شمایل حضرت رسول (صلّی الله علیه و آله) این است که جنابش «شثن الکفّین» بوده؛ یعنی کف های مبارکش زبر و غلیظ بود.
در خبر یعقوب بن منفوش در وصف حضرت حجّت است: «واضح الجبین، ابیض الوجه، درّی المقلتین، شثن الکفّین، معطوف الرکبتین».
در مجمع البحرین است: «فی وصفه شثن الکفّین و القدمین بمفتوحه فساکنه، أی انّهما یمیلان إلی الغلظ و القصر، قیل: هو الّذی فی انامله غلظ بلا قصر و یحمد فی الرجال لأنّه اشدّ لقبضهم و یذمّ فی النساء و قد شثنت الأصابع من باب تعب إذا غلظت».
در محیط المحیط است: «شثنت کفّه تشثن شثنا و شثنت تشثن شثونه خشنت و غلظت و البعیر غلظت مشافره من رعی الشوک الشّثن الغلیظ یقال: هو شثن الأصابع، أی غلیظها کشثلها بالّلام».
عامّه محدّثین و شرّاح اخبار و سایر ارباب، لغت، لفظ شثن را با ثاء روایت کرده و ضبط نموده و آن را به غلظت معنی فرموده اند.
شیخ صدوق در معانی الاخبار بعد از این که تمام خبر شمایل حضرت رسول را نقل نموده، می فرماید: از ابی احمد حسن بن عبد الله بن سعید عسکری تفسیر این خبر را سؤال کردم.
گفت؛ تا این که در شرح شثن الکفّین می گوید: یعنی کف های مبارک آن حضرت خشن و زبر بود و عرب، مردان را به زبری و زنان را به نرمی کف مدح می کند.
ابن اثیر در نهایه در معنی شثن الکفّین می گوید: یعنی دو کف مبارکش به غلظت و کوتاهی مایل بود و بعضی گفته اند: در انگشتانش غلظتی بود بدون کوتاهی و این، در مردان، پسندیده است، زیرا این برای قبض کردن ایشان اشدّ است؛ یعنی برای گرفتن چیز که شغل مردان است، این صفت معیّن و در زنان مذموم است.
باید دانست: این صفت منحصر به حضرت رسول نبوده، بلکه درباره حضرت امیر المؤمنین (علیه السلام) نیز، به همین عبارت وارد شده، چنان که شیخ مفید در ارشاد روایت کرده: چون آن جناب به قصد قتال اهل بصره از مدینه بیرون آمد، وارد ربذه شد و آخر حاجّ به آن جا ملحق شد و جمع شدند تا کلام آن حضرت را بشنوند. سپس می فرماید:
ابن عبّاس در خیمه ای داخل شد که آن جناب بود و عرض کرد: آیا رخصت می دهی من سخن بگویم؟ اگر نیک باشد، از جانب جناب تو، و گرنه از طرف من باشد.
فرمود: نه، من خود سخن می گویم.
ابن عبّاس گوید: آن گاه دست مبارک را بر روی سینه من گذاشت.
«و کان شثن الکفین فالّمنی»؛ کف های مبارک چون زبر و غلیظ بود، مرا به درد آورد.
علاوه بر طبق فرموده حضرت رسول که فرموده: شمایل مهدی، شمایل من است، لذا مستلزم آن است که این صفت شثن الکفّ را حضرت بقیّه الله هم دارا باشد.
مخصوصا همین عبارت درباره کف های مبارک آن خلیفه الله هم وارد شده، چنان که در کمال الدین از یعقوب بن منقوش مروی است که گفت: بر ابی محمد حسن بن علی (علیهما السلام) داخل شدم، آن جناب بر سکّوی در خانه نشسته بود و طرف راست آن جناب، اطاقی بود که بر آن پرده آویخته بود.
گفتم: ای سید من! صاحب این امر کیست؟
فرمود: پرده را بلند کن! پرده را بالا کردم، پسری پنج ساله به سوی ما بیرون آمد.
آن گاه شمایل آن جناب را ذکر کرده تا این که می گوید: آن حضرت شثن الکفّین بود و در نسخ با ثا مضبوط است و علّامه مجلسی (رحمه الله) در بحار، آن را به غلظت، تفسیر فرموده است.
انتباه الی اشتباه:
بدان در این مقام برای وزیر کبیر نقّاد، ابی الحسن صاحب بن عبّاد، در کتاب محیط، در لغت عرب، مشتمل بر هفت جلد و گرنه بر ده جلد؛ چنان که در طبقات سیوطی است، اشتباهی حاصل شده است. چه در آن کتاب، بنابر نقل استادنا المحدّث النّوری گفته: «الشّتون اللیّنه من الثّیاب الواحده الشتن و روی الحدیث فی صفه النّبی، انّه کان شتن الکفّ بالتّاء، أی بالمعجمتین الفوقانیّتین و من رواه بالثّاء، أی المثلّثه فقد صحّف»؛ یعنی شتون نرم از جامه ها و مفرد آن شتن است.
در خبر روایت شده در خبر که در صفت پیغمبر رسیده: آن جناب، شتن با تا بود و کسی که آن را با ثا روایت کرده، لفظ حدیث را غلط ضبط کرده و در این کلام خود خطا را به عامّه روات این خبر، و به تمامی محدّثین و لغویّین اسناد داده است، حال آن که در این فرمایش برای خودش دو خطا حاصل شده:
اوّل:
آن که ملتفت نشده لغویّین، شتن به تا و شثل به ثا و لام را مثل شثن به ثا، زبر و غلیظ و خشن معنی نموده اند، چنان که در محیط المحیط در لغت شتن گفته: «و رجل شتن الکفّ، أی شثنها بالثاء المثلّثه».
اتّفاق لغویّین است که شثن به ثای مثلّثه، به معنی خشونت و غلظت است، چنان که در همان جاست: «الشّثن الغلیظ، یقال: هو شثن الأصابع أی غلیظها کشثلها باللّام».
در المنجد است: «شثلت شثلا و شثلت شثوله اصابعه خشنت و غلظت، فهو شثل الاصابع قدم ششله غلیظه اللّحم». و شتن به تاء را اصلا عنوان ننموده.
در مصباح المنیر است: «رجل شثن الأصابع وزان فلس غلیظها و قد شثلت الأصابع من باب تعب اذا غلظت من العمل و شثل باللّام، مکان النّون علی البدل»؛ در این کتاب نیز شتن به تاء را اصلا عنوان ننموده.
در معیار اللّغه است: «شتن الکفّ کعدل غلیظها و خشنها».
در لغت، شثن به ثاء نیز گفته: «شثنت کفه خشنت و غلظت و رجل شثن الأصابع و شثن العضو کعدل غلیظها و خشنها».
در لغت، شثل به ثاء و لام گفته: «شثلت أصابعه و قدمه بالمثلّثه ککرم و المصدر کرطوبه و سبب غلظت فهو شثل الأصابع کعدل و الأصبع و القدم شثله بها».
بالجمله؛ بعضی لغویّین سه لفظ را عنوان نموده و هرسه را خشونت و غلظت معنی نموده اند. خصوصا وقتی که در اعضا و جوارح استعمال شده باشند. آن ها شتن به تاء و نون، شثن به ثاء و نون و شثل به ثأ و لام و بعضی دو لفظ را که شثن به ثاء و نون و شثل به ثاء و لام است، عنوان نموده و اصلا شتن به تاء و نون را عنوان ننموده اند و بر فرض که ضبط لفظ شثن که در خبر شمایل است، به تا و نون هم باشد، به معنی خشونت و غلظت است، چه جای آن که تمامی روات و نقله حدیث، آن را به ثای مثلّثه و نون، ضبط نموده اند.
دوّم:
این وزیر نحریر در کتب جماهیر دیده لفظ شتن را که به تاء و نون است به نرمی و لیّنی ثیاب، اطلاق نموده و لغویّین آن را به این نرمی خاصّ معنی نموده اند، پس چنین گمان کرده اند که به معنی مطلق نرمی است و چنین نیست چون شثن به ثاء را به معنی مطلق خشونت معنی نموده اند، چنان که در عبارت محیط المحیط گذشت: الشثن الغلیظ. لکن شتن به تا را به خصوص نرمی ثیاب معنی نموده اند، چنان که در محیط المحیط است: شتن الثوب یشتنه نسجه.
تا آن که گفته: «و ثوب شتون، أی لیّن هکذا فی عاصم افندی»؛ یعنی در ترجمه و شرح عاصم افندی که بر قاموس است، شتون به فتح شین است. «و فی نسخ القاموس الشتون، أی کفلوس بصیغه الجمیع اللّیّنه من الثّیاب».
در معیار اللّغه، بعد از این که شتن را چنان که گذشت، غلیظ و خشن معنی نموده، گفته: «و النّعت کفاعل و صبور». این هنگامی است که به معنی حیاکت و نسج باشد و کصبور ایضا.
«اللیّنه من الثّیاب و فی بعض النّسخ الشّتون کفلوس اللیّنه من الثّیاب». عبارت سایر لغویّین نیز به همین منوال است و هیچ یک از ایشان، آن را در مطلق نرمی اطلاق نکرده و معنی ننموده اند و زیاده بر این، قلم فرسایی در این مقاله، خارج از سبک و وضع این عجاله است «و الله الهادی إلی الصّواب و إلیه المرجع و المآب»، انتهی.
جواب سؤال به صواب مقال:
اگر گفته شود اگر چه از اخبار مذکور معلوم شد کفّین حضرت ختمی مرتبت و جناب ولایت رتبت و حضرت حجّت - صلوات الله علیهم - به حسب الخلقه، غلیظ و درشت بوده که این خود یکی از محاسن مرد است، لکن از روایت کتاب مسلسلات در خصوص مصافحه انس بن مالک با جناب رسول خدا (صلّی الله علیه و آله)، نرمی کفّ شریف آن حضرت، معلوم می شود. در آن روایت است که انس گفت: با کفّ خود، رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) را مصافحه کردم. پس دیبا و حریری را مسّ نکردم که نرم تر از کفّ مبارک آن حضرت باشد.
از درایت جناب سید محمد بن سید عبّاس عاملی که به واسطه رقعه استعانه به حجّت وقت و امام زمان، حضور انور آن حضرت شرف یاب شده، نرمی کفّ آن سرور هم، معلوم می شود.
در آن درایت است: بعد از این که خدمتش را درک کردم و نعمت بزرگ و نیل مقصود و تشرّف به حضور غایب مستور امام عصر - ارواحنا له الفداء - را احتمال دادم، چون در جبل عامل شنیده بودم دست مبارک آن حضرت، چنان نرم است که هیچ دستی، چنان نرم نیست، با خود گفتم: مصافحه می کنم. اگر این مرحله را احساس نمودم، با لوازم تشرّف به حضور مبارک عمل می نمایم.
به همان حالت، دو دست خود را پیش بردم. آن جناب نیز دو دست مبارک را پیش آورد و مصافحه کردم. نرمی و لطافت زیادی یافتم. یقین کردم به حصول نعمت عظمی و موهبت کبرا نایل گشته ام، روی خود را برگرداندم، خواستم دست مبارکش را ببوسم، کسی را ندیدم.
بالجمله؛ اگر کسی بگوید: از این روایت و درایت که هردو در حکایت هفتم از باب هفتم کتاب مستطاب نجم ثاقب است، نرمی کف آن بزرگواران ظاهر می شود و این، مؤیّد قول وزیر نحریر، صاحب بن عبّاد - علیه الرحمه و الغفران الی یوم التّناد - است.
جوابش این است: هریک از این شموع محافل هدایت، یعنی حضرت ختمی مرتبت و حضرت ولایت رتبت و اولاد امامت مرتبت آن دو بزرگوار، در حالات، اخلاق، عبادات و گزارشات نسبت به تقاضای روزگار، به ظهوری متظاهر می شدند تا برای پیروی ایشان، دستور العمل کافی باشد.
چنان که سید سجّاد (علیه السلام) مثلا در مراتب آوراد و مناجات و دعوات، دارای ظهوری خاصّ و نمایشی مخصوص گردید. به نحوی که صحیفه کامله، برترین آثار و بالاترین اعلام آن بزرگوار است که مرحوم سید مدنی در ریاض السالکین درباره اش می فرماید:
«و الصّحیفه الکامله، هی الملقّبه بانجیل اهل البیت و زبور آل محمّد و وصفها بالکامله لکمالها فیما الّفت له و لکمال مؤلفها علی حد کلّ شیء من الجمیل جمیل».
هم چنین آن سرور در مقامات زهادت و عبادت به نحوی متظاهر گردید که به اتّفاق جمله آثار، اشبه ناس به جدّش حیدر کرّار بود. چه تقاضای روزگار، آن نمایش را مستعدّ و خواستار بوده و وضع زمانش، آن صورت را نمودار می خواست، چنان که وقتی، حسن مجتبی را حلم رسول خدا به کار بود، گاهی بر سیّد الشّهدا شجاعت علی مرتضی پدیدار می افتاد.
هم چنین هریک از رسول مختار و ائمّه اطهار به حسب حالات و مقامات و به لحاظ تقاضای اشخاص و افراد، نمایشی در گزارش و فزایش بودند و در زمان سعادت اقتران، حضرت صاحب الزّمان (عجّل الله فرجه)، آثار تمامی ایشان را نمودار خواهد ساخت.
چه در زمان ظهور، سعادت حضور مبارکش، استعداد زمان، گردش آسمان و اوضاع مردمان، مقتضی آن گونه ظهور و بروز خواهد گردید و یزدان تعالی، چنان فرمان خواهد: ﴿وَ ما تَشاؤُنَ إِلَّا أَنْ یَشاءَ اللهُ﴾ (تکویر: 29؛ إنسان: 30).
بالجمله؛ چنان که آن بزرگوار، در اوصاف و اخلاق و حالات و مقامات دارای این گونه نمایشات بوده، هم چنین در ابدان شریف خود، در بعضی از مقامات و نسبت به بعضی از اشخاص هم، نمایشاتی خاصّ و ظهوراتی مخصوص داشته اند، چنان که اخبار کثیره ای، دالّ بر این دعوی و شاهد بر این مدّعی هستند.
از جمله روایت زارع علقمی و دیدن شیری که شب ها در قتل گاه حضرت سیّد الشّهدا، کنار جسد آن حجّت خدا می آمد، در کتب معتبره مقاتل، مزبور و در السنه و افواه مرثیه خوانان، مذکور است.
از جمله نمایش دادن حضرت علی بن الحسین، خود را به جماعتی به صورت حضرت امام محمد باقر و نمایش صورت فرزندش - حضرت باقر (علیه السلام) - در هیکل شریف خود است، چنان که ضمن روایت معروف جابر بن یزید جعفی، ثبت و ضبط است که در بحار(439)، آن را روایت نموده، چه بعد از این، حضرت سجّاد در آن روایت، بسیاری از شؤونات و مقامات امامت را بیان می کند که وظیفه رعیّت است امام را به آن شؤونات و مقامات بشناسند.
جابر عرض می کند: «یا سیّدی! صلّی الله علیک فاکثر الشّیعه مقصّرون و أنا ما أعرف من اصحابی علی هذه الصّفه و احدا قال: یا جابر! فان لم تعرف منهم احدا فانّی أعرف منهم نفرا قلائل یأتون و یسلّمون و یتعلّمون منّی سرّنا و مکنوننا و باطن علومنا.
قلت: انّ فلان بن فلان و اصحابه من اهل هذه الصّفه ان شاء الله تعالی و ذلک انّی سمعت منهم سرّا من اسرارکم و باطنا من علومکم و لا اظنّ إلّا و قد کلموا و بلغوا.
قال: یا جابر! ادعهم غدا و احضرهم معک، قال: فاحضرتهم من الغدّ فسلّموا علی الأمام و بجلّوه و وقّروه و وقفوا بین یدیه.
فقال (علیه السلام): یا جابر! امّا انّهم إخوانک و قد بقیت علیهم بقیّه اتقرّون ایّها النّفر، انّ الله تعالی یفعل ما یشاء و یحکم ما یرید و لا معقّب لحکمه و لا رادّ لقضائه و لا یسئل عمّا یفعل و هم یسئلون قالوا: نعم انّ الله یفعل ما یشاء و یحکم ما یرید.
قلت: الحمد لله قد استبصروا و عرفوا و بلغوا.
قال: یا جابر! لا تعجل بما لا تعلم فبقیت متحیّرا. فقال (علیه السلام): هل یقدر علی بن الحسین أن یصیر صوره ابنه محمّد.
قال جابر: فسئلتهم فامسکوا و سکتوا.
قال: یا جابر! سلهم هل یقدر محمّد أن یکون بصورتی. قال جابر: فسئلتهم فامسکوا و سکتوا.
قال: فنظر (علیه السلام) إلیّ و قال: یا جابر! هذا ما اخبرتک انّهم قد بقی علیهم بقیه.
فقلت لهم: ما لکم لا تجیبون امامکم فسکتوا و شکّوا فنظر إلیهم و قال: یا جابر! هذا ما اخبرتک به قد بقی علیهم بقیّه و قال الباقر (علیه السلام): ما لکم لا تنطفون، فنظر بعضهم إلی بعض یتسائلون، قالوا: یا بن رسول الله لا علم لنا فعلّمنا.
قال: فنظر الأمام سیّد العابدین علیّ بن الحسین (علیهما السلام) إلی ابنه محمّد بن علی الباقر (علیه السلام) و قال لهم: من هذا.
قالوا: ابنک.
فقال لهم: من أنا.
قالوا: ابوه علیّ بن الحسین.
قال: فتکلّم بکلام لم نفهم فاذا محمّد بصوره ابیه علیّ بن الحسین و إذا علی بصوره ابنه محمدا.
قالوا: لا اله الّا الله.
فقال الأمام: لا تعجبوا من قدره الله أنا محمّد و محمّد أنا و قال محمّد: یا قوم! لا تعجبوا من امر الله أنا علی و علی أنا و کلّنا احد من نور واحد و روحنا من امر الله، اوّلنا محمّد و أوسطنا محمّد و اخرنا محمّد و کلّنا محمّد.
قال: فلما سمعوا ذلک خرّوا لوجوههم سجّدا و هم یقولون: امنّا بولایتکم و بسرّکم و علانیتکم و اقررنا بخصایصکم.
فقال الأمام زین العابدین (علیه السلام): یا قوم! ارفعوا رؤسکم فأنتم الأن العارفون الفائزون المستبصرون و أنتم الکاملون البالغون، الله الله لا تطلّعوا احدا من المقصّرین المستضعفین علی ما رأیتم منّی و من محمّد فیشنعوا علیکم و یکذّبوکم.
قالوا: سمعنا و أطعنا.
قال (علیه السلام): فانصرفوا راشدین کاملین فانصرفوا إلی آخر الروایه».
اگر چه علّامه مجلسی (رحمه الله) این خبر را از والدش روایت نموده و ایشان فرموده اند:
من این روایت را در کتاب عتیقی دیده ام و فرموده: چون صحّت اسانید این و روایات دیگر که در آن باب ذکر فرموده، معلوم نبود، لذا برای آن ها بابی علی حده منعقد نمودم، لکن این روایت، جملتا و متفرّقتا، در اصول معتبره امامیّه ثبت و ضبط است؛ مثل کتاب عیون المعجزات که خود علّامه مزبور، کثیرا ما از آن در جامع بحار نقل فرموده، مثل مدینه المعاجز سید سند توبلی بحرینی، مثل مناقب ابن شهر آشوب که جمله ای از آن را نقل فرموده و مثل تحفه المجالس که مؤلّفش ابن تاج الدین حسن سلطان محمد است و در آن کتاب، صحّت آن چه که در آن روایت می نماید، بر عهده گرفته و گفته: من روایات منقول در این کتاب را از کتب معتبره نقل می نمایم.
از جمله روایت مشهور در السنه اخیار و منسوب در بعضی تألیفات مجامع بحار و مذکور در کتاب مناقب مرتضویّه که مؤلّفش یکی از تابعین چهار یار است که مضمون آن، متّحد شدن جسد مبارک علوی با جسد شریف نبوی است؛ چنان که در همان کتاب مناقب است:
منقبه:
«قال النّبیّ لعلی: دمک دمی، لحمک لحمی، قلبک قلبی، نفسک نفسی، روحک روحی».
ترجمه در دستور الحقایق مسطور است که سبب ورود این حدیث آن بود که روزی سیّد المرسلین، امیر المؤمنین را از پیراهن خود درآورد، چنان چه تن مصطفی با مرتضی یکی شد. اما سر نبیّ و ولی می نمود و در آن حالت، حدیث مذکور را می فرمود.
در روایت منسوب به بحار الانوار، به روایت جابر انصاری چنین است: آن دو بزرگوار معانقه نموده، پس شخص واحد و فرد فارد گردیدند، به نحوی که هیچ عین و اثری از امیر (علیه السلام) پدیدار نبود. حضّار را رعب و هراس گرفته و تا مدّتی در تعجّب بودند تا آن که حضرت نبوی را قسم داده که حضرت علوی را پدیدار کند.
جبین حق بین آن حضرت، عرق نموده و نوری مثل چراغ از آن نمایان شده و آن حضرت را به کلماتی که بعضی از آن ها این است، ندا نموده: «أین قیّوم الأملاک، أین مدبّر الأفلاک، أین من دمه دمی و لحمه لحمی و روحه روحی، أین امیر المؤمنین».
بعد از این ندا، صدای لبیک لبیک حضرت علوی بلند شده، تا آن که از پهلوی راست آن جناب نمودار گردید.
از جمله روایت، لیله معراج و شیر است که در بسیاری از کتب، مستقلّلا و در بعضی، ذیل قضیّه معروف سلمان و دشت ارژن، آن را نقل نموده اند و در مناقب مرتضویّه است که در دستور الخلایق و گنج الاسرار، مسطور است: امیر المؤمنین از آن وقت به اسد الله الغالب ملقّب شد که چون سید کاینات به معراج رفت، در بارگاه کبریا، شیری دید. چون بر او نظر انداخت، دید اسد الله الغالب، علی بن ابی طالب است.
از کتاب احسن الکبار از حضرت نبوی روایت نموده که فرمود: چون از معراج بازگردیدم و به مضجع خود رسیدم، علی با محبّت و احترام و سلام ما لا کلام درآمده، گفت: ای خیر الأنام! عنایات ملک علّام بر تو مبارک باد. زبان بگشود و رازی که میان من و پروردگار گذشته بود، لفظ به لفظ، بیان نمود.
از جمله روایت مناقب است که علّامه مجلسی (رحمه الله) آن را در بحار(440) دوازدهم، از عسکر مولای حضرت جواد (علیه السلام) نقل فرموده که گفت: بر آن حضرت داخل شدم و چون نظرم بر او افتاد، گفتم: سبحان الله! صورت آن حضرت چقدر سبزه است و با وجود آن، نور باقی بدن و سفیدی آن چقدر زیاد است.
هنوز این خیال را در خاطر خود تمام نکرده بودم که دیدم بدن آن حضرت بزرگ و جسد او، عریض و طویل شد، طوری که همه ایوانی که حضرت در میان ایستاده بود، تا سقف و دیوارهای آن را به مرتبه ای پر کرد. بعد از آن دیدم رنگ آن حضرت سیاه و بعد از آن مثل برف سفید شد بسیار سفید. بعد مثل قطعه ای خون بسته، سرخ و بعد مثل برگ درختان، سبز شد، بسیار سبز و خرّم و بعد جسم او به تدریج کوچک شد تا آن که به حال اوّل خود برگشت، رنگش نیز مثل اوّل شد. من غش کردم، بیهوش شده و افتادم.
آن جناب فریادی زد: ای عسکر! شک می کنید، شما را به یقین می آوریم. تاب نمی آورید ببینید، به شما قوّت و طاقت می دهیم. به خدا قسم! برای هیچ کس معرفت ما میسّر نمی شود، مگر به این که خدا به ولایت و اخلاص و ارادت به ما اهل بیت رسالت، بر او منّت گذارد.
اخبار بر این مضامین، بسیار است و چون به صریح این احادیث و اخبار «کالشّمس فی رائعه النّهار»، هویدا و آشکار گردید که این انوار الهیّه را خلقا و خلقا و منطقا، نمایشاتی خاصّ و ظهوراتی مخصوص بوده است، پس در جواب سؤال مذکور، می گوییم:
بعد از این که ثابت شد کف های مبارک آن بزرگواران، من حیث الخلقه زبر و غلیظ بوده، چه استبعاد دارد که بگوییم: نرمی که در روایت و درایت است، نمایشی از آن دو بزرگوار؛ یعنی حضرت رسول مختار و حجّت غایب از انظار بوده، چه آن که مورد آن ها نیز گنجایش همین نمایش را دارد، زیرا مقام مصافحه که مورد روایت است، مقام ملاطفت و تعطّف است که خود، مقتضی همین نمایش است و مقام دست بوسیدن آن سید جلیل از آن امام، با تعظیم و تبجیل که مورد درایت است؛ ایضا مقتضی همین نمایش نرمی کف بوده، چه بعد از این، سید جلیل در جبل عامل شنیده:
کف های آن بزرگوار نرم است و این در مکنون خاطر او بوده، آن بزرگوار هم خواسته اعتقاد آن سید را در تشرّف به خدمتش، تثبیت فرماید و او را از نیل به این موهبت، تقنیت نفرماید؛ «هذا ما ادّی إلیه فکری الفاتر و واقع الأمر عند العالم بالسّرائر».
[علامت ختم وصایت] 5 مسکه:
بدان یکی از شمایل حضرت ولیّ عصر و ناموس دهر، داشتن علامتی در پشت مبارک، مثل علامت پشت مبارک جدّش رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) است، چنان که در فصل دوّم از باب سوّم کتاب نجم ثاقب که در بیان تعداد خصایص آن بزرگوار منعقد شده، می فرماید: یازدهم؛ یعنی از خصایص آن سرور، داشتن علامتی مثل علامت پشت مبارک رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) است که آن را ختم نبوّت گویند و شاید در این جناب، به ختم وصایت اشاره باشد، انتهی.
در بیان اوصاف شمایل آن حضرت، در حدیثی علوی است: «فی کتفه علائم النبوّه النّبیّ»(441)؛ یعنی در کتفش، علامت های نبوّت پیغمبر است که به مهر نبوّت معروف می باشد و در رنگ و شکل و نقش آن، اختلاف بسیار است و ما آن اختلافات را در جزء اوّل از کتاب انوار المواهب که به «العسل المصفّی» ملقّب است، ذکر نموده ایم.
این ناچیز گوید: اگر کسی بگوید: خصیصه بودن این علامت برای آن بزرگوار معلوم نیست، چه از روایت حسن بن جهم که آن را علّامه مجلسی (رحمه الله) در بحار دوازدهم(442)، ضمن ابواب متعلّق به حالات حضرت جواد (علیه السلام) روایت نموده، چنین معلوم می شود که ائمّه طاهرین (علیه السلام)، نوعا دارای این علامت بوده اند، چنان که در آن روایت است که حسن بن جهم گوید: حضرت جواد (علیه السلام) طفل بود و ما خدمت حضرت رضا بودیم که او را صدا زد، در دامن من نشانید و فرمود: او را برهنه کن.
چون پیراهن او را کندم؛ گفت: ما بین دو کتف او را ببین!
نگاه کردم، نشانه ای شبیه مهر انگشتر پشت شانه آن طفل دیدم. سپس حضرت رضا فرمود: همین نشانه در همین موضع پدرم بود و حال، در خودم می باشد.
جوابش این است: علامت پشت شانه آن بزرگواران، بر دو قسم است: یکی، نسبت به تمام ایشان عامّ است، چنان که در روایت حسن بن جهم، ایمایی بر آن است و دیگری خاصّ حضرت بقیه الله است که دیگران از ائمّه طاهرین، آن را نداشته اند.
آن که عامّ است، شبیه مهر انگشتر بوده، به خلاف آن که مخصوص آن حضرت است، چه آن شبیه مهر ختم نبوّت می باشد که در پشت جدّش رسول خدا بوده.
شاهد بر این دعوی، روایت علوی است که آن را در کتب معتبره، عموما و در نجم ثاقب، خصوصا نقل فرموده اند. چه در آن کتاب، ذیل فصل اوّل باب سوّم که منعقد است برای بیان شمایل حضرت امام عصر (علیه السلام)، می فرماید در علوی است: «عظیم مشاش المنکبین»؛ سر استخوان کتف شریفش بزرگ است.
«و بظهره شامّتان: شامه علی لون جلده و شامه علی شبه شامّه النّبیّ»(443)؛ در پشت مبارکش، دو نشانه و علامت است: یکی به رنگ بدن شریفش و دیگر شبیه علامتی که در کتف مبارک حضرت رسول (صلّی الله علیه و آله) بود.
در روایت باقری یا صادقی، به یکی از این دو علامت تصریح شده و ممکن است آن، همان علامت عامّه امامت باشد، چنان که در همان کتاب است که در صادقی یا باقری است: «شامّه بین کتفیه»(444).
در این روایت، چیز دیگری است که ظاهرا آن را از خصایص آن جناب نشمرده اند، حال آن که به حسب تتبّع و سیر در اخبار و آثار آن، از خصایص آن حضرت است، چه در آن است: «من جانبه الأیسر تحت کفّیه ورقه مثل ورقه الأس»(445)؛ یعنی از طرف چپ، زیر دو کتف مبارکش ورقی، مثل برگ درخت مورد است.
این ناچیز، کیفیّت مهر نبوّت حضرت ختمی مرتبت را به طریق تفصیل و اطناب و به نحوی که در غیر آن کتاب یافت نمی شود؛ در موهبت سیزدهم از شعاع دوّم از نور اوّل کتاب انوار المواهب بیان نموده ایم، مراجعه شود.
تذییل فیه تضلیل:
بدان از جمله خرافات صوفیّه غویّه و لا سیّما منتسبین به طایفه سنیّه که به آن اضلال انام نموده و بدین واسطه، جلب حطام از عوام می نمایند، این است که محی الدین بن العربی، خاتم ولایت محمدیّه است و علامت ختم ولایتش آن بود که میان دو کتف او در آن موضع که برای پیغمبر ما علامت بود، برای او هم علامت بود.
چنان چه استادنا المحدّث النّوری - عطّر الله مرقده - در نجم ثاقب از میبدی، در شرح دیوان(446) حضرت ولایت مآب نقل فرموده: او از شرح نصوص جندی نقل کرده که محی الدین مزبور، در اوّل محرّم در اشبیلیّه از بلاد اندلس به خلوت نشست، نه ماه طعام نخورد و در اوّل عید، به بیرون آمدن، مأمور شد و بیشتر شد به این که خاتم ولایت محمدیّه است و گفته:
از دلایل ختمیّت او آن بود که میان دو کتف او در آن موضع که برای پیغمبر ما (صلّی الله علیه و آله و سلّم) علامت بود، برای او هم علامت بود، لکن در گودی عضو، نه مثل آن که در برآمدگی بود. اشاره به این که علامت ختمیّت نبوّت، ظاهر و فعلی و ختمیّت ولایت، باطنی و انفعالی است.
این ناچیز گوید:
اوّلا؛ طایفه غبیّه صوفیّه - خذلهم الله - و به خصوص، سنیّه ایشان در مقام ترویج از رؤسای خود بی اختیارند و کرامات و خوارق عاداتی به آن ها نسبت می دهند که کذب محض و فریه بیّن است، چنان که بر مراجعین کتب این طایفه، این مطلب کالشّمس فی رائعه النّهار، هویدا و آشکار است و این مورد هم، یکی از آن موارد است.
ثانیا؛ بر فرض صحّت این نسبت، همانا این نمایشی از شیطان لعین بوده که محض اضلال و اغوا، چنین نمایشی را بر مردم، میان دو کتف او داده، چنان که در وادی تبوک به ابو محمد خفّاف، عرش الرحمن را نمایش داد که ابو محمد مدّت مدیده ای او را ستایش و سجده نمود.
چنان چه در کتاب راحه الروح در شرح حدیث مثل اهلبیتی کمثل سفینه نوح که از طبع خارج شده، نوشته ام: بالاترین اضلالات شیطان ملعون آن است که خود را در مقابل خداوند بی چون و توبیخ معبود قرار می دهد ﴿أَ لَمْ أَعْهَدْ إِلَیْکُمْ یا بَنِی آدَمَ أَنْ لا تَعْبُدُوا الشَّیْطانَ﴾ (یس: 60) جهارا و بالعیان، دامن گیر عابدین او می شود.
چنان چه جامی در کتاب نفحات الانس(447) خود از ابو محمد خفّاف نقل کرده: او با مشایخ شیراز، یک جا نشسته بودند، سخن در مشاهده می رفت و هرکس به قدر حال خویش سخنی می گفت. مؤمّل جصّاص به ابو محمد خفّاف که خاموش بود، گفت: به هر حال تو هم سخنی بگو!
ابو محمد گفت: آن چه شما گفتید، حدّ علم بود، نه حقیقت مشاهده، حقیقت مشاهده آن است که حجاب منکشف شود و او؛ یعنی خدا را بالعیان ببینی.
به او گفتند: این را از کجا می گویی و این مطلب، چگونه برایت معلوم شده؟!
ابو محمد خفّاف گفت: من در بادیه تبوک بودم، فاقه و مشقّت بسیار به من رسیده بود، در مناجات بودم که ناگاه حجاب منکشف شد و او؛ یعنی خدا را دیدم که بر عرش نشسته، او را سجده کردم و گفتم: مولایی ما هذا مکانی و موضعی منک.
چون آن قوم، این سخن را از ابو محمد خفّاف شنیدند، همگی خاموش شدند. مؤمّل جصّاص به او گفت: برخیز تا برویم و بعضی از مشایخ و ارباب حدیث را زیارت کنیم.
ابو محمد خفّاف برخاست، مؤمّل دست او را گرفت و سپس به خانه ابن سعدان رفتند. او تعظیم و ترحیب ایشان را به جا آورد.
مؤمّل به او گفت: «ایّها الشّیخ! نرید أن تروی لنا الحدیث المرویّ عن النبیّ (صلّی الله علیه و آله و سلّم) أنّه قال: انّ الشّیطان، عرشا بین السّماء و الأرض إذا أراد بعبد فتنه کشف له عنه»؛ یعنی از پیغمبر روایت است؛ فرمود: برای شیطان، عرش و تختی میان آسمان و زمین است. هرگاه خداوند تبارک و تعالی، امتحان و اختبار بنده ای را اراده فرماید، آن تخت شیطان را برای او نمایان کند.
ابو محمد خفّاف چون این حدیث را شنید، گفت: یک بار دیگر آن را اعاده فرما! چون ابن سعدان بار دیگر این حدیث را اعاده کرد، ابو محمد خفّاف گریان شده، برخاست و بیرون رفت.
مؤمّل گوید: تا چند روز او را ندیدم. بعد از چند روز نزد ما آمد. گفتیم: در این ایّام غیبت، کجا رفته بودی.
گفت: نمازهایی که از آن وقت تاکنون گزارده بودم، قضا می کردم، زیرا از آن وقت، شیطان را پرستیده بودم.
گفت: چاره ای جز این نیست که به همان موضع روم که او را سجده کرده بودم تا آن ملعون را لعنت کنم. پس به این قصد بیرون رفت و دیگر خبر او را نشنیدم.
این ناچیز گوید: از این حکایت، بلندی مقام معرفت مؤمّل جصّاص نزد عوام و خواص معلوم می شود و لا یخفی.

عبقریّه ششم [موافقین با شیعه از علمای عامّه]

در بیان اسامی جمعی از اعیان علمای عامّه که مثل طایفه محقّه امامیّه اثنا عشریّه، به تولّد حضرت بقیّه الله قایل شده و آن بزرگوار را، خلف با شرف امام حسن عسکری (علیه السلام) می دانند؛ اسامی آنان در چند مسکه عنوان می شود.
آن چه در این عبقریّه و عبقریّه بعد از این ذکر می نماییم، غالبا از کتاب نجم ثاقب و کشف الاستار استادنا المحدّث النّوری - زاد الله فی انوار تربته - منقول است. آن مرحوم در حاشیه این مقام در نجم ثاقب می فرماید:
مخفی نماند که بسیاری از آن چه در این مقام نقل کردیم، از کتب اهل سنّت و تراجم منقول از مجلّد اوّل کتاب استقصاء الافحام و بعضی مجلّدات عبقات الانوار است که حامی دین و ماحی بدع ملحدین، سلطان المحدّثین و ملاذ المتکلّمین، جناب میر حامد حسین، معاصر هندی - دام علاه - همه را با تصحیح از کتب صحیحه آن ها، بدون تصرّف و واسطه در نقل برداشته، جزاه الله عن الإسلام و المسلمین خیر جزاء المحسنین(448).
[عقیده فرقه ناجیه اثنی عشریه] 1 مسکه:
بدان، طایفه محقّه و فرقه ناجیه و عصابه مهتدیه امامیّه اثنا عشریّه - أیّدهم الله تعالی - که به حسب نصوص متواتره از حضرت رسول (صلّی الله علیه و آله و سلّم) و امیر المؤمنین (علیه السلام)، حضرت خلف صالح حجّه بن الحسن العسکری (علیهما السلام) را مهدی موعود و قائم منتظر و غایب از انظار و سایر در اقطار می دانند و از همه امامان گذشته، تصریح به اسم و وصف و شمایل و غیبت آن جناب رسیده و پیش از ولادت آن حضرت، در کتب معتبره ثقات اصحاب ایشان، ثبت شده که جمله آن ها تا حال، موجود و به نحوی که اخبار نمودند و وصف کردند، خلق کثیری دیدند و اسم و نسب و اوصاف، با آن چه فرمودند، مطابق شد.
پس برای منصف عاقل، در بودن این وجود مسعود، آن مهدی موعود، ریبه و شکّی نماند چنان چه از ذکر حضرت رسول و شمایل آن جناب در کتب سماویّه، منصفین اهل کتاب، از یهود و نصارا، به مجرّد دیدن و منطبق کردن، اسلام آوردند؛ با آن که خصوصیّات و اسباب تعریف در آن جا و نزد آن ها به مراتب کمتر از آن بود که در این جا شده. نیز عمده طول عهد پیمبران در آن جا و قرب عهد رسول خدا و اوصیایش - صلوات الله علیهم - در این جا بود و بیشتر آن چه فرمودند، محفوظ ماند.
حتی جمله ای از مخالفین ما، آن را نقل کرده و جماعتی از اهل سنّت در این مذهب و اعتقاد با ما موافقت کردند که از ذکر اسامی ایشان با اشاره به علوّ مقام آن ها نزد آن جماعت ناچاریم، تا در مقام طعن و ایراد لا محاله، خود از علما و محدّثین و اهل کشف و یقین و اقطاب روی زمین شرم کنند، با این که در این مقام در مقابل، چیزی ندارند و جز اظهار ندانستن و معلوم نبودن و بعضی استبعادات و شبهات که با جوابش بیاید، راهی برای نفی دعوای امامیّه ندارند. توضیح بیشتر از این بیاید، ان شاء الله تعالی.
[موافقین با شیعه، محمد بن طلحه]:
امّا موافقین با ما از اهل سنّت، از جمله، ابو سالم کمال الدین محمد بن طلحه بن محمد قرشی نصیبی است که در کتاب مطالب السؤل در باب دوازدهم، با اعتقاد جازم و اصرار بلیغ، این مطلب را اثبات نموده و پاره ای از شبهات منکرین را ذکر و ردّ کرده و با ابیات رایقه و عبارات مونقه، آن جناب را مدح نموده که نسخه آن کتاب شایع در طهران نیز در لکنهو از بلاد هند، طبع شده است.
اسعد بن عبد الله یافعی معروف در تاریخ مرآت الجنان(449)، در حوادث سنه شش صد و پنجاه و دو گفته: کمال الدین محمد بن طلحه نصیبی، مفتی شافعی در آن وفات کرده. او رییسی محتشم و بارع در فقه بود، یک نوبت خلاف متولّی وزارت شد، آن گاه زاهد گردید و خود را جمع نمود. سپس کرامتی برای او نقل کرده که مقام ذکرش نیست.
و شیخ جمال الدین عبد الرحیم بن حسن بن علی اسنوی فقیه شافعی، صاحب تصانیف کثیر معروف در طبقات فقهای شافعی، بعد از ذکر او به نحو مذکور گفته: او، امام بارع در فقه و خلاف و عارف به اصول فقه و کلام و رییس کبیر معظّم بود و ملوک با او مکاتبه می کردند، در مدرسه امینیّه دمشق اقامت نمود، ملک ناصر، او را بر وزارت نشانید و برای او فرمان وزارت نوشت، او از آن کناره گرفت و عذر خواست، دو روز مباشرت کرد، آن گاه هرچه از اموال خود داشت، گذاشت و رفت و موضع او معلوم نشد، استماع حدیث نمود و آن ها را روایت کرده...، الخ.
تقی الدین ابو بکر بن احمد بن قاضی شهبه در طبقات شافعیّه(450) گفته: محمد بن طلحه بن محمد بن الحسن، شیخ کمال الدین ابو سالم الطّوسی القرشی العددی النصیبی، کتاب عقد فرید را تصنیف کرد، او یکی از صدور و رؤسای معظّمین بود، تفقّه نمود و در علوم شراکت کرد، او فقیه بارع عارف به مذهب و اصول و خلاف بود و بعد از ذکر وزارت و تزهّد او گفته: به علم حروف مشغول شد و اشیایی از مغیبات از آن بیرون می آورد.
سید عزّ الدین گفته: او یکی از علمای مشهور و رؤسای مشهود بوده و نزد ملوک مقدّم بود و از ایشان، مراسلات به او می رسید؛ سپس در آخر کار، زاهد شد و تقدّم در دنیا را واگذاشت و به آن چه او را نفع می بخشید، رو کرد و از دنیا با سداد و امر جمیل گذشت.
عبد الغفّار بن ابراهیم علوی عکّی عدنانی شافعی در عجاله الراکب و بلغه الطالب گفته: او یکی از علمای مشهور بود.
کاتب چلبی قسطنطینی در کشف الظّنون فی اسامی الکتب و الفنون(451) گفته:
درّ المنظّم در سرّ اعظم، از شیخ کمال الدین ابی سالم محمد بن طلحه عدوی جفّار شافعی است که سنه شش صد و پنجاه و دو وفات کرده، مختصری است که اوّل آن است:
«الحمد لله الّذی اطّلع من اجتباه من عباده الأبرار علی جنایا الأسرار».
در آن جا ذکر کرده: برای برادری صالح، در بعضی از خلوات، لوحی کشف شد و در آن دایره حروفی بود که معنی آن را نمی دانست.
چون صبح شد، خوابید، حضرت علی بن ابی طالب (علیه السلام) را در خواب دید و حضرت برای شرح آن لوح، چیزی فرمود که او نفهمید، اشاره کرد نزد کمال الدین رود تا او شرح کند. نزد او آمد، صورت واقعه و دایره حروف را برای او ذکر کرد. سپس رساله ای برای آن نوشت و به جفر ابن طلحه معروف شد.
بونی در شمس المعارف کبری گفته: این مرد صالح، در بیت حطابه در مسجد حلب معتکف شده بود و بیشتر تضرّع او به درگاه خداوند این بود که اسم اعظم را به او نشان دهد. شبی، لوحی از نور دید که در آن اشکال مصوّر بود. در آن لوح تأمّل نمود؛ دید چهار سطر و در وسط، دایره ای و داخل آن، دایره دیگری است.
بساحی گفته: این مرد صالح، شیخ ابو عبد الله محمد بن حسن اخیمی بود و تلمیذ او ابن طلحه، از اشارات رموز آن، بر انقراض عالم و سبیل رمز استنباط نمود، انتهی.
وضوح بودن این کتاب از او به حدّی است که ابن تیمیمه، با همه عناد و لجاج در منهاج خود با آن که گاهی منکر متواترات می شود، نتوانسته منکر شود و این کتاب را به او نسبت داده، الحمد لله و جمله ای از تصانیف او را در کشف الظنون ضبط کرده.
این ناچیز گوید: عبارت ابن طلحه مذکور در کتاب مطالب السؤل، در خصوص ترجمه حضرت بقیّه الله (عجّل الله فرجه) این است:
الباب الثّانی عشر فی ابی القاسم (م ح م د) بن الحسن الخالص بن علی المتوکّل بن محمد القانع بن علی الرضا بن موسی الکاظم بن جعفر الصادق بن محمد الباقر بن علی زین العابدین بن الحسین الزّکی بن علی المرتضی امیر المؤمنین (علیه السلام) بن ابی طالب، المهدی الحجّه الخلف الصالح المنتظر (علیهم السلام) و (رحمه الله) و برکاته.
فهذا الخلف الحجّه قد ایده الله * * * هدانا منهج الحق و اتاه سجایاه
و اعلی فی ذری العلیا و بالتّایید یرقاه * * * و اتاه جلی فضل عظیم فتحلاه
و قد قال رسول الله قولا قد رویناه * * * و ذو العلم بما قال إذا ادرکت معناه
یری الأخبار فی المهدی جائت بمسمّاه * * * و قد ابداه بالنّسبه و الوصف و سمّاه
و یکفی قوله منّی لأشراق محیّاه * * * و من بضعه الزّهراء مجراه و مرساه
و لن یبلغ ما اویته امثال و اشباه * * * فان قالوا هو المهدی ما ماتوا بمافاه
«قد رفع من النبوّه فی اکناف عناصرها و وضع من الرساله اخلاق اواصرها و ترع من القرابه بسجّال معاصرها و برع فی صفات الشّرف فعقدت علیه بخناصرها فأقتنی من الأنساب شرف نصابها و اعتلا عند الأنتساب علی شرف احسابها و اجتنی جنی الهدایه من معادنها و اسبابها فهو من ولد الطّهر البتول المجزوم و بکونها بضعه من الرسول»
فالرساله اصلها و انّها لا شرف العناصل و الأصول، فامّا مولده فبسّر من رآی فی ثالث و عشرین رمضان سنه ثمان و خمسین و مأتین للهجره و اما نسبه ابا و اما فابوه الحسن الخالص بن علی المتوکّل إلی أن قال ابن علی المرتضی امیر المؤمنین إلی أن قال و اما اسمه فمحمّد و کنیّه ابو القاسم و لقبه الحجه و الخلف الصّالح و قیل المنتظر.
[ابو المظفر یوسف بن قز علی بغدادی صنفی] 2 مسکه:
از جمله آن ها، عالم فقیه واعظ، شمس الدین ابو المظفر یوسف بن قز علی بن عبد الله بغدادی حنفی، سبط عالم واعظ، ابی الفرج عبد الرحمن بن الجوزی است که شرح حالش در تاریخ ابن خلّکان و مرآت الجنان یافعی و روضه المناظر و کفایه المتطّلع و کشف الظّنون و اعلام الاخیار کفوی و غیره مسطور است، چنان که در اعلام الاخیار گفته:
«یوسف بن قز علی بن عبد الله البغدادی، سبط الحافظ ابی الفرج بن الجوزی الحنبلی، صاحب مرآه الزّمان فی التّاریخ، ذکره الحافظ شمس الدین فی معجم شیوخه کان والده من موالی الوزیر عون الدین بن هبیره و یقال فی والده: قز علی بحرف القاف و بالقاف اصّح، ولد فی سنه 581 ببغداد و تفقّه و برع و سمع من جده لأمّه و کان حنبلیّا، فتحنبل فی صغره لتربیه جدّه ثمّ دخل إلی الموصل.
ثم رحل إلی دمشق و هو ابن نیّف و عشرین سنه و سمع بها و تفقّه بها علی جمال الدین الحصیری و تحوّل حنفیّا لمّا بلغه ان قز علی بن عبد الله کان علی مذهب الحنفیّه و کان اماما عالما فقیها جیّدا نبیها یلتقط الدّرر من کلمه و یتناثر الجوهر من حکمه یصلح المذنب القاصی عند ما یلفظ و یتوب الفاسق العاصی حین ما یعظ، یصدع القلب بخطابه و یجمع العظام النّخره بجنابه، لو استمع له الصّخره لا انقلق و الکافر الجحود، لا من و صدق و کان طلق الوجه، دائم البشر، حسن المجالسه، ملیح المحاوره.
یحکی الحکایات الحسنه و ینشد الأشعار الملیحه و کان فارسا فی البحث عدیم النّظیر، مفرط الذّکاء إذا سلک طریقا ینقل فیه اقوالا و یخرج اوجها و کان من وحداء الدّهر لوفور فضله وجوده قریحته و غزاوه علمه و حدّه ذکائه و فطنه و له مشارکه فی العلوم و معرفه بالتّواریخ.
کان من محاسن الزّمان و تواریخ الأیّام و له القبول التّامّ، عند العلماء و الأمراء و الخاصّ و العام و له تصانیف معتبره مشهوره، منها شرح الجامع الکبیر و کتاب ایثار الأنصاف و تفسیر القرآن العظیم و منتهی السؤل فی سیره الرسول و اللّوامع فی احادیث المختصر و الجامع و له کتاب التّاریخ، المسمّی بمرآه الزمان. مات لیله ثلثاء من ذی الحجّه سنه 654.
انتهی ما اردنا نقله».
بالجمله؛ در آخر کتاب تذکره خواص الأمّه، بعد از ترجمه حضرت عسکری گفته:
ذکر اولاده منهم (م ح م د) الأمام فصل هو م ح م د بن الحسن بن علی بن محمد بن علیّ بن موسی الرضا بن جعفر بن محمد بن علیّ بن الحسین بن علی بن ابی طالب (علیهم السلام) و کنیته ابو عبد الله و ابو القاسم و هو الخلف الحجه، صاحب الزّمان القائم و المنتظر و التّالی و هو آخر الائمّه (علیهم السلام).
«انباء عبد العزیز بن محمود بن البزّار عن ابن عمر قال: قال رسول الله (صلّی الله علیه و آله و سلّم):
یخرج فی آخر الزّمان رجل من ولدی، اسمه کاسمی و کنیته ککنیتی، یملاء الأرض عدلا، کما ملئت جورا فذلک هو المهدی و هذا حدیث مشهور.
قد اخرج ابو داود و الزّهری عن علی (علیه السلام) بمعناه و فیه لو لم یبق من الدّهر الّا یوم واحد لبعث الله من اهل بیتی من یملاء الأرض عدلا و ذکره فی روایه کثیره و یقال له: ذو الاسمین، قالوا: امّه، ام ولد، یقال لها: صقیل».
[ابو محمّد عبد الله بن احمد خشاب] 3 مسکه:
ایضا از جمله ایشان، شیخ ادیب ابو محمد عبد الله بن احمد بن احمد بن الخشّاب است که در کتاب تاریخ موالید(452) و وفات اهل بیت (علیهم السلام) به مذهب امامیّه تصریح نموده و در آن جا بعد از ذکر امام حسن عسکری (علیه السلام) گفته: ذکر خلف صالح که پدرم از رضا (علیه السلام) به من خبر داد و فرمود: خلف صالح از فرزندان ابی محمد حسن بن علی (علیه السلام) است، او صاحب الزّمان و مهدی (علیه السلام) است.
نیز جرّاح بن سفیان مرا خبر داد و گفت: ابو القاسم طاهر بن هارون بن موسی العلوی از پدرش هارون از پدرش موسی مرا خبر داد و گفت که سید من، جعفر بن محمد (علیهما السلام) فرمود: خلف صالح از فرزند من است، او مهدی است، اسمش محمد و کنیه اش ابو القاسم می باشد، آخر الزّمان خروج می کند نام مادر او صقیل است(453).
ابو بکر دارع برای من نقل کرد در روایت دیگر، مادر او، حکیمه است، در روایت سوّم، او را نرجس می گویند و بعضی گفته اند: بلکه او را سوسن می گویند و خدا به این داناتر است(454).
کنیه اش ابو القاسم و او صاحب دو اسم است: خلف و محمد. ابری آخر الزمان ظاهر می شود و او را از آفتاب سایه می افکند و هرجا برود با او می رود و به آواز فصیح ندا می کند؛ این مهدی است.
محمد بن موسی طوسی به من خبر داد و گفت: ابو السکین از بعضی از اصحاب تاریخ، مرا خبر داد که به مادر منتظر (علیه السلام) حکیمه می گویند.
محمد بن موسی طوسی به من خبر داد و گفت: عبید الله بن محمد از هیثم بن عدی مرا خبر داد گفت که می گویند: کنیه خلف صالح، ابو القاسم و او صاحب دو اسم است، انتهی(455).
ابن خلکان در تاریخ(456) خود گفته: ابو محمد عبد الله بن احمد بن احمد، معروف به ابن خشّاب بغدادی، عالم مشهور در ادب، نحو، تفسیر، حدیث، نسب، فرایض، حساب و حفظ قرآن به قراآت بسیار و مملوّ از علوم بود و در آن ها ید طولانی داشت. خطّ او در نهایت جودت بود و او بعد از پاره ای از مؤلّفات گفته: تولّد او سنه 492 بود و در سنه 567 وفات کرد. سیوطی در طبقات النّحاه، ثنای بلیغی از او کرده است(457).
[محیی الدین محمد بن علی العربی الحنبلی] 4 مسکه:
از جمله ایشان، محیی الدین محمد بن علی بن محمد العربی، الحاتم الطایی الاندلسی الحنبلی است که در باب سی صد و شصت و ششم از کتاب فتوحات(458) خود، مطابق آن چه شعرانی در یواقیت(459) نقل کرده، گفته: بدانید مهدی (علیه السلام) ناچار از خروج است، لکن خروج نمی کند، تا آن که زمین از جور و ظلم پر شود، پس آن را از عدل و داد پر کند و اگر از دنیا جز یک روز باقی نماند، خداوند آن روز را طولانی می کند تا این که این خلیفه، والی شود.
او از عترت رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) و فاطمه (علیها السلام) است. جدّ او حسین بن علی بن ابی طالب و والد او، حسن عسکری، پسر امام علی النقی با نون، پسر محمد تقی با تا، پسر امام علی رضا، پسر امام موسی کاظم، پسر امام جعفر صادق، پسر امام محمد باقر، پسر امام زین العابدین علی، پسر امام حسین، پسر امام علی بن ابی طالب (علیهم السلام) است.
اسم او با اسم رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) مطابق است و مسلمانان، ما بین رکن و مقام او را مبایعت می کنند، در خلق به فتح «خا» شبیه رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) است و در خلق به ضمّ «خا» از او پست تر است، زیرا احدی در اخلاق مانند رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) نمی شود و خدای تعالی می فرماید: ﴿وَ إِنَّکَ لَعَلی خُلُقٍ عَظِیمٍ﴾ (قلم: 4).
او گشاده پیشانی، با بینی کشیده است، نیکوبخت ترین مردم به سبب او، اهل کوفه اند. مال را بالسّویّه تقسیم می کند و در رعیّت به عدالت رفتار می کند؛ مرد نزد او می آید و می گوید: ای مهدی! به من عطا کن و پیش روی او مال است. پس به او آن قدر عطا می کند که بتواند آن را بردارد.
وقت سستی دین خروج می کند. خداوند مردم را به وسیله او از مناهی و معاصی باز می دارد، پیش از آن چه به قرآن نگاه داشته.
مرد، در حالی شب می کند که جاهل و جبان و بخیل است. پس صبح می کند، در حالی که عالم و شجاع و کریم است، نصرت پیش روی او می رود. پنج یا هفت یا نه سال زندگانی می کند، اثر رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) را پیروی کرده و خطا نمی کند.
برای او ملکی است که او را تسدید می کند، به نحوی که او را نمی بیند. سختی را متحمل می شود، ضعیف را اعانت و بر نوایب حق مساعدت می کند. آن چه می گوید، می کند و آن چه می کند، می گوید و آن چه شهادت می دهد، می داند. خداوند، در یک شب کار او را اصلاح می کند. مدینه رومیّه را به تکبیر فتح می کند، با هفتاد هزار نفر از مسلمین از اولاد اسحاق در جنگ عظیم حاضر می شود که خوان خداوندی در چراگاه عکّه است؛ یعنی بسیار کشته می شوند که طیور و سباع از آن بخورند.
ظلم و اهل آن را فانی می کند، دین را برپا می دارد و روح را در اسلام می دمد.
خداوند به وسیله او اسلام را بعد از ذلّتش عزیز و آن را بعد از مردنش زنده می کند.
جزیه می گذارد و با شمشیر به سوی خداوند دعوت می کند. هرکس ابا کرد، او را می کشد و هرکه با او منازعه کند، مخذول می شود.
از دین حق، واقعی آن را ظاهر می کند، حتی اگر رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) زنده باشد، به همان نحو حکم کند. در زمان او، جز دین خالص باقی نمی ماند. در غالب احکامش، مذاهب علما را از رأی مخالفت می کند. پس به این جهت از او منقبض می شوند، زیرا گمان می کنند خدای تعالی بعد از ائمّه ایشان، مجتهدی را ایجاد نمی کند.
بعد از کلماتی چند، در وقایع او با علما گفته: چون مهدی خروج کند، همه مسلمین، خاصّه و عامّه مسرور می شوند و برای او مردانی الهی است که دعوت او را به پا می دارند و او را یاری می کنند و ایشان وزرایند که اثقال مملکت را متحمّل می شوند و او را بر آن چه خداوند بر گردن او گذاشته، اعانت می کنند. عیسی بن مریم در مناره بیضای شرقی دمشق بر او نازل می شود، در حالی که بر دو ملک تکیه کرده؛ ملکی در طرف راست و ملکی در طرف چپ او و مردم، مشغول نماز عصرند.
پس امام برای او دور می شود. پیش می افتد و با مردم، به سنّت پیغمبر (صلّی الله علیه و آله و سلّم) در روز جنگ نماز می کند، صلیب را می شکند، خوک را می کشد و از دنیا می رود، پاک و پاکیزه شده و در زمان او سفیانی نزد درختی در غوطه دمشق کشته می شود و لشکر او، در بیدا، خسف می شود. هرکه مجبور است، در آن لشکر بر حسب نیّت خود، محشور می شود.
به تحقیق زمان او شما را رسیده و هنگام او بر شما سایه انداخته است. به تحقیق در قرن چهارم ملحق به سه قرن گذشته ظاهر شد؛ قرن رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) که آن، قرن صحابه بود. آن گاه قرن متّصل به دوّمی، سپس میان آن ها فتراتی شد، اموری پدید آمد، هوا و هوس ها منتشر و خون ها ریخته شد. پس مخفی شد تا آن که وقت معلوم بیاید.
شهدای او، بهترین شهدا و امنای او، بهترین امنا هستند.
نیز گفته: خدای تعالی برای او طایفه را وزرا قرار داده، ایشان را در مکنون غیب خود پنهان کرده و به کشف و شهود، ایشان را بر حقایق و آن چه امر خدای تعالی بر آن است، در میان بندگانش آگاه کرده، ایشان بر طبق مردانی از صحابه اند که وفا کردند به آن چه با خدای تعالی بر آن معاهده کردند و ایشان از عجم اند و میان ایشان عربی نیست، لکن جز به عربی سخن نمی گویند.
برای ایشان حافظی غیر از جنس ایشان است که هرگز معصیت خداوند نکرده اند؛ او اخصّ و اعلم وزرا است.
شرحی نیز در کیفیّت حکم مهدی (علیه السلام)، عصمت، حرمت قیاس بر او و تسدید ملک او داده که موجب تطویل است و در حاشیه نجم ثاقب فرموده:
مخفی نماند عبارت فتوحات که در این مقام نقل کردند، مختلف است و این به جهت اختلاف نسخ فتوحات است، چنان چه شعرانی در لواقح الانوار القدسیّه المنتقاه من الفتوحات المکّیه تصریح کرده و در کشف الظنون در باب فا، از او نقل کرده که در آن جا گفته: پس از اختصار کردن فتوحات و حذف بعضی از آن ها عالم شریف شمس الدین سید محمد بن سید ابی الطیّب مدنی متوفی سنه 955 بر ما وارد شد.
نسخه ای بیرون آورد که آن را با نسخه ای از فتوحات مقابله کرده بود و در آن خط شیخ محی الدین بود که آن را در قونیه نوشته بود. در آن ندیدم آن چه که در آن توقّف کرده بودم و حذف نمودم.
پس دانستم نسخی که الآن در مصر است، همه آن ها از نسخه ای نوشته شده که آن را به شیخ دسّ(460) نمودند تا آخر آن چه گفته(461).
رفعت مقام و جلالت قدر ابن عربی نزد اهل سنّت، بیش از آن است که به وصف گنجد. غالبا از او به شیخ اکبر تعبیر کنند. شیخ عبد الوهاب شعرانی در لواقح الاخبار فی طبقات الأخیار(462)، گفته: محقّقین اهل الله عزّ و جلّ، بر جلالت او در جمیع علوم اجماع کردند. صفی الدین بن منصور و غیره او را به ولایت کبرا و صلاح و علم و عرفان توصیف کردند. نیز گفته: «هو الشّیخ الأمام المحقّق رأس اجّلاء العارفین و المقرّبین، صاحب الأشارات الملکوتیّه و النّفحات القدسیّه و الأنفاس الروحانیّه و الفتح المونق و الکشف المشرق و البصائر الخارقه و الحقایق الزّاهره، له المحلّ الأرفع من مقام القرب فی منازل الأنس و المورد العذب من مناهل الوصل و الطّول الأعلی من مدارج الدّنو و القدم الراسخ فی التّمکین من احوال النّهایه و الباع الطّویل فی التّصرّف فی احکام الولایه و هو احد ارکان هذه الطّایفه.
صفدی در وافی الوفیات(463) گفته: معقول و منقول، میان دو چشم او در صورت محصوره ممثّل بود و هرزمان که می خواست، آن را مشاهده می کرد. نیز ذکر کرده من عقیده او را دیدم. با عقیده شیخ ابو الحسن اشعری موافق بود و در آن چیزی نبود که مخالف رأی او باشد.
میبدی در شرح دیوان(464) از شرح فصوص جندی نقل کرده: او اوّل محرم در اشبیله از بلاد اندلس به خلوت نشست. نه ماه طعام نخورد، در اوّل عید مأمور شد، بیرون آمد و به این مبشّر شد که خاتم ولایت محمدیّه است و گفته: از دلایل ختمیّت او، آن بود که میان دو کتف او در آن موضع که برای پیغمبر ما (صلّی الله علیه و آله و سلّم) علامتی بود، علامت برای او هم بود لکن در کودکی عضو نه مثل آن که در برآمدگی بود؛ اشاره به این که علامت ختمیّت نبوّت، ظاهر و فعلی و ختمیّت ولایت، باطنی و انفعالی است.
غیر این ها از کلمات و عبارات که چون عناد و عصبیّت او با طایفه امامیّه بیشتر بود، در میان آن طایفه، از او بیشتر از دیگران مدح کردند، او در کتاب مسامرات، تصریح کرده؛ رافضیان به صورت خوک اند و عمر را معصوم می داند، بلکه در فتوحات گفته:
و اکثر آن چه از ضلالت ظاهر شد، به حسب اصل صحیح در شیعه، لا سیّما در امامیّه از ایشان است. پس شیاطین، حبّ اهل البیت و استفراغ محبّت در ایشان را داخل کرده و اعتقاد کرده اند این از بهترین قربات به سوی خدای تعالی و رسول او است.
نیز در مقام حالات اقتطاب گفته: «و منهم من یکون ظاهر الحکم و یجوز الخلافه الظاهره، کما جاز الخلافه الباطنه من جهه المقام، کابی بکر، عمر، عثمان، علی، حسن، معاویه بن یزید، عمر بن عبد العزیز و المتوکّل».
این متوکّل که او را خلیفه ظاهر و قطب عالم می داند، همان کسی است که سیوطی در تاریخ الخلفا(465) گفته: در سنه سی صد و شش، متوکّل، به خراب کردن قبر امام حسین (علیه السلام) و خانه هایی که اطراف آن بود امر کرد و این که آن جا را مزارع کنند، مردم را از زیارت آن حضرت منع کرده، آن جا را شخم کرد و صحرایی شد. متوکّل، به نصب؛ یعنی عداوت علی و اولادش معروف بود و بعض شعرا چه خوب گفته:
بالله إن کانت امیه قد اتت * * * قتل ابن بنت نبیها مظلوما
فلقد اتاه بنوا ابیه بمثله * * * هذا العمری قبره مهدوما
اسفوا علی أن لا یکونوا اشارکوا * * * فی قتله فتتبّعوه رمیما
انتهی.
نیز در جایی حکایتی نقل کرده؛ ملخّص آن، این است که دو نفر از شافعیّه و ظاهر الصلاح بودند. یکی از اولیا گفت: من این دو را به صورت خوک می بینم، من تعجّب می کردم تا این که معلوم شد هردو در باطن، رافضی بودند و مقام گنجایش نقل زیاده از این را ندارد(466).
[احمد بن محمد بن هاشم بن بلاذری] 5 مسکه:
از ایشان، احمد بن محمد بن هاشم بلاذری است که از اجلّه و اکابر علمای اهل سنّت و محدّثین ایشان می باشد، خود حدیثی مسلسل از امام عصر (علیه السلام) نقل کرده که در آن به امامت و غیبت آن جناب تصریح نموده. صورت آن خبر شریف که شاه ولی الله دهلوی که صاحب تحفه اثنا عشریّه، او را به خاتم العارفین، قاصم المخالفین، سید المحدّثین، سند المتکلّمین و حجّه الله علی العالمین توصیف نموده. در کتاب مسلسلات، مشهور به فضل المبین گفته:
مشافهه بن عقله، جمیع آن چه که روایت آن برای او جایز بود به من اجازه داد، در مسلسلات او حدیثی مسلسل یافتم که هرراوی از روات آن حدیث به صفت بزرگی منفرد است؛ گفت: خبر داد ما را فرید عصرش، شیخ حسن بن علی عجیمی، خبر داد ما را حافظ عصرش، جمال الدین بابلی، خبر داد ما را مسند وقتش، محمد حجازی واعظ، خبر داد ما را صوفی زمانش، شیخ عبد الوهّاب شعراوی، خبر داد ما را مجتهد عصرش، جلال سیوطی، خبر داد ما را حافظ عصرش، ابو نعیم رضوان عقبی، خبر داد ما را مقریء زمانش، شمس محمد بن جزری، خبر داد ما را امام جمال الدین محمد بن محمد الجمال زاهد عصرش، خبر داد ما را امام محمد بن مسعود، محدّث بلاد فارس در زمان خود، خبر داد ما را شیخ ما اسماعیل بن مظفر شیرازی، عالم وقتش، خبر داد ما را عبد السلام بن ابی الربیع حنفی، محدّث زمانش، خبر داد ما را، ابو بکر عبد الله بن محمد بن شاپور قلانسی، شیخ عصرش، خبر داد ما را عبد العزیز، حدیث کرد ما را محمد آدمی، امام زمان خود، خبر داد ما را سلیمان بن ابراهیم بن محمد بن سلیمان، نادره عصر خود، خبر داد ما را احمد بن هاشم بلاذری، حافظ زمان خود، حدیث کرد ما را محمد بن الحسن بن علی محجوب امام عصر خود، حدیث کرد ما را حسن بن علی (علیهما السلام) از پدرش از جدش از پدرم جدّ او، حدیث کرد ما را پدرم علی بن موسی الرضا (علیهما السلام) حدیث کرد ما را موسی الکاظم (علیه السلام) گفت حدیث کرد ما را پدرم جعفر الصادق (علیه السلام) حدیث کرد ما را پدرم محمد الباقر بن علی (علیهما السلام) حدیث کرد علی بن الحسین، زین العابدین السجّاد (علیه السلام) حدیث کرد پدرم حسین سید الشهدا (علیه السلام) حدیث کرد مرا پدرم علی بن ابی طالب (علیه السلام) سید الاولیا گفت: خبر داد ما را سید انبیا، محمد بن عبد الله (صلّی الله علیه و آله و سلّم) فرمود: خبر داد مرا جبرییل (علیه السلام) سید ملایکه، گفت که فرمود خدای تعالی سید السّادات:
«انّی أنا الله لا اله الّا أنا من اقرّ لی بالتّوحید دخل حصنی و من دخل حصنی امن من عذابی».
به درستی که منم خداوندی که خدایی غیر از من نیست، کسی که به یگانگی من اقرار نماید، در حصن من داخل شده و کسی که در حصن من داخل شود، از عذاب من ایمن است.
شمس بن جزری گفته: این حدیث از مسلسلات سعیده چنین واقع شد و بر عهده بلاذری است.
نیز شاه ولی الله مذکور در رساله نوادر از حدیث سیّد الاوایل و الاواخر، گفته:
حدیث محمد بن الحسن را که شیعه اعتقاد دارند او مهدی است، از آبای کرامش در مسلسلات شیخ محمد بن عقله مکّی از حسن عجیمی یافتم.
ابو طاهر، اقوای عصر خود به طریق اجازه به من خبر داد از تمام آن چه روایت کردن آن ها برای او صحیح بود، گفت: فرید عصرش مرا خبر داد...، الخ.
در انساب(467) سمعانی مذکور است: ابو محمد احمد بن ابراهیم بن هاشم مذکّر طوسی بلاذری، حافظ اهل طوس، حافظ فهیم و عارف به حدیث بود و بعد از ذکر جمله ای از مشایخ او گفته:
حاکم ابو عبد الله حافظ از او حدیث اخذ نمود و ابو محمد بلاذری، واعظ طوسی، یگانه عصر خود در حفظ و وعظ، نیکوترین مردم در معاشرت و بیشتر ایشان در رساندن فایده بود، در نیشابور بسیار اقامت می نمود و هرهفته برای او دو مجلس نزد دو شیخ بلد، ابی الحسین محمی و ابی نصر عبدوی بود. ابو علی حافظ و مشایخ ما در مجلس او حاضر و به آن چه ذکر می کرد بر ملا از اسانید، خرسند می شدند.
هرگز ندیدم ایشان، در اسناد، اسم و یا حدیثی، عیبی از او گرفته باشند و در مکّه نوشت؛ یعنی حدیث از امام اهل البیت (علیهم السلام)، ابی محمد الحسن بن علی بن محمد بن علی بن موسی الرضا...، تا آخر آن چه او و دیگران در مدح بلاذری گفته اند(468).
[عبد الحق دهلوی] 6 مسکه:
از جمله ایشان، شیخ عبد الحق دهلوی، صاحب تصانیف معتبره شایع میان اهل سنّت، در فنّ رجال و حدیث و غیره است. مؤلّف کتاب جذب القلوب الی دیار المحبوب که تاریخ مدنیه طیّبه است و تاکنون مکرّر به طبع رسیده، در رساله مناقب و احوال ائمّه اطهار گفته: ابو محمد حسن عسکری و والد او محمد - رضی الله عنهما - نزد خواصّ اصحاب و ثقات اهلش معلوم است.
روایت کرده اند که حکیمه بنت ابی جعفر محمد جواد رضی الله عنه، عمّه ابو محمد حسن عسکری رضی الله عنه را دوست می داشت، دعا می کرد و تضرّع می نمود که او را پسری به وجود ببیند و برای ابو محمد، حسن عسکری رضی الله عنه جاریه ای برگزیده بود که نرجس می گفتند.
چون شب نیمه شعبان سنه دویست و پنجاه و پنج شد، حکیمه نزد ابو محمد حسن عسکری آمد و او را دعا کرد. حسن عسکری التماس نمود که ای عمّه! امشب را نزد ما باش که کاری در پیش است.
حکیمه به التماس حسن عسکری، شب در خانه ایشان ایستاد. هنگام فجر، نرجس به درد زاییدن مضطرب شد. حکیمه نزد او آمد، دید مولودی ختنه کرده به وجود آمد، فارغ از ختنه و کار شستشو که برای مولود می کنند. او را نزد حسن عسکری آورد.
حضرت او را گرفت، دست بر پشت و چشمانش فرود و زبان خود را در دهانش آورد، در گوش راست او اذان و در گوش چپش اقامه گفت و فرمود: یا عمّه! او را پیش مادرش ببر. حکیمه او را به مادرش سپرد.
حکیمه می گوید: بعد از آن، پیش ابو محمد حسن عسکری (علیه السلام) آمدم، مولود را در جامه هایی زرد نزد او دیدم، او را نور و عظمتی دیدم که دل من تمام، گرفتار او شد.
گفتم: سیّدی! هیچ علمی به حال این مولود مبارک داری تا آن را به من القا کنی؟
گفت: یا عمّه! این مولود، منتظر ما است که ما را به او بشارت داده بودند.
حکیمه گفت: بر زمین افتادم و به شکرانه آن سجده رفتم؛ دیگر نزد ابو محمد حسن عسکری رفت و آمد می کردم. روزی نزد او آمدم، مولود را ندیدم. پرسیدم: ای مولای من! آن سید منتظر ما چه شد؟
فرمود: او را به کسی سپردیم که مادر موسی (علیه السلام) پسر خود را به او سپرده بود(469).
عبد الحقّ مذکور، از معتبرین اهل سنّت است، علمای هندوستان پیوسته به کتب احادیث و رجال او استشهاد کنند و اعتماد نمایند. شرح حال او در سبحه المرجان فی آثار هندوستان، موجود است، در آن جا گفته که تصانیفش به صد مجلّد رسیده و در سنه صد و پنجاه و هشت وفات کرده است(470).
[نصر بن علی جهضمی] 7 مسکه:
از ایشان، نصر بن علی جهضمی نصری از ثقات اهل سنّت است. خطیب بغدادی در تاریخ(471) خود او را مدح نموده و گنجی در باب هشتم از مناقب خود گفته: او شیخ امامین بخاری و مسلم است(472).
در تاریخ موالید ائمّه (علیهم السلام) در ذکر اولاد حسن بن علی (علیهما السلام) گفته: برای او محمد و موسی و فاطمه و عایشه متولّد شد. نیز گفته: از حسن بن علی (علیهما السلام) رسیده که هنگام ولادت محمد بن الحسن (علیهما السلام)، ضمن سخنانی بسیار فرمود: ظلمه گمان کردند مرا می کشند تا این که این نسل را قطع کنند؛ قدرت قادر را چگونه دیدند.
او را مؤمّل نامید و در باب امّهات ائمّه (علیهم السلام) گفت: مادر قائم (علیه السلام) صقیل، بعضی گفتند حکیمه، بعضی گفتند: نرجس و بعضی گفتند: سوسن است.
ابن همام گفته: حکیمه، عمّه ابی محمد است و برای او حدیثی در تولّد صاحب الزّمان است. او روایت کرده اسم مادر خلف (علیه السلام)، نرجس است و در باب القاب ائمّه (علیهم السلام) گفته: لقب قائم (علیه السلام)، هادی و مهدی و در باب ابواب ائمّه (علیهم السلام) گفته: باب قائم (علیه السلام)، عثمان بن سعید است. چون وفات او فرارسید، به پسر خود، ابی جعفر محمد بن عثمان به عهدی وصیّت کرد که ابو محمد حسن بن علی (علیهما السلام) با او کرده است.
ثقات شیعه از او روایت کردند که آن جناب فرمود: این وکیل من و پسر او، وکیل پسر من است؛ یعنی ابا جعفر محمد بن عثمان عمروی، چون وفات او فرارسید، به ابو القاسم حسین بن روح نمیری وصیّت کرد و به ابو القاسم بن روح امر نمود تا عقد نیابت را برای ابی الحسن سمرّی ببندد. آن گاه به تأخیر افتاد؛ یعنی باب مسدود شد.
محتمل است ذکر ابواب، از کلام احمد بن محمد فاریابی یا پدرش یا کلام ابو بکر محمد بن احمد بن محمد بن عبد الله بن اسماعیل، معروف به ابن ابی الثلج باشد. چون نصر که از جناب رضا (علیه السلام) روایت کند، نشود تمام ابواب را ذکر کند؛ با قراین دیگر که از خود تاریخ معلوم می شود.
شهید اوّل نقل کرده که نصر مذکور نزد متوکّل عبّاسی روایت کرده: پیغمبر (صلّی الله علیه و آله) دست حسنین (علیهما السلام) را گرفت و فرمود: کسی که من و این دو و مادر ایشان را دوست دارد، روز قیامت در درجه من و با من خواهد بود.
آن گاه متوکّل امر کرد او را هزار تازیانه بزنند. ابو جعفر بن عبد الواحد گفت: این شخص، سنّی است. پس او را واگذاشت.
[ملّا علی قاری] 8 مسکه:
از ایشان محدّث فاضل ملّا علی قاری است که او را از اکابر محدّثین خود می دانند.
در مرقات شرح مشکات، بعد از ذکر خبر نبوی که: «بعد از آن جناب، دوازده خلیفه خواهد بود» گفته: شیعه این حدیث را بر این حمل کردند که ایشان پی درپی از اهل بیت نبوّت اند؛ اعمّ از آن که بر ایشان خلافت حقیقیّه - یعنی ظاهری - یا به استحقاق باشد. اوّل ایشان علی و تا مهدی شمرد.
حسب آن چه زبده الاولیا، خواجه محمد پارسا در کتاب فصل الخطاب(473) به تفصیل ایشان را ذکر کرده و مولانا نور الدین عبد الرحمن جامی در اواخر شواهد النبوّه او را متابعت کرده و هردو، فضایل، مناقب، کرامات و مقامات ایشان را ذکر نمودند و در آن ردّی بر روافض است که به اهل سنّت گمان بردند که ایشان، اهل بیت را به اعتقاد فاسد و وهم کاسد خود دشمن دارند.
ایضا محمد بن محمد بن محمود الحافظی البخاری از ایشان است که به خواجه محمد پارسا معروف است و ملّا جامی در نفحات الانس(474)، او را مدح بلیغ نموده است.
در کتاب فصل الخطاب(475) گفته: چون ابو عبد الله جعفر بن ابی الحسن علی الهادی (علیه السلام) گمان کرد فرزندی برای برادرش، ابی محمد حسن عسکری (علیه السلام) نیست و ادّعا کرد برادرش حسن عسکری، امامت را در او قرار داد، کذّاب نامیده شد و عقب ولد جعفر بن علی در علی بن جعفر و عقب این علی، در عبد الله و جعفر و اسماعیل است، فرزند ابو محمد حسن عسکری (علیه السلام)، محمد، نزد خاصّه اصحاب و ثقات اهل او معلوم است.
آن گاه مختصری از حدیث حکیمه خاتون نقل کرده و آخر آن گفته: حضرت عسکری (علیه السلام) فرمود: ای عمّه! این فرزند را نزد مادرش ببر. او را بردم و به مادرش برگرداندم.
حکیمه گفت: نزد ابی محمد حسن عسکری آمدم. پس آن مولود را دیدم که پیش روی او و جامه زردی بر او بود و آن قدر بهای نور داشت که قلب مرا مأخوذ کرد.
گفتم: ای سید من! آیا در این مولود مبارک، علمی برای شما هست تا آن را به من القا فرمایی؟!
فرمود: ای عمّه! این است آن که باید انتظار او را داشت. این است آن که ما را به او بشارت دادند.
حکیمه گفت: بر این مژده برای شکر خداوند، به سجده افتادم.
گفت: آن گاه نزد ابی محمد حسن عسکری (علیه السلام) تردّد می کردم. او را نمی دیدم؛ روزی به او گفتم: ای مولای من! با سید و منتظر ما چه کردی؟
فرمود: او را به کسی سپردیم که مادر موسی پسر خود را به او سپرد.
ابن عربی، عربی مالکی با آن همه نصب و عداوتی که با امامیّه دارد، حتی در مسامره خود می گوید: رجبیّون، جمعی از اهل ریاضت در ماه رجب اند که اکثر کشف ایشان، این است که رافضیان را به صورت خوک می بینند.
در باب سی صد و شصت و شش از فتوحات خود می گوید: بدانید چاره ای از خروج مهدی (علیه السلام) نیست، لکن بیرون نمی آید تا آن که زمین از جور و ظلم پر شود؛ پس آن را از قسط و عدل پر می کند و اگر از دنیا جز یک روز نماند، خداوند آن روز را طولانی می کند تا آن که این خلیفه خلافت کند، او از عترت رسول الله (صلّی الله علیه و آله و سلّم) و از فرزندان فاطمه (علیها السلام) است.
جدّ او، حسین بن علی بن ابی طالب (علیهما السلام) و والد او، حسن عسکری، پسر امام علی نقی، پسر امام محمد تقی، پسر امام علی الرضا، پسر امام موسی الکاظم، پسر امام جعفر الصادق، پسر امام محمد الباقر، پسر امام زین العابدین علی، پسر امام حسین، پسر علی بن ابی طالب (علیهم السلام) است... تا آخر کلام که شرحی از اوصاف و حالات خروج آن جناب است، انتهی الخبر المرویّ عنه.
[عبد الرحمن جامی] 9 مسکه:
از ایشان نور الدین عبد الرحمن بن احمد بن قوام الدین محمد دشتی جامی حنفی، معروف به ملّا جامی است که نسبش به محمد بن حسن شیبانی، تلمیذ ابو حنیفه منتهی می شود و در عناد و تعصّب با امامیّه، سرآمد عصر خود بود. حتی در آزردن امیر المؤمنین (علیه السلام) به تیغ زبان، او را ثانی عبد الرحمن بن ملجم، در آزردن آن جناب به تیغ برّان دانسته اند.
با این حال در کتاب شواهد النبوه که عالم مشهور، قاضی حسین بن محمد بن حسن دیار بکری مالکی در اوّل کتاب تاریخ خمیس در احوال انفس نفیس، آن را از کتب معتبر دانسته؛ آن جناب را امام دوازدهم شمرده و شرح غرایب ولادت آن حضرت را مطابق اخبار امامیّه با جمله ای از اخبار مصرّحه بر خلافت و مهدویّت آن جناب نقل نموده که بعضی از آن بیاید.
محمود بن سلیمان کفوی در اعلام الاخیار من فقهاء مذهب النعمان المختار، در ترجمه او گفته:
«الشیخ العارف بالله و للتوجّه بالکلیّه إلی الله دلیل الطّریقه ترجمان الحقیقه المنسلخ عن الهیاکل النّاسوتیّه و المتوسّل إلی السّبحات الّلاهوتیه، شمس سماء التحقیق، بدر الفلک التّدقیق، معدن عوارف المعارف، مستجمع الفضایل، جامع اللّطایف، المولی جامی نور الدین...، إلی آخره» که بعد از وضوح جلالت قدر او نزد آن جماعت حاجتی به نقل آن و غیر آن نیست.
[ابو الفتح، محمد بن ابی الفوارس] 10 مسکه:
از جمله ایشان حافظ ابو الفتح محمد بن ابی الفوارس است، چنان که در حدیث چهارم کتاب اربعین خود گفته:
محمود بن محمد هروی ما را خبر داد به قریبه و گفت: ابو عبد الله محمد بن احمد بن عبد الله از سعد بن عبد الله از عبد الله بن جعفر حمیری به ما خبر داد و گفت: محمد بن عیسی اشعری از ابی حفص احمد بن نافع بصری ما را حدیث کرد و گفت: پدرم مرا حدیث کرد - و او خادم حضرت امام همام، علی بن موسی الرضا (علیهما السلام) بود - که حضرت رضا فرمودند:
پدرم، عبد صالح موسی بن جعفر مرا حدیث کرد و گفت: پدرم، جعفر بن محمد الصادق مرا حدیث کرد و گفت: پدرم، باقر علم انبیا محمد بن علی مرا حدیث کرد و گفت: پدرم، سیّد العابدین علی بن الحسین مرا حدیث کرد و گفت: پدرم، سیّد الشهدا حسین بن علی مرا حدیث کرد؛ گفت: پدرم سیّد الاوصیا، علی بن ابی طالب مرا حدیث کرد؛ گفت: برادرم رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) برای من فرمود: کسی که دوست دارد خداوند عزّ و جلّ را در حالی ملاقات نماید که خداوند به او اقبال کننده باشد و اعراض کننده از او نباشد، باید علی (علیه السلام) را دوست بدارد و کسی که دوست دارد خدا را در حالی ملاقات نماید که خدا از او راضی باشد، باید پسر تو حسن را دوست بدارد.
کسی که خوشحال می کند او را این که خداوند عزّ و جلّ را در حالی ملاقات نماید که خوفی بر او نباشد، باید پسر تو حسین را دوست بدارد و کسی که دوست دارد خدا را در حالی ملاقات نماید که گناهان او ریخته باشد، باید علی بن الحسین را دوست بدارد، زیرا آن جناب چنان است که خداوند در قرآن مجید، درباره آن ها فرموده:
﴿سِیماهُمْ فِی وُجُوهِهِمْ مِنْ أَثَرِ السُّجُودِ﴾ (فتح: 29).
کسی که دوست دارد خدا را در حالی ملاقات کند که او قریر العین باشد، باید محمد علی الباقر را دوست بدارد. و کسی که دوست دارد خدا را در حالی ملاقات نماید که نامه اعمال او را، خداوند به دست راستش داده باشد، باید جعفر بن محمد را دوست بدارد، کسی که دوست دارد خدا را در حالی ملاقات نماید که طاهر و مطهّر باشد، باید موسی بن جعفر را دوست بدارد.
کسی که دوست دارد خدا را در حالی ملاقات کند که ضاحک و مستبشر باشد، باید علی بن موسی الرضا را دوست بدارد. کسی که دوست دارد خدا را در حالی ملاقات کند که درجات او مرتفع و سیّئات او مبدّل به حسنات باشد، باید پسر او، محمد را دوست بدارد.
کسی که دوست دارد خدا را در حالی ملاقات کند که خداوند، حساب او را به آسانی بکشد و او را در بهشتی داخل نماید که عرض آن، آسمان ها و زمین است، باید پسر او، علی را دوست بدارد و کسی که دوست دارد که خدا را در حالی ملاقات نماید که او از رستگاران باشد، باید پسر او، حسن عسکری را دوست بدارد.
کسی که دوست دارد خدا را در حالی ملاقات نماید که ایمان او کامل و اسلام او نیکو باشد، باید پسر او، صاحب الزّمان، مهدی را دوست بدارد. پس ایشان چراغ های درخشنده، امامان هدایت کننده و علم های تقوا هستند. کسی که ایشان را دوست بدارد، من نزد خداوند عزّ و جلّ، بهشت را برای او ضامن می باشم.
این ناچیز گوید: در کشف الاستار، بعد از نقل این حدیث فرموده: انسان عاقل شکّ و ریب نمی نماید که محمد بن ابی الفوارس به صحّت این حدیث معتقد بوده و به مضمون آن جزم داشته و اگر چنین نبود، آن را در اربعین خود درج نمی کرد و ودیعه نمی گذاشت.
حال آن که اوّل اربعینش گفته: رجال ثقات، از قول پیغمبر روایت نموده اند؛ فرمود: من حفظ عنّی عن امّتی اربعین حدیثا، کنت له شفیعا، تا آن جا که اجر و ثواب و فضل عظیم از چه مقوله از حدیث اند؟
در جواب او می گوییم: بدان! به درستی که این سؤال، در مجلس سید محمد بن ادریس شافعی واقع شد. پس ایشان گفتند: آن احادیثی که در مناقب امیر المؤمنین علی بن ابی طالب (علیهما السلام) باشد و از چیزهایی که سید جلال الدین محمد بن یحیی بن ابی بکر عبّاسی به آن ما را خبر داد و گفت: محیی الدین محمد بن غنا ما را حدیث کرده گفت:
فقیه یوسف بن ابراهیم هروی ما را حدیث کرده گفت: سمعان بن محمد جوهری غزنوی، از شیخ شیبان مقری ابن عمر فرداوی ما را خبر داد و گفت: یحیی بن بکر بن احمد بلخی قاضی شام ما را حدیث کرده گفت: ابو جعفر ترمذی برای ما حدیث کرده گفت: محمد بن لیث ما را حدیث کرده گفت: از احمد بن حنبل شنیدم که می گفت:
در زمان شافعی کسی که منّت او بر اسلام عظیم تر از شافعی باشد، نمی دانم، همانا عقب نمازهای خود دعا می نمایم و می گویم: خدایا! من و والدین من و محمد بن ادریس را بیامرز؛ از آن روزی که از او شنیدم، مراد از چهل حدیث که پیغمبر فرموده، چهل حدیثی است که در مناقب امیر المؤمنین علی بن ابی طالب و اهل بیت او (علیهم السلام) است.
احمد بن حنبل گوید: در خاطرم خطور نمود از کجا نزد شافعی صحیح شد مراد از چهل حدیث که پیغمبر فرموده، چهل حدیث در مناقب علی بن ابی طالب و أولاد طاهرین آن جناب است؛ تا آن که حضرت رسول را در خواب دیدم.
آن حضرت فرمود: در قول محمد بن ادریس شافعی شکّ نمودی که مراد از قول، «من حفظ من امّتی اربعین حدیثا فی فضایل اهل بیتی، کنت له شفیعا یوم القیمه» است؛ اما ندانستی فضایل اهل بیت من حدّ و حصر ندارد و شمردنی نیستند.
ایضا محمد بن ابی الفوارس در آخر کلامش گفته: این است و جز این نیست که من بعد از این که مذهب هایی را شناختم به تفضیل اهل بیت نبوّت میل نمودم و حقیقت برای من ظاهر شد.
پس آن را دانستم، از طریقه حقّه تفتیش و تبیّن کردم، آن را به شواهد لایحه و اخبار صحیحه واضحه سلوک نمودم و به آن طریقه حقّه از ثقات و اهل ورع و دیانات خبر داده شدم. هم چنین حسب آن چه روایت کرده شده ایم، آن را ادا نمودیم.
بدیهی است کسی که اوّل کتابش آن و آخر کلامش این باشد، به صحّت سند و مضمون خبر مذکور معتقد است، کما لا یخفی.
[فضل بن روزبهان خنجی] 11 مسکه:
از جمله آنان، عالم معروف فضل بن روزبهان شارح شمایل ترمذی است در اوّل شرح مذکور گفته، می گوید:
فقیر الی الله تعالی، مؤلّف این شرح، ابو الخیر فضل الله بن ابی محمد روزبهان بن محمد بن فضل الله بن محمد بن اسماعیل بن علی الانصاری، اصلا و تبارا الخنجی محتدا الشیرازی، مولدا الأصبهانی دارا المدنی موتا و اقبارا،... الخ.
قاضی مذکور کسی است که بر کتاب نهج الحق آیت الله العلّامه الحلّی ردّی نوشته و نام آن را ابطال الباطل گذاشته. مرحوم قاضی نور الله تستری هم، بر ردّ آن ردّی نوشته و آن را به احقاق الحق موسوم نموده است.
بالجمله قاضی روزبهان، با شدّت تعصّب و انکارش بر جمله ای از اخبار صحیحه صریحه، در اقرار به تولّد ذات اقدس و وجود مقدّس حضرت بقیّه الله (عجّل الله فرجه الشریف) با طایفه امامیّه موافقت نموده؛ چه آن که قاضی مزبور در شرح قول مرحوم علّامه که فرموده: «المطلب الثّانی فی زوجته؛ یعنی علی (علیه السلام) و اولاده، کانت فاطمه سیّده نساء العالمین (علیها السلام) زوجته» و پس از آن بعضی از فضایل آن مخدّره و ائمّه از اولاد آن ملیکه انبیا را ذکر فرموده، می گوید:
آن چه علّامه از فضایل فاطمه - صلوات الله علیها و علی ابیها و علی سائر آل محمد و السّلام - ذکر نموده، امری است که انکار کرده نمی شود، زیرا انکار بر بحر به رحمتش، بر برّ به وسعتش، بر شمس به نورش، بر نورها به ظهورش، بر ابر به جودش و بر ملک به سجودش، انکاری است که منکر را جز استهزا به آن زیاد نمی نماید.
کیست کسی که قادر باشد جماعتی را انکار کند که اهل سداد و خزّان معدن نبوّت و حفّاظ آداب فتوّت اند - صلوات الله و سلامه علیهم - و چقدر خوب است آن چه من درباره آن بزرگواران به نظم درآورده ام:
سلام علی المصطفی المجتبی * * * سلام علی السید المرتضی
سلام علی ستّنا فاطمه * * * من اختارها الله خیر النّساء
سلام من المسک انفاسه * * * علی الحسن الالمعیّ الرضا
سلام علی الأورعیّ الحسین * * * شهید یری جسمه کربلا
سلام علی سیّد العابدین * * * علیّ بن الحسین المجتبی
سلام علی الباقر المهتدی * * * سلام علی الصّادق المقتدی
سلام علی الکاظم الممتحن * * * رضیّ السّجایا امام التّقی
سلام علی الثّامن المؤتمن * * * علی الرضا سیّد الأصفیا
سلام علی المتّقی التّقیّ * * * محمّد الطّیّب المرتجی
سلام علی الأریحی النّقی * * * علی المکرّم هادی الوری
سلام علی السیّد العسکری * * * امام یجهّز جیش الصّفا
سلام علی القائم المنتظر * * * ابی القاسم القرم نور الهدی
سیطلع کالشّمس فی غاسق * * * ینجّیه من سیفه المنتقی
تری یملاء الأرض من عدله * * * کما ملئت جور اهل الهوی
سلام علیه و ابائه * * * و انصاره ما تدوم السّماء
پس قاضی مزبور، تنصیص نموده بدون تردّد به این که مهدی موعود و قائم منتظر او، دوازدهمی از آن ائمّه غرّ میامین است(476).
[شیخ احمد جامی] 12 مسکه:
از جمله ایشان، عارف مشهور شیخ الاسلام، شیخ احمد جامی است که قبر او در بلوک جام از مشهد مقدّس و به تربت شیخ جام، مشهور است.
عبد الرحمن جامی، هم بلدی او، در کتاب نفحات(477) خود گفته:
او در سنّ بیست و دو سالگی، به واسطه جذبه قویّه ای که از جانب الله دریافته بود، به غاری در کوه نزدیک بلد جام داخل شد، حال آن که امّی بود و حروف و کتاب نمی دانست. مدّت هجده سال در آن غار بدون طعامی به سر برد و در این مدّت، غذای او برگ درختان و ریشه های آن ها بود.
خدا را در آن غار عبادت نمود تا آن که به سنّ چهل سالگی رسید. پس از جانب خداوند به ارشاد مردمان مأمور شد و کتابی تصنیف نمود که مشتمل بر هزار ورق بود.
علما و حکما به علّت غموض معانی ای که داشت، در فهم مطالب آن متحیّر بودند.
این امر عجیبی در این امّت است و عدد اشخاصی که در طریقه او داخل شده بودند به شش صد هزار نفر رسید و به دستش توبه نمودند.
در ینابیع المودّه و روضات است که این اشعار از طبع درربار و قریحه سرشار با یقین و اعتقاد بی غبار او است:
ای ز مِهر حیدرم هرلحظه در دل صد صفاست * * * از پی حیدر حسن ما را امام و رهنماست
هم چو کلب افتاده ام بر خاک درگاه حسن * * * خاک نعلین حسین اندر دو چشمم توتیاست
عابدین تاج سر و باقر دو چشم روشن است * * * دین جعفر بر حق است و مذهب موسی رواست
ای موالی وصف سلطان خراسان را شنو * * * ذرّه ای از خاک قبرش دردمندان را دواست
پیشوای مؤمنان است ای مسلمانان تقی * * * گر نقی را دوست دارم در همه مذهب رواست
عسکری نور دو چشم عالم و آدم بود * * * هم چو مهدی یک سپهسالار در میدان
کجاست قلعه خیبر گرفته آن شهنشاه عرب * * * زان که در بازوی حیدر نامه ای از لافتی ست
شاعران از بهر سیم و زر سخن ها گفته اند * * * احمد جامی غلام خاصّ شاه اولیاست
در مجالس المؤمنین است که روزی شاه اسماعیل صفوی برای حسن حال شیخ احمد مزبور به دیوان اشعار خودش تفأل زد، پس در سر صفحه دست راست نوشته ز مهر حیدرم تا آخر قطعه را دید و در روضات الجنّات این رباعی را که در ولایت است از بعضی مواضع معتبر از او نقل نموده:
گر منظر افلاک شود منزل تو * * * وز کوثر اگر سرشته باشد گِل تو
چون مِهر علی نباشد اندر دل تو * * * مسکین تو و سعی های بی حاصل تو
این شیخ کتاب های بسیار و مؤلّفات بی شماری دارد که اسامی آن ها در روضات، ثبت و ضبط است. هرکس طالب دانستن آن ها است، به آن جا رجوع نماید.
[ملّا حسین کاشفی] 13 مسکه:
از جمله ایشان فاضل متبحّر ملّا حسین کاشفی، صاحب جواهر التفسیر است، چنان که در آخر کتاب روضه الشهداء(478) می نویسد:
فصل هشتم در ذکر امام (م ح م د) بن الحسن العسکری (علیهما السلام)؛ وی امام دوازدهم از ائمّه اثنا عشر است، کنیه او، ابو القاسم و لقبش به قول امامیّه، إلی ان قال و در شواهد آورده؛ چون متولّد شد، بر زراع ایمن او نوشته بود: ﴿قُلْ جاءَ الْحَقُّ وَ زَهَقَ الْباطِلُ إِنَّ الْباطِلَ کانَ زَهُوقاً﴾ (اسرا: 81).
به روایتی، چون از مادر زاییده شد، به زانو درآمد، انگشت سبّابه بر آسمان برداشت، عطسه زد و گفت: الحمد لله ربّ العالمین.
بزرگی نقل کرده نزد امام حسن عسکری (علیه السلام) رفتم و گفتم:
یا بن رسول الله! خلیفه بعد از تو که خواهد بود؟ داخل خانه شد و بیرون آمد، کودکی بر دوش گرفته در سنّ سه سالگی، گویا ماه شب چهارده است.
فرمود: ای فلان! اگر پیش خدای گرامی نبودی، فرزند خود را به تو نمی نمودم. نام این، نام رسول (صلّی الله علیه و آله و سلّم) و کنیه او، کنیه وی است. این جهان را پر از عدل و داد کند، هم چنان که پر از ظلم و جور شده باشد.
به قول بعضی از علما که او را زنده می دانند، می گویند: در اقصای مغرب، شهرها در دست او است و برای او، فرزندانی اثبات می کنند. حق سبحانه بدین داناتر است؛
﴿فَإِنَّهُ یَعْلَمُ السِّرَّ وَ أَخْفی﴾ (طه: 7).
هر نکته که آن ز ما نهان است * * * بر علم خدای ما عیان است
انتهی.
در کشف الاستار، بعد از نقل این عبارات از او، می فرماید: ظاهر آن است که کاشفی از متوقّفین در ولادت آن حضرت است نه از منکرین. بلکه می توان گفت از مایلین به ولادت آن جناب است، چون اگر مایل به این قول نبود، همانا ولادت آن سرور را به اشدّ انکار، انکار می کرد و کرامات آن حضرت را از علمای غیر امامیّه ذکر نمی نمود، در حالی که به نقل آن ها معتمد باشد، انتهی.
[شیخ احمد فاروتی نقشبندی]:
از جمله ایشان، شیخ احمد فاروتی نقشبندی است که در میان متأخّرین علما و متصوّفه عامّه، به مجدّد الف ثانی معروف است، چنان که در مکتوب یک صد و بیست و سوّم از جلد سوّم کتاب مکاتیب خود که آخرین مکتوب آن جلد است، به نور محمد نهاری، در بیان آن که راه های موصل به جناب قدس دو راه است، نوشته:
بسم الله الرحمن الرحیم، الحمد لله و سلام علی عباده الّذین اصطفی؛ راه های موصل به جناب قدس دو راه است؛ راهی است که به قرب نبوّت علی اربابها الصّلوه و السلام تعلّق دارد و موصل اصل الأصل است. و اصلان این راه، بالاصاله انبیا - علیهم الصّلوه و التسلیمات - و صحابه ایشان و از سایر امّتان هستند تا که را به این دولت بنوازند، اگر چه قلیل، بلکه اقلّ بودند.
در این راه، توسّط و حیلولت نیست، هرکه از این واصلان، فیض می گیرد، بی واسطه احدی، از اصل اخذ می نماید و یکی، دیگری را حایل نیست.
راه دیگری است که به قرب ولایت تعلّق دارد و اقطاب و اوتاد و بدلا و نجبا و عامّه اولیاء الله، به همین راه واصل اند و راه سلوک، عبارت از این راه است، بلکه جذبه متعارف نیز، داخل به همین است.
توسّط و حیلولت در این راه کاین است. پیشوای واصلان این راه، سرکرده این ها و منبع فیض این بزرگواران، حضرت علی مرتضی - کرم الله وجهه الکریم - است و این منصب عظیم الشأن، به ایشان تعلّق دارد. در این مقام گویی هردو قدم مبارک آن سرور - علیه و علی آله الصلوه و السّلام - بر فرق مبارک او - کرم الله تعالی وجهه - است.
حضرت فاطمه و حسنین - رضی الله تعالی عنهم - در این مقام با ایشان شریک اند.
انگارم که حضرت امیر از نشأه عنصری نیز ملاذ از این مقام بوده اند؛ چنان چه بعد از نشأه عنصری، به هرکس از این راه فیض و هدایت می رسید، به واسطه ایشان می رسید.
چون ایشان نزد نقطه منتهای از این راه اند و مرکز این مقام، به ایشان تعلّق دارد.
چون دوره حضرت امیر تمام شد، این منصب عزیز القدر، ترتیبا به حضرات حسنین، مفوّض و مسلّم گشت. بعد از ایشان، همان منصب به هریک از ائمّه اثنا عشر، علی التّرتیب و التّفصیل قرار گرفت و در اعصار این بزرگواران، هم چنین بعد از ارتحال ایشان، به هرکس فیض و هدایت می رسیده، توسّط این بزرگواران و به حیلولت ایشان بوده. هرچند اقطاب و نجبای وقت و ملاذ و ملجای همه ایشان بوده اند. چون اطراف را غیر از لحوق مرکز، چاره ای نیست.
[سعد الدین حموی] 14 مسکه:
از جمله ایشان، شیخ سعد الدین حموی، خلیفه نجم الدین کبری است. به تحقیق شیخ مزبور، در حالات و صفات حضرت بقیّه الله، کتابی مستقل تألیف کرده و در آن کتاب در تولّد حضرتش با امامیّه موافقت نموده است، چنان که عبد الرحمن صوفی در مرآه الاسرار گفته:
شیخ عزیز الدین نسفی، صاحب کتاب عقاید النسفیه در رساله ای که در تحقیق نبوّت و ولایت تألیف نموده از شیخ سعد الدین حموی نقل می نماید که گفته:
پیش از بعثت خاتم النبیّین، ولیّ در ادیان سابق نبوده و اسم ولیّ، بر زبان آنان آشنایی نداشته، اگر چه در هردینی صاحب شریعتی بوده، لکن به عنوان ولایت نبوده، بلکه کسانی که مردم را به سوی شریعت آن صاحب شریعت می خواندند، نبیّ می گفتند.
پس در شریعت آدم (علیه السلام)، انبیایی بودند که مردم را به سوی شریعت آدم می خواندند؛ هم چنین در دین موسی و عیسی و ابراهیم (علیهم السلام) و چون نوبت به پیغمبر ما، حضرت خاتم النبیّین رسید، حضرت فرمودند: لا نبیّ بعدی یدعون النّاس إلی دینی؛ لکن کسانی که بعد از من می آیند، مرا متابعت می نمایند و مردم را به سوی دین من دلالت می کنند.
نام آنان اولیا و اسم ولیّ، ظهورش در دین و شریعت من است. خداوند، دوازده نفر را در شریعت محمدیّه، نوّاب آن حضرت قرار داده است و قول «العلماء ورثه الأنبیا»(479) که از آن حضرت وارد شده، درباره ایشان است، چنان که قول آن سرور، «علماء امّتی افضل من انبیاء بنی اسرائیل»(480)، در شأن آنان است.
نزد شیخ؛ یعنی سعد الدین حموی ورّاث امّت محمد، زیاده از این دوازده نفر نیست که اوّل ایشان، علی بن ابی طالب و آخر ایشان که دوازدهمی آنان است، مهدی صاحب الزّمان (عجل الله تعالی فرجه الشریف) می باشد.
در ینابیع المودّه، بعد از این که این مطلب را از شیخ عزیز نسفی نقل نموده، فرموده در آخر عبارت خود گفته: و اما ولیّ آخر، او نایب آخر است، ولیّ دوازدهم و نایب دوازدهم، خاتم الاولیا و نام او، مهدی صاحب الزّمان (علیه السلام) است.
شیخ گفته: اولیای در عالم، زیاده از دوازده نفر معروف نیستند که مراد، ائمّه اثنا عشر است و اما سی صد و شصت و پنج نفری که از ایشان به رجال الغیب تعبیر می نمایند؛ به آن ها اولیا گفته نمی شود، بلکه از آن ها به ابدال تعبیر می شود(481).
[صلاح الدین صفدی] 15 مسکه:
از جمله ایشان، صلاح الدین صفدی است. در ینابیع المودّه گفته: شیخ عارف به اسرار حروف، صلاح الدین صفدی در شرح دائره گفته:
مهدی موعود، آن امام دوازدمی از ائمّه است که اوّل ایشان، سیّدنا علی و آخر ایشان مهدی موعود است.
[شمس تبریزی]:
و از ایشان شمس الدین تبریزی، شیخ مولوی صاحب مثنوی است و در ینابیع المودّه گفته: اعتراف به تولّد آن جناب از اشعار این شیخ معلوم می شود، لکن چیزی از اشعار او ذکر ننموده است.
[شاه نعمت الله ولی]:
از ایشان، سید نعمت الله که به شاه نعمت الله ولیّ معروف است، چنان که در ینابیع ذکر نموده.
[سید علی همدانی]:
از ایشان سید علی همدانی است که در مودّه دهم از کتاب المودّه فی القربی به تولّد آن حضرت تصریح نموده است.
[محمد سراج الدین رفاعی]:
از ایشان محمد سراج الدین رفاعی است که در کتاب صحاح الأخبار فی نسب السّاده الفاطمیّه الأطهار در بیان حالات ائمّه اثنا عشر (علیه السلام) و اولاد آن بزرگواران گفته:
و اما حسن عسکری پس صاحب سرداب، حجّه منتظر، ولیّ الله، امام محمد مهدی (علیه السلام) را عقب گذاشت و اما محمد پس برای او عقب و ذیلی ذکر نشده است، عنه.
[عبد الرحمن بسطامی]:
از جمله ایشان، شیخ عبد الرحمن بسطامی است، چنان که در ینابیع المودّه است که شیخ کبیر، عبد الرحمن بسطامی، صاحب کتاب درّه المعارف گفته: «و یظهر میم المجد من آل محمّد و یظهر عدل الله فی النّاس اوّلا کما قد روینا عن علیّ الرضا و فی کنز علم الحرف اضحی محصّلا»(482).
به قول خود؛ «روینا عن علیّ الرضا»؛ به خبری اشاره نموده که محدّث فقیه، ابراهیم جوینی حموینی شافعی آن را در کتاب فرائد السمطین، به اسناد خود از احمد بن زیاد از دعبل بن علی خزاعی روایت نموده است که گفت: قصیده خود را برای حضرت رضا (علیه السلام) انشاد نمودم که اوّل آن، این است:
«مدارس آیات خلّت من تلاوه» تا این بیت که عرض کرد:
و قبر ببغداد لنفس زکیّه * * * تضمّنها الرحمن فی الغرفات».
حضرت فرمود: آیا دو بیت را به قصیده ات ملحق ننمایم؟
عرض کردم: بلی، یا بن رسول الله!
فرمود:
و قبر بطوس یا لها من مصیبه * * * توقد فی الاحشاء بالحرقات
إلی الحشر حتّی یبعث الله قائما * * * یفرّج عنّا الهمّ و الکربات
دعبل گوید: باقی قصیده خود را خواندم تا آن که به قول خود خروج امام رسیدم:
خروج امام لا محاله واقع * * * یقوم علی اسم الله و البرکات
یمیّز فینا کلّ حق و باطل * * * و یجزی علی النّعماء و النّقمات.
حضرت رضا گریه شدیدی نموده و فرمود:
ای دعبل! روح القدس، به لسان تو تنطّق نموده، آیا می شناسی این امام که گفتی، کیست؟!
عرض کردم: نه، مگر آن که خروج امامی از شما آل محمد را شنیده ام که زمین را از عدل و داد پر می کند، چنان که از جور و ظلم پر شده باشد.
[فرمود:] اما آن بزرگوار، چه وقت قیام می فرماید؟ این اخبار از وقت است، هر آینه، پدرم از آبای خود از حضرت رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) مرا حدیث کرد که فرموده: مثل قیام امام غایب، مثل ساعه و قیامت است؛ شما را نمی آید، مگر بغتتا و ناگهانی(483).
[جلال الدین مولوی]:
از جمله ایشان، ملّا جلال الدین رومی، صاحب مثنوی است، چنان که در ینابیع گفته که در دیوان بزرگ خود، در قصیده ای که اوّل آن، این است:
ای سرور مردان! علی * * * مستان، سلامت می کنند؛
عدد ائمّه اثنا عشر شیعه را بیان نموده تا آن که گفته:
به امیر دین هادی بگو * * * با عسکری مهدی بگو
با آن ولیّ مهدی بگو * * * مستان سلامت می کنند(484)
[عطّار نیشابوری]:
از جمله ایشان، شیخ فرید الدین عطّار است، چنان که در ینابیع از کتاب مظهر الصفات او نقل نموده؛ گفته:
مصطفی ختم رسل شد در جهان * * * مرتضی ختم ولایت در عیان
جمله فرزندان حیدر اولیا * * * جمله یک نورند حقّ کرد این ندا
سپس فردفرد، اسم ائمّه را ذکر نموده تا آن که گفته:
صد هزاران اولیا روی زمین * * * از خدا خواهند مهدی را یقین
یا الهی مهدیم از غیب آر * * * تا جهان عدل گردد آشکار
مهدی هادی است تاج اتقیا * * * بهترینِ خلق، برج اولیا
ای ولای تو معیّن آمده * * * بر دل و جان ها همه روشن شده
ای تو ختم اولیای این زمان * * * وز همه معنی نهانی جان جان
ای تو هم پیدا و پنهان آمده * * * بنده عطّارت ثناخوان آمده
[سیّد نسیمی]:
از جمله ایشان، سید نسیمی است. در ینابیع(485) بعد از ذکر این جماعت و اشخاص دیگر که ما آن ها را ذکر نمودیم، گفته: این ها در اشعار خود، مدایح ائمّه از اهل بیت طیّبین را ذکر نموده و در آخر آن ها، مدح حضرت مهدی را متّصل به آن ها بیان فرموده اند.
لذا این ها دلیل اند بر این که اولا، مهدی متولّد شده و کسی که آثار این مردمان کامل را نظر کند، تولّد آن سرور را به نحو وضوح و عیان می یابد.
[شیخ محمد صبّان مصری]:
و از جمله ایشان، علّامه زمان خود، شیخ محمد صبّان مصری است که در کتاب اسعاف الراغبین که در مصر طبع شده، به تولّد آن بزرگوار تصریح نموده و در کشف الاستار است که قول به تولّد آن سرور را به بعضی از اصحاب بارعین ما به سوی صاحب کتاب انساب الطالبیّه و عماد الدین حنفی و ضیاء الدین صدر الائمّه، موفّق بن احمد، اخطب خطبای خوارزم نسبت داده است.
[شیخ سلیمان بلخی]:
از جمله ایشان، بنابر نقل از کشف الاستار، عالم عابد عارف، ورع بارع المعیّ، شیخ سلیمان بلخی، صاحب کتاب ینابیع المودّه است که در آن کتاب، در اثبات بودن مهدی موعود، همان حجّه بن الحسن العسکری مبالغه نموده و در آن کتاب باب هایی برای اثبات این مدّعی عنوان نموده که به واسطه شیوع آن و تبیّن معتقد او درباره آن عالی جناب از نقل کلمات او صرف نظر نمودیم و من ارادها فلیراجعه.
[عبد الله بن محمد مطیری]:
از جمله ایشان عبد الله بن محمد مطیری است که در کتاب ریاض الزّاهره فی فضل آل بیت النّبی و عترته الطّاهره، بعد از این که اسامی یک یک ائمّه (علیه السلام) با فضایل ایشان را ذکر نموده، گفته:
دوازدهم، محمد القائم المهدی است. به تحقیق نصّ بر امامت او در ملّت اسلام از پیغمبر (صلّی الله علیه و آله) و جدّش علی (علیه السلام) و از بقیّه آبای کرامش سبقت گرفته و او صاحب سیف و قائم منتظر (عجّل الله فرجه) است، چنان که در خبر صحیح وارد شده و پیش از قیامش برای او دو غیبت است...، تا آخر آن چه در حالات آن بزرگوار گفت.

عبقریّه هفتم [موافقین با شیعه از علمای عامّه]

در بیان اسامی جمعی دیگر از اعیان علمای عامّه که علاوه بر تصریح به تولّد آن جان جهان و امام عالمیان، بر وجود فعلی و حیات کنونی آن بزرگوار اقرار نموده اند و اسامی آنان، ضمن چند مسکه عنوان می شود.
[شیخ حسن عراقی] 1 مسکه:
بدان یکی از ایشان شیخ حسن عراقی است؛ چنان که شیخ عبد الوهّاب بن احمد بن علی الشعرانی، در کتاب لواقح الانوار فی طبقات السادات الاخیار که در آخر کتاب، آن را لواقح الانوار القدسیّه فی مناقب العلماء و الصوفیّه نام نهاده، گفته:
از جمله ایشان، شیخ صالح عابد زاهد، صاحب کشف صحیح و حال عظیم، شیخ حسن عراقی، مدفون بالای تپّه مشرف بر برکه رطلی در مصر است. قریب صد و سی سال زندگانی کرد. یک دفعه من و سید من، ابو العبّاس حریثی بر او داخل شدیم.
گفت: شما را به حدیثی خبر دهم که به آن، امر مرا، از آن حین که جوان بودم تا این وقت بشناسید؟
گفتیم: آری.
گفت: من جوان امردی بودم که در شام، عبا می بافتم و بر نفس خود مسرف بودم؛ یعنی مشغول معصیت بودم. روزی در جامع بنی امیّه داخل شدم. دیدم شخصی بر کرسی نشسته و در امر مهدی (علیه السلام) و خروج او سخن می گوید. دلم از محبّت او سیراب شد و به دعا کردن در سجود خود مشغول شدم که خدای تعالی میان من و او جمع کند.
قریب یک سال درنگ کردم و دعا می کردم.
هنگامی که بعد از مغرب در جامع بودم، ناگاه شخصی بر من داخل شد که بر او عمّامه ای مثل عمّامه عجم ها و جبّه ای از پشم شتر بود. پس دست خود را بر کتف من زد و فرمود: در اجتماع با من تو را چه حاجت است؟
گفتم: تو کیستی؟
فرمود: منم مهدی. دستش را بوسیدم و گفتم: با من به خانه بیا! اجابت کرد و فرمود:
برای من مکانی را خالی کن که در آن جا غیر تو احدی بر من داخل نشود.
مکانی را برای او خالی کردم. هفت روز نزد من درنگ کرد و ذکر را به من تلقین کرد و مرا امر کرد یک روز، روزه بگیرم و یک روز افطار کنم و این که هرشب، پانصد رکعت نماز کنم و پهلوی خود را برای خواب، به زمین نگذارم مگر آن که بر من غلبه کند. آن گاه طالب شد که بیرون رود، به من فرمود: ای حسن! بعد از من با احدی مجتمع نشو که آن چه از جانب من برایت حاصل شد، تو را کفایت می کند.
در آن ها نیست الّا غیر آن چه از من به تو رسیده، پس بدون فایده، منّت احدی را متحمّل نشو.
گفتم: سمعا و طاعه. بیرون رفتم که با او وداع کنم. مرا نزد عتبه در نگاه داشت و گفت: از همین جا.
پس چندین سال به همین حالت ماندم.
آن گاه شعرانی بعد از ذکر حکایت سیاحت حسن عراقی گفته: او گفت: من از مهدی (علیه السلام) از عمر او سؤال نمودم.
فرمود: ای فرزند من! عمر من الآن شش صد و بیست سال است و از عمر من از آن سال تا حال، صد سال گذشته.
این مطلب را به سید خودم علی خواص گفتم. پس با او در عمر مهدی (علیه السلام) موافقت کرد.
نیز شیخ عبد الوهاب شعرانی در مبحث شصت و پنجم از کتاب یواقیت و جواهر(486) در بیان عقاید اکابر، گفته: بعد از کلماتی که در باب چهارم گذشت، عمر او؛ یعنی مهدی (علیه السلام) تا این وقت که سنه 958 است، هفت صد و شش سال می باشد.
شیخ حسن عراقی از امام مهدی (علیه السلام) چنین مرا خبر داد؛ در آن حین که با او مجتمع شد و شیخ ما و سید من، علی خواص بر این دعوی با او موافقت کرد.
علی اکبر بن اسد الله مودودی که از متأخّرین علمای اهل سنّت است، در حاشیه نفحات جامی، بعد از کلماتی چند، گفته: در مبحث چهل و پنجم یواقیت ذکر کرده ابو الحسن شاذلی که گفت: برای قطب، پانزده علامت است؛ این که او را به مدد عصمت و رحمت و خلافت و نیابت و مدد حمله عرش، مدد دهند و از حقیقت ذات و احاطه به صفات برای او کشف شود...، الخ(487).
پس به وسیله این، صحیح می شود مذهب کسی که می گوید: غیر نبی هم معصوم می شود و کسی که عصمت را، در زمره معدوده، مقیّد و عصمت را از غیر آن زمره نفی نموده، به تحقیق به مسلک دیگری سلوک نموده، پس برای او نیز وجهی دیگر است که هرکس عالم است، آن را می داند.
پس به درستی که حکم به این که مهدی موعود (علیه السلام) موجود است و بعد از پدرش، حسن عسکری (علیه السلام) قطب است، چنان چه امام حسن عسکری (علیه السلام) بعد از پدرش قطب بود تا برسد به امام علی بن ابی طالب - کرّمنا الله بوجوههم - به صحّت حصر این رتبه در وجودات ایشان از آن حین که قطبیّت در وجود جدّ مهدی (علیه السلام)، علی بن ابی طالب (علیه السلام) ثابت شد تا این که در او تمام شد، نه پیش از او، اشاره دارد.
بنابراین هرقطبی که بر این رتبه است، به نیابت از او است به جهت غایب بودن او از چشم های عوام و خواصّ، نه از چشم های اخصّ خواصّ و به تحقیق این مطلب از شیخ صاحب یواقیت و غیر او - رضی الله عنه و عنهم - ذکر شده است.
پس لابدّ است که برای هرامامی از ائمّه اثنا عشر عصمتی بوده باشد. بگیر این فایده را.
جناب سیف الشیعه و برهان الشریعه، حامی الدین، وقامع بدع الملحدین، العالم المؤیّد المسدّد مولوی، میر حامد حسین، ساکن لکنهو از بلاد هند - ایّده الله تعالی - که تاکنون کسی به تتبّع و اطّلاع او بر کتب مخالفین و نقض شبهات و دفع هفوات آن ها، خصوصا در مبحث امامت دیده نشده.
و حقیر در این مقام، بیشتر کلمات را از کتاب استقصاء الافحام ایشان نقل نمودم، در حاشیه آن کتاب فرموده:
باید دانست اکابر علمای اهل سنّت از حنفیّه و شافعیّه و حنبلیّه که از معاصرین شعرانی بودند، نهایت مدح و اطرار و کمال ستایش و ثنا را از کتاب یواقیت و جواهر نموده اند.
شهاب الدین بن شلبی حنفی تصریح نموده که من، خلقی کثیر را از اهل طریق دیدم، لکن هیچ کس گرد معانی این مؤلّف نگردیده و بر هرمسلم، حسن اعتقاد و ترک تعصّب و لداد واجب است.
شهاب الدین رملی شافعی گفته: این کتابی است که فضیلت آن را نمی توان انکار کرد و هیچ کس در این اختلاف نمی کند که مثل آن تصنیف نشده و شهاب الدین عمیره شافعی بعد مدح این کتاب گفته: گمان نداشتم در این زمانه، مثل این تألیف عظیم الشأن بروز و ظهور کند...، الخ.
شیخ الاسلام فتوحی حنبلی گفته: در معانی این کتاب، جز دشمن مرتاب یا جاحد کذّاب قدح نمی کند، شیخ محمد برهمتوشی حنفی هم، در مدح این کتاب به عبارات بلیغ مبالغه و اغراق نموده و بعد از حمد و صلوات گفته:
«و بعد فقد وقف العبد الفقیر إلی الله تعالی محمّد بن محمّد البرهمتوشی الحنفی علی الیواقیت و الجواهر فی عقاید الأکابر لسیّدنا و مولینا الأمام العالم العامل، العلّامه المحقّق المدقّق الفهّامه، خاتمه المحقّقین وارث علوم الانبیاء و المرسلین شیخ الحقیقه و الشّریعه معدن السّلوک و الطّریقه من توجّه الله، تاج العرفان و رفعه علی اهل الزّمان، مولینا الشّیخ عبد الوهّاب، آدام الله النفع به علی الأنام و ابقاه الله تعالی، لنفع العباد مدا الایام فإذا هو کتاب جلّ مقداره و لمعت اسراره و سمحت من سحب الفضل امطاره و فاحت فی ریاض التّحقیق ازهاره و لاحت فی سماء التّدقیق شموسه و اقماره و تناغت فی غیاض الأرشاد بلغات الحقّ اطیاره، فاشرقت علی صفحات القلوب بالیقین انواره».
[عبد الرحمن جامی] 2 مسکه:
از جمله ایشان، عالم عارف صوفی، عبد الرحمن است، چنان که در مرآت مداریّه در احوال مدار گفته:
بعد از صفای باطنی، برای او حضور تمام به روحانیّت حضرت رسالت پناه میسّر گشت.
آن حضرت از کمال مهربانی و کرم بخشی، دست قطب المدار را به دست حق پرست خود گرفت و تلقین اسلام حقیقی فرمود، در آن وقت، روحانیّت، حضرت مرتضی علی - کرّم الله وجهه - حاضر بود. او را به حضرت علی مرتضی سپرد و فرمود:
این جوان، طالب حقّ است، او را به جای فرزندان خود، تربیت نموده، به مطلوب برسان که این جوان، نزدیک حق تعالی و به غایت عزیز است و قطب مدار وقت خواهد شد.
پس شاه مدار حسب الحکم آن حضرت، به حضرت مرتضی علی - کرّم الله وجهه - تولّا نمود. بر سر مرقد وی، در نجف اشرف رفت و در آستانه مبارکه، ریاضات کشید.
از روحانیّت پاک حضرت مرتضی علی - کرّم الله وجهه - به طریق صراط المستقیم، انواع تربیت می یافت و از سبب دین محمد به مشاهده حقّ الحقّ بهره مند گردید، جمیع مقامات صوفیّه صافیه را طی نمود و عرفان حقیقی حاصل کرد؛ آن زمان، اسد الله الغالب، در عالم ظاهر او را با فرزند رشید خود آشنا گردانید که وارث ولایت مطلق، محمد مهدی بن حسن عسکری نام داشت و از کمال مهربانی فرمود:
قطب المدار، بدیع الدین را به اشارت حضرت رسالت پناه تربیت نموده، به مقامات عالیه رسانیده و به فرزندی قبول کرده ام؛ شما نیز متوجّه شده و از راه شفقت به این جوان شایسته روزگار جمیع کتب آسمانی را تعلیم دهید.
بنابراین صاحب زمان مهدی، شاه مدار را از کمال الطاف در چند مدّت، دوازده کتاب و صحف آسمانی تعلیم نمود؛ اوّل، چهار کتاب که بر انبیای اولاد ابو البشر آدم نازل شده، یعنی فرقان و تورات و انجیل و زبور.
بعد از آن، چهار کتاب دیگر تعلیم فرمود که بر مقتدایان و پیشوایان قوم جنّیان نزول یافته بود؛ نام آن کتاب ها این است: راکوی، حاجری، سیاری و الیان.
بعد، چهار کتاب تعلیم نمود که بر ملایک مؤمنین درگاه سبحانی نازل شده بود، نام آن کتب این است: میراث، علی الربّ، سر ماجن و مظهر الف.
از علوم اوّلین و آخرین که از راه کرم بخشی جبلّی، خاصّه ائمّه اهل بیت بود و به موجب اشارت جدّ بزرگوار خود، حضرت مرتضی علی، به قطب المدار مرحمت فرموده، او را کامل مکمّل گردانید، خدمت اسد الله الغالب آورد و معروض داشت:
چون الحال از ارشاد فارغ شد، امیدوار خلافت است.
بالجمله در آن کتاب در ترجمه آن جناب می نویسد: ذکر آن آفتاب دین و دولت، آن هادی جمیع امم و ملّت، آن قائم مقام پاک احمدی، امام بر حقّ، ابو القاسم محمد بن حسن مهدی رضی الله عنه: او امام دوازدهم از ائمّه اهل بیت است. مادرش امّ ولد بود و نرجس نام داشت.
ولادتش شب جمعه پانزدهم ماه شعبان سنه دویست و پنجاه و پنج و به روایت شواهد النبوّه به تاریخ بیست و سوّم شهر رمضان سنه دویست و پنجاه و هشت، در سرّ من رأی به عرف سامرّه واقع شد.
امام دوازدهم در کنیه و نام، با حضرت رسالت پناهی (صلّی الله علیه و آله و سلّم) موافقت دارد. القاب شریفش، مهدی، حجّت، قائم، منتظر، صاحب الزّمان، خاتم اثنا عشر و صاحب الزمان می باشد.
صاحب الزمان هنگام وفات پدر خود، امام حسن عسکری، پنج ساله بود که بر مسند امامت نشست، چنان چه حق تعالی، در طفولیّت به یحیی بن زکریا (علیه السلام) حکمت کرامت فرمود و در وقت صبا عیسی بن مریم را به مرتبه بلند رسانید؛ هم چنین در صغر سن، او را امام گردانید. کمالات و خارق عادات او چندان است که در این مختصر گنجایش ندارد.
ملّا عبد الرحمن جامی در شواهد النبوّه از حلیمه، خواهر امام علی نقی - عمّه امام حسن عسکری - روایت می کند...، الخ.
شاه ولی الله دهلوی در کتاب انتباه فی سلاسل اولیاء الله بر کتاب مرآه الاسرار مذکور، اعتماد کرده و از او نقل می کند.
نیز عبد الرحمن مذکور در رساله مداریّه که حکایت عجیبی در اواخر باب هفتم از او نقل نمودیم، گفته: حضرت شیخ محیی الدین بن عربی در باب سی صد و شصت و هشتم از کتاب فتوحات مکّی می فرماید: ای مسلمانان! بدانید چاره ای از خروج مهدی نیست که والد او، حسن عسکری است بن امام علی نقی بن امام محمد تقی...، الی آخر.
سعادتمندترین مردم با او، اهل کوفه خواهند بود. او با شمشیر مردم را به سوی حق تعالی دعوت می کند. هرکه ابا کند، می کشد و کسی که با او منازعه کند، مخذول می شود، چنان چه در این محل، تمام احوال امام مهدی (علیه السلام) را در کتاب مذکور، مفصّل بیان نموده، هرکه خواهد در آن جا مطالعه نماید.
حضرت مولانا عبد الرحمن جامی، مردی صوفی، کارها دیده و شافعی مذهب بوده، تمام احوال و کمالات و حقیقت متولّد شدن و مخفی گشتن امام محمد بن حسن عسکری را مفصّل در کتاب شواهد النبوه تصنیف و خود، به وجه احسن از ائمّه اهل بیت عترت و ارباب سیرت، روایت کرده است.
صاحب کتاب مقصد اقصی می نویسد: حضرت شیخ سعد الدین حموی، خلیفه حضرت نجم الدین در حقّ امام مهدی، یک کتاب و دیگر چیزهای بسیار همراه او تصنیف نموده که دیگر برای هیچ آفریده در آن اقوال و تصرّفات ممکن نیست؛ چون او ظاهر شود، ولایت مطلقه آشکارا گردد و اختلاف مذاهب و ظلم و بدخویی برخیزد، چنان که اوصاف حمیده او در احادیث نبوی وارد شده که مهدی در آخر زمان آشکارا گردد، تمام ربع مسکون را از ظلم و جور پاک سازد و یک مذهب پدید آید.
اجمالا هرگاه دجّال بدکردار پیدا شده، بوده و زنده و مخفی هست و حضرت عیسی که به وجود آمده بود، مخفی از خلق است، پس اگر فرزند رسول خدا، امام محمد مهدی بن حسن عسکری هم، از نظر عوام پوشیده شده و مثل عیسی و دجّال، موافق تقدیر الهی، به وقت خود آشکارا گردد؛ جای تعجّب نیست. از اقوال چندین بزرگ و از فرموده ائمّه، اهل بیت رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم)، انکار نمودن از راه تعصّب چندان ضروری نیست.
[عبد الوهّاب شعرانی] 3 مسکه:
از ایشان شیخ عبد الوهّاب بن احمد بن علی الشعرانی است. عارف مشهور، صاحب تصانیف متداول، در کتاب یواقیت و جواهر(488) در عقاید اکابر، در مبحث شصت و ششم گفته:
این مبحث در بیان این است که جمیع علامات قیامت که شارع به آن خبر داده، حقّ و لابدّ است که همه آن ها پیش از برخاستن قیامت واقع شود. این، مثل خروج مهدی (علیه السلام)، آن گاه دجّال، آن گاه عیسی و خروج دابّه، طلوع آفتاب، برخاسته شدن قرآن و باز شدن سدّ یأجوج و مأجوج می باشد تا این که اگر از دنیا مگر یک روز نماند، هر آینه همه این ها واقع می شود.
شیخ تقی الدین بن ابی المنصور، در عقیده خود گفته: همه این ها در مائه اخیره واقع می شود از روزی که رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) به قول خود امّتش را به آن وعده کرده که اگر امّت من صالح شد، برای ایشان، روزی و اگر فاسد شد، برای ایشان، نصف روز، یعنی از ایّام پروردگار است که در قول خداوند عزّ و جلّ به آن اشاره شد: ﴿وَ إِنَّ یَوْماً عِنْدَ رَبِّکَ کَأَلْفِ سَنَهٍ مِمَّا تَعُدُّونَ﴾ (حج: 47).
یکی از عارفین گفته: اوّل هزار از وفات علی بن ابی طالب (علیه السلام) آخر خلفا محسوب می شود، زیرا این مدّت از جمله ایّام نبوّت رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) است. پس خدای تعالی به سبب خلفای اربعه، بلاد را هموار و آرام نمود. مراد از هزار، ان شاء الله تعالی، قوّت سلطان شریعت تا تمام شدن هزار است.
آن گاه در اضمحلال شروع می کند تا این که دین، غریب می گردد، چنان چه در ابتدا بود. اوّل این اضمحلال از گذشتن سی سال از قرن یازدهم می باشد؛ و در آن وقت، خروج مهدی را مترقّب است، او از فرزندان امام حسن عسکری (علیه السلام) و تولّدش شب نیمه شعبان، سنه دویست و پنجاه و پنج می باشد. او باقی است، تا این که با عیسی بن مریم مجتمع شود.
بنابراین عمر او تا زمان ما که سنه نهصد و پنجاه و هشت است، هفت صد و شش سال می باشد که شیخ حسن عراقی چنین مرا خبر داد، او بالای تپّه ریش مدفون است که مشرّف به برکه رطلی در مصر است، محروسه از امام مهدی (علیه السلام)، زمانی که با او مجتمع شد. سید من، علی خواصّ با او بر این دعوی موافقت کرده. قصّه ملاقات شیخ حسن عراقی در مسکه اولی از این عبقریّه مذکور شد.
[سید علی خواص] 4 مسکه:
از ایشان، سید علی خواصّ، استاد و ملاذ عبد الوهّاب شعرانی است که در لواقح و یواقیت(489) تصریح کرده: او در دعوای ملاقات با حضرت مهدی (علیه السلام) و مقدار عمر آن حضرت تا آن تاریخ، با شیخ حسن عراقی تصدیق کرده و در لواقح الانوار القدسیّه فی مدح العلماء و الصوفیّه گفته: یکی از ایشان، شیخ و استاد من، کامل راسخ، امّی محمدی، سید من، علی خواصّ برلسی، صاحب کشف هایی است که خطا نمی شود. او امّی بود، نمی نوشت و جز از لوح دل خویش نمی خواند و در معانی کتاب و سنّت به کلامی نفیس تکلّم می کرد، مطمح نظر او، لوح محفوظ از محو بود، چنان چه شیخ محمد بن داود مرا به آن خبر داد، بیست سال با او مصاحبت کردم و بر خطورات مردم مطّلع بود و بسیار می شد که برادرش را نزد او می فرستادم که با او در امور مشورت کنند.
پس در اوّل ملاقات با یکی از آن ها به او می گفت: سفر بکن یا نکن، تزویج بکن یا نکن، تا آخر آن چه از فضایل و کرامات گفته و در آخر کلام گفته: در جمادی الآخر سنه 939 وفات کرد و در زاویه شیخ برکات، بیرون باب نصر، مقابل حوض طیّار در مصر دفن شده است.
[خواجه محمد پارسا] 5 مسکه:
از ایشان، محمد بن محمود حافظ بخاری، معروف به خواجه محمد پارساست که در کتاب فصل الخطاب تصریح کرده، چنان چه عبارت او در آخر باب هفتم بیاید و در حاشیه آن کتاب که جناب مولوی میر حامد حسین - دام تأییده - آن را از نسخه معتبره ای بعد از ذکر خبر معتضد بالله عبّاسی نقل کرده؛ به نحوی که در باب آینده از کتاب شواهد النبوّه نقل کنیم؛ گفته:
اخبار در این باب بیشتر از آن است که احصا شود، مناقب مهدی رضی الله عنه صاحب الزّمان، غایب از اعیان، موجود در هرزمان، بسیار و اخبار در ظهور او، متظافر است. اشراق نور او، شریعت محمدیّه را تجدید می کند، در راه خداوند مجاهده می کند، حقّ مجاهده، بلاد او را از ادناس اقطار پاک می کند، زمان او، زمان متقیّن است، اصحاب او، از ریب خالص و از عیب سالم شده اند، هدایت و طریقه او را گرفتند و از حق، به سوی تحقیق او راه یافتند و خلافت و امامت به او ختم شده.
او از آن وقت که پدرش وفات کرده تا روز قیامت امام است، عیسی (علیه السلام)، خلف او نماز می کند و او را بر دعوایش تصدیق می کند و به سوی ملّت او می خواند که بر آن است و آن، ملّت نبی (صلّی الله علیه و آله و سلّم) است.
کفوی سابق الذکر در اعلام الاخیار من فقهاء مذهب النعمان المختار؛ گفته: محمد بن محمد بن محمود الحافظ البخاری، معروف به خواجه محمد پارسا، اعزّ خلفا، شیخ کبیر، خواجه بهاء الدین نقشبند از نسل حافظ الدین کبیر، تلمیذ شمس الأئمّه کرودی، سنه 757 متولّد شد، علوم را بر علمای عصر خود قرائت نمود، بر اقران دهر خود فائق شد، در فروع و اصول تحصیل نمود و در معقول و منقول بارع شد(490)...، الخ و از مصنّفات ملّا عبد الرحمن جامی شرح سخنان خواجه پارسا است.
ایضا؛ در کتاب فصل الخطاب(491) گفته: ابو عبد الله جعفر بن ابی الحسن علی الهادی (علیه السلام) چون گمان کرد برای برادرش ابی محمد حسن عسکری (علیه السلام) فرزندی نیست و ادّعا کرد برادرش، حسن عسکری (علیه السلام) امامت را در او قرار داده، کذّاب نامیده شد. عقب ولد جعفر بن علی، در علی بن جعفر و عقب این علی، در عبد الله و جعفر و اسماعیل است و محمد، فرزند ابو محمد حسن عسکری (علیه السلام) نزد خاصّه اصحاب و ثقات اهل او معلوم است.
آن گاه مختصری از حدیث حکیمه خاتون نقل کرده و در آخر آن گفته: حضرت عسکری (علیه السلام) فرمود: ای عمّه! این فرزند را نزد مادرش ببر، او را بردم و به مادرش برگرداندم.
حکیمه گفت: نزد ابی محمد حسن عسکری (علیه السلام) آمدم، آن مولود را دیدم که پیش روی او و جامه زردی بر او است. آن قدر بها و نور داشت که قلب مرا مأخوذ کرد.
گفتم: ای سید من! آیا در این مولود مبارک نزد شما علمی هست تا آن را به من القا فرمایی!
فرمود: ای عمّه! این است آن که باید انتظار او را داشت، این است آن که ما را به او بشارت دادند.
حکیمه گفت: بر این مژده برای شکر خداوند به سجده افتادم. گفت: آن گاه نزد ابی محمد حسن عسکری (علیه السلام) تردّد می کردم، پس او را نمی دیدم. روزی به او گفتم: ای مولای من با سید و منتظر ما چه کردی؟!
فرمود: او را به کسی سپردیم که مادر موسی، پسر خود را به او سپرد.
ابن عربی عربی مالکی، با آن همه نصب و عداوتی که با امامیّه دارد، حتی در مسامره خود می گوید: رجبیّون، جمعی از اهل ریاضت در ماه رجب اند که اکثر کشف ایشان این است که رافضیان را به صورت خوک می بینند.
در باب سی صد و شصت و شش از فتوحات خود می گوید: بدانید از خروج مهدی (علیه السلام) لابدّ است، لکن بیرون نمی آید تا آن که زمین از جور و ظلم پر شود، پس آن را از قسط و عدل پر می کند و اگر از دنیا، مگر یک روز نماند، خداوند آن روز را طولانی می کند تا آن که این خلیفه خلافت کند.
او از عترت رسول الله (صلّی الله علیه و آله و سلّم) از فرزندان فاطمه است، جدّ او، حسین بن علی بن ابی طالب (علیهما السلام) و والد او، حسن عسکری، پسر امام علی النّقی، پسر امام محمد تقی، پسر امام علی الرضا، پسر امام موسی الکاظم، پسر امام جعفر الصّادق، پسر امام محمد الباقر، پسر امام زین العابدین علی، پسر امام حسین، پسر علی بن ابی طالب است، تا آخر کلام که شرحی از اوصاف و حالات خروج آن جناب است.
[سید جمال الدین محدّث] 6 مسکه:
ایضا از ایشان، سید جمال الدین حسینی محدّث، مؤلّف کتاب روضه الاحباب، از کتب متداوله معروفه نزد اهل سنّت است. قاضی حسین دیار بکری، در اوّل تاریخ خمیس، آن را از کتب معتمده شمرده و در استقصا نقل کرده: ملّا علی قاری در مرقاه شرح مشکات و عبد الحقّ دهلوی در مدارج النبوّه و شرح رجال مشکات و شاه ولیّ الله دهلوی، والد شاه صاحب عبد العزیز، معروف در ازاله الخفا از آن کتاب، مکرّر نقل کنند و به آن، استدلال و احتجاج نمایند.
در آن کتاب مرقوم داشته: کلام در بیان امام دوازدهم مؤتمن، محمد بن الحسن، تولّد همایون آن درّ درج ولایت و جوهر معدن هدایت، به قول اکثر روایت، در منتصف شعبان سنه دویست و پنجاه و پنج در سامره اتّفاق افتاد و گفته شده در بیست و سوّم شهر رمضان سنه دویست و پنجاه و هشت.
و ما در آن عالی که امّ ولد بوده و مسمّا به صقیل یا سوسن، قیل: نرجس و قیل:
حکیمه است. آن امام ذوی الاحترام در کنیه و نام، با حضرت خیر الانام - علیه و اله تحف الصلوه و السّلام - موافقت دارد. مهدی منتظر و الخلف الصالح و صاحب الزمان در القاب او منتظم است. به روایت اوّل که به صحّت اقرب است، زمان پدر بزرگوار خود، پنج ساله و به قول ثانی، دو ساله بود.

حضرت واهب العطایا، آن شکوفه گلزار را مانند یحیی و زکریّا - سلام الله علیهما - در طفولیّت، حکمت کرامت فرمود و در وقت صبا، به مرتبه بلند امامت رسانید.
صاحب الزمان؛ یعنی مهدی دوران، در زمان معتمد خلیفه، سنه دویست و شصت و پنج یا شصت و شش، علی اختلاف القولین در سرداب سرّ من رای از نظر فرق برایا غایب شد.
بعد از ذکر کلماتی چند در اختلاف در حقّ آن جناب و بعضی روایات صریحه در آن که مهدی موعود، همان حجّه بن الحسن العسکری (علیهما السلام) است، گفته:
راقم حروف گوید: چون سخن بدین جا رسید، جواد خوش خرام، خامه ای طیّ بساط انبساط واجب، دید، رجای واثق و وثوق صادق که لیالی مهاجرت محبّان خاندان مصطفوی و ایّام مصابرت مخلصان، دودمان مرتضوی به نهایت رسد و آفتاب طلعت یا بهجت صاحب الزّمان علی اسرع الحال از مطلع نصرت و اقبال، طلوع نماید تا رایت هدایت آیت، آن مظهر انوار فضل و احسان، از مشرق مراد برآمده و غمام حجاب از چهره عالم تاب بگشاید.
به یمن اهتمام آن سرور عالی مقام، ارکان مبانی ملّت بیضا، مانند ایوان سپهر خضرا، سمت ارتفاع و استحکام گیرد و به حسن اجتهاد آن سید ذی الاحترام، قواعد بنیان ظلم ظلام، نشان در بسیط غبرا صفت انخفاض و انعدام پذیرد. اهل اسلام در ظلال اعلام ظفر اعلامش از تاب آفتاب حوادث، امان گیرند، خوارج شقاوت فرجام، از اصابت حسام خون آشامش، جزای اعمال خویش یافته و به قعر جهنّم شتابند و لله درّ من قال
بیا ای امام هدایت شعار * * * که بگذشت از حدّ غم انتظار
ز روی همایون بیفکن نقاب * * * عیان ساز رخسار چون آفتاب
برون آی از منزل اختفا * * * نمایان کن آثار مهر و وفا
این کلمات صریح است در این که چون امامیّه معتقد به وجود آن حضرت و غیبت و اختفای آن جناب و منتظر و مترقّب ظهور آن حضرت است و در حواشی کتاب استقصا عبارات علمای اهل سنّت را نقل کرده که از کتاب مذکور به نحو اعتماد نقل نموده اند و ذکر آن، موجب تطویل است.
نیز از رساله اصول عبد العزیز دهلوی، صاحب تحفه اثنا عشریّه معلوم می شود جمال الدین مذکور، از مشایخ اجازه او و او، سید جمال الدین عطاء الله بن سید غیاث الدین فضل الله بن سید عبد الرحمن است.
[ملک العلما، شهاب الدین دولت آبادی] 7 مسکه:
ایضا از ایشان، ملک العلما شهاب الدین بن شمس الدین بن عمر دولت آبادی، صاحب تفسیر بحر موّاج است که از عظمای اهل سنّت و به لقب ملک العلما، معروف و مشتهر است؛ در کتاب هدایه السعدا(492) گفته: اهل سنّت می گویند:
خلافت خلفای اربعه، فی عقیده الحافظیه به نصّ ثابت است که پیغمبر (صلّی الله علیه و آله و سلّم) فرمود: خلافت من، سی سال و آن به علی (علیه السلام) تمام شده است. هم چنین خلافت دوازده امام به حدیث ثابت است. از ایشان، اوّل؛ امام علی - کرّم الله وجهه - است و در خلافت او، حدیث «الخلافه ثلثون سنه» وارد است.
دوّم؛ امام شاه حسن رضی الله عنه.
پیغمبر (صلّی الله علیه و آله) فرمود: این پسر من، سید است، به زودی میان مسلمین صلح می دهد(493).
سوّم؛ امام شاه حسین رضی الله عنه.
حضرت فرمود: این پسر من، سید است، زود است که گروه باغیه او را می کشند. نه امام فرزندان شاه حسین رضی الله عنه اند که رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) فرمود: پس از حسین بن علی، نه امام اند که آخر ایشان، قائم است.
جابر بن عبد الله انصاری گفت: بر فاطمه دختر رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) داخل شدم؛ در پیش روی او الواحی بود که در آن، نام های امامان از فرزندان او بود، یازده اسم شمردم که آخر ایشان قائم (علیه السلام) بود(494).
سؤال: حکمت چیست که شاه زین العابدین، دعوی خلافت نکرد؟
جواب: هرگاه در وقت صحابه، عایشه و معاویه و زبیر و طلحه، فتوی بر خطا نوشتند و طایفه بغات با شاه علی حرب کردند و در وقت تابعین، شاه حسین را زار زار کشتند و هرگاه مصطفی (صلّی الله علیه و آله و سلّم) خبر داده بود، هزار ماه خاندان منهزم و مقهور و باغیان مظفّر و منصور شوند، چنان چه در خزانه جلالیّه آورده است:
مصطفی (صلّی الله علیه و آله و سلّم) در خواب دید که سگ بچّه گان در منبر برآمده، هفت هف و بف بف می کند و از آن تعبیر فرمود: فلان فلان یزیدیه، تغلّب کنند و در بر منابر خاندان لعنت فرمایند.
در روضه العلما می گوید: آیه ﴿خَیْرٌ مِنْ أَلْفِ شَهْرٍ﴾ (قدر: 3) آمد؛ جبرییل گفت: یا محمد! آن، هزار ماه است که ملک یزیدیان باشد و بر خاندان لعنت فرستند و آن روز، روز هزیمت خاندان بود.
سواران دین و پهلوانان دیانت، تیغ عزیمت و عنان اولویّت اختیار، به کمّ قضا و قدر انداختند و انگشتان رخصت به عجز در دهان ضرورات که تبیح المخذورات است، چون شاه زین العابدین برای خلاص جان خویش کردند تا امام مهدی، این نوع معاینه کردند، هر آینه از دعوای امامت، ساکت و صامت گشتند و چون وقت ظهور امام مهدی، سید محمد بن عبد الله، ابو القاسم شود، جانبازان خاندان، علم هزیمت برآرند و دمامه اولویّت برزنند و از تیغ اختیار، جملگی اغیار از دنیا اندازند، فیملاء الأرض قسطا و عدلا، کما ملئت جورا و ظالما. این نه فرزند:
اوّل؛ امام زین العابدین.
دوّم؛ امام محمد باقر.
سوّم؛ امام جعفر صادق.
چهارم؛ امام موسی کاظم.
پنجم؛ امام علی الرضا ابنه.
ششم؛ امام محمد تقی ابنه.
هفتم؛ امام علی النقی ابنه.
هشتم؛ امام حسن عسکری ابنه.
نهم؛ امام حجّه الله القائم، امام مهدی ابنه. او غایب و عمرش طویل است؛ چنان چه میان مؤمنان، عیسی و الیاس و خضر و میان کافران، دجّال و سامری و بلعم و شمر، قاتل شاه حسین و امثالهم است و الله اعلم بالصّواب.
محامد علّیه و مناقب سنّیه دولت آبادی مذکور از اخبار الاخیار عبد الحقّ دهلوی و سبحه المرجان فی آثار هندوستان غلامعلی آزاد بلگرامی ظاهر می شود، او قریب به عصر سلاطین صفویّه بوده و فاضل المعیّ میر محمد اشرف در فضایل السادات از هدایه السعدا که معروف به مناقب السادات است، مکرّر نقل می کند.
[قاضی جواد ساباطی] 8 مسکه:
از ایشان قاضی جواد ساباطی است که نصرانی بود و سنّی شد، در براهین ساباطیّه که ردّ بر نصارا است، قول او را که از کتاب اشعیا(495) نقل کرده: اند ذیر سل کم فورث ارا داوت آف ذی ستم اف جیی اندا بر نج شل کرداوت اف هزروقس اند ذی سیرت اف کوسل اند سبت ذی سبیرت اف نالج انداف ذی فیراب ذی لارداند شل سیک هم اکوک اندرستیذان ذی فیراب لارداند شل مات حج افترذی سیت اف هزا پس نیزر بروف افترذی پرنک اف هزیر یس.
زود است از قنس الأسی شاخه ای بیرون بیاید و از عروق او شاخه ای بروید. زود است روح ربّ؛ یعنی روح حکمت و معرفت، روح نوری و عدل، روح علم و خشیت خداوند بر او مستقرّ شود و او را صاحب فکر وقّاد و مستقیم در خشیت پروردگار می گرداند. پس از روی ظاهر و عجز و شنیدن حکم نمی کند و بعد از ابطال قول یهود و نصارا در تأویل این کلام گفته:
این نصّ صریح در مهدی (علیه السلام) است، زیرا مسلمین اجماع کردند که او رضی الله عنه به مجرّد سمع و ظاهر حکم نمی کند، بلکه جز باطل ملاحظه نمی کند و این برای احدی از انبیا و اوصیا اتّفاق نیفتاده تا این که می گوید: و مسلمین در مهدی اختلاف کردند. پس اصحاب ما از اهل سنّت و جماعت گفتند: او مردی از اولاد فاطمه (علیها السلام) است، اسم او، محمد و اسم پدر او، عبد الله و اسم مادر او، آمنه است و امامیّه گفتند:
بلکه او محمد بن حسن عسکری است که سنه دویست و پنجاه و پنج از جاریه حسن عسکری که نامش نرجس بوده، در سرّ من رای، زمان معتمد متولّد شد. آن گاه یک سال غایب شد، سپس ظاهر شد، آن گاه غایب شد و آن غیبت کبراست، بعد از آن برنمی گردد مگر وقتی که خدای تعالی خواهد.
چون قول ایشان برای تناول این نصّ اقرب است و غرض من نیز دفع از امّت محمد (صلّی الله علیه و آله و سلّم) با قطع نظر از تعصّب در مذهب می باشد؛ برای تو ذکر کردم مطابقه آن چه امامیّه آن را با این نصّ ادّعا می کنند، انتهی و این کتاب مدّت ها است طبع شده و صاحبش در عصر محقّق صاحب قوانین و صاحب ریاض - رضوان الله تعالی علیهما - بوده.
[محمد بن یوسف گنجی شافعی] 9 مسکه:
از ایشان، ابو عبد الله محمد بن یوسف گنجی شافعی است که کتابی مستقل، مشتمل بر بیست و چهار باب در آن نوشته، اخبار مسنده ای از کتب معتبره نقل نموده و به نحو اتمّ، مذهب امامیّه را اثبات کرده و شبهات اصحاب خود را ردّ نموده و در کشف الظنون(496) گفته:
کتاب بیان از اخبار صاحب الزّمان (علیه السلام)، از شیخ ابی عبد الله، محمد بن یوسف گنجی است که سنه 658 وفات کرده. نیز گفته: کفایه الطالب، از شیخ حافظ ابی عبد الله محمد بن یوسف گنجی شافعی در مناقب علی بن ابی طالب (علیه السلام) است(497).
در فصول المهمّه نیز از او به امام حافظ تعبیر کرده. در اصطلاح اهل حدیث، علمای اهل سنّت، به کسی حافظ گویند که علم او به صد هزار حدیث از روی متن و سند محیط باشد. نزد حقیر، نسخه کهنه ای از کفایه الطّالب است که در عصر مصنّف نوشته شده و پشت آن به خطّ بعضی از افاضل، مکتوب است:
کتاب کفایه الطّالب فی مناقب امیر المؤمنین (علیه السلام) أملاء سیدنا الشّیخ الأمام العالم العارف الحافظ المتبحّر، فخر الدین، شرف العلماء، قدوه الفقهاء، مفتی الفرق، فقیه الحرمین، محیی السّنه، قامع البدعه، رییس المذاهب، ابی عبد الله محمد بن یوسف بن محمد القرشی الکنجی الشّافعی جعل الله سعیه مرضیّا و أعلاه علی الأشباه و الأنظار، فلا یقال أیّ الفریقین خیر مقاما و أحسن ندیّا.
این ناچیز گوید: کتاب بیان(498)، مشتمل بر بیست و پنج باب است، باب بیست و پنجم در دلایل بر جواز بقای مهدی (عجّل الله فرجه) است و عبارت گنجی در آن باب، این است:
«فی الدّلاله علی جواز بقاء المهدیّ من غیبته و لا امتناع فی بقائه بدلیل بقاء عیسی و الیاس و الخضر من اولیاء الله و بقاء الدّجّال و ابلیس الملعونین من اعداء الله تعالی و هؤلاء قد ثبت بقائهم بالکتاب و السّنه و قد اتّفقوا علیه، ثمّ أنکروا جواز بقاء المهدی (عجّل الله فرجه)، انّما أنکروا بقاؤه من وجهین أحدهما طول الزّمان و الثّانی، أنّه فی سرداب من غیر أحد یقوم بطعامه و شرابه و هذا ممتنع عاده. قال مؤلّف الکتاب، محمّد بن یوسف بن محمد الکنجی الشّافعی: بعون الله نبتدء و ایّاه نستکفی و ما توفیقی إلّا بالله جلّ و عزّ».
پس از این، دلیل بقای عیسی و دجّال را ذکر نموده که آن ها حیّ و زنده اند و آخر الزمان، تابع حضرت مهدی خواهند شد.
[نور الدین علی بن محمد مالکی مکّی] 10 مسکه:
از ایشان، شیخ نور الدین علی بن محمد بن صبّاغ مالکی مکّی است که در کتاب فصول المهمّه فی معرفه الأئمّه(499)؛ شرحی وافی در احوال آن حضرت و اثبات امامت و مهدویّت حجّه بن الحسن العسکری (علیهما السلام) با ردّ شبهات واهیه عامّه، به نحو امامیّه نموده، او از اعیان علمای عامّه است و ضمن احوال حضرت عسکری (علیه السلام) گفته:
ابو محمد حسن رضی الله عنه، از فرزند پسر خود، حجّت قائم منتظر، برای دولت حقّه خلف گذاشت، مولد او را مخفی نمود و امر او را به جهت صعوبت امر، خوف سلطان، طلب کردن او شیعه را، حبس نمودن و گرفتن ایشان ستر کرد.
احمد بن عبد القادر عجیلی شافعی در ذخیره المئال در مسأله خنثی گفته: این مسأله در زمان ما در بلاد حیره واقع شد؛ بنابر آن چه سید من، علّامه نور بن خلف حیرتی مرا خبر داد و برای من ذکر نمود که خنثی به آن وصف با دو فرزند مرد که یکی از شکمش و دیگری از پشتش بود، ترکه بسیاری گذاشت و علمای این جهت در میراث متحیّر شدند و احکام ایشان مختلف شد تا این که گفته:
او بیرون رفت برای آن که از علمای مغرب، خصوصا علمای حرمین سؤال کند و بعد از اتّفاق در حکم او، به دو سال، حکم امیر المؤمنین (علیه السلام) را در کتاب فصول المهمّه در فضل ائمّه یافتم که تصنیف شیخ امام علی بن محمد، شهیر به ابن صبّاغ از علمای مالکیّه است و در اصطلاح محدّثین ایشان، استاد کامل را شیخ می گویند.
و عبد الله بن محمد مطیری مدنی شافعی مذهب، اشعری اعتقاد، نقش بندی طریقت، در خطبه کتاب ریاض الزّاهره فی فضل آل بیت النّبی و عترته الطّاهره گفته: در این کتاب جمع کردم آن چه بر آن مطّلع شدم از آن چه در این شأن وارد شده و علمای عاملین اعیان به نقل آن اعتنا نموده و بیش تر آن از فصول المهمّه از ابن صبّاغ مالکی و از جوهر شفّاف خطیب است...، الخ.
علمای ایشان از کتاب مذکور نقل می کنند و بر او اعتماد دارند؛ مثل نور الدین علی بن عبد الله سمهودی در جواهر العقدین، برهان الدین علی بن ابراهیم حلبی شافعی در انسان العیون فی سیره الأمین المأمون، معروف به سیره حلبیّه، عبد الرحمن بن سلم صفوری در نزهه المجالس، صاحب تفسیر شاهی، فاضل رشید و جمله ای از علمای هند، که آیه الله، وحید عصره، جناب مولوی میرحامد حسین معاصر - دام تأییده - در مجلد ششم عبقات الانوار، عین عبارات ایشان را نقل فرموده که به جهت خوف تطویل به این مقدار مذکور در آن جا قناعت کردیم.
نیز در مجلد اوّل استقصاء الافحام از کتاب ضوء لامع فی احوال علماء القرن التاسع، تصنیف نظیف شمس الدین محمد بن عبد الرحمن سخاوی مصری، تلمیذ رشید ابن حجر عسقلانی، صاحب فتح الباری، در شرح بخاری نقل فرموده که او در ترجمه صاحب فصول المهمّه گفته: علی بن محمد بن احمد بن عبد الله نور الدین اسفافسی غزّی الأصل مکّی مالکی که به ابن صبّاغ معروف است، در عشر اوّل ذی الحجه سنه 784 در مکّه متولّد شد، در آن جا نشو نمود و قرآن و رساله در فقه و الفیه ابن مالک را حفظ نمود؛ تا آن که اجازه جماعتی از علما را برای او نقل کرده و گفته برای او مؤلّفاتی است.
یکی از آن ها فصول المهمّه، برای معرفت ائمّه می باشد و ایشان دوازده نفراند و عبر فی من سفر النّظر و مرا اجازه داده و در هفتم ذی القعده سنه 885 وفات کرده، انتهی.
[شیخ ابراهیم قادری حلبی] 11 مسکه:
از جمله ایشان بعض از مشایخ، شیخ ابراهیم قادری حلبی است، چنان که صاحب ینابیع المودّه(500) در کتاب مذکور گفته: در سال هزار و دویست و هفتاد و سه از هجرت، شیخ عبد اللطیف حلبی برای من گفت که پدر من شیخ ابراهیم گفت: از بعضی مشایخ خود از اهل مصر شنیدم که می گفتند: با امام مهدی (علیه السلام) بیعت نمودیم و این خود، اقرار صریح به وجود فعلی و حیات کنونی آن حضرت است، کما لا یخفی.
در ینابیع گفته: شیخ ابراهیم در طریقه قادریّه و از بزرگان حلب شهبای محروسه بود نفعنا الله من فیضه، انتهی.
از جمله ایشان، شیخ عامر صوفی بصری است که متوطّن در سواین روم بوده، او صاحب قصیده تائیّه طویله است که نام آن قصیده، ذات الأنوار می باشد و آن را در مقابل قصیده تائیّه ابن فارض المغربی الاندلسی، انشا نموده، چنان که شیخ عامر مذکور در اواخر قصیده اش، بعد از این که شطری وافر از فضایل آن قصیده ذکر کرده، گفته:
- عربیّه:
أتت تتهادی کالمهی بملاحه * * * عراقیّه بصریّه عامریّه
لهازیّ مسکین لضعف معینها * * * علی أنّها سلطان کل قصیده
و بکر اتت لا فارض بدر علمها * * * إذا ما بدی أخفی سهی الفارضیّه
این قصیده شیخ عامر در معارف، اسرار، حکم و آداب و مشتمل بر دوازده نور است، در نور نهم که در بیان شناختن صاحب الوقت، ذات خودش را هنگام ظهور است، گفته:
إمام الهدی حتّی متی أنت غائب * * * فمنّ علینا یا أبانا باوبه
ترائت لنا رایات جیشک قادما * * * فعاجت لنا منها روائح مسکه
و بشّرت الدّنیا بذلک فاغتدت * * * مباسمها مفتّره عن مسرّه
مللنا و طال الأنتظار فجد لنا * * * بربّک یا قطب الوجود بلقیه
فعجّل لنا حتّی نراک فلذّه * * * المحبّ لقا محبوبه بعد غیبه
زرعت بزور العلم فی حرّبره * * * فجائت کما تهوی بانبع حضره
و ریّع منها کلّما کان راکیا * * * فقد عطشت فامدد قواها بسقیه
و لم یروها الّا لقاک فجد به * * * و لو شربت ماء الفرات و دجله
بدیهی است شعر اوّل از این اشعار اقرار صریح به وجود فعلی و حیات کنونی آن حضرت (عجّل الله فرجه) است.
از جمله ایشان، شیخ عارف مشهور صدر الدین قونوی است، چنان که در ینابیع المودّه(501) از او نقل نموده: شیخ مذکور - قدّس الله سرّه و افاض علینا فیوضه و علومه - در شأن مهدی موعود این اشعار را انشا نموده:
شعرا یقوم بامر الله فی الأرض ظاهرا * * * علی رغم شیطانین یمتحق الکفر
یؤیّد شرع المصطفی و هو ختمه * * * و یمتد من میم باحکامها یدری
و مدّته میقات موسی و جنده * * * خیار الوری فی الوقت یخلوا عن الحصر
علی یده محق اللئام جمیعهم * * * بسیف قویّ المتن علّک أن تدری
حقیقه ذاک السّیف و القائم الّذی * * * تعیّن للدّین القویم علی الأمر
لعمری هو الفرد الّذی بأنّ سرّه * * * بکلّ زمان فی مطاویه لیسری
تسمّی باسماء المراتب کلّها * * * خفاء و اعلانا کذلک إلی الحشر
ألیس هو النّور الأتمّ حقیقه * * * و نقطه میم منه امدادها یجری
یفیض علی الأکوان ما قد افاضه * * * علیه اله العرش فی ازل الدّهر
فما ثم إلّا المیم لا شیء غیره * * * و ذو العین من نوابه مفرد العصر
هو الروح فاعلمه و خذ عهده إذا * * * بلغت إلی مدّ مدید من العمر
کانّک بالمذکور تصعد راقیا * * * إلی ذروه المجد الأیثل علی القدر
و ما قدره إلّا الوف بحکمه * * * علی حدّ مرسوم الشّریعه بالأمر
بذا قال أهل الحلّ و العقد فاکتفی * * * بنصّهم المبثوث فی الصّحف الزّبر
فإن تبغ میقات الظّهور فإنّه * * * یکون بدور جامع مطلع الفجر
بشمس تمدّ الکلّ من ضوء نورها * * * و جمع دراری الأوج فیها مع البدر
و صلّ علی المختار من آل هاشم * * * محمّد المبعوث بالنّهی و الأمر
علیه صلوه الله ما لاح بارق * * * و ما اشرقت شمس الغزاله فی الظّهر
و آل و اصحاب اولی الجود و التّقی * * * صلوه و تسلیما تدومان للحشر
صاحب ینابیع بعد از نقل این اشعار گفته: به تحقیق شیخ صدر الدین هنگام ارتحالش از دنیا به تلامیذ و شاگردان خود گفت: کتب طبّ و حکمت و کتب فلاسفه مرا بفروشید و ثمن آن ها را به فقرا صدقه دهید، اما کتب تفاسیر و احادیث و تصوّف مرا در کتابخانه ام حفظ نمایید.
بعد از فوت من، کلمه (لا إله إلّا الله) که به کلمه توحید معروف است؛ شب اوّل فوت من هفتاد هزار مرتبه با حضور قلب بخوانید و سلام مرا به مهدی (علیه السلام) برسانید.
مؤیّد این است آن چه سید حیدر آملی در جامع الاسرار از شیخ قونوی نقل نموده که شیخ مذکور گفته: جمله ای از کتب و رسایل خود را به مهدی صاحب الزمان (عجّل الله فرجه الشریف) عرضه داشته و آن ها را به مطالعه آن حضرت رساندم.
بدیهی است این عبارات، صریح در تصدیق وجود فعلی و حیات کنونی آن حضرت است، کما لا یخفی. سید حیدر مذکور با شیخ صدر الدین قریب العصر بوده و غالبا معاصر، از معاصر و قریب به عصر خود، بی خبر نیست.
[دیگر از علما] 12 مسکه:
از جمله ایشان، جماعتی از اهل کشف و شهود است، چنان که ابو بکر بیهقی در کتاب شعب الایمان گفته: مردم در امر مهدی (عجّل الله فرجه) اختلاف نموده اند، پس جماعتی توقّف نموده و علم به آن را، به سوی عالم آن حواله داده اند و معتقدند او یکی از اولاد فاطمه، دختر رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) است که خداوند، هر وقت بخواهد او را خلق و برای نصرت دین خود مبعوث می کند.
طایفه ای می گویند: مهدی موعود، روز جمعه، نیمه ماه شعبان سال دویست و پنجاه و پنج متولّد شده و او امام ملقّب به حجّت، قائم، منتظر و محمد بن الحسن العسکری است.
این که جنابش در سرّ من رای داخل سرداب شده و او زنده و مختفی از چشم مردمان است، خروج او انتظار برده می شود، زود است که ظاهر می شود و زمین را پر از عدل و داد می کند، چنان که از ظلم و جور پر شده باشد و امتناعی از طول عمر آن سرور نیست؛ مثل عیسی بن مریم و خضر (علیهما السلام) و طایفه ای که به این قول قایل اند، طایفه شیعه، خصوصا فرقه امامیّه اثنا عشریّه از ایشان اند و در این قول با شیعه امامیّه موافقت نموده اند و معتقد جماعتی از اهل کشف.
در کشف الاستار، بعد از نقل این کلام بیهقی، می فرماید: ظاهر آن است که مراد از این جماعت از اهل کشف؛ مثل حلّاج، جنید، ابو الحسن ورّاق، ابو بکر شبلی، ابو علی رودباری، سهل شوشتری و امثال ایشان است، نه مثل محیی الدین عربی و امثال او، زیرا طبقه ابو بکر بیهقی، ناقل این قول، مقدّم بر محیی الدین و مناسب با طبقه حلّاج و جنید و نحو آن ها است، چنان که ابن خلّکان گفته: «قال امام الحرمین: ما من شافعی المذهب الّا و للشّافعی علیه منّه إلّا احمد البیهقی، فإنّ له علی الشّافعی منّه».
پس از آن گفته: وفات بیهقی در سال چهار صد و پنجاه و هشت واقع شد و محیی الدین و امثال آن از اهل کشف بین شش صد و هفت صد بعد از هجرت بوده اند.
اشارات فیها بشارات الاولی؛ آن که ملّا علی اکبر مودودی که مقالاتش در مسکه اوّل این عبقریّه ضمن مقالات شیخ حسن عراقی نقل شد، یکی از قایلین به وجود فعلی و حیات کنونی حضرت بقیّه الله است، چنان که قطب المدار هم که احوال آن در مسکه دوّم این عبقریّه در مقدّمه مقالات شیخ عبد الرحمن صوفی ذکر شد، یکی از قایلین به تولّد و حیات فعلی آن حضرت است، کما لا یخفی علی المراجع.
إشاره ثانیه؛ می توان گفت: کسانی که از علمای عامّه، در عباراتشان، درباره آن حضرت، له غیبتان، ذکرشده؛ به وجود فعلی آن سرور قایل اند، زیرا غیبت، فرع بر وجود اوّلیّه شی است که غایب شده و پس از آن ظاهر شود، چنان که آنانی که در عباراتشان، درباره جنابش، یرجع إلی النّاس، ذکر شده و یا روایتی نقل نموده اند که این عبارت در او است و او را صحیح دانسته و به او اعتماد نموده اند و لو این که روایتش از خاصّه و صادره از ائمّه شیعه باشد هم، به وجود فعلی و حیات کنونی آن حضرت قایل اند، چنان که ابو البدر یوسف بن یحیی السّلمی در باب سوّم عقد الدور(502) که در احوال امام منتظر است، به اسناد خود از حضرت ابی عبد الله الحسین روایت نموده:
أنّه لو قام المهدیّ لأنکره النّاس لأنّه یرجع إلیهم شابا موفّقا و أنّ من أعظم البلیّه أن یخرج إلیهم و هم یظنّون کبیرا.
ظاهر این عبارت، آن است که آن بزرگوار، اوّل میان مردم بوده، پس از آن، مختفی شده و پس از اختفا، ظاهر می شود و رجوع می کند، چه آن که معنای رجوع جز این نیست که سابقه بود و وجودی برای شی باشد که به سوی آن بازگشت کند، چنان که شیخ شهاب الدین سهروردی مقتول، در رساله ای که مسمّا بالکلمات الذّوقیه و النّکات الشّوقیه است، گفته: فایده تجرید، سرعت عود به سوی وطن اصلی و اتّصال به عالم عقلی و معنی است.
قوله (صلّی الله علیه و آله) که فرموده: حبّ الوطن من الأیمان، اشاره به سوی این معنی است. هم چنین آیه مبارکه: ﴿یا أَیَّتُهَا النَّفْسُ الْمُطْمَئِنَّهُ * ارْجِعِی إِلی رَبِّکِ راضِیَهً مَرْضِیَّهً﴾ (فجر: 28-27)، ناظر به سوی این مطلب است، زیرا رجوع، مقتضی سابقه حضور است.
پس برای کسی که شهری را نرفته و بلدی را ندیده، وقتی که وارد آن جا شود، گفته نمی شود: به آن بلد رجوع نمود، زیرا رجوع وقتی صادق آید که او سابق در آن بلد بوده، از آن بیرون رفته و پس از برهه ای از زمان، داخل آن گردد.
اشاره ثالثه؛ آن که اگرچه محیی الدین عربی را در عبقریّه سابق از جمله کسانی که قایل به تولّد آن حضرت اند ذکر نمودیم، لکن بعدا به عبارت دیگر واقف شدم که از فتوحات نقل شده و در این صریح است که او به وجود فعلی و حیات کنونی آن بزرگوار قایل است، چنان که در کشف الاستار است:
«قال فی الفتوحات: و قد ظهر؛ یعنی المهدی فی القرن الرابع اللّاحق بالقرون الثّلاثه الماضیه، قرن رسول الله و هو قرن الصّحابه، ثمّ الذّی یلیه، ثمّ الّذی یلی الثّانی، ثمّ جاء بینهما فترات و حدثت امور و انتشرت اهواء و سفکت الدّماء، فاختفی إلی أن یجیء الوقت الموعود إلی آخر الخبر، انتهی».

عبقریّه هشتم [اخبار عامّه در اثبات حجّه بن الحسن (علیه السلام)]

در بیان اخبار وارده از طرق روات عامّه و مذکوره در کتب معتبره از اهل سنّت و جماعت که دلالت صریح دارند بر این که حضرت مهدی موعودی که حضرت رسول و سایر اهل بیت معصومین آن بزرگوار از ظهور و خروج آن در آخر الزّمان خبر داده اند، همان قائم منتظر و حجّه الله علی کافه البشر. (م ح م د) بن الحسن العسکری - صلوات الله علیه و علی آبائه - است.
این مطلب اگر چه در عبقریّه ششم و هفتم این بساط از کلمات منقول آن ها - کالنّور علی الطور - هویدا و آشکار گردید، لکن از نقل چند خبر از اخبار وارده از طرق ایشان، در ضمن چند مسکه، تأکیدا للدّعوی و تشییدا للمدّعی و اتماما للحجّه و ایضاحا للحجّه، چاره و بدّی است و در نقل آن ها اکتفا می نماییم به آن چه استادنا المحدّث النّوری - زاد الله فی انوار تربته - در کتاب نجم ثاقب از کتب آنان نقل فرموده، پس شروع نموده، می گوییم:
[روایت ابو سلیمان شبان رسول خدا (صلی الله علیه و آله)] 1 مسکه:
بدان اخطب خطبای خوارزم، ابو المؤیّد موفّق بن احمد مکّی در مناقب(503) خود و به اسناد خود از ابی سلیمان، شبان رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) روایت کرده، گفت: شنیدم رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) می فرمود: شبی که مرا به آسمان بردند، جلیل جلاله به من فرمود: «آمن الرسول بما انزل إلیه من ربّه.» گفتم: و المؤمنون!
فرمود: ای محمد راست گفتی! و فرمود: چه کسی را در امّت خلیفه خود کردی؟!
گفتم: بهترین ایشان را.
فرمود: علی بن ابی طالب؟!
گفتم: آری.
فرمود: ای محمد! به نظر علمی خود در زمین نگریستم، نگریستنی، پس، از آن تو را برگزیدم و نامی از نام های خود برای تو جدا کردم، در موضعی ذکر نمی شوم مگر آن که تو با من ذکر می شوی، منم محمود و تویی محمد. آن گاه در رتبه دوّم نگریستم، پس از آن علی را برگزیدم و اسمی از اسم های خود برای او جدا کردم، پس منم اعلی و او علی است.
ای محمد! به درستی که تو و علی را خلق کردم و فاطمه و حسن و حسین و امامان فرزندان او را از نور خود خلق کردم و ولایت شما را بر اهل آسمان ها و زمین ها عرضه داشتم؛ هرکه آن را نزد من قبول نمود، از مؤمنین و هرآن که آن را نزد من انکار کرد، از کافرین است.
ای محمد! اگر بنده ای از بندگان من، مرا پرستش کند تا آن که از هم جدا شود؛ یعنی اعضایش متلاشی گردد یا چون خیک کهنه مندرس شود، آن گاه با انکار ولایت شما نزد من آید، او را نمی آمرزم تا آن که به ولایت شما اقرار نماید.
ای محمد! آیا دوست داری ایشان را ببینی.
گفتم: آری، ای پروردگار من!
فرمود: به طرف راست عرش متوجّه شو. ملتفت شدم. دیدم علی، فاطمه، حسن، حسین، علی بن الحسین، محمد بن علی، جعفر بن محمد، موسی بن جعفر، علی بن موسی، محمد بن علی، علی بن محمد، حسن بن علی، مهدی - صلوات الله علیهم - را در آب تنکی از نور که ایستاده، نماز می کنند و او؛ یعنی مهدی وسط ایشان است، چنان که گویی ستاره ای درخشان است.
فرمود: ای محمد! اینان حجّت های من هستند و او؛ یعنی مهدی، دادخواه عترت تو است. به عزّت و جلال خود قسم! به درستی که او حجّت واحیه برای اولیای من و انتقام کشنده از دشمنان من است.
در نجم ثاقب است که مؤلّف گوید: این خبر شریف را ابن شاذان در مناقب مأه(504) به همان سند خوارزمی و نیز ابن عیّاشی در مقتضب الاثر(505) به همان سند نقل کرده اند که تمام آن از روات ایشان است و در نسخه مناقب خوارزمی و مناقب مأه که نزد حقیر است.
نیز میر لوحی آن را در کفایه المهتدی(506) با سند، ابو سلیمان، راعی حضرت و در مقتضب و غیبت شیخ طوسی، ابو سلمی نقل کرده و ظاهرا همین صحیح باشد، چنان چه ابن اثیر جرزی در اسد الغابه(507) در باب کنی، می گوید: ابو سلمی، راعی رسول الله (صلّی الله علیه و آله و سلّم)، بعضی گفتند: اسم او، حریث و کوفی است و بعضی گفتند: شامی است.
ابو سلام اسود و ابو معمّر عباد بن عبد الصمد از او روایت کرده تا آخر آن چه گفته و از استیعاب و ابو نعیم و ابی موسی نقل کرده و تصریح کرده سین آن مضموم است. راوی همین خبر شریف از او، ابو سلام است که او را از روات ابو سلمی شمرده.
[روایت امام علی (علیه السلام)] 2 مسکه:
نیز در آن جا به سند خود از علی بن ابی طالب نقل کرده، گفت: رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) فرمود:
من پیش از شما بر حوض وارد می شوم، یا علی! تو ساقی حوضی، حسن دور می کند؛ یعنی آنان را که نباید از آن بنوشند، حسین، امرکننده و علی بن الحسین، فارط است؛ یعنی کسی که پیش رود تا اسباب گرفتن و دادن را مهیّا نماید، محمد بن علی، ناشر است که خلق را از قبور برانگیزاند، جعفر بن محمد، ایشان را براند، موسی بن جعفر، محصی مؤمنین و مبغضین و قامع منافقین است، علی بن موسی الرضا، زینت دهنده مؤمنین است، محمد بن علی، اهل بهشت را در جایشان جای دهد، علی بن محمد، خطیب شیعه و تزویج کننده ایشان به حور العین و حسن بن علی (علیهما السلام)، چراغ اهل بهشت است که به نور او استضائه کنند و مهدی، شفیع ایشان در روز قیامت است در آن جا که خداوند اذن ندهد مگر آن را که بخواهد و بپسندد(508).
ابن شاذان در مناقب مأه(509) به همان سند خوارزمی نقل کرده، نیز ابراهیم بن محمد حموینی شیخ الاسلام در فرائد السمطین، مسندا روایت کرده و ابو عبد الله احمد بن محمد بن عیاش در مقتضب الاثر(510) از ابو الحسن ثوابه بن احمد موصلی ورّاق حافظ، از علمای عامّه به سند خود از ابی جعفر محمد بن علی (علیهما السلام) از سالم بن عبد الله بن عمر روایت کرده، گفت: رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) فرمود: به درستی که خداوند در شبی که مرا به معراج برد، به من وحی کرد تا آخر آن چه مختصرا در باب خصایص گذشت.
ابو عبد الله بن عیّاش بعد از ذکر خبر گفته: من پیش از نوشتن این حدیث از ثوابه موصلی، آن را در نسخه وکیع بن جرّاح و در اصل کتاب او دیدم و از او سؤال کردم مرا به آن حدیث کند؛ یعنی آن را برای من بخواند یا من آن را بر او بخوانم و او گوش دهد و یا اجازه دهد بتوانم به نحو روایت از او نقل کنم، پس امتناع کرد و گفت: تو را به جهت عداوت و نصب، به این حدیث، حدیث نمی کنم و مرا به غیر آن از سایر احادیث آن نسخه حدیث کرد و از فروع کتابی که در آن احادیث وکیع بن جرّاح را جمع نموده بود.
آن گاه مرا به آن خبر حدیث کرد، پس از آن، ثوابه و روابه بن عتاب اعلی بود، اگر مرا به آن حدیث می کرد.
مؤلّف گوید: تأمّل شود که چه مقدار اهتمام و دقّت در نقل اخبار داشتند، خصوصا در مقامی که طرف اهل سنّت باشند که با دیدن خبر در کتاب وکیع، چون اذن نداشت، نقل نکرد. این قسم نقل خبر در آن عصر، اسباب ضعف و بی اعتباری بود که آن را وجاده می گویند، نیز تأسّف می خورد؛ سند وکیع که اعلی بود، از دستش رفت؛ یعنی واسطه آن کمتر بود و از این جهت، قوّت خبر بیشتر است.
وکیع مذکور که این خبر شریف در کتاب او با سند موجود است، از معروفین علما می باشد و او، وکیع بن جرّاح بن ملیح بن عدی، تا آخر نسب که به عامر بن صعصعه رواسی می رسد، در عبقات الانوار از کتاب ثقات محمد بن حیّان بستی - که او حافظ متقن بود - نقل فرموده.
فیّاض بن زهیر می گفت: هرگز کتاب در دست وکیع ندیدیم، کتاب خود را از حفظ می خواند. او در سنه یک صد و نود و هفت وفات کرد(511).
نووی نیز در تهذیب الاسماء، بعد از ذکر مشایخ او، مانند اعمش، سفیان، اوزاعی و امثال آن ها و روات از او، مانند ابن حنبل، ابن راهویه، حمیدی، ابن مبارک، ابن معین، ابن مداینی و نظایر ایشان از اعیان محدّثین گفته و بر جلالت، وفور علم، حفظ، اتقان، ورع، صلاح، عبادت، توثیق و اعتماد او اجماع کردند.
احمد حنبل گفت: کسی را داراتر برای علوم و احفظ از وکیع ندیدم و ابن عمّار گفت: در زمان وکیع کسی در کوفه نبود که افقه و اعلم از او به حدیث باشد و غیر این ها از مدایح و مناقب که اهل رجال در حقّ او ثبت نمودند و الله اعلم بالحال.
[روایت مقتضب از امام حسین (علیه السلام)] 3 مسکه:
ایضا ابو عبد الله احمد بن عیّاش در مقتضب(512) به اسناد خود از وکیع بن جرّاح مذکور از ربیع بن سعد از عبد الرحمن بن ساویط گفت: حسین بن علی (علیهما السلام) فرمود: از ما دوازده مهدی است؛
اوّل ایشان، امیر المؤمنین، علی بن ابی طالب و آخر ایشان، نهم از فرزندان من است.
او قائم به حقّی است که خداوند به وسیله او، زمین را بعد از مردنش، زنده و به او، دین را بر همه دین ها غالب کند؛ هرچند مشرکین برای او کاره باشد، غیبتی است که در آن جمعی دیگر برگردند. به درستی که صابر بر آزار و تکذیب در غیبت او به منزله مجاهد با شمشیر پیشروی رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) است.
نیز در آن جا(513) از عبد الرحمن بن صالح بن رعیده از حسین بن حمید بن ربیع از اعمش از محمد بن خلف طاهری از زاذان از سلمان روایت کرده، گفت: روزی بر رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) داخل شدم، چون به من نظر کرد، فرمود: ای سلمان! به درستی که خداوند عزّ و جلّ پیغمبری و رسولی را مبعوث نکرد، مگر آن که برای او دوازده نقیب قرار داد.
گفت: گفتم: یا رسول الله! به تحقیق این را از اهل کتابین شناخته ام.
فرمود: ای سلمان! آیا دوازده نقیب مرا شناختی که خداوند ایشان را برای امامت بعد از من برگزید؟
گفتم: خدا و رسول او داناترند. پس حضرت مبدأ خلقت خود، علی، فاطمه، حسن، حسین، و نه امام - صلوات الله علیهم - و فضل معرفت ایشان را ذکر فرمود تا آن که سلمان گفت: گفتم: یا رسول الله! آیا ایمان به ایشان، بدون معرفت نام و نسب های ایشان می شود؟
فرمود: نه ای سلمان!
گفتم: یا رسول الله! معرفت جناب ایشان برای من کجا خواهد بود؟
فرمود: تا حسین را شناختی، آن گاه سید العابدین، علی بن الحسین، آن گاه فرزند او محمد بن علی باقر؛ یعنی شکافنده علم اوّلین و آخرین از نبیّین و مرسلین، سپس جعفر بن محمد، لسان صادق خداوند، بعد از آن، موسی بن جعفر؛ کظم کننده غیظ خود با صبر در راه خداوند، آن گاه علی بن موسی؛ راضی به امر خداوند، پس از آن، محمد بن علی جواد، برگزیده از خلق خداوند، آن گاه علی بن محمد هادی، به سوی خداوند، سپس حسن بن علی، صامت امین، آن گاه فلان و نام او را به نامش پسر حسن، مهدی ناطق، قائم به حقّ خداوند برد و در بعضی نسخ، صامت امین عسکری، آن گاه حجّه بن الحسن المهدی...، تا آخر حدیث که طول دارد.
ابن عیّاش بعد از ذکر تمام خبر گفته: از ابو بکر محمد بن عمر جعابی حافظ حال محمد بن خلف طاهری را سؤال کردم.
گفت: او محمد بن خلف بن موهب طاطری، ثقه و مأمون است. طاطر، ساحلی از ساحل های دریا است که در آن جا جام ها می بافند و آن را طاطریّه می گویند که منسوب آن جاست. از این کلام معلوم می شود باقی رجال سند، از ثقات معروفین نزد اهل سنّت اند.
نیز از ابو محمد عبد الله بن اسحاق بن عبد العزیز خراسانی معدّل از رجال اهل سنّت، از شهر بن حوشب؛ از سلمان فارسی روایت کرده؛ گفت: با رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) بودیم و حسین بن علی (علیهما السلام) بر زانوی آن جناب بود که ناگاه حضرت به تأمّل در رخسار او نگریست و فرمود: ای ابو عبد الله! تو سیّدی از سادات، امامی از امامان، پدر نه امام، که نهم ایشان، قائم ایشان است و امام اعلم احکم افضل هستی(514).
نیز از محمد بن عثمان بن محمد صیدانی و غیر او به طریق معتبر از جابر بن عبد الله انصاری روایت کرده؛ گفت: رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) فرمود: به درستی که خدای تعالی از روزها، روز جمعه، از شب ها، شب قدر و از ماه ها، ماه رمضان را برگزید و من و علی را برگزید و از علی، حسن و حسین و از حسین، حجّت گمراهان را برگزید که نهم ایشان، قائم، اعلم و احکم ایشان است(515).
نیز خبری طولانی از ابو الحسن محمد بن احمد بن عبید الله بن احمد بن عیسی منصوری هاشمی به سند ایشان روایت کرده که در عهد عبد الله بن زبیر، مکتوبی قدیم در بنیان کعبه یافت شد که در آن حالات و صفات رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) و یک یک ائمّه به اسم و وصف ثبت بود. آن چه متعلّق به حضرت مهدی (علیه السلام) بود در باب القاب در لقب شانزدهم ذکر نمودیم(516).
[روایت امّ سلیم صاحب حصاه] 4 مسکه:
نیز در آن جا، خبر شریف عجیبی روایت کرده که برای این مقام کافی است، گفت:
در عداد آن چه اهل سنّت روایت کردند و خبری که آن را امّ سلیم، صاحب حصاه، یعنی سنگریزه روایت کرده. او حبّابه و البیّه و امّ غانم نیست که هردو صاحب حصات اند.
این امّ سلیم، غیر ایشان و اقدم از ایشان است از طریق عامّه، ابو صالح سهل بن محمد طرسوسی قاضی مرا خبر داد که سنه سی صد و چهل بر ما وارد شد، گفت: ابو فروه زید بن محمد رهاوی مرا خبر داد، گفت: عمّار بن مطر مرا خبر داد، گفت: ابو عرانه از خالد بن علقمه از عبیده بن عمرو سلمانی خبر داد، گفت: شنیدم عبد الله بن خبّاب بن الارّت، کشته شده خوارج، می گفت: سلمان فارسی و براء بن عازب مرا خبر دادند که هردو از امّ سلیم روایت کردند، آن گاه سندی از طریق خاصّه تا سلمان و براء ذکر نمود و گفت:
میان این دو حدیث در الفاظ اختلاف است لکن در عدد دوازده خلافی نیست ولی من به نحوی ذکر می کنم که عامّه ذکر کردند.
به جهت شرطی که در این کتاب کردم.
امّ سلیم گفت: من زنی بودم که تورات و انجیل خوانده و اوصیای پیغمبران را شناخته بودم و دوست داشتم وصیّ محمد (صلّی الله علیه و آله و سلّم) را بدانم، شتر سواری خود را در شتران قبیله جا گذاشتم. پس به آن جناب گفتم: یا رسول الله! هیچ پیغمبری نبود مگر آن که برای او دو خلیفه بود؛ خلیفه ای که در حیات او وفات می کرد و خلیفه ای که بعد از او باقی بود.
خلیفه موسی در حیاتش هارون بود و پیش از موسی وفات کرد؛ وصیّ او بعد از وفاتش، یوشع بن نون بود. وصیّ عیسی در حیاتش کالب بن یوقنّا بود، پس در حیات عیسی وفات کرد و وصیّ بعد از وفات او؛ یعنی از زمین، شمعون بن حمّون صفا، پسر عمّه مریم بود.
به تحقیق در نظر کردم، برای تو جز یک وصی در حیاتت نیافتم. یا رسول الله! به تفسیر خودت برای من بیان کن بعد از وفات تو وصیّ ات کیست؟
رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) فرمود: به درستی که در حیات من و بعد از وفاتم یک وصیّ برای من است.
گفتم: او کیست؟
فرمود: سنگریزه ای بیاور. از زمین سنگریزه ای برای او برداشتم. آن را میان دو کف خود گذاشت، آن را به دست خود مالید تا چون آرد نرمی شد، آن گاه آن را خمیر کرد، یاقوت سرخی گرداند و به خاتم خود مهر کرد که نقش در آن برای نظرکنندگان ظاهر بود.
آن گاه آن را به من عطا کرد و فرمود: ای امّ سلیم! هرکس توانست مانند این بکند، وصیّ من است. سپس فرمود: ای امّ سلیم! وصیّ من کسی است که به نفس خود در جمیع حالاتش مستغنی باشد؛ چنان چه من مستغنی ام.
پس به سوی رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) نظر کردم که دست راستش را به سوی سقف و دست چپش را به سوی زمین زده است، حال آن که خود را از طرف دو قدم مبارک، بلند ننموده، گفت: بیرون آمدم. سلمان را دیدم که به علی (علیه السلام) چسبیده و به او نه به غیر او از خویشان محمد (صلّی الله علیه و آله و سلّم) پناه برده، و نیز اصحاب او، با کمی سنّ آن جناب.
در نفس خود گفتم؛ این سلمان صاحب کتب اوّلین و پیش از من صاحب اوصیا است و نزد او چیزی از علم است، چیزی که به من نرسیده، شاید آن جناب، صاحب من باشد.
پس نزد علی (علیه السلام) آمدم و گفتم: تو وصیّ محمدی؟
فرمود: آری، چه می خواهی؟
گفتم: علامت این چیست؟
فرمود: سنگریزه ای برایم بیاور! از زمین سنگریزه برایش برداشتم، آن را میان دو کف خود گذاشت، آن را با دست خود؛ مانند آرد نرم کرد، آن گاه آن را خمیر کرد، یاقوت سرخی گرداند و مهر کرد که نقش در آن برای ناظرین ظاهر بود.
سپس به طرف خانه خود رفت. عقبش رفتم تا از آن چه پیغمبر (صلّی الله علیه و آله و سلّم) کرد از او سؤال کنم. متوجّه من شد و همان کاری کرد که آن حضرت کرده بود.
گفتم: ای ابو الحسن! وصیّ تو کیست؟
فرمود: کسی که مانند این بکند.
امّ سلیم گفت: بعد از آن حسن بن علی (علیهما السلام) را ملاقات کردم.
گفتم: تو وصیّ پدرت هستی و من از صغر سنّ او تعجّب داشتم و سؤال من از او در حالی بود که صفت دوازده امام، پدر ایشان را، سید ایشان و افضل ایشان را می شناختم و این را در کتب پیشینیان یافته بودم.
فرمود: آری، من وصیّ پدر خویشم.
گفتم: علامت این چیست؟
فرمود: سنگریزه ای برای من بیاور.
گفت: از زمین سنگریزه ای برای او برداشتم، آن را میان دو کف خود گذاشت و مانند آرد نرم کرد، آن گاه آن را خمیر کرد، سپس یاقوت سرخ گرداند و آن را مهر کرد، پس نقش در آن ظاهر شد و آن را به من داد.
به آن جناب گفتم: وصیّ تو کیست؟
فرمود: کسی که کاری انجام دهد که من کردم. سپس دست راست خود را کشاند تا از بام های مدینه گذشت و او ایستاده بود. آن گاه دست چپ خود را به زیر برد و به زمین زد، بی آن که منحنی شود یا بالا رود. در نفس خود گفتم؛ چه کسی را خواهی دید وصیّ او باشد؟
از نزد او بیرون رفتم، حسین (علیه السلام) را ملاقات کردم و نعت او را در کتب سالفه به اوصاف او و نه تن دیگر از فرزندانش را به صفات ایشان شناخته بودم، جز این که شمایل او را به جهت صغر سنّ اش انکار داشتم. نزدیک او رفتم، در محلّی از ساحت مسجد بود. به آن جناب گفتم: تو کیستی؟
فرمود: ای امّ سلیم من مقصود تو، وصیّ اوصیا، پدر نه امام هدایت کننده و وصیّ برادرم، حسن هستم و حسن وصیّ پدرم، علی و علی، وصیّ جدّم رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) است. از سخن آن جناب تعجّب کردم و گفتم: علامت این چیست؟
فرمود: سنگریزه ای برایم بیاور. از زمین سنگریزه ای برایش برداشتم.
امّ سلیم گفت: به سوی او نظر می کردم که آن را در کف خود گذاشت و مانند آرد نرم کرد، آن گاه آن را خمیر و یاقوت سرخی کرد، سپس به خاتم خود مهر کرد و نقش، در آن ثابت شد. آن را به من داد و فرمود: ای امّ سلیم! در آن نظر کن! آیا چیزی در آن می بینی؟
امّ سلیم گفت: در آن نظر کردم؛ رسول الله، علی، حسن، حسین و نه امام را دیدم که از فرزندان حسین - صلوات الله علیهم - اوصیایند و نام هایشان جز جعفر و موسی (علیهما السلام) با هم موافق بود و در انجیل چنین خوانده بودم. پس تعجّب کردم و در نفس خود گفتم؛ خدای تعالی دلیل هایی به من عطا فرمود که آن ها را به کسانی عطا کرد که پیش از من بودند.
گفتم: ای سید من! علامت دیگری بر من اعاده فرما. پس تبسّم کرد، آن جناب نشسته بود، برخاست و دست راست خود را به سوی آسمان کشاند، پس به خداوند قسم! گویا آن عمودی از آتش بود، هوا را شکافت تا آن که از چشم من نهان شد، او ایستاده بود و از این کلالی نداشت.
امّ سلیم گفت: به زمین افتادم، بی هوش شدم و به حال نیامدم مگر به آن حضرت که در دستش طاقه ای از آس بود و به آن، سوراخ بینی مرا می زد.
به او گفتم: بعد از این به او چه بگویم، و الله! تا این ساعت بوی آن طاقه آس را می یابم و آن، و الله! نزد من است. نه پژمرده، نه ناقص و نه چیزی از بویش کم شده، اهل خود را وصیّت کردم که آن را در کفنم بگذارند.
گفتم: ای سید من! وصیّ تو کیست؟
فرمود: آن که کاری انجام دهد که من کردم. پس تا ایّام علی بن الحسین (علیهما السلام) ماندم.
زرّ بن جیش خاصیتا دون غیر او، گفت: جماعتی از تابعین مرا خبر دادند که این کلام را از تمام حدیث او شنیدید، یکی از آن ها سمینا، مولای عبد الرحمن بن عوف و سعید بن جبیر، مولای بنی اسد است و سعید بن مسیّب مخزومی مرا به بعضی از آن حدیث از امّ سلیم خبر داد، گفت: نزد علی بن الحسین (علیهما السلام) آمدم، آن جناب در منزل خود ایستاده بود، شب و روز، هزار رکعت نماز می کرد. اندکی نشستم، خواستم مراجعت نمایم و اراده نمودم که برخیزم. چون این قصد را کردم به انگشتری که در انگشت آن جناب بود متوجّه من شدند و بر آن، نگین حبشی بود. دیدم در آن مکتوب بود: مکانک یا امّ سلیم! انبئک بما جئتنی له؛ ای امّ سلیم! به جای خود نشین که تو را خبر خواهم داد به آن چه برای آن آمدی.
گفت: در نماز خود تعجیل کرد. چون سلام داد، فرمود: ای امّ سلیم! سنگریزه ای برای من بیاور. بدون آن که از مقصدی که برای آن آمده بودم از آن جناب سؤال کنم، سنگریزه ای از زمین گرفتم، به او دادم. آن را گرفت، میان دو کف خود گذاشت و مانند آرد نرم شده کرد، آن گاه آن را خمیر و یاقوت سرخی کرد، سپس آن را مهر کرد و نقش، در آن ثابت شد.
و الله به اعیان آن قوم؛ یعنی همان اسامی شریفه نظر کردم؛ چنان چه در روز حسین (علیه السلام) دیده بودم.
به آن جناب گفتم: فدایت شوم، وصیّ تو کیست؟
فرمود: هرکسی که کاری انجام دهد که من کردم و بعد از من، مثل مرا درک نخواهی کرد.
امّ سلیم گفت: فراموش کردم از او سؤال کنم آن کاری را بکند که پیش از او، از رسول خدا، علی، حسن و حسین (علیهم السلام) کردند. چون از خانه بیرون رفتم و گامی برداشتم، مرا آواز داد که ای امّ سلیم!
گفتم: لبّیک!
فرمود: برگرد! برگشتم. آن جناب را دیدم که وسط صحن خانه ایستاده، آن گاه رفت و داخل خانه شد، او تبسّم می کرد و فرمود: ای امّ سلیم بنشین! نشستم. سپس دست راست خود را کشاند، خانه ها و دیوارها و کوچه های مدینه را شکافت و از چشم من پنهان شد.
آن گاه فرمود: ای امّ سلیم بگیر! و الله به من کیسه ای عطا فرمود که در آن چند اشرفی و دو گوشواره طلا و چند نگین بود که مال من از جزع که در حقه از من در منزلم بود.
گفتم: ای سید من! حقّه را می شناسم، اما آن چه در آن است، نمی دانم چیست مگر آن که آن را سنگین می بینم.
فرمود: این را بگیر و پی کار خود برو.
گفت: از نزد آن جناب، بیرون و به منزل خود رفتم. پس حقّه را در جایش ندیدم.
دیدم حقّه، حقّه من است.
گفت: از آن روز ایشان را به حقّ معرفت از روی بصیرت و هدایت در امر ایشان شناختم و الحمد لله ربّ العالمین.
ابو عبد الله؛ یعنی ابن عیّاش، مصنّف کتاب گفت: از ابو بکر محمد بن عمر جعابی از این امّ سلیم سؤال کردم و اسناد حدیث عامّه را بر او خواندم، طریق او را مستحسن شمرد؛ یعنی راوی های او و طریق اصحاب ما را مدح و توثیق کرد، ابو صالح قاضی طرطوسی را شناساند و گفت: او ثقه عدل حافظ بود.
اما امّ سلیم؛ او زنی از نمر بن قاسط بود. معروف است از زن هایی است که از رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) روایت کردند، گفت: او امّ سلیم انصاریّه، مادر انس بن مالک نیست و نه امّ سلیم دوسیّه که برای او صحبت و روایتی بود؛ یعنی حضرت را دیده و از او روایت کرده بود و نه امّ سلیم خافظه؛ یعنی ختنه کننده که دخترها را در عهد رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) ختنه می کرد و نه امّ سلیم ثقفیّه که او دختر مسعود ثقفی، خواهر عروه بن مسعود ثقفی بود، او اسلام آورده و اسلامش نیکو شده بود و حدیث روایت می کرد، انتهی(517).
تمام حدیث مناسب مقام نبود، اما به جهت شرافت و قلّت وجود و اتّفاق سند، به نقل تمام، متبرّک شدیم.
[روایت داود رقی از امام صادق (علیه السلام)] 5 مسکه:
نیز در آن جا از طریق اهل سنّت از داود رقی روایت کرده، گفت: بر جعفر بن محمد (علیهما السلام) داخل شدم. فرمود: ای داود! چه سبب طول کشیدن آمدنت نزد ما شد.
گفتم: فدایت شوم! حاجتی در کوفه مرا عارض و سبب شد شرف یابی ام خدمت تو طول کشد.
فرمود: در آن جا چه دیدی؟
گفتم: عمّ تو، زید را بر اسب دراز دمی دیدم که قرآنی به هیکل انداخته و فقهای کوفه دورش را گرفته بودند، در حالی که می گفت: ای اهل کوفه! من علم میان شما و خدای تعالی هستم. به تحقیق شناخته ام آن چه در کتاب خدا از ناسخ و منسوخ او است.
حضرت ابو عبد الله (علیه السلام) فرمود: ای سماعه بن مهران! آن صحیفه را بیاور. صحیفه سفیدی آورد، به من داد و فرمود: بخوان! این از چیزهایی است که نزد ما اهل بیت است و بزرگی از ما، از بزرگی، از زمان رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) به میراث می برد، آن را خواندم، در آن، دو سطر دیدم:
سطر اوّل؛ لا اله الّا الله محمّد رسول الله.
سطر دوّم: «انّ عدّه الشّهور عند الله اثنی عشر شهرا فی کتاب الله یوم خلق السّموات، منها اربعه حرم، ذلک الدین القیّم علیّ بن ابیطالب و الحسن بن علی و الحسین بن علی و علی بن الحسین و محمد بن علی و جعفر بن محمد و موسی بن جعفر و علیّ بن موسی و محمد بن علی و علیّ بن محمد و الحسن بن علی و الخلف منهم، الحجّه».
آن گاه به من فرمود: ای داود! آیا می دانی کجا و کی نوشته شده؟
گفتم: ای فرزند رسول خدا! خداوند و رسول او و شما داناترید.
فرمود: پیش از آن که آدم به دو هزار سال خلق شود، پس زید را کجا تباه می کنند و می برند(518)؟
نیز از شیخ ثقه ابو الحسین عبد الصمد بن علی روایت کرده، تمام خبر را از اصل کتاب خود بیرون آورد، تاریخ آن سنه دویست و پنجاه و هشت بود که آن را از عبید بن کثیر ابی سعد عامری شنیده بود، گفت: نوح بن جرّاح از یحیی بن اعمش از زید بن وهب از ابن ابی جحیفه سوای مرا خبر داد که از سواه بن عامر است و حارث بن عبد الله حارثی همدانی و حارث بن شرب، هریک خبر دادند، ایشان نزد علی بن ابی طالب (علیه السلام) بودند؛ هرگاه حسن (علیه السلام) پیش می آید، می فرمود: مرحبا! ای پسر رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) و هرگاه حسین (علیه السلام) پیش می آمد، می فرمود: پدرم فدای تو، ای پسر بهترین کنیزان!
کسی به آن جناب عرض کرد: یا امیر المؤمنین! چه شد که به حسن آن را و به حسین (علیهما السلام) این را می گویید و بهترین کنیزان کیست؟
فرمود: این مفقود رانده شده آواره (م ح م د) بن الحسن بن علی، پسر این حسین است و دست مبارک را بر سر حسین (علیه السلام) گذاشت(519).
[خبر جارود بن منذر از قس بن ساعده] 6 مسکه:
نیز در آن جا گفته: از اتقن اخبار ماثوره، غریب و عجیب آن و از مصون مکنون در اعداد ائمّه و اسامی ایشان از طریق عامّه، خبر جارود بن منذر و اخبار او از قسّ بن ساعده است که ابو جعفر محمد بن لاحقّ بن سابق بن قرین انباری ما را به آن خبر داد، گفت: سنه دویست و هفتاد و هشت، جدّم ابو النصر سابق بن قرین، در انبار در خانه ما مرا خبر داد، گفت: ابو المنذر هشام بن محمد بن سایب کلبی به من خبر داد، گفت: پدرم از شرقی بن قطامی از تمیم بن وهله مرّی مرا خبر داد، گفت: جارود بن منذر عبدی مرا خبر داد، او نصرانی بود، در عام حدیبیّه اسلام آورده و اسلامش نیکو شده بود، او قاری کتب، عالم به تأویل و بصیر در فلسفه و طبّ بود و با رأی اصیل و وجه جمیل ما را در امارت عمر بن خطّاب خبر داد و گفت.
آن گاه تفصیل ورود خود با قبیله اش از عبد القیس بر رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) را نقل کرد و کیفیّت ملاقات آن ها با آن جناب، سؤال حضرت از ایشان، از حال قسّ بن ساعده ایادی، شرح دادن جارود حال او را و این که پانصد سال عمر و رییس حوارییّن لوقا و یوحنّا را درک کرد و ذکر جمله ای از مواعظ و نصایح و اشعار او تا آن که در آخر به اصحاب آن حضرت رو کرد و گفت: پیش از بعثت آن جناب از روی علم، ایمان آوردید؛ چنان چه من ایمان آورم.
پس به کسی اشاره کردند و گفتند: در ما بهتر و افضل از او نیست. به مرد شریف نورانی نظر کردم که از رخسارش هویدا بود حکمت او را فروگرفته، او سلمان فارسی بود.
سلمان از او پرسید: چگونه آن جناب را پیش از حضور در خدمتش شناختی؟
گفت: بر رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) رو کردم، او متلألأ بود و نور و سرور از روی مبارکش می درخشید. گفتم: یا رسول الله! به درستی که قسّ زمان تو را منتظر و اوقات تو را متوقّع بود و اسم تو و پدر و مادر جناب تو را ندا می کرد و نام هایی که آن ها را با تو نمی دانم و در پیروان تو نمی بینم.
سلمان گفت: ما را خبر ده. شروع کردم به خبر دادن ایشان و رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) گوش می کرد و قوم، گوش می دادند.
گفتم: یا رسول الله! به تحقیق حاضر بودم که قسّ از مجلسی از مجالس ایاد به سوی صحرایی بیرون رفت که درختان خاردار و درختان مثمره و سدر داشت و او شمشیری حمایل کرده بود. پس در شبی نورانی چون آفتاب ایستاد و روی و انگشتان خود را به سوی آسمان بلند نمود.
نزدیک رفتم، شنیدم، می گفت که حاصل ترجمه اش این است: بار خدایا! ای پروردگار هفت آسمان رفیع و هفت زمین فراخ! به محمد و سه محمد که با او است و چهار علی و دو سبط بزرگوار و نهر درخشان؛ یعنی جعفر (علیه السلام) و هم نام کلیم؛ اینان اند نقبای شفعا و راه های روشن و ورثه انجیل و حفظه تنزیل بر عدد نقبای بنی اسراییل، محوکنندگان گمراهی ها، نابودکنندگان باطل ها و راست گویان که قیامت بر ایشان برخواهد خواست و شفاعت به ایشان می رسد و از جانب خداوند، فرض طاعت برای ایشان است.
آن گاه گفت: بار خدایا! کاش ایشان را درک می کردم، هرچند پس از سختی عمر و زندگانی من باشد، سپس ابیاتی خواند، به شدّت گریست، ناله کرد و باز ابیاتی خواند، آن گاه جارود از آن جناب، از آن اسامی سؤال کرد.
حضرت حکایت شب معراج و دیدن اشباح نورانیّه ائمّه (علیهم السلام) و ذکر کردن خداوند، اسامی یک یک تا حضرت مهدی (علیه السلام) را بیان کرد، چنان چه در باب القاب در لقب منتقم گذشت، پس جارود عرض کرد: ایشان در تورات و انجیل و زبور مذکورند(520). این خبر، طولانی و با کلمات فصیح و اشعار ملیح است که به جهت خوف تطویل، مختصر کردم.
[خبر شهاب الدین دولت آبادی] 7 مسکه:
ملک العلما، شهاب الدین بن عمر دولت آبادی در هدایه السعداء روایت کرده، رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) فرمود: بعد از حسین بن علی (علیهما السلام) نه امام از پسران او است که آخر ایشان، قائم (علیه السلام) می باشد. نیز در آن جا از جابر بن عبد الله انصاری روایت کرده، گفت:
بر فاطمه، دختر رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) داخل شدم و پیش روی او الواحی بود و در آن، نام های امامان از فرزندان او بود. یازده اسم شمردم که آخر ایشان، قائم (علیه السلام) بود(521).
نیز عالم عارف مشهور نزد اهل سنّت، ملّا عبد الرحمن جامی در کتاب شواهد النبوّه(522) از بعضی روایت کرده که گفته: بر ابو محمد زکی رضی الله عنه درآمدم و گفتم: یابن رسول الله! خلیفه و امام بعد از تو، که خواهد بود؟
به خانه درآمد، پس بیرون آمد. کودکی سه ساله بر دوش گرفته، گویا ماه شب چهاردهم بود.
سپس فرمود: ای فلان! اگر پیش خدای تعالی گرامی نبودی، این فرزند خود را به تو نشان نمی دادم. نام این نام، رسول و کنیه او، کنیه وی است. «هو الّذی یملاء الأرض قسطا، کما ملئت جورا و ظلما».
نیز در آن جا از دیگری روایت کرده، گفت: روزی بر ابو محمد درآمدم، بر دست راست وی خانه ای دیدم پرده به آن فروگذاشته، گفتم: یا سیّدی! بعد از این صاحب این امر که خواهد بود؟
فرمود: آن پرده را برداشتم، کودکی در کمال طهارت و پاکیزگی بیرون آمد و بر رخساره راست وی خالی بود و گیسوان گذاشته آمد و کنار ابو محمد نشست.
ابو محمد فرمود: بعد از این، صاحب شما است. از زانوی وی برخاست، ابو محمد رضی الله عنه به او گفت: به من یا بنیّ ادخل إلی الوقت المعلوم. به آن خانه درآمد و من به وی نظر می کردم.
ابو محمد رضی الله عنه به من گفت: برخیز و ببین در این خانه کیست؟! به خانه درآمدم، هیچ کس را ندیدم.
نیز ابو محمد عبد الله بن احمد معروف به ابن خشّاب بغدادی در کتاب موالید ائمّه (علیهم السلام) به سند خود از جناب رضا (علیه السلام) روایت کرد، فرمود: خلف صالح، مهدی و صاحب الزمان فرزند ابی محمد حسن بن علی (علیهم السلام) است(523). هم چنین قریب به آن از جناب صادق روایت کرده و هردو خبر در باب سابق، ضمن احوال او ذکر شد.
نیز نور الدین علی بن محمد مکّی مالکی شهیر به ابن صبّاغ در فصول المهمّه(524) از محمد بن علی بن هلال روایت کرده، گفت: ابی محمد حسن بن علی عسکری (علیهما السلام) دو سال پیش از وفاتش، بیرون آمد و ما را به خلف بعد از خود خبر داد. آن گاه سه روز پیش از وفاتش امر به سوی من بیرون آمد، مرا به خلف خبر کرد، به این که بعد از او، او پسرش است.
هم چنین از ابی هاشم جعفری روایت کرده، گفت: به ابی محمد حسن بن علی (علیهما السلام) گفتم: جلالت تو مانع است از این که سؤال کنم! آیا رخصت می دهی از تو سؤال کنم؟
فرمود: سؤال کن!
گفتم: ای سیّد! من آیا برای تو فرزندی است؟
فرمود: آری!
گفتم: اگر حادثه ای روی داد، کجا از او سؤال کنم.
فرمود: در مدینه.
[خبر جابر بن یزید] 8 مسکه:
سید جمال الدین عطاء الله بن سید غیاث الدین فضل الله بن سید عبد الرحمن، محدّث معروف در کتاب روضه الاحباب(525) که در باب گذشته، اعتبار خود و کتابش معلوم شد، بعد از ذکر اختلاف در آن جناب و تطبیق اخبار صحّاح و مسانید کتب اهل سنّت در حقّ مهدی (علیه السلام) بر آن که امامیّه گویند.
از جابر بن یزید جعفی روایت کرده، گفت: از جابر بن عبد الله انصاری رضی الله عنه شنیدم که می گفت:
چون ایزد تعالی این آیه را ﴿یا أَیُّهَا الَّذِینَ آمَنُوا أَطِیعُوا الله وَ أَطِیعُوا الرسُولَ وَ أُولِی الْأَمْرِ مِنْکُمْ﴾ بر پیغمبر خود نازل گردانید، گفتم: یا رسول الله! خدا و رسول او را می شناسیم. اما اصحاب امر که خدای تعالی اطاعت ایشان را به طاعت تو قرین ساخته، کیستند.
رسول (صلّی الله علیه و آله و سلّم) گفت: ایشان، خلفای بعد از من اند. اوّل ایشان، علی بن ابی طالب است، آن گاه حسن، آن گاه حسین، سپس علی بن الحسین، آن گاه محمد بن علی در تورات معروف به باقر، ای جابر! زود است که او را درک کنی! هرگاه او را ملاقات کردی، سلام مرا به او برسان. بعد از او صادق (علیه السلام) جعفر بن محمد، آن گاه موسی بن جعفر، سپس علی بن موسی، آن گاه محمد بن علی، آن گاه علی بن محمد، پس از آن حسن بن علی، آن گاه حجّه الله در زمین او و بقیه الله در میان بندگانش، محمد بن الحسن بن علی؛ این کسی است که خداوند عزّ و جلّ به دست او مشارق و مغارب زمین را فتح می کند و این کسی است که از شیعه و اولیای خود غیبت می کند غیبتی که در آن، در قول به امامت او ثابت نمی ماند مگر کسی که خدای تعالی دل او را برای ایمان آزموده.
جابر گوید؛ گفتم: یا رسول الله! آیا در غیبت امام شیعه انتفاع یابند؟
فرمود: آری! قسم به آن که مرا به پیغمبری مبعوث فرموده ایشان به نور او استضائه کنند و به ولایت او منتفع شوند؛ مثل انتفاع مردم به آفتاب، هرچند ابر او را بالا گیرد.
ای جابر! این از اسرار مکنونه الهی است، آن را پنهان دار مگر از کسی که اهل آن باشد.
نیز حافظ بخاری حنفی محمد بن محمد، معروف به خواجه پارسا در کتاب فصل الخطاب(526)، بعد از ذکر روایت ولادت حضرت مهدی (علیه السلام)، مختصرا از حکیمه خاتون گفته؛ حکیمه گفت: نزد ابی محمد حسن العسکری - رضی الله عنه - آمدم، مولود را پیش روی او در جامه زردی دیدم و بر او آن قدر از بهاء و نور بود که قلبم را گرفت.
گفتم: ای سید من! آیا در این مولود نزد تو علمی هست تا آن را به ما القا فرمایی؟!
فرمود: ای عمّه! این منتظر است، این کسی است که ما را به او بشارت دادند.
حکیمه گفت: برای خداوند به زمین افتادم که بر شکر این نعمت سجده کنم.
گفت: آن گاه نزد ابی محمد حسن العسکری - رضی الله عنه - تردّد می کردم. آن مولود را نمی دیدم، روزی به آن جناب گفتم: ای مولای من! با سید ما و منتظر ما چه کردی؟
فرمود: او را به کسی سپردم که مادر موسی، پسر خود را به او سپرد.
[روایت ایضاح] 9 مسکه:
نیز ابو الحسن محمد بن احمد بن شاذان در ایضاح دفاین النواصب از طریق اهل سنّت از حضرت صادق، جعفر بن محمد از پدرش از پدرانش، از رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) روایت کرده، فرمود: جبرییل مرا از ربّ العزّه جلّ جلاله خبر داد؛ فرمود:
کسی که عالم باشد؛ خدایی جز ذات یگانه من نیست و این که محمد بنده و رسول من و علی بن ابی طالب خلیفه من است و ائمّه از فرزندان او حجّت های ایشان را در جنّت خود، به رحمت خود داخل می کنم، به عفو خود، او را از آتش نجات می دهم، همسایگی قرب خود را بر او مباح کنم، کرامت خود را برای او واجب گردانم، نعمت خود را بر او تمام کنم و او را از خاصّه و برگزیده خود بگردانم، اگر مرا ندا کند، لبّیکش گویم، اگر مرا بخواند، اجابتش فرمایم، اگر از من سؤال کند، عطایش کنم، اگر ساکت شود، در عطا ابتدا نمایم، اگر بد کند، رحمتش کنم، اگر از من فرار کند، بخوانمش، اگر مرا رجعت کند، قبولش فرمایم و اگر در جود مرا بکوبد، برایش باز کنم.
تا این که فرمود: جابر بن عبد الله انصاری برخاست و گفت: یا رسول الله! ائمّه از فرزندان علی بن ابی طالب کیستند؟
فرمود: حسن و حسین، سید جوانان اهل جنّت، آن گاه سیّد العابدین در زمان خود علی بن الحسین، سپس باقر، محمد بن علی، زود است که او را درک کنی، چون او را درک کردی، سلام مرا به او برسان، آن گاه صادق (علیه السلام) جعفر بن محمد، بعد از آن کاظم موسی بن جعفر، آن گاه رضا علی بن موسی، سپس تقی محمد بن علی، آن گاه نقی علی بن محمد، پس از آن زکی حسن بن علی، آن گاه پسر او، قائم به حقّ، مهدی امّت من که زمین را پر از قسط و عدل کند؛ چنان چه از جور و ظلم پر شده.
ای جابر! این ها خلفا، اوصیا، اولاد و عترت، منند کسی که ایشان را اطاعت کند، به تحقیق مرا اطاعت کرده، کسی که ایشان را عصیان کند، به تحقیق مرا عصیان کرده و کسی که ایشان یا یکی از ایشان را انکار کند، به تحقیق مرا انکار کرده و به سبب ایشان، خداوند، آسمان را نگه دارد که بر زمین نیفتد مگر به اذن او و خداوند به وسیله ایشان، زمین را حفظ فرماید که اهلش را مضطرب نکند(527).
نیز شیخ الاسلام، ابراهیم بن محمد حموینی در فرائد السمطین(528) روایت کرده؛ کسی از جناب رضا (علیه السلام) پرسید: قائم از شما اهل بیت کیست؟
فرمود: چهارم از فرزندان من، پسر خاتون کنیزان که خداوند به وسیله او، زمین را از هرجوری پاک می کند و او را از هرظلمی پاکیزه می فرماید. او است که مردم در ولایتش شکّ می کنند و او پیش از خروجش صاحب غیبت است.
نیز در آن جا از آن جناب روایت کرده، به دعبل فرمود: امام بعد از من، محمد، پسر من است و بعد از محمد، پسر او علی، بعد از علی، پسر او حسن و بعد از حسن پسر او حجّت قائم، منتظر در غیبت خود و مطاع در ایّام ظهورش.
[روایت مناقب خوارزمی] 10 مسکه:
ایضا در نجم ثاقب است که موفّق بن احمد خوارزمی در مناقب خود از سلمان محمدی روایت کرده، گفت: بر رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) داخل شدم، دیدم حسین (علیه السلام) بر زانوی آن جناب بود و او دو چشمان و دهانش را می بوسید و می فرمود: تو سیّدی، پسر سیّدی، پدر ساداتی، تو امام، پسر امام و برادر امامی، پدر ائمّه ای، تو حجّت، پسر حجّت و برادر حجّتی، پدر نه حجّتی که از صلب تواند و نهم ایشان، قائم ایشان است.
نیز ابن شهرآشوب در مناقب(529) از طریق اهل سنّت از عبد الله بن مسعود روایت کرده، گفت: شنیدم رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) می فرمود: ائمّه بعد از من دوازده تن اند. نه تن ایشان از صلب حسین اند که نهم، مهدی ایشان است.
هم چنین از عبد الله بن محمد بغوی از علی بن جعد از احمد بن وهب بن منصور از ابی قبیصه شریح بن محمد عنبری از نافع از عبد الله بن عمر روایت کرده، نبی (صلّی الله علیه و آله و سلّم) فرمود: یا علی! من نذیر امّت خویشم.
و تو هادی ایشان و حسن قائد، حسین سائق، علی بن الحسین جامع، محمد بن علی عارف، جعفر بن محمد کاتب، موسی بن جعفر محصی، علی بن موسی عبور دهنده و نجات دهنده و دورکننده دشمنان و نزدیک کننده مؤمنان ایشان است، و محمد بن علی قائد و سایق، علی بن محمد، عالم، حسن بن علی معطی ایشان و قائم، خلف ساقی و شناسنده و شاهد ایشان است، انّ فی ذلک لآیات للمتوسّمین(530).
نیز شیخ اسعد بن ابراهیم بن حسن بن علی اربلی حنبلی در اربعین خود به اسناد خود از محمد نوفلی روایت می کند، گفت: پدرم مرا خبر داد و او خادم امام علی بن موسی الرضا (علیهما السلام) بود از آن جناب گفت: پدرم کاظم مرا خبر داد. گفت: پدرم صادق مرا خبر داد.
گفت: پدرم باقر مرا خبر داد.
گفت: پدرم زین العابدین به من خبر داد.
گفت: پدرم سیّد الشّهدا مرا خبر داد.
گفت: پدرم سید الاوصیا مرا خبر داد، فرمود: برادرم و حبیبم رسول خدا، سیّد الانبیا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) مرا خبر داد و فرمود:
یا علی! کسی که خوشنود می کند که خداوند را در حالی ملاقات کند که او، بر او اقبال فرموده، و از او راضی است. پس با تو و ذریّه تو موالات کند تا کسی که اسم او اسم من و کنیه او، کنیه من است، ائمّه بعد از تو به او ختم می شود علیهم الصّلوه و السّلام.
مؤلف گوید: ظاهر این است که در این خبر، اسم هریک از امامان را داشته و مؤلّف به جهت اختصار یا خوف تشنیع شیعه حذف کرده و از تأمّل معلوم می شود این همان خبر است که در مسکه دهم از عبقریّه ششم این بساط از اربعین ابی الفوارس نقل کردیم، چنان که در صبیحه سوّم از عبقریّه دوّم بساط سوّم که ملقّب به الصبح الاسفر است، علّت اعتنا ننمودن علمای عامّه به این اخبار که در مذهب امامیّه صریح اند و اختیار نمودن مذاهب دیگری؛ مثل اشعری و معتزلی بودن در اصول و مالکی و شافعی و حنفی و جنفی بودن در فروع را ذکر نموده ایم به آن جا مراجعه شود. انتهی ما اردنا نقله و من الله التوفیق و به نستعین.

عبقریّه نهم [روایات خاصّه]

در نصوص وارده ای از طرق شیعه امامیّه اثنا عشریّه از رسول خدا و ائمّه هدی - صلوات الله علیهم اجمعین - است بر این که مهدی موعود، همان امام دوازدهم، حجّه بن الحسن العسکری - صلوات الله علیهما - می باشد و آن ها بیش از آن است که بتوان احصا کرد و ذکر تمام موجود، موجب تطویل است. بحمد الله در بسیاری از کتب احادیث عربیّه و فارسیّه، خصوصا مجلّد نهم بحار موجود است که ترجمه آن از فاضل آقا رضا ابن ملّا محمد نصیر بن ملّا عبد الله بن العالم الجلیل، ملّا محمد تقی مجلسی است. نیز سیزدهم بحار و ترجمه او.
لکن در این جا به ذکر چهل خبر قناعت نمودیم که استادنا المحدّث النوری آن ها را در نجم ثاقب از کتاب سلیم بن قیس و بعضی از کتب دیگر نقل فرموده که نزد علّامه مجلسی (ره) نبوده و آن ها را ضمن چند مسکه ایراد می کنیم.
[روایت سلیم بن قیس] 1 مسکه:
خبر اوّل: سلیم بن قیس هلالی از اصحاب امیر المؤمنین (علیه السلام) در کتاب خود که شیخ نعمانی در غیبت(531) خود می گوید: خلافی در میان حمله علم شیعه نیست که آن کتاب، اصلی از اصول است که اهل علم آن را روایت کرده و حمله حدیث اهل بیت (علیهم السلام) اقدم آن ها و از اصولی است که شیعه به آن رجوع و بر او اعتماد می کنند که از خود آن جناب شنید که رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) در بیان اولی الامر فرمود:
یا علی تو اوّل ایشانی! آن گاه تا امام حسن عسکری (علیه السلام) شمردند، پس فرمود: آن گاه پسر او، حجّت قائم، خاتم اوصیا و خلفای من و منتقم از اعدای من است که زمین را از عدل و داد پر می کند، چنان چه از جور و ظلم پر شده باشد(532).
خبر دوّم: نیز در آن جا(533) از آن جناب روایت کرده که رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) فرمود: من اولی به مؤمنین هستم از نفوس خودشان؛ با وجود من امری بر ایشان نیست و بعد از من، علی (علیه السلام) اولی به مؤمنین است از نفس های خودشان؛ با وجود او امری برای ایشان نیست، آن گاه تا حضرت باقر به همین قسم ذکر نمود و فرمود:
در عقب محمد، مردانی یکی پس از دیگری هستند، هیچ کدام از ایشان نیست مگر اولی به مؤمنین از انفس خودشان، با وجود آن ها امری برای ایشان نیست، همه هداتند، هادیّین مهدیّین اند تا آن که جنّت عدن را ذکر نمود و فرمود: با من در آن جا دوازده تن اند؛ اوّل ایشان، علی بن ابی طالب، حسن، حسین و نه تن از فرزندان حسین، آن گاه جمله اوصاف ایشان را از عصمت و تبلیغ و هدایت و غیر آن بیان فرمود.
خبر سوّم: هم چنین در آن جا از آن جناب روایت کرده، فرمود: ای سلیم! من و اوصیای من که یازده مرد از فرزندان من اند، ائمّه هدایت کنندگان هدایت شدگان محدّثیم؛ یعنی آن که ملک با او سخن گوید.
گفتم: یا امیر المؤمنین! ایشان کیستند؟
فرمود: دو پسر من حسن و حسین، آن گاه این پسر من و دست علی بن الحسین (علیه السلام) را گرفت و آن جناب شیر می خورد. پس از آن هشت نفر از فرزندان او هریک بعد از دیگری، این دوازده تن اوصیایند(534).
خبر چهارم: نیز گفته با امیر المؤمنین از صفّین مراجعت می کردیم. پس عسکر نزدیک دیر نصارایی فرود آمد. بیرون آمدن راهبی را از آن دیر ذکر کرد که نام او شمعون بن حمون از فرزندان شمعون وصیّ عیسی (علیه السلام) و با او کتابی به خطّ شمعون و املای عیسی بود. در آن جا بعد از اوصاف رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) و وزارت و خلافت امیر المؤمنین (علیه السلام) مذکور بود و این که او، بعد از او ولیّ هرمؤمن است، بعد از او که آن گاه یازده نفر از فرزندان او و فرزند فرزند او.
اوّل آن ها شبّر، دوّم شبیر و نه تن از فرزند شبیر، یکی بعد از دیگری، آخر ایشان کسی است که عیسی (علیه السلام) خلف او نماز می کند و بعد از ایشان کسی را نام برده که سلطنت می کند، دین خود را مخفی می دارد و ظاهر می شود.
اوّل کسی که از ایشان ظاهر می شود، جمیع بلاد خداوند را از عدل و داد پر می کند و ما بین مشرق و مغرب را مالک می شود تا این که خداوند او را بر همه ادیان غالب می کند.
آن گاه حال جمله از ائمّه ضلال را شرح داده، در آخر خبر، سلیم می گوید: حضرت به یکی از اصحاب خود فرمود: برخیز و کتاب او را از عبرانی به عربی ترجمه کن، چون نسخه کرد و آورد، حضرت به امام حسن (علیه السلام) فرمود: آن کتابی که به تو دادم، نزد من بیاور و آن را بخوان و تو ای فلان! در نسخه این کتاب نظر کن که او خطّ من و املای رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) است. چون خواند، حتی یک حرف با هم خلاف نداشت، گویا املای یک نفر بود(535).
[روایات ابن شاذان] 2 مسکه:
بدان خبر پنجم شیخ ثقه جلیل القدر عظیم الشأن، ابو محمد فضل بن شاذان نیشابوری که صد و هشتاد جلد کتاب تألیف و از حضرت رضا و جواد (علیهما السلام) روایت نموده است. او در آخر زمان عسکری (علیه السلام) وفات کرده و حضرت بر او رحمت فرستاده، در کتاب غیبت خود مسمّا به اثبات الرجعه از حسن بن محبوب از علی بن رباب روایت کرده؛ گفت: ابی عبد الله (علیه السلام) از امیر المؤمنین (علیه السلام) مرا حدیث کرد و در آخر، آن حضرت، جمله ای از فتن آخر الزمان تا خروج دجّال را بیان و فرمود: آن گاه امیر امره، قاتل کفره و سلطان مأمول ظاهر می شود که عقول در غیبت او متحیّر است و او نهم از فرزندان تو است.
ای حسین! بین رکنین ظاهر و بر ثقلین غالب می شود و در زمین، ادنین؛ یعنی پست رتبه و فطرت ها را وانمی گذارد. خوشا به حال مؤمنی که زمان او را درک می کنند، به هنگام او می رسند، در ایّام او حاضر می شوند و با اقوام او ملاقات می کنند.
خبر ششم: نیز از ابن ابی عمیر از حمّاد بن عیسی از ابی شعبه حلبی از ابی عبد الله (علیه السلام) از پدرش محمد بن علی از پدرش علی بن الحسین از عمش حسن بن علی بن ابی طالب روایت کرده، گفت: از جدّ خود رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) از امامان پرسیدم که بعد از آن جناب خواهند بود.
فرمود: امامان بعد از من به عدد نقبای بنی اسراییل، دوازده تن اند که خداوند دانش و فهم مرا به ایشان عطا نموده است و تو از ایشانی ای حسن!
گفتم: یا رسول الله! قائم ما اهل البیت کی خروج خواهد کرد؟
فرمود: جز این نیست ای حسن! که مثل او، مثل روز قیامت است که خداوند علم آن را بر اهل آسمان ها و زمین پنهان داشته؛ روز قیامت نمی آید مگر ناگاه و بی خبر(536).
خبر هفتم: هم چنین از عبد الرحمن بن ابی نجران از عاصم بن حمید از ابی حمزه از ابی جعفر (علیه السلام) روایت کرده، پیغمبر با امیر المؤمنین - صلوات الله علیهما - فرمود: یا علی! زود باشد قریش بر تو ظاهر سازند آن چه پنهان داشته اند و کلمه ایشان بر ستم نمودن و غلبه کردن بر تو مجتمع شود؛ پس اگر اعوان و انصاری بیابی، با ایشان جهاد کن و اگر نیابی، دست خود را بازدار و خون خود را نگاه دار! به درستی که شهید شدن از پی تو است.
بدان فرزند من در دنیا از آن هایی انتقام خواهد کشید که بر تو و اولاد و شیعه تو ظلم کنند و خدای تعالی در آن جهان، ایشان را به عذاب شدید گرفتار خواهد گردانید.
سلمان فارسی گفت: ای رسول خدا! آن کیست که این کار را خواهد کرد؟
فرمود: نهمین از اولاد پسر من حسین، آن که بعد از پنهان بودن طولانی ظاهر گردد، سپس امر خدا را اعلان و دین خدا را ظاهر نماید، از دشمنان خدا انتقام کشد و زمین را از عدل و داد پر کند؛ چنان که از جور و ظلم پر شده باشد.
سلمان گفت: یا رسول الله! کی ظاهر خواهد شد؟
فرمود: آن را کسی مگر خدای تعالی نمی داند، لکن آن را نشانه هایی است که از جمله آن ها ندایی از آسمان، فرورفتن جمعی به زمین در مشرق، فرورفتنی در مغرب و فرورفتنی در بیدا می باشد(537).
خبر هشتم: نیز از صفوان بن یحیی از ابی ایّوب، ابراهیم بن ابی زیاد خزّاز از ابی حمزه ثمالی از ابی خالد کابلی روایت کرده، او گفت: به منزل مولای خود حضرت علی بن الحسین بن علی بن ابی طالب داخل شدم، در دست آن حضرت صحیفه ای دیدم که بر آن می نگریست و سخت می گریست. گفتم: پدر و مادرم فدایت باد، ای فرزند رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) این صحیفه چیست؟
فرمود: این نسخه، لوحی است که خدای تعالی به رسول خود هدیه فرستاد. آن لوحی که در آن بود؛ نام خداوند تعالی، نام رسول او، نام امیر المؤمنین، نام عمّم جناب حسن بن علی، نام پدرم، نام من و فرزندم، محمد باقر، نام فرزند او جعفر صادق (علیه السلام) و فرزند او، موسی کاظم و فرزند او علی الرضا، فرزند او محمد تقی، فرزند او علی نقی، فرزند او حسن زکی و فرزند او حجّت الله و قائم بامر الله و منتقم از اعداء الله؛ آن که غایب شود غایب شدنی دراز، بعد از آن ظاهر شود و زمین را از عدل و داد پر کند، هم چنان که از ستم و بیداد پر شده باشد(538).
[روایت جابر جعفی] 3 مسکه:
ایضا خبر نهم از محمد بن سنان از مفضّل بن عمر از جابر بن یزید جعفی از سعید بن مسیّب از عبد الرحمن بن سمره روایت کرده، او گفت: پیغمبر (صلّی الله علیه و آله و سلّم) فرمود: چون حضرت ملک جلیل، حضرت ابراهیم خلیل (علیه السلام) را آفرید، حجاب از پیش نظر آن جناب برداشت، جنب عرش مجید، نوری دید، پرسید: بار خدایا! این نور چیست؟
خداوند فرمود: این نور برگزیده من از خلق من است و نوری جنب او دید، گفت:
بار خدایا این نور چیست؟
حق تعالی فرمود: آن ناصر دین من، علی است و دو جنب آن دو نور، سه نور به نظر مبارک درآورد و پرسید: این نورها چیست؟
خطاب رسید: آن نور فاطمه دختر محمد و حسن و حسین است که دو فرزند او و دو فرزند علی بن ابی طالب اند.
گفت: ای خداوند! من نه نور می بینم که در دور آن پنج نور درآمدند. ندا رسید: آن نور علی بن الحسین، محمد بن علی، جعفر بن محمد، موسی بن جعفر، علی بن موسی، محمد بن علی، علی بن محمد، حسن بن علی و حجّه بن الحسن است؛ آن که بعد از غایب شدن از شیعه و دوستانش ظاهر شود.
ابراهیم گفت: ای خداوند! نورهای بسیار می بینم که دور ایشان را فروگرفته اند که آن انوار را جز تو نمی شمارد؛ یعنی به غیر از تو که خداوند عالمیانی کسی قادر بر شمردن آن نورهای بسیار نیست؛ آن نورها کیستند و آن نورها چیست؟
حق تعالی فرمود: آن نورهای شیعیان ایشان و شیعیان علی بن ابی طالب (علیه السلام) که امیر المؤمنین است.
ابراهیم گفت: شیعه امیر المؤمنین (علیه السلام) به چه چیز شناخته می شود؟
حق تعالی فرمود: به پنجاه و یک رکعت نماز، یعنی در شبانه روز گزاردن و به جهر بسم الله الرحمن الرحیم گفتن؛ یعنی در نماز، دعا خواندن در نماز پیش از رکوع، جبین بر خاک گذاشتن بعد از نماز و انگشتر در دست راست کردن.
ابراهیم گفت: بار خدایا! مرا از شیعه امیر المؤمنین، علی بن ابی طالب قرار ده! خطاب رسید: یا ابراهیم! ما تو را از شیعیان علی قرار دادیم. پس از این جهت، حضرت عزّت در قرآن عظیم در شأن ابراهیم این آیه را فروفرستاد: ﴿وَ إِنَّ مِنْ شِیعَتِهِ لَإِبْراهِیمَ﴾ (صافات: 83)؛ به درستی و راستی که هرآینه ابراهیم از شیعه او است.
مفضّل گفت: برای ما روایت کرده اند که وقتی حضرت ابراهیم احساس نمود وقت رحلت است، این حدیث شریف را به جهت اصحاب خود روایت کرد و به سجود رفت. پس آن هنگام که در سجود بود روح مقدّس آن حضرت قبض کرده شد(539).
[روایت ابو حمزه ثمالی]:
خبر دهم: نیز از عبد الرحمن بن ابی نجران از عاصم بن حمید از ابی حمزه ثمالی روایت کرده و ایضا از حسن بن محبوب از ابو حمزه ثمالی از سعید بن جبیر از عبد الله بن عبّاس روایت کرد، او گفت: پیغمبر (صلّی الله علیه و آله و سلّم) فرمود: چون مرا به آسمان ها عروج فرمود و به سدره المنتهی رسیدم، از حضرت ربّ الارباب خطاب رسید: یا محمد!
گفتم: لبیک! لبیک! ای پروردگار من!
خداوند فرمود: هیچ پیغمبری به دنیا نفرستادیم که روزگار نبوّت او منقضی شود، الّا آن که به امر دعوت به پای داشت و برای هدایت امّت بعد از خود، وصیّ خود و به جهت نگاهبانی شریعت، حجّتی را به جای خود گذاشت. پس علی بن ابی طالب را خلیفه تو گردانیدیم و امام امّت تو حسن باشد، بعد از او، حسین، بعد از او، علی بن الحسین و بعد، محمد بن علی و جعفر بن محمد و بعد، موسی بن جعفر و علی بن موسی و بعد از او، محمد بن علی و علی بن محمد و حسن بن علی و بعد از او، حجّت، پسر حسن.
یا محمد! سر بالا کن!
چون سر برآوردم، انوار علی، حسن، حسین و نه تن از اولاد حسین را دیدم و حجّت؛ یعنی حضرت صاحب الزّمان (علیه السلام) در میان ایشان می درخشید، گویا کوکب درخشنده بود.
آن گاه خداوند فرمود: این ها خلیفه و حجّت های من در زمین و خلیفه و اوصیای تو بعد از تو هستند. خوشا به حال کسی که ایشان را دوست دارد و وای بر آن کسی که ایشان را دشمن دارد(540)، الخبر.
[روایت عبد الله بن عباس] 4 مسکه:
بدان خبر یازدهم نیز، از محمد بن ابی عمیر و احمد بن محمد بن ابی نصر از ابان بن عثمان الأحمر از ابان بن تغلب از عکرمه از عبد الله بن عبّاس روایت کرده، گفت:
یهودی که او را نعثل می گفتند، نزد حضرت رسول آمد و گفت: یا محمد! چند چیز از تو می پرسم که بسیار وقتی است در سینه من می گردد. اگر جواب ادا نمایی، به دست تو اسلام می آورم.
آن حضرت فرمود: ای ابا عماره بپرس!
گفت: یا محمد! پروردگار خود را برایم وصف کن.
آن حضرت فرمود: حضرت خالق را نمی توان وصف کرد، مگر به چیزی که خود، به آن، خود را وصف کرده است. چگونه خالق واحد و آفریننده یگانه را وصف نمایند که حواس عاجز است از آن که او را دریابد و ذات مقدّس او را ادراک نماید و اوهام فرومانده است از آن که او را بیابد و به کنه ذات او برسد و خطرات درمانده است از آن که حدّی برای او پیدا کند و بصایر ناتوان است از آن که احاطه قدرت او کند.
بزرگتر از آن است که وصف کنندگان وصف او کنند، در نزدیکی دور و در دوری نزدیک است؛ یعنی نزدیک و دور، نزد علم او یکسان است. چگونگی را او چگونگی داده، پس نمی توان گفت چگونه است، کجایی را او کجایی بخشیده، پس نمی توان گفت کجاست. فکرها از شناختن او منقطع می شود؛ یعنی باید بدانید کیفیّت و اینیّت از او پیدا شده و به قدرت او وجود یافته، پس او احد است؛ یعنی تکثّر در وحدانیّت ذاتش، متصوّر نیست و از ابعاض و اجزا، معرّا و بری است.
صمد است؛ یعنی جسم نیست که بتوان گفت میان تهی است و خداوندی است که کلّ خلایق در حوایج و رغایب به درگاه او روی می آورند و از او حاجت ها می طلبند و مرادها می یابند.
بالجمله آن حضرت فرمود: خدای تعالی احد و صمد است، هم چنان که خود، خود را وصف کرده و وصف کنندگان به حدّ وصف کردن و نشان دادن او نمی رسند؛ چنان که خود، وصف خود فرموده است: ﴿لَمْ یَلِدْ وَ لَمْ یُولَدْ وَ لَمْ یَکُنْ لَهُ کُفُواً أَحَدٌ﴾.
نعثل گفت: یا محمد! راست گفتی، پس مرا از آن خبر ده که گفتی خدا یکی است و او را شبیه نیست. آیا چنین نیست که خدا یکی و انسان نیز یکی است و یگانگی و وحدانیّت خدا با وحدانیّت و یگانگی انسان مانند شده است؟
آن حضرت فرمود: خدا واحد است واحد المعنی؛ یعنی همیشه واحد و یگانه بود و چیزی با او نبوده و بی حدّ و اعراض است، همیشه چنین بوده و خواهد بود ولی انسان، واحد ثنوی است؛ یعنی غیر واحد حقیقی است. جسم است، عرض است و روح است و جز این نیست که تشبیه در معانی است، نه در غیر معانی؛ یعنی هیچ کس در معنی وحدانیّت با او شرکت ندارد. نعثل گفت: یا محمد! راست گفتی. پس مرا خبر ده که وصیّ تو کیست؟ زیرا هیچ پیغمبری نبوده الّا آن که او را وصی ایی بوده و پیغمبر ما موسی (علیه السلام) به یوشع بن نون وصیّت کرد.
آن حضرت فرمود: بلی! تو را خبر دهم، به درستی که وصیّ و خلیفه بعد از من، علی بن ابی طالب است، بعد از او، دو سبط من حسن و حسین و به وصایت از پی حسین نه تن از صلب او درمی آیند که ائمّه ابرار و امامان نیکوکاراند.
نعثل گفت: ایشان را نام کن؛ یعنی یا محمد! ایشان را به نام برای من ذکر کن!
حضرت فرمود: بلی! چون حسین درگذرد، پسر او علی، وصیّ و خلیفه باشد و چون مدّت خلافت و وصایت علی به نهایت رسد، پسر او محمد و چون مدّت وصایت محمد تمام شود، پسر او جعفر و پس از او پسرش موسی و بعد از او، پسرش علی و پس از او، پسرش محمد و بعد از او، پسرش علی و پس از او، پسرش حسن و بعد از او، پسرش حجّت بن الحسن؛ ایشان دوازده امام، به شماره نقبای بنی اسراییل اند.
نعثل گفت: جای ایشان در بهشت کجا است؟ فرمود: با من و در درجه منند.
گفت: شهادت می دهم الهی نیست الّا حضرت الله تعالی و شهادت می دهم تو رسول و فرستاده خدایی و شهادت می دهم ایشان اوصیای بعد از تواند و به تحقیق این معنی را در کتب متقدّمه یافته ام. ای رسول خدا! از وصیّ دوازدهم از جمله اوصیایت مرا خبر ده؟ آن حضرت فرمود: او غایب خواهد شد تا او را بینند و زمانی برای امّت من پیش آید که از اسلام، مگر اسم اسلام و از قرآن مگر رسم قرآن نماند. در آن هنگام خداوند تعالی او را به خروج نمودن رخصت دهد.
پس نعثل بلرزید، از پیش پیغمبر (صلّی الله علیه و آله) برخاست و در آن حال می گفت: صلوات خدا بر تو باد! ای بهترین پیغمبران و صلوات خدا بر اوصیای تو باد! که از عیب ها و گناهان پاک و منزّه اند و سپاس و حمد مر خدای را که پروردگار عالمیان است(541).
در بعضی از روایات در اواخر این حدیث زیادتی هست با شعری که نعثل در مدح پیغمبر (صلّی الله علیه و آله) و ائمّه اثنا عشر - صلوات الله علیهم اجمعین و رضوانه - انشا نمود.
[روایت محمد بن مسلم] 5 مسکه:
خبر دوازدهم: نیز از فضاله بن ایّوب از ابان بن عثمان از محمد بن مسلم از ابو جعفر (علیه السلام) روایت کرده، پیغمبر (صلّی الله علیه و آله و سلّم) به امیر المؤمنین (علیه السلام) گفت: من به مؤمنان اولایم از نفس های ایشان، بعد از آن، تو یا علی! به مؤمنان اولایی از نفس های ایشان، پس از آن، امام حسن اولی به مؤمنان است از نفس هایشان، بعد از آن امام حسین اولی به مؤمنان است از نفس هایشان، سپس علی بن الحسین اولی به مؤمنان است از نفس هایشان و بعد از آن، محمد بن علی اولی به مؤمنان از نفس هایشان.
پس از آن، جعفر بن محمد اولی به مؤمنان است از نفس هایشان، بعد از آن، موسی بن جعفر (علیه السلام)(542) اولی به مؤمنان است از نفس هایشان، پس از آن، علی بن موسی اولی به مؤمنان است از نفس هایشان پس از آن، محمد بن علی (علیه السلام) اولی به مؤمنان است از نفس هایشان و پس از آن، علی بن محمد اولی به مؤمنان است از نفس هایشان، بعد از آن، حسن بن علی (علیه السلام) اولی به مؤمنان است از نفس هایشان و پس از آن، حجّت بن الحسن (علیه السلام)؛ آن که خلافت و وصایت به او منتهی می شود و مدّتی دراز غایب خواهد شد و بعد از آن، ظاهر خواهد شد و زمین را پر از عدل و داد خواهد کرد؛ آن چنان که از ظلم و جور پر شده باشد و الحمد لله(543).
[روایت جابر بن عبد الله]:
خبر سیزدهم: ایضا از محمد بن حسن واسطی از زفر بن هذیل از سلیمان بن مهران اعمش از مورق از جابر بن عبد الله انصاری روایت کرده، گفت: مردی از یهود به مجلس پیغمبر (صلّی الله علیه و آله) داخل شد که نام او جندل بود، پدرش جناده نام داشت و از یهود خیبر بود.
پس گفت: یا محمد! ما را از آن خبر ده که خدای را نیست و از آن چه نزد خدا نیست و از آن چه خدا آن را نمی داند؟
حضرت فرمود: آن که خدای را شریک نیست و آن چه نزد خدا نیست، ظلم است و آن چه خداوند آن را نمی داند، قول شما گروه یهودیان است که می گویید: عزیر، پسر خداست. و الله! خدا کسی را فرزند خود نمی داند.
جندل گفت: أشهد أن لا اله إلّا الله و انّک رسول الله حقا. بعد از آن گفت: ای رسول خدا! موسی بن عمران را در خواب دیدم که با من گفت: ای جندل! به دست محمد، مسلمان شو و به اوصیای بعد از او بگرو و به ایشان تمسّک نمای و از بدکیشان بی زاری جوی، چون خداوند عالمیان مرا توفیق داد و به خدمت رسانید و شرف اسلام روزیم گردانید، مرا بر حال اوصیای خود آگاه گردان تا به ایشان متمسّک شوم.
آن حضرت فرمود: ای جندل! اوصیای من به عدد نقبای بنی اسراییل اند.
جندل گفت: چنان چه در تورات یافتم، نقبای بنی اسراییل دوازده تن بودند.
آن حضرت فرمود: بلی! امامان که اوصیای بعد از من اند، در دوازده تن منحصراند.
جندل گفت: ایشان همه در یک زمان خواهند بود.
آن جناب فرمود: همه در یک زمان نخواهند بود، بلکه یکی بعد از دیگری به امر امامت و وصایت قیام خواهند نمود. تو خدمت سه تن از ایشان را درک خواهی کرد.
جندل گفت: اسامی ایشان را برایم ذکر فرما!
فرمود: تو، سید اوصیا و وارث علم انبیا و پدر ائمّه اتقیا، علی بن ابی طالب را بعد از من درخواهی یافت و پس از آن، دو فرزند او حسن و حسین را به ایشان تمسّک نمای و جهل جاهلان تو را فریفته نکند.
چون هنگام ولادت فرزند من علی بن الحسین، سید و سرور عابدان باشد، حکم خدا بر تو وارد گردد؛ یعنی اجل تو فرارسد و آخرین زاد تو از دنیا یک جرعه شیر باشد که آن را خواهی نوشید.
جندل گفت: ای رسول خدا! نام های اوصیای تو که بعد از علی بن الحسین برای مسلمین امامان اند، چیست؟
پیغمبر (صلّی الله علیه و آله) فرمود: چون مدّت امامت و وصایت علی بن الحسین، منقضی شود، پسر او محمد به امر امامت قائم گردد که لقب او باقر باشد، بعد از او، پسرش جعفر، که ملقّب به صادق است، پس از او، پسرش موسی که ملقّب به کاظم است، بعد از او، پسرش علی که او را رضا گویند، پس از او، پسرش محمد که او را تقی خوانند، بعد از او، پسرش علی که او را نقی گویند، پس از او، پسرش حسن، ملقّب به زکی و بعد از آن امامی از ایشان از مردمان غایب گردد.
جندل گفت: ای رسول خدا! حسن از ایشان غایب گردد؟
فرمود: نه! و لیکن پسر او، حجّت به غیبتی طولانی غایب گردد. جندل گفت: نام او چیست؟ رسول خدا فرمود: نام برده نشود تا زمانی که خداوند او را ظاهر سازد.
جندل گفت: به تحقیق موسی ما را به تو و اوصیای تو بشارت داد که از ذریّه تواند.
سپس رسول خدا این آیه را تلاوت فرمود: ﴿وَعَدَ الله الَّذِینَ آمَنُوا مِنْکُمْ وَ عَمِلُوا الصَّالِحاتِ لَیَسْتَخْلِفَنَّهُمْ فِی الْأَرْضِ کَمَا اسْتَخْلَفَ الَّذِینَ مِنْ قَبْلِهِمْ وَ لَیُمَکِّنَنَّ لَهُمْ دِینَهُمُ الَّذِی ارْتَضی لَهُمْ وَ لَیُبَدِّلَنَّهُمْ مِنْ بَعْدِ خَوْفِهِمْ أَمْناً﴾.
جندل گفت: ای رسول خدا! خوف ایشان از چه باشد؟
حضرت فرمود: در زمان هریک از ایشان، شیطانی باشد که ایشان را آزار کند و بر ایشان جفا نماید، چون خداوند حجّت را رخصت دهد، بیرون آید، زمین را از ظالمان پاک سازد و از عدل و داد پر کند، آن چنان که از ظلم و جور پر شده باشد.
خوشا به حال آنان که در زمان غایب شدن او، صابر باشند و خوشا به حال آن ها که به حجّت و طریقه او سالک و در مودّت و محبّت او ثابت باشند. ایشان، آنانند که خداوند در کتاب خود ایشان را به ﴿الَّذِینَ یُؤْمِنُونَ بِالْغَیْبِ﴾ (بقره: 3)، وصف فرموده و جای دیگر در کتاب خود، در صفت ایشان فرموده: ﴿أُولئِکَ حِزْبُ الله أَلا إِنَّ حِزْبَ الله هُمُ الْمُفْلِحُونَ﴾ (مجادله: 22).
جابر گفت: بعد از آن جندل بن جناده تا ایّام حسین زیست، سپس به طرف طایف رفت، در آن جا بیمار شد، در آن بیماری شیر طلبید، جرعه ای از آن نوشید و گفت: این عهدی است که رسول خدا فرموده بود آخرین زاد من از دنیا، جرعه ای شیر باشد. بعد از آن رحلت کرد و در طایف در موضعی مدفون گردید که به کورا معروف است(544).
[روایت دیگری از ابو حمزه ثمالی] 6 مسکه:
خبر چهاردهم: هم چنین از حسن بن علی بن سالم از پدر خود از ابی حمزه ثمالی از سعید بن جبیر از عبد الله بن عبّاس روایت کرده، پیغمبر (صلّی الله علیه و آله) فرمود: چون خداوند دنیا را آفرید، بر اهل زمین دیده ور شد، یعنی به نظر علمی، پس مرا از همه عالمیان برگزید، پیغمبری داد و به رسالت به عالمیان فرستاد.
مرتبه دوّم یا در رتبه دوّم به نظر قدرت به عالمیان نگریست، علی را اختیار نمود، به او امامت، کرامت فرمود و مرا امر نمود او را به برادری، وصایت، خلافت و وزارت فراگیرم. علی از من است و من از علی ام، او شوهر دختر من و پدر دو سبط من، حسن و حسین است.
آن گاه فرمود: آگاه باشید! خداوند، من و ایشان را بر بندگان خود حجّت گردانید و از صلب حسین، امامان را مقرّر فرمود که امر مرا به پای دارند و وصیّت مرا حفظ کنند.
سپس فرمود: نهم از امامان که از صلب حسین اند، قائم اهل بیت، مهدی امّت من و شبیه ترین مردمان به من در شمایل و افعال و اقوال خود است. بعد از غایب بودن دراز و حیرت مضلّه ظاهر خواهد شد.
ظاهرا مراد از حیرت مضلّه آن است که در زمان غیبت آن حضرت به مردمان حیرت دست دهد، از پس آن که غایب شدن آن حضرت طول کشد، به مرتبه ای که آن ها که قلوبشان به ایمان ممتحن نباشد، کارشان به ضلالت کشد.
پس فرمود: مهدی امر خدا را آشکار و دین خدا را ظاهر گرداند، به یاری کردن خدا مؤیّد گردد، ملایکه او را نصرت نمایند و زمین را از عدل و داد پر کند هم چنان که از ظلم و جور پر شده باشد(545).
[روایت سلمان فارسی]:
خبر پانزدهم: و نیز از علی بن الحکم از جعفر بن سلیمان الضبعی از سعد بن طریف از اصبغ بن نباته از سلمان فارسی روایت کرده، گفت: رسول خدا خطبه ای بر ما خواند و فرمود: ای گروه مردمان! من عن قریب رحلت کننده و به مغیب روانه شونده ام؛ شما را درباره عترت خود وصیّت می کنم که با عترت من نیکویی کنید و از بدعت بپرهیزید، به درستی که هربدعتی ضلالت است و لا محاله اهل ضلالت در جهنّم اند.
ای گروه مردمان! هرکس آفتاب را نبیند، پس می باید چنگ در زند و به ماه متمسّک شود؛ هرکس گم کند و ماه را نیابد، می باید به فرقدین متمسّک شود. هرگاه فرقدین را نیابید، به ستاره های روشن بعد از من متمسّک شوند. برای شما می گویم، بدانید! قول من، قول خداست. پس خدا را مخالفت نورزید در آن چه شما را به آن امر کرد و خدا می داند که من به شما رساندم آن چیزی که مرا به آن امر کرد و خدا را بر خود و بر شما شاهد می گیرم.
سلمان گفت: چون پیغمبر (صلّی الله علیه و آله) از منبر به زیر آمد، از پی او رفتم تا داخل خانه عایشه شد، درآمدم و گفتم: پدر و مادرم فدایت ای رسول خدا! شنیدم که فرمودی:
هرگاه آفتاب را نیابید، به ماه متمسّک شوید، چون ماه را گم کردید به فرقدین متمسّک شوید و چون فرقدان نباشد، به ستاره های روشن متمسّک شوید. گمان بردم در این آشکار گفتن، رمز و اشاره ای باشد.
آن حضرت فرمود: ای سلمان، نیکو یافته ای.
گفتم: ای رسول خدا! برای من روشن گردان و بیان فرما آفتاب، ماه، فرقدان و ستاره های روشن چیست؟
آن حضرت فرمود: آفتاب منم و علی، ماه است و چون مرا نیابید، بعد از من به علی متمسّک شوید. اما فرقدان حسن و حسین اند، هرگاه ماه را نیابید، به ایشان متمسّک شوید و اما ستاره های روشن، ایشان نه امام از صلب حسین اند و نهم ایشان، مهدی ایشان است. بعد از آن، حضرت فرمود: ایشان اوصیا و خلفای بعد از من و به شماره اسباط یعقوب و حواریّین عیسی و ائمّه ابرارند.
گفتم: ای رسول خدا! نام ایشان را برایم بیان فرما.
فرمود: اوّل و سید ایشان، علی بن ابی طالب است، بعد از او، دو سبط من حسن و حسین، بعد از او، علی بن الحسین، زین العابدین، پس از او، محمد بن علی، باقر علوم نبیّین، بعد از او، صادق، جعفر بن محمد، پس از او، کاظم، موسی بن جعفر، بعد از او رضا، علی بن موسی، آن که در زمین غربت کشته خواهد شد، سپس فرزند او، محمد، بعد از او، فرزندش علی، پس از او، فرزندش حسن و بعد از او، فرزندش حجّت قائم که در غایب بودنش منتظر و در ظهورش مطاع است.
به درستی که ایشان عترت من و از گوشت و خون من اند؛ علم ایشان، علم من و حکم ایشان، حکم من است و هرکس مرا درباره ایشان برنجاند، خدای تعالی شفاعت مرا به او نرساند(546).
[روایت عمّار بن یاسر] 7 مسکه:
خبر شانزدهم: هم چنین از عثمان بن عیسی از ابی حمزه ثمالی از اسلم از ابی الطفیل از عمّار بن یاسر روایت کرده گفت: چون وقت وفات پیغمبر (صلّی الله علیه و آله و سلّم) رسید، امیر المؤمنین (علیه السلام) را طلبید و در سرّ با آن حضرت بسیار سخن گفت، چنان که آن راز گفتن طول کشید. بعد از آن، آواز مبارک بلند نمود و فرمود: یا علی! تو وصیّ و وارث منی، خدای تعالی، علم و فهم مرا به تو عطا کرد، چون درگذرم، کینه هایی نسبت به تو ظاهر شود که در سینه های قومی است و حقّ تو را غصب خواهند کرد.
پس حضرت فاطمه (علیها السلام) گریست و امام حسن و امام حسین (علیهما السلام) هم به گریه درآمدند. آن گاه رسول خدا به فاطمه (علیها السلام) فرمود: ای بهترین زنان! چرا گریانی؟
فرمود: ای پدر! از هلاک شدن بعد از تو می ترسم.
فرمود: تو را بشارت باد! که اوّل کسی که از اهل بیت من به من خواهد رسید، تو خواهی بود. گریه مکن و محزون مباش که تو بهترین زنان اهل بهشتی، پدرت بهترین پیغمبران و پسر عمّت بهترین اوصیاست، دو پسرت، بهترین جوانان اهل بهشت اند و خدای تعالی نه امام معصوم مطهّر از صلب حسین بیرون خواهد آورد و مهدی این امّت از ماست(547).
[روایت ابن جبیر از عمّار]:
خبر هفدهم: نیز از حسن بن علی بن فضّال از عبد الله بن بکیر از عبد الملک بن اسماعیل اسدی از پدرش از سعید بن جبیر روایت کرده، گفت: به عمّار بن یاسر گفتند:
چه چیز تو را بر دوستی علی بن ابی طالب (علیه السلام) واداشت؟
گفت: خدا و رسول او مرا واداشته اند. به تحقیق خدای تعالی آیات جلیله در شأن او فروفرستاده و رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) در صفتش احادیث بسیار بیان فرمود.
گفتند: آیا به چیزی از آن چه پیغمبر (صلّی الله علیه و آله و سلّم) در شأن او گفته، ما را خبر نمی دهی؟
عمّار گفت: چرا خبر ندهم و حال آن که بیزارم از آن هایی که حق را پنهان می دارند و باطل را ظاهر می سازند. بعد از آن گفت: با رسول خدا بودم، که علی (علیه السلام) را در بعضی از غزوات دیدم که چندین تن از صاحبان علم های قریش را به قتل رسانید. به رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) گفتم: به درستی که علی (علیه السلام) حقّ جهاد در راه خدا را به عمل آورد.
حضرت فرمود: چه چیز او را از این امر باز تواند داشت؟!
به درستی که او، یعنی علی (علیه السلام) از من است و من از او هستم، او وارث من، قاضی و حکم کننده دین من و وفاکننده به وعده من و خلیفه بعد از من است؛ اگر او نبود، در زمان حیات من و بعد از وفات من مؤمن محض شناخته نمی شد.
جنگ او، جنگ من و جنگ من، جنگ خداست. آشنایی او، آشنایی من و آشنایی من، آشنایی خداست؛ خدای تعالی از صلب او ائمّه راشدین را بیرون خواهد آورد، ای عمّار! بدان که خدای تعالی با من عهد کرده دوازده خلیفه به من عطا کند؛ از جمله ایشان، علی است، او اوّل آن خلیفه ها و بهترین ایشان است.
گفتم: دیگران کیستند، ای رسول خدا!
فرمود: دوّم ایشان، حسن بن علی بن ابی طالب (علیهما السلام)، سوّم ایشان، حسین بن علی بن ابی طالب (علیهما السلام) و چهارم از ایشان، علی بن الحسین (علیه السلام)، که زینت عابدان است، پنجم ایشان، محمد بن علی، بعد از او پسرش جعفر، پس از او پسرش موسی، بعد از او پسرش علی، پس از او پسرش محمد، بعد از او پسرش علی، پس از او پسرش حسن و بعد از او پسر او، آن که از مردمان پنهان شود، پنهان شدن دراز و این معنی قول خدای تعالی است که می فرماید: ﴿قُلْ أَ رَأَیْتُمْ إِنْ أَصْبَحَ ماؤُکُمْ غَوْراً فَمَنْ یَأْتِیکُمْ بِماءٍ مَعِینٍ﴾ (ملک: 30).
بعد از آن بیرون آید و دنیا را پر از عدل و داد کند، آن چنان که از جور و ظلم پر شده باشد.
ای عمّار! زود باشد که بعد از من فتنه و آشوبی ظاهر گردد و چون چنین شد، علی (علیه السلام) و حزب او را پیروی کن که علی با حق و حق با علی است، زود باشد که تو به اتّفاق او با ناکثین و قاسطین مقاتله کنی؛ بعد از آن، فئه باغیه و گروه ستم پیشه تو را بکشند و آخرین زاد تو از دنیا یک جرعه شیر باشد که آن را بیاشامی.
سعید بن جبیر گفت: آن چنان شد که پیغمبر (صلّی الله علیه و آله و سلّم) خبر داده بود(548).
[روایت امام صادق از پیامبر] 8 مسکه:
خبر هجدهم: نیز از محمد بن ابی عمیر رضی الله عنه از غیاث بن ابراهیم از ابی عبد الله (علیه السلام) از پدرش محمد بن علی، از پدرش علی بن الحسین، از پدرش حسین بن علی روایت کرده، فرمود: از حضرت امیر المؤمنین (علیه السلام) از معنی قول رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) إنّی تارک فیکم الثّقلین کتاب الله و عترتی پرسیدند: عترت کیستند؟
حضرت امیر المؤمنین (علیه السلام) فرمود: عترت، منم و حسن و حسین و نه امام از فرزندان حسین که نهم ایشان، مهدی ایشان است. از کتاب خدای عزّ و جلّ جدا نمی شوند و کتاب خدا از ایشان جدا نمی شود تا بر رسول خدا در حوض او؛ یعنی حوض کوثر وارد شود(549).
[روایت عبد الله بن عباس]:
خبر نوزدهم: هم چنین از عبد الله بن جبله، از عبد الله بن مستیز، از مفضّل بن عمر، از جابر بن یزید الجعفی از عبد الله بن عبّاس روایت کرده، گفت: به مسجد رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) داخل شدم در حالی که امام حسن بر دوش شریف آن حضرت و امام حسین بر ران مبارکش بود؛ ایشان را مکرّر می بوسید و می گفت: بار خدایا! دوست دار آن کسی را که ایشان را دوست دارد و دشمن دار آن کسی را که ایشان را دشمن دارد.
پس فرمود: ای پسر عبّاس! گویا نظر می کنم این فرزندم حسین، به سیاه و سفید درهم آمیخته؛ یعنی موی ریش مبارکش، که از خونش رنگین شود، دعوت کند، کسی اجابتش نکند، یاری طلبد و کسی یاری اش ننماید.
گفتم: چه کسی مرتکب این فعل شود؟
فرمود: اشرار امّت من که خدای تعالی شفاعت مرا به آنان نرساند و عطا ننماید.
بعد از آن فرمود: ای پسر عبّاس! هرکس حسین را در حالی زیارت کند که به حقّ او عارف باشد؛ یعنی او را امام مفترض الطّاعه داند، خدای تعالی ثواب هزار حج و هزار عمره برای او می نویسد، بدان و آگاه باش که هرکس حسین را زیارت کند، حکم آن دارد که مرا زیارت کرده و هرکس مرا زیارت کند، گویا خدا را زیارت کرده و حقّ زیارت کننده بر خدا، آن است که او را به آتش دوزخ عذاب نکند. آگاه باش! که اجابت دعا زیر گنبد او و شفای امراض، مندرج در تربت او است و امامان از اولاد اویند.
ابن عبّاس گفت؛ گفتم: ای رسول خدا! بعد از تو چند امامند؟
آن حضرت فرمود: به عدد اسباط یعقوب و نقبای بنی اسراییل و حواریّین عیسی.
گفت؛ گفتم: اسباط و نقبا و حواریّین چند عدد بودند.
آن حضرت فرمود: دوازده بودند و امامان بعد از من، دوازده اند؛ اوّل ایشان، علی بن ابی طالب و بعد از او، دو سبط من حسن و حسین و چون مدّت امامت حسین منقضی شود، پسر او علی، چون مدّت او بگذرد، پس پسر او، محمد، چون مدّت او بگذرد، پس پسر او جعفر، چون ایّام حسن منقضی شود، پسر او موسی، ایّام موسی چون بگذرد، پسر او علی، چون مدّت او منقضی شود، پسر او، محمد، چون مدّت او منقضی شود، پسر او علی، چون مدّت او بگذرد، پسر او حسن، چون ایّام او منقضی شود، پس پسر او حجّت.
گفت؛ گفتم: ای رسول خدا! نام ها شنیدم که هرگز نشنیده بودم.
پیغمبر فرمود: آنان، امامان بعد از من اند؛ اگر چه مقهور شوند و امینان علم خدا، معصومان، نجیبان و برگزیدگان اند.
ای پسر عبّاس! هرکس در روز قیامت بیاید، در حالی که به حقّ ایشان عارف باشد، من او را دست گرفته به بهشت درآورم.
ای پسر عبّاس! هرکس ایشان را انکار، یا یکی از آنان را ردّ کند، چنان باشد که مرا انکار کرده و ردّ نموده و هرکس مرا انکار نماید یا ردّ کند، چنان باشد که خدا را انکار نموده و ردّ کرده.
ای پسر عبّاس! زود باشد که مردمان به چپ و راست میل نمایند و هرگاه چنان باشد، تو علی و حزب او را متابعت نمای. به درستی که علی با حقّ و حقّ با علی است و از هم جدا نشوند تا در کنار حوض کوثر، بر من وارد گردند.
ای پسر عبّاس! دوستی علی، دوستی من و دوستی من، دوستی خداست و جنگ کردن با ایشان، جنگ کردن با من و جنگ کردن با من، جنگ کردن با خداست و آشتی کردن با ایشان، آشتی کردن با من و آشتی کردن با من، آشتی کردن با خدا است. بعد از آن پیغمبر (صلّی الله علیه و آله) این آیه را تلاوت فرمود: ﴿یُرِیدُونَ أَنْ یُطْفِؤُا نُورَ الله بِأَفْواهِهِمْ وَ یَأْبَی الله إِلَّا أَنْ یُتِمَّ نُورَهُ وَ لَوْ کَرِهَ الْکافِرُونَ﴾ (توبه: 32)(550).
[روایت ثابت از امام صادق (علیه السلام)] 9 مسکه:
خبر بیستم: هم چنین از حسن بن محبوب، از مالک بن عطیّه، از ثابت بن دینار، از ابی جعفر (علیه السلام) روایت کرده، حسین بن علی بن ابی طالب (علیهما السلام)، یک شب پیش از آن که شهید شود، به اصحاب خود، روزی رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) به من گفت: ای فرزند من! زود باشد که تو را به سوی عراق برسانند و تو را به زمینی فرود آورد که آن را عمورا و کربلا گویند و تو در آن زمین شهید شوی و جماعتی با تو شهید شوند.
به تحقیق نزدیک شده آن عهدی که رسول خدا با من کرده بود و من فردا به سوی آن حضرت روانه ام، هرکس از شما برگشتن را دوست دارد، باید در همین شب برگردد که من او را اذن برگشتن دادم و او از من به حلّ است. آن جناب در این باب تأکید و مبالغه تمام نمود و ایشان راضی به برگشتن نشدند و گفتند: به خدا قسم! تو را وانمی گذاریم و هرگز از تو جدا نمی شویم تا آن که به جایی که وارد می شوی، ما نیز وارد شویم.
آن حضرت چون این عزیمت را از ایشان دید، فرمود: شما را به بهشت بشارت باد! به خدا قسم! بعد از آن چه بر ما وارد شود، آن قدر درنگ خواهیم نمود که خدای تعالی خواسته باشد. پس خدای تعالی ما و شما را بیرون خواهد آورد در آن هنگام که قائم ما ظاهر شود. پس از ظالمان انتقام خواهد کشید و ما و شما ایشان را در زنجیرها و غل ها گرفتار انواع عذاب و نکال مشاهده خواهیم کرد.
به آن حضرت گفتند: ای فرزند رسول خدا قائم شما کیست؟!
فرمود: فرزند هفتمین از اولاد فرزند من محمد بن علی باقر است، او حجّت بن حسن بن علی بن محمد بن علی بن موسی بن جعفر(551) بن محمد بن علی فرزند من است، او آن کسی است که مدّتی دراز غایب خواهد شد و بعد از آن، ظاهر خواهد شد و زمین را از عدل و داد پر خواهد کرد، چنان که از جور و ظلم پر شده باشد(552).
[روایت صفوان بن یحیی]:
خبر بیست و یکم: نیز از صفوان بن یحیی رضی الله عنه از ابراهیم بن ابی زیاد از ابی حمزه ثمالی از ابی خالد کابلی روایت کرده، گفت: بر سید خود، علی بن الحسین بن علی بن ابی طالب داخل شدم و گفتم: ای فرزند رسول خدا! مرا از آن کسانی خبر ده که خدای تعالی، اطاعت و مودّت ایشان را فرض و اقتدا کردن به ایشان را، بعد از رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) بر بندگان خود واجب کرده.
حضرت فرمود: ای کابلی! به درستی که اولی الأمری که خدای تعالی ایشان را امامان مردم قرار داده و فرمان برداری ایشان را بر مردم واجب فرموده، امیر المؤمنین (علیه السلام)، آن گاه عمّ من، حسن، پس از آن، امر امامت به ما و آن جناب منتهی شده.
گفتم: ای سید من! برای ما از حضرت امیر المؤمنین (علیه السلام) روایت کرده اند که زمین از حجّتی که خدای را بر بندگانش باشد، خالی نمی ماند. پس حجّت و امام بعد از تو کیست؟
فرمود: پسرم محمد که نامش در صحف اولی باقر است. علم را خواهد شکافت شکافتنی، او حجّت و امام بعد از من است و بعد از محمد، پسرش جعفر که نامش نزد اهل آسمان صادق است.
گفتم: ای سید من! چگونه است که نام او صادق شده و حال آن که همه شماها صادقید؟
فرمود: پدرم از پدرش مرا حدیث کرد که پیغمبر (صلّی الله علیه و آله و سلّم) فرمود: چون فرزندم جعفر بن محمد بن علی بن الحسین بن علی بن ابی طالب (علیهم السلام) متولّد گردد، او را صادق نام کنید که پسر پنجمین از فرزندان او که نامش جعفر باشد، از روی تجرّی و دلیری بر خداوند و دروغ بستن بر او دعوای امامت خواهد کرد؛ پس او نزد خدای تعالی جعفر کذّاب است که افترازننده بر خدای تعالی و دعوی کننده چیزی است که اهل آن نیست و مخالف پدر خود و حسد دارنده بر برادر خود است، او کسی است که کشف سرّ خداوند عزّ و جلّ را نزد غیبت ولیّ خداوند قصد خواهد کرد.
آن گاه آن حضرت سخت گریست و فرمود: گویا جعفر کذّاب را می بینم که طاغیه زمان خود را به تفتیش امر ولیّ الله واداشته و در حفظ خدا پنهان شده و موکّل گردانیدن به حرم پدر آن حضرت، از روی جهلی که به رتبه ولیّ خداوند و حرص به قتل او دارد؛ اگر بر او ظفر بیابد و طمعی به میراث برادر خود دارد که آن میراث را به غیر حقّ بگیرد.
ابو خالد گفت؛ گفتم: ای فرزند رسول خدا! این امور، واقع شدنی است؟
فرمود: بلی! به پروردگارم سوگند! به درستی که این امور، نزد ما در کتابی نوشته شده که در آن کتاب، ذکر محنت هایی است که بعد از رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) بر ما جاری می شود.
ابو خالد گفت؛ گفتم: ای فرزند رسول خدا! بعد از آن چه خواهد شد؟
فرمود: بعد از آن، پنهان بودن به ولیّ خدا امتداد خواهد یافت که دوازدهمین از اوصیای رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) و دوازدهمین از امامانی است که بعد از رسول خدایند (صلّی الله علیه و آله).
ای ابو خالد! به درستی که اهل زمان غیبت او که قایل به امامتش و منتظر ظهورش هستند، از اهل هرزمانی اند، زیرا خدای تعالی از عقول و افهام و معرفت چیزی به ایشان عطا کرده که غیبت گردیده نزد ایشان به منزله مشاهده است و خدای تعالی ایشان را در آن زمان، به منزله جهادکنندگان به شمشیر در پیش روی رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) گردانیده. ایشان مخلصان از روی حق و شیعیان از روی صدق و داعیان به سوی دین خداوند عزّ و جلّ در نهانی و آشکاراند و فرمود: انتظار فرج از بهترین فرج هاست(553).
[روایت علقمه بن محمد] 10 مسکه:
خبر بیست و دوّم: نیز از علی بن الحکم رضی الله عنه از سیف بن عمیره از علقمه بن محمد حضرمی از حضرت صادق (علیه السلام) روایت کرده، فرمود: ائمّه دوازده اند.
گفتم: ای فرزند رسول خدا! نام های ایشان را برایم ذکر کن که پدر و مادرم فدای تو باد!
فرمود: از گذشتگان علی بن ابی طالب، حسن، حسین، علی بن الحسین و محمد بن علی - صلوات الله علیهم - و بعد از او، من.
گفتم: و بعد از تو ای فرزند رسول خدا!
فرمود: من به فرزندم موسی وصیّت کردم و او بعد از من امام است.
گفتم: امام بعد از موسی کیست؟
فرمود: پسرش علی که او را رضا گویند. در زمین غربت از خراسان دفن می شود، بعد از او پسرش محمد، پس از او پسرش علی، بعد از او پسرش حسن، سپس پسر او مهدی - صلوات الله علیهم - و چون او خروج نماید، سی صد و سیزده تن به عدد مردان بدر نزد او جمع شوند و چون زمان خروجش فرارسد، او را شمشیری در غلاف است، از غلاف بیرون آید، پس او را ندا کند: ای ولیّ خدا برخیز و دشمنان خدا را بکش(554)!
[روایت حضرت عبد العظیم]:
خبر بیست و سوّم: هم چنین از سهل بن زیاد آدمی از عبد العظیم بن عبد الله حسنی روایت کرده، گفت: بر سید خود، علی بن محمد؛ یعنی امام علی النّقی (علیهما السلام) داخل شدم، چون نظر حضرت بر من افتاد، فرمود: مرحبا به تو ای ابو القاسم! حقّا که تو دوست مایی.
گفتم: یا بن رسول الله! اراده دارم معالم دین خود را به تو عرض کنم؛ اگر مرضی و پسندیده تو باشد بر آن ثابت باشم تا آن که با خدای خود ملاقات کنم.
آن حضرت فرمود: یا ابا القاسم! آن چه داری بیار!
گفتم؛ می گویم: خدای تبارک و تعالی یکی است و او را مثل و مانند نیست، خارج از دو حدّ است که آن حدّ ابطال و دیگری حدّ تشبیه است، او سبحانه تعالی جسم نیست، صورت و عرض و جوهر هم نیست، بلکه او جلّ جلاله جسم دهنده جسم ها، صورت بخشنده صورت ها و آفریننده اعراض و جواهر است، پروردگار هرچیز و مالک و جاعل و محدّث آن چیز است.
می گویم: محمد (صلّی الله علیه و آله و سلّم) بنده و رسول او و خاتم پیغمبران است و تا روز قیامت پیغمبری بعد از او نیست و می گویم: شریعت او ختم کننده شریعت هاست و تا روز قیامت، بعد از آن شریعت، شریعتی نیست.
می گویم: امام و خلیفه و ولیّ امر بعد از او امیر المؤمنین، علی بن ابی طالب است و بعد از او، فرزندش حسن و پس از او حسین، آن گاه علی بن الحسین، پس محمد بن علی، سپس جعفر بن محمد، آن گاه موسی بن جعفر، پس علی بن موسی، سپس محمد بن علی و تو ای مولای من!
امام (علیه السلام) فرمود: بعد از من امام و خلیفه و ولیّ امر، فرزند من حسن است. پس عقیده مردمان درباره خلف بعد از او چگونه است؟
گفتم: ای مولای من، آن بر چه وجه است؟
فرمود: از آن جهت که شخص او را نبینند و بر زبان آوردن نام او حلال نباشد، تا آن که خروج کند و زمین را از عدل و داد پر گرداند، آن چنان که از جور و ظلم پر شده باشد.
عبد العظیم - سلام الله علیه - گفت؛ پس گفتم: اقرار کردم؛ یعنی به امامت امام حسن و خلف نیز، قایل شدم و می گویم: دوست این امامان، دوست خدا و دشمن ایشان، دشمن خداست، طاعت ایشان؛ یعنی فرمان برداری نمودن ایشان، اطاعت و فرمانبرداری خدا و معصیّت ایشان؛ یعنی نافرمانی نمودن ایشان، معصیّت و نافرمانی خداست.
می گویم: معراج، حقّ و پرسش در قبر، حقّ است، بهشت حق و دوزخ حقّ است، صراط حق و میزان حقّ است، قیامت حق و آینده حق است، شکّی در آن نیست.
خدای تعالی هرکسی را که در قبرهاست، خواهد برانگیخت و می گویم: فرایض واجبه، بعد از ولایت و دوستی خدا و رسول و ائمّه، نماز، زکات، روزه، حجّ، جهاد، امر به معروف و نهی از منکر است.
پس امام (علیه السلام) فرمود: ای ابو القاسم! به خدا قسم این اعتقاد که تو داری و عرض کردی، دین خداست. آن دینی که برای بندگان خود پسندیده است، پس بر آن ثابت باش، که خدای تعالی تو را به قول ثابت در حیات دنیا و در آخرت ثابت بدارد(555).
[حدیث محمد بن جبار] 11 مسکه:
خبر بیست و چهارم؛ نیز از محمد بن عبد الجبّار روایت کرده، گفت؛ به خواجه و مولای خود حسن بن علی (علیهما السلام) گفتم: ای فرزند رسول خدا! خداوند مرا فدای تو گرداند! دوست دارم بدانم بعد از تو امام و حجّت خدا، بر بندگان کیست؟
آن حضرت فرمود: امام و حجّت بعد از من، پسر من است که هم نام و هم کنیه رسول خدا است؛ او که خاتم حجّت های خدا و آخرین خلفای او است.
گفتم: او از کیست؛ یعنی آن امام که پسر تو است از که به وجود خواهد آمد؟
فرمود: از دختر پسر قیصر، پادشاه روم. بدان و آگاه باش! زود باشد که او متولّد گردد، پس از مردمان غایب شود غایب شدنی دراز، بعد از آن ظاهر شود و دجّال را بکشد. سپس زمین را از عدل و داد پر کند، هم چنان که از جور و ظلم پر شده باشد.
برای احدی حلال نیست پیش از خروجش، او را به نام و کنیه ذکر کند.
آن گاه فرمود: صلوات خدا بر او باد(556)!
[روایات دیگر]:
خبر بیست و پنجم: ایضا از احمد بن اسحاق بن عبد الله الاشعری روایت کرده، گفت: از امام حسن عسکری (علیه السلام) شنیدم، می گفت:
حمد و سپاس خداوندی که مرا از دنیا بیرون نبرد تا خلف را به من نمود که بعد از من و شبیه ترین مردمان به حضرت رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) از روی خلق و خلق است.
خداوند در زمان غایب بودنش او را محافظت خواهد نمود و بعد از آن او را ظاهر خواهد گردانید. پس زمین را از عدل و داد پر خواهد کرد، هم چنان که از ظلم و جور پر شده باشد(557).
خبر بیست و ششم: نیز از محمد بن علی بن حمزه بن الحسین بن عبید الله بن العبّاس بن علی بن ابی طالب (علیه السلام) روایت کرده، گفت: از امام حسن عسکری (علیه السلام) شنیدم، می گفت: ولیّ و حجّت خدا بر بندگان و خلیفه بعد از من، در شب نیمه ماه شعبان سال دویست و پنجاه و پنج، هنگام طلوع فجر ختنه کرده متولّد شد. اوّل کسی که او را شست، رضوان، خازن بهشت، با جمعی از ملایکه مقرّبین بود که او را به آب کوثر و سلسبیل شستند. بعد از آن عمّه من حکیمه خاتون، دختر امام محمد بن علی رضا (علیهما السلام) او را شست.
پس، از محمد بن علی که راوی این حدیث است، از مادر حضرت صاحب الامر (علیه السلام) پرسیدند، گفت: مادرش ملیکه بود که بعضی روزها او را سوسن و بعضی از ایّام، ریحانه می گفتند، صیقل و نرجس نیز از نام های او بود(558).
خبر بیست و هفتم: هم چنین از ابراهیم بن محمد بن فارس النیشابوری روایت کرده، گفت: چون عمرو بن عوف والی، به کشتن من همّت کرد و - او مردی بود که به قتل شیعیان میل تمام داشت - من خبر یافتم، خوفی عظیم بر من غالب شد، اهل و عیال و دوستان خود را وداع کردم و به خانه امام حسن عسکری (علیه السلام) روی آوردم تا آن حضرت را نیز وداع کنم و اراده گریختن داشتم.
چون به آن خانه درآمدم، پسری دیدم که پهلوی آن حضرت نشسته و رویش چون ماه شب چهارده بود. از نور و ضیای او به مرتبه ای حیران شدم که نزدیک بود آن چه در خاطر داشتم، فراموش کنم. به من گفت: ابراهیم! حاجت گریختن نیست. زود باشد که خدای تعالی شرّ او را از تو کفایت کند، حیرتم زیادتر شد. به امام حسن (علیه السلام) گفتم:
فدایت گردم! این پسر کیست که مرا از ما فی الضّمیر من خبر داد؟
آن حضرت فرمود: او فرزند من و خلیفه بعد از من است. او آن کسی است که غایب شود غایب شدنی دراز و بعد از پر شدن زمین از ظلم و جور ظاهر شود و زمین را از عدل و داد پر کند.
پس از آن حضرت، از نام او پرسیدم، فرمود: هم نام و هم کنیه پیغمبر است و حلال نیست کسی او را به نام یا کنیه ذکر کند، تا زمانی که خداوند تعالی دولت و سلطنت او را ظاهر سازد.
ای ابراهیم! آن چه امروز از ما دیدی و شنیدی پنهان دار الّا از اهلش. سپس بر ایشان و آبای کرام شان صلوات فرستادم و بیرون آمدم، در حالی که به فضل خدای تعالی مستظهر بودم و بر آن چه از حضرت صاحب الزّمان - صلوات الله علیه - شنیدم مرا وثوق و اعتماد بود. عمّ من، علی بن فارس بشارت داد که معتمد، خلیفه عبّاسی، برادر خود ابو احمد را فرستاد و او را به قتل عمرو بن عوف امر کرد. پس ابو احمد او را گرفت و بند از بندش جدا کرد(559).
[روایت حضرت عسکری (علیه السلام)] 12 مسکه:
خبر بیست و هشتم: نیز از ابو محمد عبد الله بن حسین بن سعد کاتب روایت کرده، گفت: حضرت عسکری (علیه السلام) فرمود: بنی امیّه و بنی عبّاس، شمشیرهای خود را به دو سبب بر ما گذاشتند؛ یکی آن که می دانستند، در خلافت حقّی برای ایشان نیست و می ترسیدند از آن که ما دعوای خلافت کنیم و خلافت در جای خود قرار گیرد. دوّم آن که از اخبار متواتر واقف شده بودند زوال ملک جبّاران و ظالمان، در دست قائم ما خواهد بود و شکّ نداشتند در آن که ایشان از جابران و ظالمان اند.
بنابراین در کشتن اهل بیت رسول خدا و نیست و نابود کردن نسل آن حضرت کوشش کردند، از روی طمعی که برای ایشان در وصول به منع تولّد حضرت قائم (علیه السلام) با کشتن آن حضرت بود؛ یعنی در کشتن اهل بیت رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) مبالغه می نمودند؛ به امید آن که شاید آن حضرت به وجود نیاید یا اگر به وجود آمده باشد، کشته شود تا ملک و پادشاهی از دست ایشان در نرود. لذا خداوند ابا نموده که امر آن حضرت را برای یکی از ظالمان کشف نماید، الّا آن که نور خود را تمام می گرداند، اگر چه مشرکان خوش نمی دارند(560).
[روایت عبد الله بن سنان]:
خبر بیست و نهم: ایضا از فضاله بن ایّوب از عبد الله بن سنان روایت کرد، گفت:
پدرم از حضرت ابی عبد الله جعفر الصادق (علیه السلام)، از سلطان عادل سؤال کرد. آن حضرت فرمود:
او کسی است که خدای تعالی اطاعت و فرمان برداری او را بعد از انبیا و مرسلین بر جمیع آدمیان و جنّیان فرض گردانیده و او سلطانی بعد از سلطانی است، تا آن که به سلطان دوازدهم منتهی می شود. پس مردی از اصحاب آن حضرت گفت: ای فرزند رسول خدا! برای ما صفت کن که ایشان کیستند؟
آن سرور فرمود: ایشان آن کسان اند که خدای تعالی درباره ایشان فرموده:
﴿أَطِیعُوا الله وَ أَطِیعُوا الرسُولَ وَ أُولِی الْأَمْرِ مِنْکُمْ﴾ (نساء: 59) و آن کسان اند که خاتم ایشان، آن کسی است که عیسی (علیه السلام) در زمان دولت او از آسمان فرود خواهد آمد و در خلف او نماز خواهد گزارد. او آن کسی است که دجّال را خواهد کشت و خدای تعالی مشارق و مغارب زمین را به دست او مفتوح خواهد ساخت و پادشاهی و سلطنت او تا روز قیامت خواهد کشید(561).
مناسب است در این جا حدیثی ذکر شود که شیخ مذکور از محمد بن ابی عمیر و صفوان بن یحیی هردو از جمیل بن درّاج از حضرت صادق (علیه السلام) از پدران خود از امیر المؤمنین که آن حضرت فرمود: اسلام و سلطان عادل دو برادر توأم اند. شایسته نیست یکی از آن دو، مگر با رفیق و صاحبش. اسلام اساس و سلطان عادل، پاسبان و نگاه دارنده آن اساس است. آن چه آن را اساس نیست، منهدم و آن چه آن را پاسبان نیست، نابود و ناچیز است.
پس از این جهت که چون قائم ما رحلت خواهد کرد، اثری از اسلام باقی نخواهد ماند و چون اثری از اسلام نماند، اثری از دنیا باقی نخواهد ماند(562).
[روایت زراره]:
خبر سی ام: نیز از محمد بن ابی عمیر رضی الله عنه از عمرو بن اذینه از زراره از ابی جعفر (علیه السلام) روایت کرده، فرمود: به درستی که خدای تعالی چهارده نور آفرید، پیش از آن که به چهارده هزار سال چیزهای دیگر را بیافریند و آن چهارده نور، ارواح ماست.
کسی به آن حضرت عرض کرد: ای فرزند رسول خدا! آن چهارده نور کیستند؟
فرمود: محمد است و علی، فاطمه، حسن، حسین و امامان از فرزندان حسین - صلوات الله علیهم - که آخر ایشان، حضرت قائم (عجّل الله فرجه) است. آن که بعد از غایب شدنی طولانی قیام خواهد نمود، دجّال را خواهد کشت و زمین را از هرجور و ظلمی پاک خواهد کرد(563).
[روایت سلمان فارسی] 13 مسکه:
خبر سی و یکم: نیز از حسن بن علی بن فضّال و ابن ابی نجران از حمّاد بن عیسی از عبد الله بن مسکان از ابان بن تغلب از سلیم بن قیس هلالی از سلمان فارسی روایت کرده، گفت: پیغمبر (صلّی الله علیه و آله و سلّم) فرمود: ای مردمان آ گفتند: بشارت بده!
آن حضرت فرمود: بدانید که خدای تعالی در میان امّت من پادشاه عادل و امام قاسطی را خواهد برانگیخت که زمین را از عدل و داد پر کند، آن چنان که از جور و ظلم پر شده باشد، او نهمین از اولاد فرزند من حسین است، اسم او، اسم من و کنیّه او، کنیّه من است. بدانید و آگاه باشید که در زندگانی بعد از او خیر و خوشی نیست و انتهای دولت او نخواهد بود الّا پیش از قیامت به چهل روز(564).
[روایت کفایه المهتدی]:
خبر سی و دوم: در کفایه المهتدی(565) در احوال مهدی (علیه السلام) از کتاب غیبت حسن بن حمزه علوی طبری نقل کرده، او فرمود: شیخ ابو علی محمد بن همام رضی الله عنه در کتاب نوادر الانوار خود گفته: محمد بن عثمان بن سعید زیّات رضی الله عنه ما را خبر داد، گفت: شنیدم پدرم می گفت: از حضرت ابو محمد؛ یعنی امام حسن عسکری (علیه السلام) از معنی حدیثی پرسیدند که از آبای گرامی آن حضرت روایت کردند که ایشان فرمودند: زمین خالی نمی ماند از حجّتی که برای خدای را تا به روز قیامت بر خلق باشد، به درستی که هرکس بمیرد و امام زمان خود را نشناخته باشد، به مردن جاهلیّت مرده است.
آن حضرت فرمود: این حقّ است، هم چنان که روز حق است؛ یعنی چنان که روز ظاهر و روشن است، این حدیث نیز مبیّن و مبرهن است.
گفتند: ای فرزند رسول خدا! حجّت و امام بعد از تو کیست؟
فرمود: فرزند من بعد از من، امام و حجّت است، هرکس بمیرد و او را نشناخته باشد، به مردن جاهلیّت مرده است؛ یعنی حکم آن ها را دارد که زمان اسلام را درنیافته و کافر مرده. آگاه باش که برای او غایب شدنی خواهد بود که جاهلان در آن حیران خواهند شد و مبطلان در آن هلاک خواهند شد و وقت قراردهندگان در آن زمان دروغ خواهند گفت.
بعد از آن خروج خواهد نمود، گویا به علم هایی نظر می کنم که می درخشد و بالای سر او در نجف کوفه حرکت می کند.
شیخ ابو علی مذکور از اعیان علمای ما و این کتاب به کتاب انوار معروف است و غالب محدّثین از آن نقل می کنند و شیخ شهید اوّل، مکرّر در مجامیع خود از آن نقل می کند و محمد بن عثمان و پدرش از وکلای معروفین اند.
[روایات دیگر]:
خبر سی و سوّم: علی بن حسین مسعودی در اثبات الوصیّه(566) از سعد بن عبد الله از هارون بن مسلم از مسعده به اسناد خود از حضرت کاظم (علیه السلام) روایت کرده، رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) فرمود:
به درستی که خداوند عزّ و جلّ از روزها، روز جمعه، از شب ها شب قدر و از ماه ها، ماه رمضان را برگزید و مرا از رسولان، علی را از من، حسن و حسین را از علی و نه تن را از ایشان برگزید که نهمین ایشان، قائم ایشان است، او ظاهر و باطن ایشان است.
خبر سی و چهارم؛ نیز از حمیری به اسناد خود از ابن ابی عمیر از سعید بن غزوان از ابی بصیر از ابی جعفر باقر (علیه السلام) روایت کرده، فرمود: ما بعد از حسین (علیه السلام) نه تن اند که نهم آنان، قائم و افضل ایشان است.
خبر سی و پنجم؛ هم چنین از حمیری از امیّه بن قیسی از هیثم تمیمی روایت کرده، گفت؛ ابا عبد الله (علیه السلام) فرمود: هرگاه سه اسم محمد و علی و حسن پی درپی شد، چهارم ایشان، قائم ایشان است.
[روایت امام باقر از جابر] 14 مسکه:
خبر سی و ششم؛ نیز به سند مذکور از ابی السفایح از جابر جعفی از ابی جعفر باقر (علیه السلام) از جابر بن عبد الله انصاری روایت کرده، گفت: روزی بر حضرت فاطمه، دختر رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) داخل شدم، در حالی که لوحی پیش روی او بود که نزدیک بود روشنایی آن، دیده ها را خیره کند. سه اسم در ظاهر آن و سه اسم در باطن آن بود، سه اسم در یک طرف و سه اسم در طرف دیگر که از ظاهر او دیده می شد آن چه در باطن او بود و از باطن او دیده می شد آن چه در ظاهر او بود. پس نام ها را شمردم، دیدم دوازده اسم است.
گفتم: این ها کیستند؟
فرمود: این نام های اوصیا از فرزندان من است که آخر ایشان، قائم است.
جابر گفت: در آن، محمد را در سه موضع و علی را در سه موضع دیدم.
[روایت ابن غزوان از رسول خدا (صلی الله علیه و آله)]:
خبر سی و هفتم؛ هم چنین از حمیری از احمد بن هلال از محمد بن ابی عمیر از سعید بن غزوان از ابی بصیر از ابی عبد الله (علیه السلام) روایت کرده، گفت، رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) فرمود:
خداوند از روزها، روز جمعه، از ماه ها، ماه رمضان و از شب ها، شب قدر را اختیار کرد و از مردم، پیغمبران و از پیغمبران، رسولان و از رسولان مرا اختیار کرد، از من، علی و از علی (علیه السلام)، حسن و حسین و از حسین اوصیا را اختیار فرمود که از تنزیل، تحریف غالین و انتحال مبطلین و اقاویل جاهلین را نابود می کنند، نهم ایشان، باطن ایشان است، او ظاهر و قائم ایشان است.
[روایات دیگر]:
خبر سی و هشتم؛ نیز گفته: حمیری از محمد بن عیسی از نضر بن سوید از یحیی حلبی از علی بن ابی حمزه مرا خبر داد، گفت: با ابو بصیر بودم و آزاد کرده ای از حضرت ابی جعفر (علیه السلام) با ما بود. پس ما را حدیث کرد که او از آن جناب شنید که فرمود: از ما دوازده محدّث است و قائم هفتم، بعد از من می باشد.
ابو بصیر برخاست، نزد او آمد و گفت: شهادت می دهم که از ابو جعفر (علیه السلام) شنیدم که این سخن را از چهل سال پیش ذکر می کرد.
خبر سی و نهم؛ ایضا از حمیری از محمد بن خالد کوفی از منذر بن محمد بن قابوس از نظر بن سندی از ابی داود از ثعلبه از ابی مالک جهنی از حارث بن مغیره از اصبغ بن نباته روایت کرده، گفت: نزد امیر المؤمنین (علیه السلام) رفتم، پس آن جناب را یافتم که در زمین نشان می گذارد؛ یعنی چون انسان متفکّر که با چوب یا دست، بر روی زمین خطّی می کشد، گفتم: یا امیر المؤمنین! چه شده شما را متفکّر بینم که در زمین نشان می گذاری؟ آیا میلی به دنیا کردی؟
فرمود: نه، و الله! هرگز رغبتی به آن نکردم، لکن در مولودی فکر می کردم که از پشت یازدهم من، از فرزند من می شود. او مهدی است که زمین را از عدل و داد پر می کند، چنان چه از جور و ظلم پر شده. برای او غیبتی است و در امر او حیرتی است که گروهی در آن گمراه می شوند و دیگران، در آن هدایت می یابند.
خبر چهلم؛ نیز از سعد بن عبد الله از حسن بن عیسی از محمد بن علی از علی بن جعفر از حضرت کاظم (علیه السلام) روایت کرده؛ فرمود:
چون پنجمین، از فرزند هفتمین مفقود شود، خدا را، در دین های خود حذر کنید که احدی شما را از آن زایل نکند، به درستی که برای صاحب این امر از غیبتی لابدّ است، تا این که از او برگردد کسی که به او؛ یعنی به امامت او قایل است؛ جز این نیست که او محنتی از جانب خدای تعالی است که به او خلق خود را امتحان کرده.
گفتم: ای سید من! پنجمین از فرزند هفتمین کیست؟
فرمود: عقل های شما صغیرتر از این؛ یعنی از شناختن او است لکن اگر زنده بمانید، زود است که او را درک کنید. به این عدد میمون کلام را ختم کنیم، انتهی الخبر بتوفیقه تعالی.

عبقریّه دهم [معجزات]

در بیان بعضی از معجزات و برخی از کرامات حضرت بقیّه الله (عجّل الله فرجه الشریف) است، علاوه بر آن چه که در مطاوی این کتاب، عموما و در بساط چهارم آن، خصوصا ذکر شده است.
این ناچیز چنین مناسب دیدم که من باب مقدّمه، از هریک از آبای معصومین آن بزرگوار، چند معجزه شفاء لقلوب المؤمنین و غیظا لقلوب المنافقین در چند مسکه ایراد کنم، سپس با ذکر بعضی از معجزات آن سرور، این عبقریّه را خاتمه دهم. بنابراین می گوییم:
[معجزه ردّ الشمس برای امیر المؤمنین (علیه السلام)] 1 مسکه:
یکی از معجزات قاهره و کرامات باهره حضرت مولی الموالی، العلیّ العالی، ردّ شمس و برگشتن آفتاب برای آن بزرگوار است که مؤالف و مخالف آن را در کتب خود ذکر نموده اند. در این مقام و مضمار، زیاده از سی حدیث و خبر وارد گردیده؛ از جمله شیخ مفید در امالی(567) به سند خود از فاطمه بنت علی بن ابی طالب و اسماء بنت عمیس روایت کرده که اسماء گفت:
روزی، بر رسول خدا وحی نازل شد و به خواب وحی رفت. علی (علیه السلام) جامه خود را روی او افکنده، او را پوشاند تا آن که آفتاب غروب کرد، چون بیدار شد، فرمود: یا علی!
نماز عصر به جای آورده ای؟
عرض کرد: نه، یا رسول الله! به تو مشغول بوده، از نماز بازماندم.
رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) عرض کرد: اللّهمّ اردد الشّمس إلی علیّ بن ابیطالب، چون رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) دعا کرد، آفتاب برگشت تا آن که حجره من و نصف مسجد را گرفت.
ردّ شمس برای حضرت امیر المؤمنین (علیه السلام) در این واقعه در حجره طاهره رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) بوده؛ چنان که ظاهر روایت چنین است:
سر مبارک خود را در دامن من گذارد، راه نفس او تنگ شده، چنان که سینه مبارکش صدا درمی داد. هنگام نماز فرارسید و من مکروه داشتم سر مبارکش را از روی زانوی خود حرکت دهم و او رنج کشد. خود را نگاه داشتم تا آن که وقت نماز عصر گذشت و نماز از من فوت شد. چون رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) بیدار شد، فرمود: یا علی! نماز گزاردی؟
عرض کردم: نه!
فرمود: چرا؟
عرض کردم: مکروه داشتم تو را آزار دهم. پس آن حضرت برخاست، رو به قبله ایستاد، هر دو دستش را بلند کرد و گفت: خداوندا! آفتاب را به جای عصر برگردان تا علی نماز گزارد. آفتاب برگشت تا به جای عصر رسید و علی نماز عصر گزارد. سپس آفتاب فرورفت؛ مانند فرورفتن ستاره که از جای خود کنده شود و به جهت دیگر فرو رود.
ابن شهر آشوب در کتاب مناقب(568) به چند سند از امّ سلمه، اسماء بنت عمیس، جابر انصاری، ابو ذر، ابن عبّاس، ابو سعید خدری، ابو هریره و نیز از حضرت صادق (علیه السلام) روایت کرده؛ رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) به کراع الغیم نماز به جای آورد و چون سلام نماز را داد، وحی بر او نازل شد، ناگاه علی (علیه السلام) بیامد و رسول خدا را بدان حالت دید. آن حضرت را بر سینه گرفت و بدان حالت بود تا آفتاب غروب کرد و پیوسته قرآن بر آن حضرت نازل می شد، چون وحی تمام شد، فرمود: یا علی! نماز گزارده ای؟
عرض کرد: نه!
فرمود: دعا کن خدای تعالی آفتاب را برایت برگرداند. علی دعا کرد و آفتاب برگشت.
نیز ابن شهر آشوب به سند خود از اسماء بنت عمیس روایت کرده، که اسماء گفت:
به خدا قسم! وقت غروب آفتاب، آوازی شنیدم؛ مانند آواز ارّه ای که در چوب کشند و این قضیّه به ظهیاء در غزوه خیبر واقع شد.
هم چنین مروی است حضرت امیر المؤمنین (علیه السلام) صبر نموده، نماز را به ایما و اشاره و رکوع و سجود آن را نشسته به جای آورد، چون وحی منجلی شد و آفتاب برگردید، نماز را اعاده فرمود.
رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) به حسان بن ثابت امر کرد این قضیّه را به نظم درآورد، حسان این قضیّه را به نظم درآورد، این چند بیت را انشا نموده، عرض کرد:
«لا یقبل التّوبه من تائب * * * الّا بحبّ ابن ابی طالب
اخی رسول الله بل صهره * * * و الصّهر لا یعدل بالصّاحب
یا قوم! من مثل علیّ و قد * * * ردّت علیه الشّمس من غائب»
سید مرتضی - علیه الرحمه - به سند خود از حضرت سیّد الشهدا (علیه السلام) روایت کرده که چون حضرت امیر المؤمنین (علیه السلام) از جنگ نهروان مراجعت نمود، به مسجد براثا نزول اجلال فرمود که محلّه ای قدیمی در جانب بغداد است و نماز ظهر را در آن جا به جای آورد، از آن جا کوچ کرده، داخل زمین بابل شدند، هنگام نماز عصر رسید، مردم عرض کردند: یا امیر المؤمنین! وقت نماز عصر رسید.
فرمود: این زمین بدی است و چندین مرتبه اهل خود را فروبرده.
به روایت صدوق - علیه الرحمه - حضرت فرمود: این سرزمین، ملعون است. زیرا سه مرتبه در این موضع عذاب نازل شد و یک نوبت دیگر هم، عذابی در این موضع نازل خواهد شد، این اوّل زمینی است که در آن، بت پرستیده شده و برای پیغمبر و وصیّ پیغمبر جایز نیست در این سرزمین نماز گزارند، هرکس از شما خواهد نماز گزارد.
بعضی از مردم خود را به کناره راه کشیده، مشغول نماز شدند و منافقین بعضی حرف ها می زدند، آن حضرت بر استر رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) سوار شده، از آن سرزمین گذشت.
جویریّه بن مسهر عبیدی گوید: من با دویست سوار، عقب آن حضرت برفتیم و گفتم: به خدا سوگند! نماز نمی گزارم تا او نماز گزارد، تا آن که آفتاب، میل به غروب کرد، غایب شد و افق سرخ گردید. پس حضرت امیر المؤمنین (علیه السلام) ملتفت من شد.
به روایت صدوق، جویریّه گفت: در دل من شکّ عارض شد. پس حضرت امیر (علیه السلام) به جانب من ملتفت شد و فرمود: ای جویریّه! شکّ کردی؟
عرض کردم: بلی، یا امیر المؤمنین! سپس آن حضرت کناری فرود آمده، وضویی تازه کرد. بعد از آن به کلامی تکلّم فرمود که من نفهمیدم. دیدم آفتاب صدای عظیمی کرد، برگشت و به موضع نماز عصر ایستاد. حضرت برخاست، تکبیر گفت و نماز عصر به جای آورد، ما نیز با او نماز گزاردیم. چون نماز تمام شد، دیدم آفتاب، مانند چراغی که در طشت بگذارند، فرورفت و ستاره ها نمایان شد. در آن وقت حضرت امیر المؤمنین (علیه السلام) به جانب من رو کرد و فرمود: ای ضعیف الیقین! اذان نماز شام بگو.
مروی است چون جویریّه این معجزه را مشاهده کرد، گفت: به خدای کعبه قسم! این مرد، وصیّ پیغمبر است و به تحقیق کسی که مخالفت او نمود، هلاک شد و کافر و گمراه گردید(569).
به روایت شیخ طوسی - علیه الرحمه - در کتاب اعلام الوری(570) و شیخ مفید - اعلی الله مقامه - در کتاب ارشاد(571) روایت کرده اند که حضرت امیر المؤمنین (علیه السلام) اراده عبور از فرات نمود. اوّل، خود با فوجی از اصحاب عبور فرمود و نماز عصر را در وقت خود به جماعت ادا کرد.
بسیاری از مردم مشغول گذرانیدن چهارپایان و احمال و اثقال بودند تا آفتاب غروب کرد و نماز عصر از ایشان فوت شد، چون از کارهای خود فارغ شدند با یکدیگر نشسته، از نماز خود یاد آوردند، این سخن به سمع مبارک حضرت امیر المؤمنین (علیه السلام) رسید. از پروردگار منّان، ردّ شمس را برای ایشان طلبید که نماز خود را در وقتش گذارند و دست از این گفتگو بردارند.
حق تعالی مسؤول آن حضرت را اجابت فرموده، آفتاب را به جای عصر برگردانید تا آن که بر بالای کوهی که وقت نماز عصر بود، برآمد و چون سلام نماز دادند، همان لحظه، آفتاب سر به مغرب کشید و آوازهای عجیب و غریب از آن به گوش مردم رسید که بترسیدند و صدا به تسبیح، تهلیل، استغفار و حمد خدا به نعمت هایی که آشکار گردانید، در میان ایشان، بلند شد و این خبر به هرجای عالم برفت و میان مردم منتشر شد.
در آن جا مسجدی بنا کردند و اسم آن را ردّ الشمس نهادند که تا این زمان، آثار آن باقی است و بسیاری از اشخاص آن را دیده و شنیده اند.
برگشت اگر به حکم حیدر خورشید * * * از قدرت آن جناب مشمار بعید
انگشتر افلاک در انگشتش بود * * * هر سو که اراده داشت، برمی گردید
این ناچیز گوید: این مطلب از معجزات باهره و قضایای مشهوره آن افضل اتقیا و سرور اولیاست که مؤالف و مخالف، آن را به کرّات نقل نموده و علمای عامّه قریب به سی روایت در این باب، ذکر کرده اند. برای حضرت امیر المؤمنین (علیه السلام) چهارده مرتبه، ردّ شمس شده و علمای عامّه تعدّد در ردّ شمس را قبول نموده اند.
بعضی از اکابر، شانزده مرتبه ردّ شمس را برای آن حضرت نقل نموده اند و از این اخبار که در غایت اختصار نقل نمودیم، تعدّد وقایع آن معلوم می شود، چه آن که راویان اخبار و نقله آثار در روایات خود مکان ردّ شمس را معیّن نموده اند که هر مرتبه در مکان و زمان مخصوصی واقع شد.
از این واضح تر آن که علّامه حلّی - اعلی الله مقامه - ردّ شمس را برای واعظی که به مدح علی (علیه السلام) مشغول بوده، دعوی تواتر نموده.
ابن حجر عسقلانی که از متعصّبین علمای عامّه است، بعد از تصحیح و قبول کردن روایات ردّ شمس از مشایخ خود، حکایت واعظ را نقل نموده، می گوید: مشایخ ما گفته اند: ما در مجمع وعظ ابو منصور مظفّر بن اردشیر عبادی حاضر بودیم که بعد از عصری، آن واعظ بالای منبر رفته، مشغول به وعظ شد، تا آن که در مدح آن حضرت، حدیث ردّ شمس را به گوش هوش سامعان می رسانید و در مدح علی و اهل بیت او سخن می راند، تا آن که آفتاب به حوالی مغرب رسید و افق تاریک گردید، چون سخن واعظ ناتمام ماند، بالای منبر ایستاد، به آفتاب اشاره نمود و این سه بیت را ایستاده، بالبدایهه برخواند و گفت:
لا تغربی یا شمس حتّی ینتهی * * * مدحی لآل المصطفی و لنجله
و اثنی عنانک إن عزمت ثنائهم * * * انسیت یومک اذ رددت لأجله
ان کان للمولی وقوفک فلیکن * * * هذا الوقوف لخیله و لرجله
ای آن که تو خورشید جهان آرایی * * * ظاهر ز تو هرصبح ید و بیضایی
این عصر برای مدح اولاد رسول * * * بر دامن صبر آن سکون کش پایی
پس مدّتی آفتاب در افق توقّف نمود تا آن واعظ به حظّ خود، وعظ را تمام نمود(572). و الله العالم بحقایق الأمور، انتهی.
جوابات طارده لأعتراضات بارده:
بدان بعضی از علمای اهل سنّت و جماعت، بر ردّ شمس برای حضرت امیر المؤمنین (علیه السلام) چند اعتراض نموده اند؛ چنان چه مسلّم بین الفریقین است.
امّا اعتراض اوّل [حضرت پیغمبر در روز خندق نمازش فوت شد و شمس برای آن حضرت برنگشت]:
در یوم الخندق نماز عصر رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) فوت شد و برای آن حضرت برنگشت، پس اگر خورشید برای جناب علی بن ابی طالب (علیه السلام) برگشته باشد، لازم می آید علی افضل از رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) بوده باشد.
جواب از این اعتراض آن است که:
اوّلا: این سخن که نماز رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) در روز خندق فوت شده باشد، خطاست و با عصمت آن بزرگوار منافی می باشد.
ثانیا: اگر فرضا این حدیث هم، صحیح باشد، لا محاله ردّ شمس، برای آن بزرگوار نیز خواهد بود، چه بعضی ردّ شمس را برای جناب امیر (علیه السلام) در روز خندق، متعرّض شده و گفته اند: از برای آن حضرت پانزده مرتبه ردّ شمس شده است؛ چون یوم بساط، یوم خندق، یوم حنین، یوم خیبر، یوم قرقیسا، یوم بیراسا، یوم غاضریّه، یوم نهروان، یوم بیعه الرضوان، یوم صفّین و غیر ذلک، با آن که عموم عامّه از جمله خطیب دمشقی، حدیث ترک نماز رسول در یوم خندق را منکرند.
چنان که شیخ یونس بیاضی در کتاب صراط المستقیم می فرماید: «و قد ذکر خطیب دمشق عن صاحب الفتوح، انّ علیّا لیله الهریر بسط له نطع، فصلّی نافلته و السّهام تمرّ علیه، فلم ترغد و یروع النّبیّ یوم الخندق، فلا یصلّی و الهریر اشدّ من الخندق، لأنّها انکشفت عن ستّه و ثلثین ألف قتیل، فکان یلزم کون علیّ اشجع من النّبیّ (صلّی الله علیه و آله و سلّم) و بطلانه اجماعیّ»
اعتراض دوّم [نماز صبح رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) به خواب فوت شد و خورشید برنگشت]:
نماز صبح رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) به خواب فوت شد و خورشید برنگشت، پس چگونه برای علی بن ابی طالب برمی گردد؟!
جواب این اعتراض آن است که این مطلب از اکاذیب صرف است، چه آن که با عصمت آن حضرت منافی است و لازمه اش آن است که آن بزرگوار عمدا نماز صبح را ترک کرده باشد، زیرا مسلّم بین الفریقین است که آن بزرگوار فرموده اند: تنام عینی و لا ینام قلبی؛ کسی که قلب او هرگز در خواب نمی رود، لابد همیشه بیدار خواهد بود.
از این جاست که فقهای امامیّه در مورد خوابی که ناقض وضو است، فرموده اند: تبعا للأخبار، باید بر قلب مستولی باشد.
اعتراض سوّم [اگر خورشید برای آنحضرت برگشته باشد باید همه مردم دنیا آنرا می دیدند؟]:
اگر خورشید برای آن جناب برگشته باشد، باید همه اهل امصار در جمیع اقطار این کیفیّت را دیده و به یکدیگر گفته باشند، زیرا این مطلب که خورشید غروب کند، زمانی نگذرد که طلوع نماید و باز هم غروب کند، از عجایب امور و حوادث غریب است(573).
جواب این اعتراض به چند وجه است:
وجه اوّل؛ جواب نقضی است به تقریب این که تو که معترضی، شقّ القمر را برای حضرت رسول مسلّم داری و آن را از معجزات قاهرات آن بزرگوار می دانی. چه صریح قرآن مجید است: ﴿اقْتَرَبَتِ السَّاعَهُ وَ انْشَقَّ الْقَمَرُ﴾ (قمر: 1) و همین اعتراض بر این معجزه ثابته قاهره آن بزرگوار هم، وارد است. چنان که فرنگیان و اهالی اروپ نیز همین اعتراض را بر این معجزه نموده اند. پس آن چه جواب تو از این اعتراض است، جواب ما در این جا است.
این ناچیز گوید: در آیه دهم از عنوان اوّل باب اوّل کتاب خزینه الجواهر که به طبع رسیده، اجوبه شافیه ای از این اعتراض فرنگیان بر معجزه شقّ القمر ذکر نموده ام.
هرکس طالب باشد، به آن جا رجوع کند.
از جمله آن اجوبه، این وجه دوّم است که جواب اعتراض ردّ شمس هم می شود، بنابر آن چه بعضی از دانشمندان تقریر کرده اند.
ماحصل آن، این است که کره ارض مدوّر؛ یعنی گرد است؛ مانند هندوانه. به این معنی که آفتاب از تحت الارض خارج شده، از مشرق ممالک، طلوع می نماید ولی دفعه واحده تمام ارض را روشن نمی کند، بلکه به تدریج، نقاط، ممالک و اماکن را ضیابخشی و نورپاشی می نماید و به حسب تدریج، در اماکن مختلف تابش دارد.
در بعضی اماکن که روز است از قبیل مملکت چین و غیره؛ مثلا در اماکن دیگر از قبیل آسیا، آخر شب می شود و در مغرب زمین که غالبش ممالک اروپاست، اوّل، شب می شود و هکذا بالعکس، نقطه به نقطه، نصف، شب و نصف، روز، یعنی همان آنی که در بلدان مغربی روز است، در بلدان مشرقی شب می شود و بالعکس.
تنقیح این مطلب، موقوف به دانستن ریاضیّات و علم هیأت و هندسه است و مؤیّد این مطلب فی زماننا هذا آن است که وقتی مرحوم ناصر الدین شاه قاجار، سفر فرنگستان رفته بود؛ چنان که مقرّر و مشهود است، که اگر سیم های تلگراف خانه ها را به یکدیگر وصل نمایند، تخمینا در عرض یک ربع از مغرب به مشرق و بالعکس اعلام و مخابره با تلگراف ممکن است. لهذا شاه مزبور، در یکی از دولت های خارجه بعد از ظهر به تلگراف خانه آن جا رفته، چند نفر از امنای دولت نیز، همراهش بودند، سپس تلگرافی چند نفر از امنای دولت را به تلگراف خانه تهران احضار نموده بودند. علی التّخمین دو ساعت بعد، از دار الخلافه اطلاع دادند؛ حضرات حاضر شدند. شاه مرحوم، تغیّر فرمودند؛ چرا این قدر طول داده و دیر حاضر شدید؟
عرض می نمایند: قربان! شب است، خوابیده بودیم. همین که از جامه خواب، بیدار شدیم، معجّلا خود را به این جا رساندیم. مگر آن جا چه وقت است؟
جواب می دهند: این جا وقت عصر است.
بناء علی هذا می گوییم: اشکال بر معجزه شقّ القمر بسیار بی وجه است، چه شقّ القمر که در شب دوازدهم ماه شوّال یا چهاردهم آن یا غیر این ها - چنان چه اختلاف اخبار است - در مکّه معظّمه واقع شده باشد که جزء ممالک آسیاست، البتّه همان حین در ممالک اروپا که مغرب زمین اند، بالمقایسه الصّحیحه، وقت ظهر یا عصر می بوده و مشخّص است با وجود ضوء قرص آفتاب، ماه ابدا فروغی نداشته، بلکه قرصش نیز چندان نمایان نمی شود.
علاوه بر این، احتمال دارد، با دلایلی که ذکر شد ماه در همان حین در مغرب زمین هم، طالع نشده بوده، پس اگر گذشتگان فرنگیان، شقّ القمر را ندیده باشند یقینا به این جهت است و امّا جواب اشکال بر معجزه ردّ شمس برای امیر المؤمنین (علیه السلام) هم، از این بیان، فهمیده می شود، چه آن که هنگام ردّ شمس، که عصر بوده است - چنان چه در روایت به آن تصریح شده است - می توان گفت در ممالک اروپ و مغرب زمین، روز بوده، لذا مردم ملتفت نشده اند و در ممالک مشرق زمین، اگر چه این معجزه نسبت به آن ها ظاهرا در شب واقع می شود، پس می توان گفت یا به واسطه غفلت مردم و یا به واسطه پنداشتن آن ضوء را ضوء قمر، ملتفت نگردیده اند.
علاوه بر این در عبارت خبر چنین است: «فإذا الشّمس طلعت فی موضعها من وقت العصر» و این عبارت، مطلق است. بنابراین می توان وقت العصر را بر آخر مرتبه آن حمل نمود که نزدیک شدن قرص آفتاب به افق است؛ اگر نگوییم بر بین الغروب و المغرب محمول است.
بدیهی است در آن وقت، نه قرص آفتاب چندان نمایان، نه در مرئی و منظر مردمان و نه روشنی آن چندان معلوم است و این حمل، با صدای شدید نمودن آفتاب، در وقت برگشتنش - چنان چه در بعضی از اخبار ردّ شمس است - منافاتی ندارد؛ کما لا یخفی علی ذوی النّهی.
وجه سوّم؛ چه ضرر دارد، بگوییم شاید در آن وقت از این امر به مردم غفلت دست داده باشد، چنان چه بعضی به همین کیفیّت، دفع اعتراض نموده اند.
فرق میان غفلتی که این جا ادّعا می شود با غفلتی که در وجه دوّم معتبر بود، عموم و خصوص است، کما هو الواضح.
وجه چهارم؛ چه ضرر دارد، بگوییم ردّ شمس را همه دیده باشند، ولی معاندین از راه عناد آن را کتمان کرده باشند، چنان که جمعی قضیّه غدیر خم را انکار نمودند.
«و نعم ما قال الشّیخ الجلیل الشّیخ یونس البیاضی فی کتاب صراط المستقیم فی هذا المقام حیث قال: و قد اختلف النّاس فیما هو اظهر من ذلک البسمله و الوضوء و غیر هما، ممّا کان النّبیّ یکرّره».
وجه پنجم؛ ممکن است گفته شود - چنان چه بعضی گفته اند - چه استبعاد دارد خورشید به جهت ادراک وقت نماز بیرون آمده باشد، ولی مأمور به ظهور، برای سایر مردم نبوده باشد؟ آیا آن کسی که دارای این همه منزلت نزد خدای تعالی می باشد که خورشید در برگشتن، او را اطاعت می نماید، نمی تواند به جهت مصلحت های بسیار، او را امر فرماید که جز برای ما نور متاب؟
یا چنان کند که دیگران از مشاهده آن محجوب باشند. نظیر این مطلب از خانواده محمد و آل محمد بسیار واقع شده؛ مثل نمایاندن امام حسین (علیه السلام) حضرت رسول خدا را بعد از فوتش به جابر بن عبد الله الانصاری و دیدن ابن عبّاس، دست حضرت حسین را به دست جبراییل و نحو این ها از خوارق عادات و معجزات قاهرات آن بزرگواران، دغدغه در این امور، از جهل به مقامات و شؤونات آن ها است. «بلی احادیثنا صعب مستصعب لا یحتمله ملک مقرّب و لا نبیّ مرسل».
اعتراض چهارم [رد شمس موجب برهم خوردن نظم فلکی میشود]:
بر احادیث ردّ شمس برای امیر المؤمنین (علیه السلام) آن است که برگشتن قرص آفتاب، موجب تغییر در اوضاع فلکی و تغییر در این اوضاع، موجب بر هم خوردن نظم این عالم است.
جواب از این اعتراض آن است که:
اوّلا؛ این، مبتنی بر قول فلاسفه و حکما است که تغییر و خرق و التیام را در فلکیّات منکرند و به این واسطه، منکر معراج جسمانی خاتم انبیا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) شده اند.
حال آن که دلیل بر این مطلب، ناتمام است؛ چه آن که می گویند: خرق و التیام و تغییر، مستلزم حرکت مستقیم است؛ یعنی حرکت از جهتی به جهتی و این موقوف بر این است که جهات پیش از آن حرکت، متعیّن باشد و این مستلزم تقدّم جهت بر محدّد جهت است. پس هرچه محدّد جهات باشد؛ یعنی جهات به سبب او متعیّن شود، نمی تواند حرکت مستقیم کند.
ظاهر است که این دلیل، مخصوص به محدّد جهات است بر فرض آن که به تمامیّت آن قایل شویم و در سایر افلاک دیگر جاری نیست. پس تحلّل و تکاثف، تغیّر و خرق و التیام در آن ها، به حسب ذاتشان جایز است.
پس نزد فلاسفه خرق و تغییر سایر افلاک، ممتنع عقلی نباشد و لکن چون ایشان قایلند؛ مادّه فلکیّات، مطلقا مادّه ای است که نمی تواند قبول انفعالات متجدّد کند؛ مانند عناصر اربعه که این معنی را قبول می کنند و خرق و تغییر جسم هم به حسب عادت موقوف به قبول مادّه وی است، برای انفعال تجدّدی که از خرق به هم رسد، پس خرق و تغییر افلاک دیگر، غیر از فلک محدّد الجهات نیز، نزد ایشان از ممتنعات عادّیه است نه از ممتنعات عقلیّه.
فبناء علیه می گوییم: اما مسأله معراج، موقوف به خرق در محدّد الجهات نیست و احادیث مرویّه در آن نیز، مشعر به وقوع آن نیستند. پس استبعاد، بلکه امتناع وقوع معراج - چنان که گفته اند - بالکلّیه مرتفع گردید و اما مسأله ردّ شمس؛ هم سنخ بودن اوضاع فلکی و اجسام فلکیّه بیش از امتناع عادی، ثمری نمی بخشد و جواب از این با آن که توان گفت، از کجا معلوم شد اجسام فلکیّه همه به یک سنخ و یک جنس اند؟
بلکه در اخبار ائمّه اطهار که در کیفیّت خلقت آسمان ها و افلاک عزّ صدور یافته اند، به خلاف این، تصریح شده، چنان که بر متتبّع خبیر غیر ستیر است.
جواب آن، همان جواب دوّم از اصل اشکال است و آن، این است که می گوییم:
ثانیا؛ نظام عالم به ید قدرت باری تعالی است که خالق آن می باشد، پس به هرطریق که اراده اش به آن تعلّق گرفته، آن را نظم می دهد و او را در این نظم، هیچ سببی لازم نیست. برای یوشع بن نون هم ردّ شمس شد، حال آن که نه اوضاع عالم از نظام افتاد و نه یوشع از علی بن ابی طالب (علیه السلام) فاضل تر بود.
اعتراض پنجم [بر ردّ شمس برای امیر المؤمنین (علیه السلام) آن است که ترک نماز آن حضرت در وقت نماز، از روی تعمّد بود یا نسیان؟]:
بر ردّ شمس برای امیر المؤمنین (علیه السلام) آن است که ترک نماز آن حضرت در وقت نماز، از روی تعمّد بود یا نسیان؟
اگر از روی تعمّد، نماز را ترک کرده باشد، پس فاسق خواهد بود و نستجیر به، چه آن که معصیتی بالاتر از ترک نماز نیست، بلکه میان ایمان و کفر، چیزی جز ترک نماز نیست.
اگر ترک نمازش از روی نسیان بوده، پس علی (علیه السلام) معصوم نخواهد بود، حال آن که عصمت آن جناب، ضروری مذهب شما شیعیان است. برای این اعتراض چند جواب است.
جواب اوّل؛ شاید بودن سر مبارک حضرت پیغمبر در کنار آن جناب، برای سقوط نمازش در آن حال، عذر الهی باشد، چنان که فرمود: «انّ علیّا کان فی طاعتک و طاعه نبیّک». بودن در زمین سبخه نیز چنین است، چنان که فرمود: وصیّ نبی، نباید در این زمین نماز کند.
جواب دوّم؛ بعضی گفته اند: روایت شده، علی (علیه السلام) در آن وقت که سر مبارک پیغمبر در کنار او بود، نشسته نماز کرد تا میان طاعت خدا از نماز و تکمیل وحی به سوی پیغمبر جمع کند و شاید عبارت «انّ علیّا کان فی طاعتک و طاعه نبیّک» اشاره به همین باشد، پس ردّ شمس از باب کرامت شرافت بوده است.
بعضی گفته اند: علی (علیه السلام) در بابل تنها نماز کرد و چون لشکر از نهر عبور نمودند، دوباره به ردّ شمس با آن ها نماز کرد؛ از باب کرامت یا برای رفع شکّ اصحاب در امر آن جناب.
جواب سوّم؛ ما را نمی رسد که در تکلیف مظاهر قدسیّه خداوند سخن بگوییم.
رعیّت نباید در تکلیف پادشاه، چون و چرا نماید. چگونه می شود درباره تکلیف آن ها سخن گفت، حال آن که تکالیف ما از ایشان ثابت شده و فرموده اند: «انّما علیکم أن تسمعوا و تطیعوا» خصوصا درباره شخص شریف علوی که خود خصم، قبول دارد به صریح آیه مباهله، نفس پیغمبر است.
و بالجمله ظهور امثال این امور از محمد و آل محمد - صلوات الله علیهم اجمعین - هیچ استبعاد ندارد و از آن ها نباید استغراب نمود. همانا چون ایشان در بندگی و طاعت خداوند، سرآمد همه بندگان و مطیعان اند، لهذا جمیع ممکنات سر خطّ اطاعت و انقیاد به ایشان داده اند، بلکه این قبیل خوارق عادات از شیعیان ایشان به ظهور می رسد، چه جای خود آن بزرگواران، بلکه بعضی مخصوصا ردّ شمس را برای بعضی از موالیان آن بزرگواران، متعرّض شده اند؛ چنان که از نقل علّامه مرحوم و ابن حجر عسقلانی در قضیّه واعظ عبّادی گذشت، انتهی.
[حکایت غلام و خواجه]:
ایضا یکی از معجزات آن بزرگوار، آن است که در کتاب احسن الکبار که از تألیفات محمد بن ابی زید عرب شاه بن ابی زید الحسینی العلوی الورامینی - که از معاصرین آیت الله علّامه حلّی و شاه خدابنده بوده - چنین آورده که از جماعت ثقات و عدول روایت است:
در امارت عمر، بازرگانی بود، او را مال بسیاری بود، خواجه و زن هردو متوفّی شدند. از ایشان پسر و غلام سفیدی باقی ماند و مابقی غلامان سیاه، و داخل و خارج مدینه کنیز و ضیاع و عقار بسیاری داشت. چون خواجه و زن را دفن کردند و از عزا فارغ شدند، روزی برآمد، کودک و غلام را محاکایی پدید آمد. پسر خواجه، غلام را زدن گرفت. غلام برخاست، نزد عمر رفت و گفت: یا عمر! من پسر فلان خواجه ام.
پدرم درگذشت و چنان که شما را معلوم است مال وافر از وی بازمانده و امروز مملوکی سفید، بر من دست دراز کرد و مرا بسیار برنجاند. در کدام ملّت روا باشد که غلام، به آقازاده خود دست دراز کند.
عمر به افلح گفت: برو غلام را حاضر کن! برفت و حاضر کرد. کودک در مسجد آمد، سلام کرد و جواب شنید.
عمر گفت: ای غلام! تو مملوک فلان خواجه بازرگانی؟
گفت: من فرزند فلان خواجه ام.
عمر گفت: این غلام آمد و تقریر کرد که من فرزند فلان بازرگانم و مملوک پدر من، بر من دست دراز کرده و مرا رنجانده است.
پسر گفت: یا عمر! دروغ می گوید که مملوک پدر من است.
عمر گفت: ای پسر! می شنوی چه می گوید؟
گفت: یا عمر! دروغ می گوید که مملوک پدر من است. قیل و قال بسیار رفت. برای کسی از مهاجر و انصار معلوم نبود که کدام راست می گوید.
عمر گفت: این مشکل، قضیّه ای است که هردو مدّعی می گویند.
سلمان فارسی رضی الله عنه گفت: این مشکل را امیر المؤمنین (علیه السلام) حل گرداند که وی در مدینه علم رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم)، قاضی ترین امّت، نفس و وصیّ او است.
اگر چه عمر از تفضیلات سلمان ناخوش آمد، اما گفت: یا سلمان! راست می گویی، کار تو است که وی را حاضر کنی. سلمان به حجره امیر المؤمنین (علیه السلام) آمد، اجازت خواست، در اندرون رفت و سلام کرد. امیر المؤمنین (علیه السلام) جواب باز داد.
گفت: یا سلمان! عجب می بینم که بعد از موت رسول، خندانی.
سلمان گفت: یا مولای! حال و قضیّه چنین و چنین واقع شده، عمر و جمله اصحاب از این مشکل، غمناک اند و اهل کتاب بر ما شماتت می کنند که چگونه جانشین رسول، جواب یک مسأله نداند. من به عمر گفتم بروم و امیر المؤمنین (علیه السلام) را حاضر کنم که وی قاضی ترین امّت است و حلّ جمله مشکلات، بر دست او است.
امام (علیه السلام) تبسّمی کرد، برخاست، درّاعه رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) پوشیده، عمّامه رسول، بر سر بست و به مسجد رسول آمد. عمر و جمله اصحاب از مخالف و موألف پیش آمدند و سلام کردند.
امیر المؤمنین (علیه السلام) جواب باز داد، قرآن از محراب برداشت، پیش خود نهاد و بر جایگاه رسول (صلّی الله علیه و آله و سلّم) بنشست.
عمر، احوال دو پسر را بازگفت که هردو دعوی پسری می کردند و گفت:
یا ابا الحسن! من در این مسأله فرومانده، چاره این کار نمی دانم. امیر المؤمنین، علی (علیه السلام) به قنبر فرمود: این دو غلام را ببر، چشم های ایشان را بازبند و سر ایشان را از دریچه و شبکه مسجد بیرون کن! قنبر به فرموده امام کار کرد. امیر المؤمنین (علیه السلام) ذو الفقار را به قنبر داد که هرکه را اشاره کنم که شمشیر بزن؛ تو فرمان بر.!
قنبر گفت: سمعا و طاعه. مع القصّه امیر المؤمنین (علیه السلام) زمانی توقّف کرد و جمله اهالی مدینه از زن و مرد، صغیر و کبیر منافق و مؤالف حاضر شده. ناگاه امیر المؤمنین، علی (علیه السلام) به قنبر اشاره فرمود؛ گردن غلام را بزن. غلام فی الحال سر خود بازگرفت.
امیر المؤمنین (علیه السلام) فرمود: وی غلام است که سر را بازپس گرفت. چون این مشکلات حلّ کرد، جمله خلق مدینه از علم او متحیّر شدند. حقّ به حق دار رساند و بیرون رفت.
این و صد چندین از وی عجیب و غریب نیست، زیرا او مفتی علم لدنّی بود. صلوات الله و سلامه علیه و علی اولاده الطیّبین الطّاهرین المعصومین.
ایضا در کتاب احسن الکبار است که عبّاس بن عبد الله اسدی گوید: از امیر المؤمنین (علیه السلام) در خطبه ای شنیدم که می گفت: أنا عبد الله و اخو رسول الله؛ من بنده خدا و برادر رسول خدایم. هرکه بعد از من، این را بگوید، دروغ گوید.
مردی از بنی عطفان حاضر بود، برخاست و گفت: من می گویم: بنده خدا و برادر رسول خدایم؛ چنان که این دروغگو می گوید. در حال خناقش بگرفت و به دوزخ واصل گردید.
[معجزات امام حسن (علیه السلام)] 2 مسکه:
از جمله معجزات حضرت ابی محمد الحسن بن علی (علیهما السلام) در کتاب دلایل الامامه(574) به سند خود از محمد بن اسحاق روایت کرده؛ حسن و حسین (علیهما السلام) هردو طفل بودند، دیدم حسن (علیه السلام) برای نخله ای صیحه برآورد، پس آن نخله، آن بزرگوار را اجابت نمود و به جانب او دوید؛ چنان که فرزند به جانب والد خود می دود.
نیز محمد بن جریر بن رستم از کثیر بن سلمه روایت کرده، حسن را در زمان رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) دیدم که از سنگ، عسل سفیدی بیرون آورد. پس خدمت رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) مشرّف شدم و کیفیّت را به عرض آن حضرت رساندم.
فرمود: آیا چنین خارق عادتی را از فرزند من انکار می نمایید و تعجّب می کنید؟ به درستی که او سید و بزرگواری است که اهل آسمان در آسمان و اهل زمین در زمین او را اطاعت می نمایند.
نیز محمد بن جریر، از ابی سعید خدری روایت کرده، حسن بن علی (علیهما السلام) را دیدم در حالی که طفل بود و طیور بر سر او سایه افکندند، او طیور را دعوت می نمود و آن ها اجابت می کردند.
نیز محمد بن جریر از جابر بن عبد الله انصاری روایت کرده، گفت: حسن بن علی (علیهما السلام) را دیدم که به جانب هوا بلند شد، در آسمان غایب گردید و بعد از سه روز، نزول نمود. بر او سکینه و وقاری بود که مثل آن مشاهده نشد و فرمود: به روح آبای من قسم! رسیدم و فایز شدم به آن چه باید به آن رسیده شوم(575).
نیز محمد بن جریر از ابن ایاس روایت کرده؛ ما با حسن بن علی (علیهما السلام) در راه شام می رفتیم، آن حضرت صائم بود و زاد و آبی نبود که با آن افطار نماید. چون از نماز عشا فارغ شدیم، ناگاه مائده ای با قنادیل از آسمان نازل شد، ما هفتاد نفر بودیم که با آن حضرت از آن مائده تناول نمودیم(576).
نیز محمد بن جریر از جابر روایت کرده که از حسن بن علی (علیهما السلام) استدعا نمودم برای ما اظهار معجزه نماید، در حالی که در مسجد رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) نشسته بودیم، دیدیم پای مبارک خود را بر زمین زد، زمین شکافته شد و دریایی ظاهر گردید که بر روی آن کشتی ها جاری بود. پس دست مبارک خود را کشیده و از آن دریا ماهی بیرون آورد و به فرزند من عطا فرمود، آن ماهی را به منزل خود بردیم و از آن تناول نمودیم(577).
ایضا محمد بن جریر به سند خود از امام محمد باقر (علیه السلام) روایت کرده؛ جمعی از مردم خدمت حسن بن علی (علیهما السلام) مشرّف شدند و از آن سرور استدعا نمودند، برای ما معجزاتی اظهار نما که از پدر بزرگوارت، امیر المؤمنین (علیه السلام) ظاهر می شد.
فرمود: اگر اظهار نمایم، به آن ایمان می آورید و تصدیق می نمایید.
عرض کردند: بلی!
به اذن خدای تعالی میّتی را بر ایشان احیا نمود.
مردم جمیعا گفتند: نشهد انّک ابن امیر المؤمنین حقّا، زیرا ما از آن حضرت از این قبیل امور، بسیار مشاهده نمودیم(578).
از آن جمله؛ چون معاویه و اهل شام، نکث بیعت امیر المؤمنین (علیه السلام) را نمودند و بنابر مقاتله با آن بزرگوار و اصحابش گذاردند، این خبر به اطراف بلاد منتشر شد، چون به سمع ملک روم رسید و به او خبر دادند که دو نفر بنا را بر مقاتله گذاشتند، ملک روم پرسید: محلّ خروج آن دو، از کجاست؟
عرض کردند: یکی از کوفه و دیگری از شام.
ملک سؤال نمود: آیا تاجری از اهل آن بلاد در این جا هست که حالات و صفات آن دو نفر را برای من وصف نماید.
تفحّص نمودند، تاجری از اهل شام و تاجری از اهل مکّه نزد او حاضر نمودند.
ملک از ایشان سؤال نمود؛ حال آن دو را توصیف نمایند. سپس از احوالات، صفات، حسب و نسب ایشان از برای ملک وصف نمودند.
آن گاه امر نمود، موکّلین آن چه اصنام در خزانه است، بیرون آورند، چون در آن ها نظر نمود و آن چه در صفحات آن اصنام مسطور بود، قرائت کرد، گفت: «الشّامیّ ضال و الکوفیّ هاد».
بعد از آن، ملک به معاویه نوشت: اعلم اهل بیت خود را نزد من فرست و به خدمت امیر المؤمنین (علیه السلام) عریضه نمود: اعلم اهل بیت خود را نزد من فرست تا آن که آن چه مقصود شماست، از ایشان سماع نمایم. آن گاه در انجیل نظر نماییم و شما را اخبار نماییم که کدام یک از شما بر حق و کدام یک بر باطلید.
چون کتابت ملک روم به معاویه رسید، آن پلید، یزید عنید را نزد ملک روم فرستاد و حضرت امیر (علیه السلام)، امام حسن مجتبی (علیه السلام) را فرستاد. یزید قبل از امام حسن (علیه السلام) بر ملک روم وارد شد. چون به محضر او حاضر گردید، دست و پیشانی ملک را بوسید و چون امام حسن (علیه السلام) داخل مجلس او شد، فرمود: «الحمد لله الّذی لم یجعلنی یهودیّا و لا نصرانیّا و لا مجوسیّا و لا عابدا للشّمس و لا للقمر و لا لصنم و لا لبقر و جعلنی حنیفا مسلما و لم یجعلنی من المشرکین و تبارک الله ربّ العرش العظیم و الحمد لله ربّ العالمین»، بعد در آن مجلس نشست و دیده های مبارک خود را به زیر انداخت و ملک روم به ایشان نگاه می کرد. بعد از آن امر نمود، ایشان را از مجلس تفریق نمودند.
یزید را خواست و از خزانه خود سی صد و سیزده صندوق بیرون آورد که صور و تماثیل انبیا در آن ها بود و بر یزید عرضه داشت و گفت: این تمثال ها و صورت ها از آن چه کسانی است؟
یزید مبهوت شده، جواب نگفت. بعد از آن، از ارزاق خلایق و ارواح مؤمنین سؤال نمود که محلّ اجتماع ایشان کجاست و ارواح کفّار بعد از موت کجا هستند؟
یزید - لعنه الله - از کثرت خجالت سر به زیر انداخته، منفعل و مخزی گردید، منکوب شده، هیچ جواب نداد.
پس از آن، امام حسن (علیه السلام) را طلبید و به آن سرور عرض کرد: من در سؤال به یزید ابتدا نمودم، به جهت آن که به او اعلام نمایم؛ آن چه او جاهل و نادان است، تو می دانی، من در انجیل نظر کردم، دیدم محمد رسول خدا و علی (علیه السلام) وزیر او است و میان اوصیای انبیا نظر کردم، دیدم پدر تو، وصیّ رسول خداست.
امام حسن (علیه السلام) فرمود: آن چه از تورات و انجیل و قرآن می خواهی از من سؤال نما که خبر همه آن ها را به تو خواهم داد. ان شاء الله.
ملک آن صور و تمثال ها را طلبید و یک به یک بر آن حضرت عرضه داشت.
صورت اوّل را به هیأت قمر بیرون آورد، حضرت فرمود: این صورت آدم ابو البشر است. بعد صورت دیگر مانند شمس بیرون آورد، حضرت فرمود: این صورت حوّا امّ البشر است. بعد از آن، صورت دیگر بیرون آورد، فرمود: این صورت شیث بن آدم است. سپس صورت دیگر، تا آن که صور همه انبیا را عرضه داشت و آن بزرگوار می فرمود: این صورت نوح و این، صورت ابراهیم است.
و هکذا تا آخر صورت ها همه را اخبار فرمود.
بعد از آن، صور و تمثال های دیگر بیرون آورد، بر آن حضرت عرضه داشت و فرمود: این ها صور انبیا نیست، بلکه صور ملوک و پادشاهان گذشته می باشد.
ملک روم گفت: «أشهد علیکم یا أهل بیت رسول الله! انّکم قد اعطیتم علم الأوّلین و الأخرین و علم التوریه و الأنجیل و الزّبور و صحف إبراهیم و الواح موسی (علیهم السلام)» و پس از آن، تمثال و صورت دیگری بیرون آورد و به آن حضرت نشان داد. آن سرور گریست، گریستن شدیدی.
ملک عرض کرد: سبب گریه شما چیست؟
فرمود: ای پادشاه! این صورت جدّم رسول خداست، سپس با حسن بیان صفت رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) را برای ملک روم بیان فرمود. آن گاه ملک مسایل مشکله ای که از غوامض مسایل داشت و از تورات و انجیل در نظر او بود، از آن حضرت سؤال نمود و جواب شافی شنید.
چون استفاده او از آن حضرت به اتمام رسید، برگشت و به یزید گفت: آیا دانستی که این امور را کسی جز نبیّ مرسل یا وصیّ او یا عترت طاهره او عالم نخواهد بود و غیر ایشان، جاهل و اعمی القلب خواهند بود که دنیا را بر آخرت و هوای نفس را بر دین اختیار نمودند و از ظالمین اند؟
یزید ساکت نشسته بود و ملک روم برای امام حسن (علیه السلام) به جایزه بسیاری حکم کرد، آن بزرگوار را تعظیم و تکریم نمود و عرض کرد: دعا فرما در دین جدّ تو داخل شوم.
یزید به سوی پدر خود معاویه مراجعت کرد، ملک روم به معاویه نوشت: کسی که علم الهی نزد او و به تورات، انجیل، زبور و قرآن عالم است؛ خلیفه به حقّ خواهد بود و عریضه ای خدمت حضرت امیر المؤمنین (علیه السلام) عرض کرد که حقّا خلافت برای تو و ذریّه تو خواهد بود. با دشمنان مقاتله نما که خداوند ایشان را به دست تو عذاب خواهد نمود، ایشان در آتش جهنّم مخلّد خواهند بود، زیرا ما در انجیل یافتیم که لعنت خدا و ملایکه و ناس، جمیعا بر دشمن تو خواهد بود، لعن اهل سماوات و ارضین بر او باد(579)!
[معجزات حضرت سید الشهداء (علیه السلام)] 3 مسکه:
از جمله معجزات باهرات حضرت مولی الکونین، ابی عبد الله الحسین (علیه السلام) آن است که محمد بن جریر طبری و ابن وکیع، هر دو از زراره بن خلج روایت کرده اند که حسین (علیه السلام) را سه یوم قبل از خروج او به عراق در مکّه ملاقات کرده، از ضعف مردم در کوفه به او عرض کردم و آن که قلوب ایشان به جناب تو مایل است و لکن شمشیرهای ایشان نیز، بر تو است.
دیدم به جانب آسمان اشاره نمود. ناگاه درهای آسمان گشوده شد. به قدری ملایکه نازل شد که غیر از خدای تعالی نمی توانست عداد آن ها را نمی توانست احصا نماید.
پس فرمود: «لو لا تقارب الأشیاء و هبوط الأجر، لقاتلتم بهؤلاء و لکن اعلم علما انّ من هناک مقعدی و مصارع اصحابی لا ینجوا منهم الّا ولدی علی»(580).
نیز محمد بن جریر از عبد الله بن محمد روایت کرده؛ در مسجد، نزد امام حسین (علیه السلام) حاضر بودم که فرزند او، حضرت علی اکبر (علیه السلام) از پدر خود استدعای انگور در غیر فصل آن نمود. آن بزرگوار به جانب دیوار مسجد دست بلند نموده، انگور تازه بیرون آورد و فرمود: «ما عند الله لأولیائه اکثر.»
هم چنین محمد بن جریر و ابن وکیع و ابی صالح از حذیفه روایت کرده اند که از حسین بن علی (علیهما السلام) در زمان رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) شنیدم، فرمود: «لیجتمعنّ علی قتلی طغاه بنی امیّه و یقدّمهم عمر بن سعد.»
به او عرض کردم: آیا این خبر را از جدّ خود، رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) شنیدی؟
فرمود: نه.
خدمت رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) آمدم و آن چه از حسین (علیه السلام) شنیده بودم، به آن حضرت عرض کردم. رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) فرمود: علم حسین، از علم من است، به درستی که حسین قبل از وجود و تحقّق اشیا به آن ها عالم است(581).
نیز محمد بن جریر از ابن مهران روایت کرده که حسین (علیه السلام) با بعضی از اصحاب در سفری زیر نخله ای نازل شدند که از تشنگی خشک شده بود و فرش آن حضرت را زیر آن نخله گستراندند. چون حضرت نشست، دست مبارک خود را بلند نموده، دعایی خواند. ناگاه آن درخت سبز شد و فی الحال رطب آورد. از آن تناول نمودند(582).
از جمله آن که در روایت سهل بن حبیب وارد شده که من در کوفه حاضر بودم که سر مطهّر حضرت ابا عبد الله الحسین (علیه السلام) را با اهل بیت او وارد کوفه نمودند. دیدم آن سر منوّر، سوره کهف قرائت می نمود تا آن که او را داخل مجلس شوم ابن زیاد نمودند.
ناگاه آتشی از قصر بیرون آمد و ابن زیاد و اهل مجلس او را احاطه کرد، آن لعین فرار نموده، در بعضی از بیوتات قصر داخل شد.
در آن حال، آن سر مطهّر به لسان صدق فصیح، فرمود: ای لعین! به کجا فرار می نمایی؟! این آتش اگر در دنیا از تو رفع شود، در آخرت از تو رفع نخواهد شد و جای تو در آخرت در آتش خواهد بود. همه اهل مجلس از خوف و دهشت آن آتش و از تکلّم نمودن آن سر منوّر بر روی در افتادند و بر صورت خود لطمه می زدند. بعد از اندک زمانی آن آتش مرتفع گردیده، ناپدید شد و برای اهل مجلس امنیّت حاصل گردید. آن گاه ابن زیاد ملعون به مجلس خود معاودت نمود.
از جمله معجزات حضرت سیّد الشهدا (علیه السلام) آن است که در کتاب احسن الکبار از احمد بن حسین روایت کرده، گفت: به دهی در کربلا بودم، گاوی دیدم که می دوید و خلقی به دنبال وی بودند و می دویدند، تا نزد قبر مولانا حسین بن علی (علیهما السلام) رسید و خود را به خاک قبر مطهّر می مالید. برخاست، می رفت و بانگ می کرد تا به در خانه ای آمد و در آن خانه بسته بود. سرش را بر در زد. در باز شد و گوساله وی از آن جا بیرون آمد.
حال، چنین بود که گوساله آن گاو را دزدیده بودند و صاحب گاو نمی دانست، کجاست. گاو پیش قبر حسین (علیه السلام) آمد، خود را بر قبر مالید، بازگشت و گوساله را از خانه دزد بیرون آورد؛ به اشارت که از قبر امام (علیه السلام) آمده بود، او را معلوم شد. این معجزه قاطع و براهین منتخب بود که از قبر او برآمد. صلوات الله و سلامه علیه و علی اولاده (علیهم السلام).
ایضا در آن کتاب است که از امام النّاطق جعفر بن محمد الصادق (علیه السلام) روایت کنند که حضرت حسین (علیه السلام) چون غلامان را به مزرعه ای از آن خود می فرستاد؛ گفت: فلان روز از آن جا بیرون نیایید، بلکه روز پنج شنبه بیرون بیایید. اگر خلاف کردید و به راه حیره بیرون آمدید، دزدان بر شما افتند، شما را بکشند و مال تان ببرند.
ایشان خلاف کردند، به راه حیره بیرون آمدند، جمله را بکشتند و مال ایشان بردند. در حال، والی مدینه پیش حسین (علیه السلام) آمد که شنیدم غلامان تو را بکشتند. خدای تعالی تو را مزد دهاد!
حسین (علیه السلام) فرمود: من تو را به قاتلان ایشان راه نمایم.
والی گفت: پسندیده بود.
فرمود: ایشان را بگیر و سخت دار!
والی گفت: شما ایشان را می شناسی؟
فرمود: بلی! چنان که تو را می شناسم، ایشان را نیز می شناسم. این یکی از ایشان است و به شخصی اشاره کرد که پیش والی ایستاده بود.
آن مرد گفت: ای پسر رسول خدا! چگونه دانستی من یکی از ایشانم؟
فرمود: اگر تو را خبر دهم؛ راست بگویی؟
آن مرد گفت: بلی، و الله! راست بگویم.
حسین (علیه السلام) فرمود: فلان و فلان آمدند و نام جمله را بگفت. چهار تا از ایشان موالی سیاه از حبشیان بودند و یکی از مدینه.
والی گفت: به جدّ او، رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) اگر راست نگویی، گوشت شما را به تازیانه از هم جدا کنم.
مرد گفت: به خدا! حسین راست گفت. گویی با ما بود.
راوی گفت: والی، ایشان را حاضر کرد. جمله حاضر شدند. والی فرمود ایشان را گردن زدند و مال را ردّ کردند.
[معجزات حضرت سجاد (علیه السلام)] 4 مسکه:
از جمله معجزات حضرت علی بن الحسین زین العابدین (علیه السلام) آن است که محمد بن جریر به سند خود، از ابن منذر روایت کرده که اموالی از خراسان به جانب مکّه، خدمت حضرت علی بن الحسین زین العابدین (علیه السلام) آوردند.
محمد بن حنفیّه به آن حضرت عرض کرد: این مال از من است و من از تو احقّ و اولی به آن هستم.
آن حضرت فرمود: میان من و تو، حجر الاسود حکم باشد. هر دو نزد حجر الاسود آمدند. محمد بن حنفیّه از حجر الاسود سؤال نمود: این مال از من است. من احقّ و اولی به آن می باشم یا علی بن الحسین (علیه السلام)؟
جوابی نشنید. سپس آن بزرگوار از حجر الاسود سؤال نمود، ناگاه حجر الاسود به زبان فصیح عرض کرد: «المال لک، المال لک، و أنت الوصیّ بن الوصیّ و أنت الأمام بن الأمام». فبکی محمّد و به آن حضرت عرض کرد: من به تو ظلم کردم، اگر مدّعی تو شوم و حقّ تو غصب نمایم(583).
هم چنین محمد بن جریر به سند خود از حضرت امام محمد باقر (علیه السلام) روایت کرده که محمد بن حنفیه به آن حضرت عرض کرد: امامت بعد از امیر المؤمنین (علیه السلام)، از حسن و حسین (علیهما السلام) بود و بعد از ایشان، من، اکبر اولاد امیر المؤمنین، علی بن ابی طالب (علیه السلام) هستم و به جهت قدم زمان و کبر سنّ از تو به امامت و خلافت اولی می باشم.
حضرت علی بن الحسین (علیه السلام) فرمود: «یا عمّ! اتق الله و لا تدّع ما لیس لک بحق، انّی اعظک أن تکون من الجاهلین.»
اگر اراده داری خوب بر تو ظاهر شود، به محاکمه نزد حجر الاسود می رویم و از او سؤال می نماییم من و تو کدام بر حقّیم؟
هر دو نزد حجر الاسود آمدند، حضرت فرمود: یا عمّ! تو به سؤال ابتدا نما و به درگاه الهی دعا و ابتهال و تضرّع کن که حجر الاسود با تو سخن گوید. محمد به دعا و تضرّع شروع و از خدا مسألت نمود، حجر الاسود با او سخن گوید. جوابی نشنید.
علی بن الحسین فرمود: یا عمّ! اگر تو وصیّ و امام بودی، هر آینه، حجر الاسود جواب تو را می گفت و تو را تصدیق می نمود.
محمد عرض کرد: حال، تو سؤال نما. آن حضرت دعا کرد و از حجر الاسود جواب خواست. ناگاه حجر الاسود از جای خود حرکت کرد، به طوری که نزدیک بود از جای خود حرکت نماید و خارج شود و به لسان فصیح گفت: اللّهمّ انّ الوصیّه و الأمامه لعلیّ بن الحسین بن فاطمه بنت رسول الله. محمد بن حنفیّه مراجعت نموده، ولایت علی بن الحسین را قبول نمود(584).
مبرّد در کامل نیز محاکمه محمد بن حنفیّه و حضرت علی بن الحسین (علیهما السلام) را از ابی خالد و او از محمد بن حنفیّه روایت کرده که گفت: از حجر الاسود شنیدم، به من گفت: «سلّم الأمر إلی ابن أخیک فانّه احقّ به منک» و این روایت را به طرق کثیره، از خاصّه و عامّه، نقل کرده اند. این روایت از روایات مشهور و قریب به تواتر، بلکه به حسب معنی متواتر است(585).
نیز محمد بن جریر و ابن وکیع هردو از ابن اسود یمنی روایت کرده اند؛ من نزد علی بن الحسین (علیهما السلام) بودم. طفلی که از هردو چشم نابینا بود، خدمت آن بزرگوار آوردند، آن حضرت، دست مبارک را بر چشم های آن طفل مالید. چشم های او بینا شد و خدای تعالی بصر او را به او برگرداند.
اخرسی را خدمت آن سرور آوردند، به ملاطفت با او سخن گفت، زبان آن اخرس گویا شد، نیز زمین گیری را خدمت آن جناب آوردند، دست مبارک خود را بر بدن او مالید، فی الحال از جای خود برخاسته، به سرعت تمام راه می رفت.
نیز محمد بن جریر به سند خود از سلمان بن عیسی روایت کرده؛ خدمت علی بن الحسین (علیهما السلام) مشرّف شده، عرض کردم: یا بن رسول الله! مرد فقیری هستم. یک درهم و یک قرص نان به من عطا فرما! چون عطا فرمود؛ چهل سال با آن درهم و قرص نان با عیالم زندگانی کردیم.
هم چنین محمد بن جریر از ابی خالد کابلی روایت کرده؛ منجّمی خدمت علی بن الحسین (علیهما السلام) مشرّف شد؛ هنگامی که جماعتی از اصحاب، خدمت آن سرور بودند. به او فرمود: من انت؟
عرض کرد: أنا منجّم.
فرمود: می خواهی تو را از شخصی خبر دهم که از آن زمان که تو بر ما وارد شدی، بر چهارده هزار عالم مرور کرده باشد.
عرض کرد: آن شخص کیست؟
فرمود: منم! می خواهی به تو خبر دهم چه خوردی و در خانه چه ذخیره کرده ای؟
عرض کرد: بلی! مرا از آن خبر ده.
فرمود: امروز، حلیس تناول نموده ای و آن عبارت از تمری است که هسته آن را بیرون آورده، با کشک و روغن مخلوط می نمایند و در خانه خود بیست دینار ذخیره نموده ای که سه دینار آن، داریه است که سکّه مخصوصی است. سپس آن منجّم از روی حقیقت و خلوص، ایمان آورد. حضرت به او فرمود: «أنت صدّیق، امتحن الله قلبک»(586).
نیز محمد بن جریر از تمیمی و او به سند خود از جابر بن یزید و او از حضرت امام محمد باقر (علیه السلام) روایت کرده؛ حضرت علی بن الحسین (علیهما السلام) با جماعتی از موالیان خود به سوی مکّه خارج شدند تا آن که به منزل عسقان رسیدند. موالیان قبل از نزول آن حضرت، در موضعی خیمه او را سرپا نمودند، چون آن بزرگوار وارد شد، فرمود: چرا در این مکان خیمه را نصب نمودید.
این، مکان مؤمنان جنّیان است و خیمه در این مکان برای ایشان ضرر دارد و کار بر ایشان تنگ می شود.
موالیان عرض کردند: ما نمی دانستیم. قصد کردند خیمه را از آن جا حرکت دهند و در موضع دیگر برپا نمایند، ناگاه قایلی که شخص او دیده نمی شد، بلند به او عرض کرد:
یا بن رسول الله! موالیان شما خیمه را بلند ننمایند! ما خود آن را برمی داریم و این طبق، هدیه ای است که به خدمت شما پیشکش آورده ایم و دوست داریم از آن تناول فرمایید تا ما نیز به خدمت، سرافراز و مشرّف شده باشیم.
چون نگاه کردیم، دیدیم در یک جانب خیمه، طبق عظیمی گذاشته شده که انار و انگور و فواکه بسیاری در آن بود. آن بزرگوار، اصحاب و موالیان خود را طلبیده، از آن میوه ها تناول فرمودند(587).
[معجزات حضرت باقر العلوم (علیه السلام)] 5 مسکه:
از جمله معجزات ظاهره حضرت محمد بن علی الباقر آن است که محمد بن جریر از ابن ربیع روایت کرده که من بر حضرت امام محمد باقر (علیه السلام) مهمان شدم، در منزل آن بزرگوار، چیزی مگر لبنه و خشتی پیدا نبود. زمان عشا رسید. حضرت، نماز عشا به جای آورد، من نیز با آن بزرگوار نماز خواندم.
سپس دیدم دست مبارک خود را به آن خشت زد، از آن، مائده حار و بارد بیرون آورد و فرمود: بیا و بخور. این، آن چیزی است که خداوند برای اولیای خود آماده فرموده است. آن حضرت از آن میل فرمودند، من هم از آن خوردم. پس دیدم آن مائده به جانب لبنه بلند شد و در آن پنهان گردید.
در قلب من خطوری کرد، چون حضرت از حجره بیرون رفت، لبنه را از جای خود حرکت دادم. دیدم لبنه کوچکی است. سپس حضرت داخل حجره شد. قدح آبی از آن لبنه بیرون آورد و از آن نوشیدم، بعد از آن، قدح را به جانب لبنه برگرداند و فرمود:
مثل تو با من، مثل یهود با مسیح (علیه السلام) است در زمانی که به او اعتماد ننمودند. به لبنه امر فرمود به لبنه که تکلّم نماید، خشت نیز به سخن درآمد(588).
هم چنین محمد بن جریر به سند خود از حضرت صادق (علیه السلام) روایت کرده؛ خیمه حضرت باقر (علیه السلام) در وادی برپا شده بود. آن بزرگوار از خیمه بیرون آمده، به جانب نخله خشکی رفتند و بعد از حمد و ثنای الهی، به کلامی تکلّم نمود و فرمود: ای نخله! آن چه حق تعالی در تو قرار داده برای ما ظاهر نما.
دیدیم از آن نخله رطب سرخ و زرد می ریخت و آن بزرگوار با ابی امیّه انصاری تناول فرمودند. آن گاه فرمود: ای ابی امیّه! این آیت و معجزه از ما، نظیر آیت و معجزه حضرت مریم (علیها السلام) است که خداوند عالم در کتاب خود به آن خبر داده: ﴿وَ هُزِّی إِلَیْکِ بِجِذْعِ النَّخْلَهِ تُساقِطْ عَلَیْکِ رُطَباً جَنِیًّا﴾ (مریم: 25)(589).
نیز محمد بن جریر به سند خود از حکم بن سعد روایت کرده؛ گفت: دیدم به دست امام محمد باقر (علیه السلام) عصایی بود، آن را بر سنگی زد و از آن سنگ، چشمه آبی ظاهر گردید. عرض کردم: یا بن رسول الله! این چه چیز است؟
فرمود: این نبعه از عصای موسی (علیه السلام) است که مردم از آن تعجّب می نمایند(590).
در حدیث ابن بسطام آمده است که اسحاق جریری خدمت امام محمد باقر (علیه السلام) مشرّف شد. آن حضرت به او فرمود: می بینم رنگ تو زرد شده، آیا به مرض بواسیر مبتلا هستی؟
عرض کردم: بلی، یا بن رسول الله! از خداوند مسألت فرما مرا از اجر و ثواب محروم نفرماید.
فرمود: می خواهی دوایی برایت وصف نمایم؟
عرض کردم: فدایت شوم! بیش از هزار دوا معالجه نموده ام، هیچ کدام نفعی نبخشیده و از بواسیر من خون جریان دارد.
فرمود: «و یحک یا جریری! فأنا طبیب الأطباء و رأس العلماء و رئیس الحکماء و معدن الفقهاء و سید اولاد الأنبیاء علی وجه الأرض».
عرض کردم: چنین است ای سید و مولای من!
فرمود: بواسیر تو، اناث است که جریان دم، از آن می شود.
عرض کردم: صدّقت یا بن رسول الله!
پس دوایی به جهت من وصف فرمود و مرا به استعمال آن امر کرد. «فو الله الّذی لا اله الّا هو!» یک دفعه بیشتر استعمال نکردم که مرض من به کلّی رفع شد، دیگر نه دم جریان نمود و نه وجع از آن احساس نمودم. بعد خدمت آن حضرت مشرّف شدم.
فرمود: «برئت و الحمد لله»(591).
نیز محمد بن جریر به سند خود از جابر بن یزید روایت کرده که گفت: در خدمت امام محمد باقر (علیه السلام) به جانب کوفه می رفتیم. چون به کربلا مشرّف شدیم، فرمود: «یا جابر! هذه روضه من ریاض الجنّه لنا و لشیعتنا». چون قدری گذشت، به جانب من ملتفت شد و فرمود: آیا چیزی می خوری؟
عرض کردم: بلی، ای سید و مولای من! دست مبارک خود را میان سنگ ها فروبرد و سیب معطّری بیرون آورد که هرگز بوی خوشی مثل آن استشمام ننموده بودم و به فواکه دنیا شبیه نبود. آن سیب را خوردم و تا چهل روز محتاج به طعام نشدم(592).
هم چنین محمد بن جریر به سند خود از ابی عبیده روایت کرده که روزی با جمعی، در مجلس محمد بن علی الباقر (علیهما السلام) نشسته بودیم. حضرت فرمود: حال شما در شهرتان مدینه چه خواهد بود که چهار هزار مرد از مقاتلین بر شما داخل شوند، در میان شما شمشیر گذارند، سه روز با شما مقاتله نمایند، شجاعان شما را بکشند و شما بر دفع ایشان قادر نباشید. پس حذر خود را اخذ و در کارهای خود احتیاط نمایید.
اهل مدینه فرمایشات آن حضرت را اخذ ننمودند و گفتند: آن چه محمد بن علی (علیهما السلام) خبر داد، هرگز نخواهد شد، مگر بنی هاشم که احتیاط خود را نگاه داشتند، زیرا می دانستند آن چه حضرت فرمود، صدق و حقّ است و واقع خواهد شد. چون سنه آتیه شد، حضرت با متعلّقان خود از بنی هاشم، از مدینه خارج شدند، نافع بن ازرق با لشکر خود بر ایشان تاخت و آن چه حضرت خبر داده بود، همه واقع شد و اهل مدینه گفتند: آن حضرت صدق فرمود و گفتند: این قوم، اهل بیت نبوّت اند که «ینطقون بالحقّ»(593). انتهی الخبر.
[معجزات امام صادق (علیه السلام)] 6 مسکه:
از جمله معجزات قاهره حضرت جعفر بن محمد الصادق (علیه السلام) آن است که محمد بن جریر به سند خود از ابن قیس روایت کرده که به حضرت صادق (علیه السلام) عرض کردم:
شخص به چه چیز امام خود را می شناسد؛ یعنی دلیل امامت چیست؟
فرمود: اگر آن امام چنین فعل را به جای آورد، پس دست مبارک خود به دیوار زد.
ناگاه دیدم تمام دیوار، طلای خالص شد و دست خود را بر استوانه خانه گذارد، ناگاه سبز شد و برگ برآورد و فرمود: به این دلیل و برهان امام خود را می شناسد(594).
نیز محمد بن جریر و وکیع بن جرّاح به سند خود از ابن خالد روایت کرده اند که حضرت صادق (علیه السلام) را نزد قبر رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) دیدم که دست راست به حیطان قبر مطهّر و دست چپ به مناره مسجد و به سوی آسمان بلند شد و فرمود: «أنا جعفر و أنا النّهر الأعور أنا صاحب الأیات الأقمر أنا شبیّر و شبّر»(595).
هم چنین ابی جعفر طبری به سند خود از ابی سعید روایت کرده که سمک مسلوخ نزد آن بزرگوار آوردند. دست مبارک بر آن کشید، زنده شد و پیش روی آن حضرت مشی می نمود. آن حضرت دست خود را بر زمین زد، ناگاه دجله و فرات زیر قدم او ظاهر شد.
نیز محمد بن جریر به سند خود از ابراهیم بن وهب روایت کرده که گوسفند لاغری که حمل نگرفته و بچّه نیاورده بود، خدمت آن حضرت آوردند. آن حضرت دست مبارک بر پشت او گذاشت. فی الفور فربه و پستان های او مملوّ از شیر شد(596).
ایضا محمد بن جریر از ابی بصیر روایت کرده که گفت: خدمت حضرت صادق (علیه السلام) بودم. حضرت فرمود: آن چه از معلّی بن خنیس به تو خبر می دهم، کتمان کن!
عرض کردم: چنین خواهم کرد.
فرمود: او در بهشت به درجه ما نمی رسد و به ما ملحق نمی شود تا آن که بر او برسد از داود بن علی آن چه باید برسد.
عرض کردم: از داود به او چه می رسد؟
فرمود: داود لعین او را می طلبد، به ضرب عنق او امر می کند و بعد از قتل، او را بر درخت می آویزد.
گفتم: «انّا لله و انّا إلیه راجعون».
سال بعد، داود والی مدینه شد و قصد معلّی کرد، چون او را احضار نمود، به او گفت:
مرا از شیعیان جعفر بن محمد خبر ده تا اسامی ایشان را بنویسم.
معلّی بن خنیس در جواب او گفت: آن ها را نمی شناسم، من مردی هستم که به بعضی از خدمات جعفر بن محمد متعرّضم و مصاحبین او را نمی شناسم.
داود گفت: اگر کتمان نمایی، تو را به قتل می آورم.
معلّی در جواب او گفت: آیا مرا به قتل تهدید می نمایی؟ به خدا قسم! اگر آن ها زیر قدم من باشند، آن ها را کتمان می نمایم و قدم خود را برنمی دارم تا تو آن ها را ببینی و اگر مرا به قتل آوری، خداوند مرا به سعادت موفّق فرمود و تو از اشقیا خواهی بود. داود به قتل و صلب او حکم نمود(597).
نیز محمد بن جریر به سند خود از جماعتی روایت کرده؛ چون داود، معلّی بن خنیس را به قتل آورد، بعد از یک ماه، کسی را به طلب حضرت صادق (علیه السلام) فرستاد و آن حضرت را طلبید. آن بزرگوار اجابت نفرمود.
پس ده نفر از غلامان خود را روانه نمود، تا آن حضرت را به عنف ببرند و اگر امتناع نماید، سر آن حضرت را برای او ببرند. چون غلامان بر آن حضرت وارد شدند، آن سرور با جماعتی از اصحاب، نماز ظهر به جای می آوردند. غلامان عرض کردند:
امیر را اجابت نما!
حضرت فرمود: گمان نمی کنم فرزند رسول خدا را به قتل آورید.
عرض کردند: ما نمی دانیم چه می گویی و چیزی را نمی شناسیم مگر آن که اطاعت امیر نمایی.
آن بزرگوار فرمود: برگردید که آن برای شما خیر است، قبول نکردند. چون حضرت، امر را چنین مشاهده فرمود، دست های مبارک به جانب آسمان بلند نمود و دعایی خواند تا آن که شنیدیم، فرمود: السّاعه؛ السّاعه؛ ناگاه صدای ناله و غوغای عظیمی بلند شد.
حضرت فرمود: برگردید که صاحب و مولای شما از حیات ناامید شده، وفات کرد. مردم جمع شدند، بر سر او دویدند، دیدند مثانه او منشق شده، به جهنّم واصل گردید.
حضرت فرمود: خداوند را به اسم اعظم او خواندم و تضرّع نمودم؛ حق سبحانه و تعالی ملکی برانگیخت، حربه ای بر مذاکیر او زد که مثانه او منشقّ شد و شرّ او را از ما کفایت کرد(598).
نیز محمد بن جریر به سند خود از معلّی بن خنیس روایت کرده که گفت: خدمت حضرت صادق (علیه السلام) نشسته بودم. حضرت فرمود: ای معلّی! چرا محزونی؟
عرض کردم: به واسطه چیزی که از کثرت وبا در عراق استماع نموده ام و اهل و عیال و اموال من در آن جا به خاطرم آمد.
فرمودند: اگر ایشان را ببینی، مسرور می شوی؟
عرض کردم: بلی، به خدا قسم!
فرمود: وجه خود را به جانب عراق برگردان. چون متوجّه آن سمت شدم، دست مبارک خود را بر روی من کشید. ناگاه اهل و عیال خود را دیدم، داخل خانه خود شدم و بر جمیع آن چه در خانه من بود، نظر کردم، یک ساعت در آن جا توقّف کردم، بعد از خانه بیرون آمدم.
دیدم به من فرمود: روی خود را برگردان، چون برگشتم، نظر کردم، دیدم دیگر ایشان را نمی بینم(599).
ایضا در کتاب خلاصه الاخبار از هارون زیّات روایت است که گفت: مرا برادری بود که به ولایت علی بن ابی طالب (علیهما السلام) و اهل بیت او (علیهم السلام) اقرار نمی نمود. روزی خدمت امام جعفر صادق (علیه السلام) آمدم. فرمود: یا بن زیّات! برادرت چه حال دارد؟
گفتم: یا بن رسول الله! خوشحال است و او را تشویشی نیست، مگر این که محبّت شما را ندارد و از پیروی شما ابا می نماید.
حضرت فرمود: چه چیز مانع متابعت او از ماست؟
گفتم: یا بن رسول الله! او بسیار به خود، اعتقاد صلاح دارد و می گوید: مرا ورع نمی گذارد که اگر حال شخصی ظاهر گردد، تابع او نگردم.
گفت: آن شب که در نهر بلخ فسادی کرد، ورع، مانع او نبود. امروز چگونه است که ورع از متابعت اولاد حضرت رسول، مانع است.
چون به خانه آمدم، به برادرم گفتم: مادرت به موت تو بگرید، در خدمت حضرت صادق (علیه السلام) بودم، احوال تو را از من پرسید.
گفتم: احوال او خوب است و اوقات را به طریقی می گذراند که هیچ کس مکروهی از او در خاطر ندارد. سایر خلق او را حمیده خصال و پسندیده احوال و افعال می دانند و چیزی که در نظر من از او نامرضی است، آن است که چنان که باید به شما اهل بیت رسالت باید اعتقاد داشته باشد، ندارد.
آن حضرت پرسید: چه چیز مانع محبّت و متابعت او از ماست؟
گفتم: یا بن رسول الله! به خود گمان ورع دارد.
فرمود: شب نهر بلخ، ورع او کجا بود که مرتکب آن چنان امر شنیعی شد؟
برادرم گفت: ای عبد الله! تو را از شب نهر بلخ خبر داد؟
گفتم: بلی!
برادرم گفت: «اشهد انّه حجّه ربّ العالمین علی الخلق اجمعین.»
گفتم: ای برادر! مرا از شب نهر بلخ خبر ده که آن چگونه بوده و در آن شب از تو چه صادر شده که مخالف ورع می نمود؟
گفت: با شخصی همراه بودم که کنیز جمیله ای با خود داشت. از کثرت برودت هوا و شدّت سرما به آتش احتیاج شد. صاحب کنیز گفت: اگر از اسباب محافظت کنی، به طلب هیزم روم و ترتیب آتش کنم.
صاحب کنیز به جهت تحصیل هیزم، روی به صحرا نهاد و چون از نظر غایب شد، نزد کنیز آمدم، شیطان مرا به متابعت نفس واداشت و امر شنیع از من به عمل آمد. و الله! هیچ کس از این واقف نشده بود، به احدی اظهار ننموده بودم و جز حق تعالی کسی بر آن مطّلع نشد. یقین به نور ولایت، این امر برای ابا عبد الله معلوم شده.
بعد از این سخنان، خوف بی غایت و ترس بی نهایت به برادرم استیلا یافت. بسیار متغیّر الاحوال گردید. چون یک سال از این مدّت گذشت، به مرافقت برادر به شرف حضور وافر السرور آن حضرت رسیدیم، آثار خجالت و انفعال بر ناصیه برادرم دیدم و او از مجلس برخاست. مادرم قلبش را به آتش سخن آن کعبه اخیار و مهر آن قبله ابرار، سکّه دار ساخت(600).
در کتاب خرایج(601) از داود مروی است: روزی در مجلس امام جعفر صادق (علیه السلام) بودم. آن حضرت به من فرمود: یا داود! حال تو چون است که رنگت تغییر کرده.
گفتم: یا بن رسول الله! قرض بسیار دارم و شب و روز در فکر آن، در آزارم. قصد من این است که تاجری شهر سند را اختیار کنم و به کشتی که عن قریب متوجّه آن حدود می شود، درآیم. برادرم را از آن دیار بیرون آورم و با او در خدمت حضرت تو بگذرانم.
فرمود: چون این قصد داری، برو و از محنت مسافرت ملول مشو.
گفتم: یا بن رسول الله! از حالات کشتی بسیار می ترسم و از موج دریا خوفناکم.
آن حضرت فرمود: آن کس که در برّ، حافظ آن است، در بحر نیز، معین و ناصر او است. ای داود! مگر ندانسته ای، اگر ما نباشیم، انهار جریان ننماید، اثمار پدید نگردد و اشجار سبز نشود.
داود گوید: از سخنان آن حضرت دلم قوی گردید و به کشتی درآمدم، مدّت صد و بیست روز در کشتی بودیم. روزی پیش از زوال، بیرون آمدیم که روز جمعه بود. ناگاه نوری درخشنده از آسمان بر زمین رسید، از آن نور آوازی شنیدم که گفت: ای داود! این، زمان دادن دین تو است. سر بالا کن! من سلام دادم و روی به سوی آسمان کردم، آوازی شنیدم که ای داود! در پس پشته های سرخ برو و صنع الهی را مشاهده کن.
چون بدان موضع رسیدم، تنگ های طلا دیدم بر آن نوشته: هذا عطاؤنا داود. گوید:
آن ها را برداشتم. چون حساب کردم، قیمت آن ها زیادتر از آن بود که من می طلبیدم. به هیچ وجه متوجّه تجارت نشدم تا به زودی به مدینه رسیدم و مجموع آن مال را خدمت مولای خود ابی عبد الله (علیه السلام) بردم.
آن حضرت فرمود: یاد آر! آن چه به تو عطا کردیم؛ نور ساطع بود که تو را به آن مقام راه نمود و آن چه به تو واصل شد، از لوح های عطای پروردگار کریم رحیم است.
حق، تو را برکت دهاد! این مال را قبض کن و در مایحتاج خود صرف نما.
مال را به خانه آوردم. روزی به معین، خادم حضرت، گفتم: امام مرا به سفر بحر هدایت کرد، در آن سفر، فتوحات بسیاری به من روی نمود.
معین گفت: ای داود! آن وقت که در سفر دریا بودی، من وقتی خدمت حضرت ایستاده بودم و بعضی از اصحاب؛ مثل حمران و عبد العلی و غیرهما حاضر بودند، آن حضرت جمیع حالات و واقعات تو را خبر داد؛ به طریقی که تو حکایت کردی، بلا زیاده و نقصان.
داود گوید: به هریک از اصحاب آن حضرت که رسیدم، مطابق قول معین، از ایشان شنیدم.
ایضا هشام بن سالم روایت کرده که حضرت صادق (علیه السلام) فرمود: برای خدا شهری در پشت دریا هست که وسعت آن، به قدر سیر چهل روز آفتاب است، در آن شهر جمعی هستند که هرگز معصیّت نکرده، شیطان را نمی شناسند و نمی دانند شیطان کیست، خلق شده، هرچندگاه آن ها را می بینیم و آن چه احتیاج دارند، از ما سؤال کنند. کیفیّت دعا را به ایشان تعلیم می نماییم و می پرسند که قائم آل محمد (صلّی الله علیه و آله) کی ظهور می کند و در عبادت و بندگی، بسیار سعی می کنند.
شهر ایشان دروازه های بسیار دارد و از هردروازه تا دروازه ای صد فرسخ مسافت است. برای آن ها تقدیس و تنزیه و عبادت بسیار هست که اگر ایشان را ببینید، عبادت خود را سهل می دانید، میان ایشان کسی هست که یک ماه سر از سجود برنمی دارد.
خوراکشان، تسبیح الهی، پوشش ایشان، برگ درختان و روهای ایشان، از نور روشن است. چون یکی از ایشان، ما را می بیند، گرد او می آیند و از خاک قدمش برای برکت برمی گیرند، چون وقت نماز می شود صداهای ایشان بلند می شود، مانند باد تند. در میان ایشان جمعی هستند که برای انتظار قدوم قائم آل محمد هرگز از خود حربه نینداخته اند و از خدا می طلبند در خدمت او مشرّف شوند. عمر هریک از ایشان هزار سال است.
اگر ایشان را ببینی، آثار خشوع، شکستگی و فروتنی از ایشان ظاهر است. پیوسته امری را طلب می کنند که موجب قرب خدا باشد و پیوسته منتظر وقتی هستند که ملاقات ما و ایشان است. هرگز از عبادت سست نمی شوند و به تنگ نمی آیند، به نحوی که ما قرآن را به ایشان تعلیم کرده ایم؛ تلاوت می نمایند. در میان قرآن چند چیز است که اگر برای مردم بخوانیم، کافر می شوند. اگر چیزی از قرائت بر ایشان مشکل شود، از ما می پرسند و چون بیان می کنیم؛ سینه های ایشان گشاده و منوّر می شود و از خدا می طلبند ما را بر ایشان باقی دارد و می دانند خدا به وجود ما، بر ایشان نعمت ها داده و قدر ما را می شناسند.
آن ها با قائم آل محمّد (صلّی الله علیه و آله) خروج خواهند کرد، جنگیان ایشان بر دیگران، سبقت خواهند گرفت و همیشه همین را از خدا می طلبند. میان ایشان پیران و جوانان هستند، چون جوانی از آنان، پیری را می بیند به مثابه بندگان نزد او می نشیند و تا رخصت نفرماید، برنخیزد.
ایشان بهتر از جمیع خلق، از امام اطاعت می کنند و هرامری که امام، ایشان را به آن بدارد، ترک نمی کنند تا امر دیگر بفرماید. اگر آن ها را بر خلق ما بین مشرق و مغرب بگمارند، در یک ساعت همه را فانی می گردانند، حربه بر ایشان کار نمی کند و خود و شمشیرها از آهن دارند؛ غیر از این آهن، که اگر بر کوه بزنند، درهم می کوبند.
امام با این لشکر، با هند، روم، ترک، دیلم، بربر و هرکه مابین جابلقا و جابلسا است، جنگ باید کرد. جابلقا و جابلسا دو شهر است؛ یکی در مشرق و یکی در مغرب.
بر هریک از ادیان که وارد شود، اوّل، آنان را به خدا و رسول و دین اسلام بخوانند، هر کس مسلمان نشود، او را بکشند تا آن که میان مشرق و مغرب کسی نماند که مسلمان نشود. این حدیث در کتاب عین الحیوه نیز، مذکور است(602).
[معجزات حضرت کاظم (علیه السلام)] 7 مسکه:
از جمله معجزات حضرت موسی بن جعفر (علیهما السلام) آن است که محمد بن جریر و ابن وکیع از اعمش روایت کرده اند، گفت: موسی بن جعفر (علیهما السلام) را نزد هارون الرشید دیدم. هارون کمال خضوع و خشوع را برای آن بزرگوار می نمود. عیسی بن ابان بعد از انقضای مجلس، از هارون سؤال کرد: یا امیر المؤمنین! چه قدر برای موسی بن جعفر خضوع و خشوع می نمایی؟
هارون گفت: دیدم افعی ایی در مقابل من ایستاده، نیش های خود را بر هم می زد و می گفت: او را اطاعت کن و گرنه تو را می بلعم. من از فزع و خوف، او را تعظیم می نمودم(603).
نیز محمد بن جریر و ابن وکیع از اعمش روایت کرده اند؛ موسی بن جعفر (علیهما السلام) را در حبس هارون الرشید دیدم که از حبس بیرون می آمد و غایب می شد، بعد از آن، در حبس داخل می شد و بر کسی معلوم نبود از کجا داخل شد(604).
هم چنین محمد بن جریر و ابن وکیع از اعمش روایت کرده اند؛ موسی بن جعفر (علیهما السلام) را دیدم که بر نخل یابسه ای مرور کرد که افتاده بود.
آن بزرگوار، دست مبارک خود را بر آن درخت کشید. ناگاه سبز شد، برگ برآورد و ثمره داد، از او چیده، به من هم عطا فرمود(605).
ایضا محمد بن جریر از موسی بن هامان روایت کرده، موسی بن جعفر (علیهما السلام) را در حبس هارون الرشید دیدم که بر او مائده ای از آسمان نازل شد و با آن اهل زندان را اطعام می نمود، بعد آن مائده به سوی آسمان بلند می شد بدون آن که چیزی از آن کم شود(606).
نیز محمد بن جریر و ابن وکیع از ابراهیم بن اسود روایت کرده اند؛ موسی بن جعفر (علیهما السلام) را دیدم که به آسمان صعود نمود و نازل شد، در دست او حربه ای از نور بود و فرمود: آیا هارون مرا می ترساند؟! اگر بخواهم هرآینه با این حربه او را طعن می زنم.
چون این خبر به هارون رسید، غشوه بر او عارض شد(607).
ایضا ابو جعفر محمد بن جریر به سند خود از ابراهیم بن سعد روایت کرده:
هارون الرشید امر نمود سباع و درّندگان را در منزل موسی بن جعفر (علیها السلام) داخل نمایند تا آن بزرگوار را بخورند. چون درّندگان را داخل منزل حضرت نمودند و نظر آن ها بر آن بزرگوار افتاد، به او پناه بردند، تذلّل نمودند، به امامت آن حضرت اقرار نمودند و از شرّ هارون تشکّی نمودند. چون این خبر به هارون رسید، ترسید میان مردم فتنه شود، حضرت را از حبس خارج کرد(608).
نیز محمد بن جریر به سند خود از اسحاق بن عمّار روایت کرده؛ از موسی بن جعفر (علیهما السلام) شنیدم که مردی از شیعیان خود را به اجلش اخبار فرمود. پس در قلب خود گذراندم که آن بزرگوار از آجال شیعیان خود، عالم است که چه وقت اجل ایشان می رسد. چون این مطلب در قلب من خطور کرد، دیدم آن بزرگوار نگاه غضبناکی به من نمود و فرمود: رشید هجری، به علم منایا و بلایا عالم بود و امام (علیه السلام) به این علم اولی است.
نیز محمد بن جریر به سند خود از ابی حمزه روایت کرده، گفت: خدمت موسی بن جعفر (علیهما السلام) بودم که سی غلام از حبشه برای آن حضرت آوردند که آن ها را به جهت آن بزرگوار خریده بودند. در میان آن ها غلام جمیلی بود و حضرت با او به زبان حبشی تکلّم می فرمود. چون خارج شدند، عرض کردم: جعلت فداک! دیدم با غلام به لسان حبشی مکالمه فرمودی. آیا او را به چیزی امر فرمودی؟
فرمود: او را امر نمودم که به اصحاب خود به خیر وصیّت نماید و به هریک از ایشان در هرماه سی درهم عطا کند، زیرا به او نگاه کردم، دیدم غلام عاقلی است و از ابنای ملوک حبشه می باشد و او را به جمیع آن چه به آن محتاج هستم، سفارش نمودم، قبول نمود، او غلامی صادق و راستگو و امین است، بعد فرمود:
شاید از مکالمه من با او به لسان حبشی تعجّب کرده باشی، تعجّب مکن که آن چه از امر حجّت مخفی است، اکثر از آن و اعجب از این است و آن چه دیدی در جنب علم امام نیست، مگر مثل طایری که با منقار خود، قطره ای از آب دریا بردارد. آیا آن چه از آب دریا اخذ نمود، آب دریا ناقص شد؟ به درستی که امام و حجّت خدا به منزله آن دریاست که آن چه نزد او است، تمام نخواهد شد و عجایب امام، اکثر از آن است(609).
ایضا محمد بن جریر به سند خود از اسحاق بن عمّار روایت کرده؛ موسی بن جعفر (علیهما السلام) را دیدم که به کلامی تکلّم نمود. عرض کردم: این چه لسان است که تکلّم فرمودی؟
فرمود: یا اسحاق! این لسان طیر است. آن چه نزد امام است اعجب و اکثر از این است.
عرض کردم: آیا امام عالم به زبان طیور است؟
فرمود: بلی! به لسان هرذی روحی عالم است(610).
نیز محمد بن جریر از احمد بن محمد معروف به غزال روایت کرده، گفت: در خدمت حضرت موسی بن جعفر (علیهما السلام) بودم که عصفوری داخل شد، در برابر آن حضرت صیحه می کشید و پر و بال خود را بر هم می زد. آن بزرگوار به من فرمود:
می دانی این عصفور چه می گوید؟
عرض کردم: خدا و رسول و ولیّ او بهتر می دانند.
فرمود؛ می گوید: ای مولای من! ماری قصد کرده جوجه های مرا بخورد. برخیز برویم او را از این عصفور و بچّه هایش دفع نماییم. چون داخل خانه شدیم، دیدیم ماری اراده بلعیدن بچّه های عصفور را دارد. مار را به قتل آوردیم(611).
نیز از احمد بن حنبل روایت شده، گفت: خدمت موسی بن جعفر (علیهما السلام) رفتم تا حدیثی را نزد او قرائت نمایم. دیدم ثعبانی، دهان خود را نزدیک گوش آن حضرت برده و با آن بزرگوار تکلّم می کند. از عرض حاجت خود فارغ شد و آن حضرت برای او بیان فرمود آن چه را که خواسته بود و من مکالمه ایشان را نفهمیدم. چون آن اژدها از نزد آن بزرگوار خارج شد، به من فرمود: ای احمد! این ثعبان، رسول طایفه جنّ بود، در میان ایشان دو مسأله اختلاف شده بود. او نزد من آمد و از مسأله مختلف فیها سؤال کرد، جواب آن را شنید و رفت.
نیز محمد بن جریر از احمد بن النیان که یکی از خواصّ حضرت موسی بن جعفر (علیهما السلام) بود، روایت کرده، گفت: شبی در بستر خود خوابیده بودم. ناگاه دیدم کسی با پای خود مرا حرکت داد و فرمود: آیا شیعه آل محمد در این وقت می خوابد؟
برخواستم، دیدم حضرت موسی بن جعفر (علیهما السلام) است. فرمود: یا احمد! برای نماز وضو بگیر. چون وضو گرفتم، دست مرا گرفت و از باب خانه بیرون آورد در حالی که در، بسته بود و نمی دانستم مرا کجا می برد. ناگاه دیدم ناقه ای عقال کرده بر باب است.
حضرت زانوی او را گشوده، سوار شد، مرا نیز به ردیف خود سوار نمود، قدری که مسافت طیّ نمودیم، از ناقه فرود آمد، من نیز فرود آمدم. بیست و چهار رکعت نماز به جای آورد و فرمود: یا احمد! آیا می دانی این چه موضع است؟
عرض کردم: خدا و رسول و فرزند رسول داناترند.
فرمود: این قبر جدّم حسین (علیه السلام) است. قدری دیگر طیّ نمودیم تا وارد کوفه شدیم وقتی که حرسه و کلاب و پاسبانان کوفه در بازار و محلّه بیدار بودند و ما را نمی دیدند تا آن که داخل مسجد شدیم. هفده رکعت نماز به جای آورد و فرمود: یا احمد! آیا می دانی این چه موضع است؟
عرض کردم: الله و رسوله و ابن رسوله اعلم.
فرمود: این موضع، قبر جدّم علی بن ابی طالب (علیه السلام) است. قدری سیر کردیم تا آن که مرا در مکّه داخل نمود و فرمود: این مکّه و زمزم است. بعد از آن سیر کردیم تا داخل مسجد رسول خدا (صلّی الله علیه و آله و سلّم) شدیم. فرمود: این مسجد جدّم رسول خداست. سپس قدری سیر کردیم. به من فرمود: آیا می خواهی دلالات امام را به تو بنمایم؟
عرض کردم: بلی! فرمود: «یا لیل ادبر! فادبر اللّیل. ثم قال: یا نهار اقبل! فأقبل النّهار بالنّور العظیم»، بعد فرمود: «یا نهار ادبر و یا لیل اقبل! فادبر النّهار و اقبل علینا اللّیل.»
آثار و علامات بسیاری از آن بزرگوار مشاهده و به منزل مراجعت کردم و بر فراش خود خوابیدم تا آن که صبح طالع شد. پس برخاستم، وضو گرفتم و در منزل خود نماز خواندم(612).
از جمله معجزات آن بزرگوار حدیث مفضّل است که چون حضرت صادق (علیه السلام) وفات نمود، عبد الله افطح، مدّعی امامت شد. پس حضرت موسی بن جعفر (علیهما السلام) امر کرد در وسط خانه، هیزم بسیاری جمع نمودند و همه را افروختند. پس نزد عبد الله فرستاد و از او درخواست نمود که به منزل آن حضرت بیاید.
عبد الله با جماعت بسیاری از وجوه شیعه، وارد منزل آن حضرت شدند. چون نشستند و آتش خوب برافروخته شد، آن بزرگوار برخاست و در آتش داخل شد، میان آتش نشست و شروع کرد با مردم صحبت کردن و حدیث فرمودن به مقدار ساعتی.
بعد از آن برخاست، جامه خود را حرکت داد، از آتش بیرون آمد، در مجلس نشست و به عبد الله فرمود: اگر به زعم خود، جانشین پدر و امام بر خلق هستی، برخیز و در این آتش داخل شو، بنشین و با مردم صحبت بدار. رنگ عبد الله متغیّر شد و از خانه حضرت بیرون رفت(613).
در کتاب خلاصه الاخبار(614) از ابی الصلت هروی، مروی است که حضرت علی بن موسی الرضا (علیهما السلام) فرمود: روزی در خدمت پدر خود حضرت موسی بن جعفر (علیه السلام) بودم. آن حضرت به علی بن حمزه فرمود: یا بن ابی حمزه! مردی از اهل مغرب پیش تو آید و خصوصیّات احوال مرا پرسد، بگو او به قول پدرش جعفر بن محمد (علیهما السلام) امام است و آن چه از حلال و حرام از تو پرسید، بگو.
علی بن حمزه گفت: یا بن رسول الله! علامت آن شخص چه باشد؟
فرمود: مردی جسیم و بلند قامت باشد.
سپس وی نزد من آمد و گفت: می خواهم احوال صاحب تو را بپرسم.
گفتم: از کدام صاحب؟
گفت: از موسی بن جعفر (علیهما السلام).
گفتم: نام تو چیست؟
گفت: یعقوب بن یزید از بلاد مغرب.
گفتم: مرا از کجا می شناسی؟
گفت: دوش در خواب دیدم کسی به من گفت: علی بن حمزه را ملاقات کن و آن چه مراد تو است، از او سؤال نما. من از مردم پرسیدم. تو را نشان دادند.
گفتم: در همین موضع بنشین تا از طواف فارغ شوم. چون طواف تمام کردم نزد او رفتم و زمانی با او مصاحبت کردم، به غایت پسندیده دیدم. به من التماس کرد و گفت:
آرزو دارم خدمت امام برسم. او را خدمت امام (علیه السلام) رساندم.
چون نظر حضرت بر او افتاد، فرمود: ای یعقوب بن یزید! دیروز وقت آمدن، میان تو و برادرت خصومتی در فلان موضع واقع شد و به سر حدّ دشنام رسید. در دین ما دشنام برادر مؤمن جایز نیست و ما احدی از دوستان و شیعیان خود را به این نوع امر، رضا ندهیم. یقین بدان به سبب این خصومت و نفرین که میان تو و برادرت شد، خدای تعالی به تفاوت میان شما امر کرد، برادرت پیش از آن که به اهل خود برسد، در این سفر وفات خواهد کرد و تو از آن چه به سبب او کرده ای، نادم و پشیمان خواهی شد.
یعقوب گفت: یا بن رسول الله! اجل من کی باشد؟
فرمود: اجل تو رسیده بود، لیکن صله رحم به جای آوردی و در فلان موضع، عمّه خود را دریافتی و با هدیه ای، او را از خود خشنود ساختی. خدای تعالی بیست و دو سال دیگر در اجلت تأخیر کرد.
علی بن حمزه گوید: سال دیگر در حجّ، یعقوب بن زید را دیدم. نزد او رفتم و احوالش پرسیدم.
گفت: یا بن ابی حمزه! در همان سفر که مولای من فرمود، برادرم فوت شد قبل از آن که به اهل و وطن خود برسد.
ایضا در آن کتاب از معلیّ بن محمد از بعضی اصحاب از بکّار قمیّ (ره) منقول است، گفت: چهل حج کرده بودم، در آخر مرا مسکنت و فقری روی داد و نهایت عسرت و احتیاج روی نمود. در مکّه معظّمه چندان اقامت نمودم که سایر حاجیان متوجّه بلاد خود شدند. بعد از آن با خود گفتم، به مدینه روم، زیارت حضرت رسالت پناهی کنم، شرف صحبت ابی الحسن موسی الکاظم (علیهما السلام) را دریابم و باقی اوقات، کار گل و مزدوری کنم، شاید مکنتی یابم و به قوّت آن به کوفه روم و به اهل و عیال خود برسم.
پس متوجّه مدینه شدم و به سعادت زیارت حضرت رسول مشرّف شدم. روز دیگر بر سر بازار حاضر شدم و در آن موضع که مزدوران جمع می شدند، میان ایشان، ایستادم تا آن که شخصی مرا خدمتی فرماید. ناگاه مردی آمد و مجموع فعله را ببرد.
من نیز از عقب آن شخص با ایشان رفتم و به او گفتم: یا عبد الله! مردی غریبم و کسی را نمی شناسم. اگر مصلحت دانی با این جماعت همراه باشم و هرچه اشاره نمایی، عمل کنم.
گفت: ظاهرا از مردم کوفه ای.
گفتم: بلی!
گفت: با این جماعت برو، به سرای بزرگی خواهی رسید در آن موضع هرکاری که خواهی، عمل کن. در آن سرا رفتم و چند روز کار گل کردم. قاعده چنان بود که روز پنج شنبه، اجرت تمام هفته را به کارکنان می دادند. چون بعضی اوقات می دیدم کارکنان در کار کردن تکاهل می کنند، ایشان را به کار کردن ترغیب و تحریص می کردم. معمار مرا بدین سبب تحسین کرد و در آخر گفت: کار تو آن است که این جماعت را به کار داری.
روزی بر نردبان آمده بودم. چون به زیر نگاه کردم، دیدم حضرت ابی الحسن موسی بن جعفر (علیه السلام) بدان سرای درآمد و به اطراف خانه های آن سرا برآمد. بعد از آن، سر مبارک بالا کرد و فرمود: یا بکّار به جانب من آمده ای؟ از نردبان فرود آی! فرود آمدم و دست آن حضرت را بوسیدم. از من پرسید: در این موضع به چه کار مشغولی؟
گفتم: یا بن رسول الله! پدر و مادرم فدایت باد! به غایت بی بضاعت شدم و مرا قوّت مراجعت نشد، به مدینه آمدم و بسیار شوق لقای شما داشتم. گفتم مزدوری کنم و استطاعت سفر کوفه به هم رسانم. در اثنای این، خدمت حضرت رسول مشرّف شده، در میان مزدوران به این منزل آمده، با ایشان کار می کنم. سپس حضرت متوجّه بیرون شد و من به کار خود مشغول گردیدم.
روز دیگر اجرت مزدوران را می دادند. من پیش وکیل آن حضرت که سر عمارت بود، آمدم. به من اشاره کرد یک ساعت بنشین تا از این جماعت فارغ شوم. چون اجرت عمله را داد، متوجّه من شد و گفت: نزدیک تر آی! چون پیش آمدم صرّه ای به من داد که در آن پانزده دینار طلای احمر بود و گفت: این ما یحتاج راه تو است. فردا نزد امام برو و بعد از زیارت آن حضرت، متوجّه کوفه شو که مصلحت تو در آن است.
گفتم: سمعا و طاعتا. چون روز دیگر شد خدمت آن حضرت رفتم.
حضرت فرمود: همین ساعت بیرون رو و سعی کن زودتر به فید، رسی. فید موضعی از قرای مدینه است. پس از آن، حضرت مکتوبی به من داد و فرمود: در کوفه، این مکتوب را به علی بن حمزه تسلیم نما! همان ساعت وداع کرده، متوجّه راه شدم. چون به فید رسیدم، جماعتی مستعدّ سفر کوفه بودند. شتری خریدم و با آن جماعت رفیق شدم. وقتی به کوفه رسیدم، قریب به نصف شب بود. شب نزد اهل و عیال خود رفتم و تحقیق حالات خانه می نمودم. به من خبر دادند چند روز قبل از آمدن تو، دزدان به خانه و دکّان تو درآمده بودند.
چون صبح طالع شد، با خود گفتم نماز بامداد کنم، بعد از آن به خانه علی بن حمزه روم. نماز کردم و اوراد می خواندم، ناگاه شخصی در را کوبید. به تعجیل بیرون آمدم.
علی بن حمزه را دیدم که بر در ایستاده، به او سلام کردم.
گفت: یا بکّار! کتابت مولای مرا بیاور! آن مکتوب را به وی تسلیم نمودم. سر باز کرد، چون چشمش بر خطّ مبارک آن حضرت افتاد، ناله و گریه کرد.
گفتم: یا بن حمزه! چه چیز تو را می گریاند؟
گفت: از غلبه شوق ملاقات مولای خود، موسی بن جعفر (علیهما السلام) و نهایت آرزومندی به ملاقات آن سرور، می گریم. سپس گفت: ای بکّار! به خانه ات دزد آمده، غم مخور که خدای تعالی آن چه از خانه و دکّان تو برده اند، به تو عوض داد. بدان مولای من و تو و جمیع مؤمنان، امر کرده چهل دینار طلای احمر به تو بدهم. دست کرد و صرّه ای بیرون آورد که چهل دینار طلای احمر در آن بود. به من تسلیم نمود و کتابت حضرت را برای من خواند. در آن مکتوب نوشته بود: علی بن حمزه، قیمت اسباب بکّار را به او تسلیم نما؛ بهای آن چه برده اند، چهل دینار است.
بکّار گوید: چون حساب نمودم، قیمت آن بلازیاده و نقصان، چهل دینار بود.
[معجزات حضرت صادق (علیه السلام)] 8 مسکه:
اما معجزات ظاهره حضرت علی بن موسی الرضا - علیه و علی آبائه آلاف التّحیّه و الثّناء - مانند معجزات و خارق عادات آبای طاهرین او بسیار است که قریب به دویست معجزه از آن امام عالمیان به عرصه ظهور رسیده، از جمله محمد بن جریر از ابراهیم بن موسی روایت نموده؛ از حضرت علی بن موسی الرضا (علیهما السلام) نفقه استدعا کردم و به من وعده فرمود، تا آن که روزی از خانه، بیرون تشریف آورد.
عرض کردم: یا بن رسول الله! ایّام عید است و چیزی مالک نیستم. دیدم با تازیانه خود زمین را حکّ شدیدی نمود، دست مبارک را بر آن زده، سبیکه ای از طلا بیرون آورده، به من داد و فرمود: از آن منتفع شو ولی آن چه دیدی، کتمان نما(615).
نیز محمد بن جریر از ابراهیم بن سهل روایت کرده که خدمت حضرت رضا (علیه السلام) مشرّف شدم. به من فرمود: چه چیز نزد تو دلالت بر امامت است؟
عرض کردم: آن که خبر دهد به آن چه ذخیره شده و احیای اموات نماید.
فرمود: أنا أفعل؛ اما آن چه با تو است، پنج دینار است و اما زوجه تو یک سال است که وفات نموده و من همین ساعت احیا می نمایم تا یک سال دیگر با تو باشد و تو قاطع و جازم باشی بر این که من بدون ریب امامم. رعب بر من عارض شد. فرمود: خوف را از قلب خود بیرون کن که ایمن خواهی بود.
یا شما را به مهدی بشارت ندهم؟
به منزل خود برگشتم، دیدم زوجه من نشسته، گفتم: به چه سبب زنده شدی؟
گفت: در بستر لحد خوابیده بودم. شخصی به این وصف نزد من آمد. چون اوصاف آن شخص را بیان نمود، دیدم اوصاف امام رضا (علیه السلام) است. پس فرمود: ای زن! برخیز و به سوی خانه خود برو که خدای تعالی بعد از موت، برای تو ولدی مقدّر فرموده.
ابراهیم گفت: و الله! خداوند از آن زن فرزندی به من عطا فرمود(616).
نیز محمد بن جریر به سند خود از معبد شامی روایت کرده، گفت: بر حضرت علی بن موسی الرضا (علیهما السلام) داخل شدم و عرض کردم: مردم معجزات عجیبه بسیار از شما نقل می نمایند. مرا نیز از عجایب آیات خود خبر ده که آن را برای مردم نقل نمایم.
فرمود: چه می خواهی؟
عرض کردم: پدر و مادرم را زنده نما!
فرمود: به منزل خود برگرد که آن دو را برای تو احیا نمودم.
چون به منزل خود مراجعت نمودم، پدر و مادرم را دیدم که هردو در خانه نشسته اند. ده روز نزد من اقامت نمودند. بعد از ده روز، خداوند روح ایشان را قبض فرمود.
هم چنین محمد بن جریر به سند خود از عمّاره بن سعید روایت کرده، گفت:
حضرت رضا (علیه السلام) را دیدم که دست مبارک خود را بر تراب می زد، به درهم و دینار منقلب می شد(617).
نیز محمد بن جریر به سند خود از حبیب بناجی روایت کرده، گفت: شبی در عالم رؤیا خدمت حضرت رسول (صلّی الله علیه و آله) مشرّف شدم. آن حضرت قبضه ای از تمر به من عطا فرمود. چون آن را شمردم، دیدم هجده دانه است و از خواب بیدار شدم. برهه ای از زمان گذشت تا در مسجد رسول (صلّی الله علیه و آله) خدمت حضرت رضا (علیه السلام) مشرّف شدم و نزد آن حضرت طبقی از تمر بود. بر آن حضرت سلام کردم. جواب سلام مرا فرمود و قبضه ای از آن تمر به من مرحمت فرمود. آن را شمردم هجده عدد بود.
عرض کردم: زدنی، یا بن رسول الله!
فرمود: لو زادک رسول الله شیئا لزدتک(618).
ایضا محمد بن جریر به سند خود از عمّاره بن زید روایت کرده که گفت: در سفری با علی بن موسی الرضا (علیهما السلام) مصاحب بودم و در راه غلامی با من بود. مریض شد و از من خواهش انگور نمود. پس نظر کردم، بستانی دیدم که در آن انگور و انار و اشجار بسیاری بود. از آن انگور و انار چیدم و به غلام دادم، از آن تناول نمود، توشه ای از آن برداشتم تا آن که به بغداد مراجعت نمودم و آن قضیه را برای لیث بن سعد و ابراهیم بن سعید نقل کردم. آن دو نیز، خدمت آن حضرت مشرّف شدند و آن چه به آن ها خبر داده بودم برای آن بزرگوار نقل کردند.
حضرت فرمود: برای شما نیز این مطلب بعدی ندارد و آن بستان، این است. چون نظر کردیم، بستانی دیدیم که در آن هرنوع فواکه بود. از آن فواکه تناول کردیم و ذخیره نمودیم(619).
نیز محمد بن جریر از سعد بن سلام روایت کرده که گفت: ما ده نفر بودیم که خدمت حضرت رضا (علیه السلام) مشرّف شدیم و قوم در دلایل امامت با آن حضرت مکالمه می نمودند. جماداتی دیدم که زیر پا و اطراف آن بزرگوار بود، به سخن درآمده، می گفتند: هو امامی و امام کلّ شیء. سپس داخل مسجد شد. دیوارهای مسجد و چوب های آن، بر آن بزرگوار سلام کرده، با او تکلّم می کردند(620).
نیز محمد بن جریر به سند خود از عمّاره بن زید روایت کرده که گفت: خدمت حضرت رضا (علیه السلام) مشرّف شدم و در باب شخصی با آن جناب مکالمه کردم که چیزی به او عطا فرماید. دیدم برای آن شخص کیسه ای از خاک به من عطا فرمود و من حیا کردم به آن بزرگوار برگردانم. روانه شدم و به نزدیک خانه آن شخص رسیدم، دیدم همه آن خاک، طلا شده است. آن را به آن شخص دادم و مستغنی شد. فردای آن روز خدمت حضرت مشرّف شدم و کیفیّت را به عرض آن جناب رساندم.
فرمودند: بلی! به جهت همین مطلب، آن خاک را به تو دادم(621).
این ناچیز گوید: معجزات و خارق عادات آن بزرگوار در میان ائمّه هدی - صلوات الله علیهم اجمعین - اظهر و اشیع است. خصوصا معجزاتی که در حین قدوم آن حضرت از مدینه به خراسان به ظهور رسید و در اثنای طریق، اکثر خلق از آن بزرگوار مشاهده کردند.
هم چنین معجزاتی که اکثر خلق در خراسان از بدو ورود تا زمان شهادت او، بلکه تا زمان دفن آن حضرت، در موضع قبر شریفش مشاهده کرده اند، از مشهورات، بلکه متواترات و معروف بین خاصّه و عامّه است که احتیاجی به نقل آن ها نخواهد بود. ولی چنان مناسب دیدم که سه معجزه از آن ها را که در کتاب خلاصه الاخبار است، نقل نمایم.
اوّل؛ احمد بن علی بن حسن ثعلبی از ابی احمد بن عبد الله بن عبد الرحمن معروف به صفواتی روایت کند: قافله ای از خراسان به کرمان می رفت. دزدان، راه ایشان را گرفتند و میان ایشان، مردی بود که به بسیاری مال متّهم بود. او را گرفته، دهانش را پر برف کردند و نگاه داشتند تا گویایی او برطرف شد و بر گویایی قادر نبود. به خراسان بازگشت و خبر امام را شنیده بود و حضرت آن وقت در نیشابور بود. ملول شد، در خواب دید خدمت آن حضرت رسید و او را از علّت خود خبر کرد.
فرمود: از زیره کرمانی و سعتر و نمک بگیر، بکوب و دوبار یا سه بار در دهان کن که از این علّت خلاص شوی!
آن مرد بیدار شد، آن خواب را نادیده انگاشت تا به نیشابور آمد.
گفتند: آن حضرت از نیشابور روان شده و در رباط سعد است. از آن جا خدمت حضرت رفت و گفت: یا بن رسول الله! حال من این است.
فرمود: آیا بر آن تعلیم نکردم، عمل کن آن چه در خواب به تو نموده بودم؟
گفت: یا بن رسول الله! اگر اعاده کنی، دور نباشد.
فرمود: زیره کرمانی و سعتر و نمک را بگیر، بکوب و دو بار یا سه بار در دهان کن.
مرد گفت: چنان کردم، صحّت یافتم.
دوّم؛ از ابی جعفر محمد بن عبد الله بن عبد الرحمن همدانی مروی است، گفت:
وقتی مرا قرض بسیار رسیده، احتیاج بسیار، روی نمود و مرا از این محنت، هیچ مخلص نبود. با خود گفتم؛ این درد را جز التفات مولای من علاج نتواند بود. همان بهتر که حال خود را به او گویم و دوای خود از او جویم.
پس خدمت آن حضرت رفتم. چون نظرش بر من افتاد، قبل از آن که حال خود را اظهار کنم، گفت: یا ابا جعفر! به درستی که خدای تعالی حاجت تو برآورد و دینت ادا کرد، تنگ دل و محزون مباش! آن روز نزد حضرت اقامت نمودم، فرمود: اگر تو را میل به طعام باشد، احضار فرمایم.
گفتم: یا بن رسول الله! روزه می دارم و آرزوی من است با حضرت تو افطار کنم. نماز مغرب به آن حضرت گزاردم. میان سرای نشست. طعام آوردند و با آن سرور افطار کردم. چون طعام از مجلس برخاست، فرمود: یا ابا جعفر! امشب نزد ما می باشی یا الحال حاجت تو تحصیل کنم تا بروی؟
گفتم: یا بن رسول الله! می روم. دست مبارک به سوی زمین برد، یک قبضه خاک برداشت و فرمود: آستین خود بگشا! تا در آستینم ریخت، همه دینارهای طلای خالص شده بود.
از نزد آن حضرت به منزل خود رفتم و نزدیک چراغ نشستم تا دینارها را از روی بهجت تمام و خوشحالی ما لا کلام، تعداد کنم. میان آن، دیناری دیدم که بر آن نوشته بود: پانصد دینار است، نصف آن جهت دین تو و نصف دیگر برای نفقه مایحتاج اهل بیت تو است. چون این علامت دیدم، دینارها را نشمردم، زیر بستر خواب نهادم و آن شب با فراغ بال و رفاهیّت احوال، خواب کردم.
علی الصّباح، قریب به ده نوبت ملاحظه کردم، آن دینار که در آن نوشته بود، ندیدم، عدد آن ها را ملاحظه کردم، باز بلا زیاده و کم پانصد دینار بود.
سوّم؛ در کتاب اصول کافی از احمد بن عبد الله غفاری روایت شده، گفت: مردی از فرزندان ابی رافع طیس نام، حقّی بسیار بر من داشت و در خواستن حقّ خود الحاح نمود تا این که بر در مسجد می ایستاد و فریاد می کرد: غفاری مال مرا می خورد. آن گاه مردمان بر من جمع می شدند. روزی نماز بامداد کرده، به سوی امام رضا (علیه السلام) رفتم، حضرت آن روز به عریض رفته بود. چون نزدیک سرای وی رسیدم، حضرت می آمد و بر درازگوشی نشسته بود. بر وی سلام کردم و آن ماه، رمضان بود.
گفتم: مولای! خدا مرا فدای تو گرداند، طیس را بر من حقّی است. به خدا او مرا مشهور گردانید. با خود گفتم؛ او به طیس می فرماید و طیس هم ترک مطالبه می کند و هیچ نگفتم که حقّ او چند است.
حضرت فرمود: بنشین تا بازآیم. نشستم تا نماز گزاردم، روزه نیز بودم. دلتنگ شدم. خواستم بازگردم، وی برسید، مردمان گرداگرد او و سایلان اطرافش بودند و آن حضرت ایشان را صدقه می داد تا در خانه شد. آن گاه بیرون آمد و مرا بخواند. با او رفتم و نشستم. او را از ابن مسیّب حدیث نقل می کردم که او امیر مدینه بود. چون از سخن فارغ شدم، فرمود: هنوز روزه نگشاده ای؟
گفتم: نه. حضرت فرمود تا برای ما طعام آوردند. چون فارغ شدیم، فرمود: این بالش را بردار و آن چه زیر آن است، بردار!
وقتی بالش را برداشتم، دیدم دینارها زیر آن است. آن ها را در آستین ریختم. آن حضرت چهار نفر از بندگان خود را فرمود تا در سرایم با من بیایند، چون تا در سرایم آمدند، ایشان را بازگرداندم و به سرای خود رسیدم. چراغ خواستم و در آن نظر کردم.
دیدم چهل و هشت دینار است. میان آن یک دینار، به غایت، روشن بود و نیکویی آن مرا به شگفت آورد. آن را برداشتم و نزدیک چراغ گرفتم. به نقش روشن در آن جا نوشته بود: حقّ آن مرد، بیست و هشت دینار می باشد و آن چه باقی است، برای تو است.
به خدا! هرگز نگفته بودم حقّ آن مرد بر گردن من چه قدر است.
پس گفتم: حمد؛ آن خداوندی را که ولیّ اش را عزیز گردانید(622).
[معجزات حضرت جواد (علیه السلام)] 9 مسکه:
اما معجزات و خارق عادات محمد بن علی التقی الجواد (علیهما السلام) نیز مانند معجزات و خارق عادات آبای طاهرین او بسیار است و قریب به صد معجزه از آن بزرگوار نقل نموده اند.
از آن جمله محمد بن جریر به سند خود از یحیی بن اکثم قاضی القضات روایت کرده که بعد از آن که با محمد بن علی الجواد (علیهما السلام) در علوم آل محمد - صلوات الله علیهم - منازعه کردم، روزی در مسجد رسول خدا (صلّی الله علیه و آله) نزد قبر آن بزرگوار واقف بودم که محمد بن علی الرضا (علیه السلام) وارد شد. پس در مسایلی که نزد من بود با او مناظره کردم و جواب شنیدم.
عرض کردم: مسأله ای نزد من است که حیا می کنم از تو سؤال نمایم.
فرمود: تو را از آن خبر می دهم. تو می خواهی از امام زمان خود از من سؤال نمایی.
عرض کردم: بلی! این سؤال من است.
فرمود: امام زمان تو منم.
عرض کردم: به چه علامت و دلایل؟
ناگاه دیدم عصایی که در دست او بود، به زبان فصیح ناطق شد و به آن حضرت عرض کرد: أنت أمام هذا الزّمان. در روایت دیگر از یحیی بن اکثم که گفت: عصا ناطق شد: مولای أمام هذا الزّمان(623).
نیز محمد بن جریر(624) و صاحب کتاب ثاقب المناقب(625) و جماعتی از اهل حدیث(626) از علی بن خالد روایت کرده اند؛ در سرّ من رأی بودم، شنیدم مردی را از شام آورده و به جهت آن که دعوی نبوّت کرده، محبوس کرده اند.
علی بن خالد گفت: من با حجّاب و حرّاس ابواب مدارا کردم به تدبیر آن که او را ملاقات نمایم. روزی آن شخص را ملاقات کردم. دیدم شخصی با ادراک و معرفت است، از قصّه او سؤال کردم.
گفت: مردی بودم که در شام در موضعی که به رأس الحسین معروف است، عبادت می کردم. وقتی مشغول عبادت پروردگار بودم، دیدم جوانی ظاهر شد و به من گفت:
برخیز و با من بیا. چون قدری موافقت کردم، ناگاه دیدم در مسجد کوفه می باشیم. او به من فرمود: این مکان را می شناسی؟
عرض کردم: بلی! مسجد کوفه است.
آن جوان مشغول عبادت شد و من نیز با او مشغول شدم. چون فارغ شد، با او بودم که ناگاه خود را در مسجد رسول خدا دیدم. بر رسول خدا سلام نمود و بر آن بزرگوار صلوات فرستاد، مشغول عبادت شد، من نیز با او موافقت کردم.
ناگاه خود را با او در مکّه دیدم، مناسک حج را با او به جای آوردم، با او بودم که ناگاه خود را در شام، در موضع عبادت خود یافتم و آن شخص از من مفارقت کرد.
سال آینده، باز در همان موضع که عبادت می کردم، همان جوان را دیدم که ظاهر شد. با او مصاحبت کردم. از آن جوان آن چه را دیدم که سال گذشته، مشاهده نموده بودم و در امکنه مذکور به همان طور با او موافقت می کردم تا آن که دوباره خود را در شام، در موضع عبادت خود یافتم. تا خواست از من مفارقت نماید، او را قسم دادم که کیستی؟
فرمود: أنا محمّد بن علیّ بن موسی. این مطلب از من منتشر شد و به سمع وزیر خلیفه رسید. مرا طلب کرد و مغلولا در حبس نگاه داشت، چنان که می بینی.
گفتم: قصّه تو را به وزیر خلیفه می نویسم، شاید تو را از حبس خلاص نماید.
گفت: بنویس! سپس تفصیل واقعه او را به وزیر نوشتم. در پشت کاغذ من نوشت: به همان محبوس بگو به همان کسی که تو را در یک شب از شام به کوفه، از کوفه به مدینه و از مدینه به مکّه برده و برگردانده؛ دوباره به شام مراجعت داد، بگو تو را از حبس من بیرون برده، خلاص نماید.
وقتی این جواب به من رسید و مطالعه نمودم، بسیار مغموم شدم، به آن شخص تعزیت گفتم و به صبر امر نمودم. فردای آن روز، دیدم صاحب سجن و بوّاب و حرّاس و حجّاب و جماعتی از مردم در اضطراب و وحشت اند و غوغا می نمایند.
گفتم: چه واقع شده؟
گفتند: شخصی از اهل شام که دعوی نبوّت می کرد و در حبس بود، مفقود شده.
نمی دانیم به آسمان، بالا یا به زمین، فرورفته است.
نیز محمد بن جریر به سند خود از محمد بن یحیی روایت کرده که گفت: جناب محمد بن علی (علیهما السلام) را دیدم که اراده فرمود از دجله بغداد عبور نماید. ناگاه دیدم دو طرف شطّ به هم وصل شد و آن بزرگوار از شطّ عبور نموده، گذشت. در شطّ فرات هم مشاهده کردم دو طرف شطّ به هم وصل شد و آن بزرگوار از آن عبور فرمود(627).
در کتاب خلاصه الاخبار از ابن شهرآشوب به سند معتبر از حکیمه خاتون صبیّه محترمه امام موسی کاظم (علیه السلام) روایت کرده که روزی برادرم، حضرت رضا (علیه السلام) مرا طلبید و فرمود: ای حکیمه! امشب فرزند مبارک خیزران متولّد می شود. باید هنگام ولادت او حاضر باشی. خدمت آن حضرت ماندم. با آمدن شب، مرا با خیزران و زنان قابله در حجره درآورده، از حجره بیرون رفت، چراغی نزد ما افروخت و در را به روی ما بست.
تا او را بر بالای طشت نشاندیم، چراغ خاموش شد و ما از خاموشی چراغ مغموم شدیم. ناگاه دیدیم آن خورشید فلک امامت از افق رحم طالع گردید و میان طشت نزول نمود. پرده نازکی مانند جامه آن حضرت را احاطه کرده بود و نوری از او ساطع بود که تمام حجره منوّر شد و از چراغ مستغنی شدیم.
سپس آن نور مبین را برگرفتم، در دامن خود گذاشتم و آن پرده را از خورشید جمالش دور کردم. ناگاه حضرت رضا (علیه السلام) پس از آن که او در جامه مطهّر پیچیده بود، به حجره درآمد. آن گوشواره عرش امامت را از ما گرفت، در گهواره عزّت و کرامت گذاشت، آن مهد شرف و عزّت را به من سپرد و فرمود: از این گهواره جدا مشو!
روز سوّم ولادت، آن حضرت، دیده حقیقت بین خود را به سوی آسمان گشود، به جانب راست و چپ خود نظر کرد و به زبان فصیح ندا کرد: أشهد أن لا إله الّا الله و أشهد أنّ محمّدا رسول الله. وقتی این حالت غریب را از آن نور دیده، مشاهده کردم به خدمت حضرت شتافتم و آن چه دیده و شنیده بودم برای آن حضرت عرض کردم.
حضرت فرمود: آن چه بعد از این، از عجایب احوال او مشاهده کنی؛ زیادتر از آن است که اکنون مشاهده کردی(628).
از جمله معجزات آن سرور آن است که صاحب کشف الغمّه و سید بن طاوس روایت کرده اند؛ حکیمه دختر امام رضا (علیه السلام) گفت: روزی بعد از فوت برادرم، به دیدن زوجه او، امّ الفضل رفتیم. بعد از آن که از صفات مرضیّه او بسیار مذکور ساخت، گفت: ای عمّه! اگر خواهی تو را به نقلی عجب از او خبر دهم که مثل آن نشنیده باشی.
گفتم: بگو!
گفت: روزی در خانه خود نشسته بودم که زنی خوش صورت و خوش محاوره به دیدن من آمد. پرسیدم تو کیستی؟
گفت: من از اولاد عمرو بن یاسرم و زن ابو جعفر محمد بن علی هستم. من در حضور او، خود را ضبط کردم، چون رفت، حسد و غیرتی که در زنان می باشد، چنان در من اثر کرد که نتوانستم خود را ضبط کنم و به غصّه تمام، روز را به شب رساندم، نصف شب، گریبان خود را چاک زدم، نالان خدمت پدرم مأمون رفتم و گفتم: با من چنین کرد و زنان بر سر من می خواهد. چون حرف می زنم، من و تو و عبّاس را دشنام می دهد.
مأمون در آن حال چنان مست شراب بود که از خود خبر نداشت، از استماع این سخنان در خشم شد، برخاست، شمشیر را برداشت و خادمان همراهش رفتند. چون به بالین ابو جعفر رسید، او را در خواب دید، شمشیر کشید و به گمان حاضران، او را پاره پاره کرد و برگشت. من از کردار و گفتار خود پشیمان شدم، طپانچه بر سر و روی خود زدم و در گوشه ای به خواب رفتم. صبح که شد، یاسر خادم به او گفت: امشب عجب چیزی از تو صادر شد!
مأمون گفت: چه چیز از من صادر شد؟
یاسر گفت: دخترت آمد، چنین و چنان گفت، تو بر سر او رفته و شمشیر بسیار بر او زدی و اعضای او را جدا کردی. مأمون از استماع این سخنان چندان بر سر و روی خود زد که بی هوش شد و یاسر را فرستاد که خبری بیاورد.
یاسر گوید: به خانه آن حضرت آمدم، دیدم کنار آب نشسته، مسواک می نماید.
سلام کردم و جواب شنیدم، خواستم با وی حرف بزنم، به نماز مشغول شد.
دوان دوان خدمت مأمون آمدم و گفتم: تو را بشارت باد که ابا جعفر را باکی نیست و به نماز مشغول است. سجده شکر کرد، هزار دینار به من انعام داد و گفت: بیست هزار دینار به جهت ابی جعفر ببر و سلام مرا به او برسان!
چون آمدم و خواستم بدن مبارکش را ببینم که اثر زخم ها را دارد یا نه، گفتم: یا بن رسول الله! به این پیراهن که در زیر داری مرا مخلّع نمی کنی که به جهت کفن خود نگه دارم. پیراهن را برآورده به من داد و گفت: میان ما و او چنین شرط شده بود؟
گفتم: فدایت شوم! مطلقا از آن عمل خبر ندارد و شرمنده و پشیمان است. به بدن مبارکش نگاه کردم، اثری ندیدم. نزد مأمون آمدم و ماجرا را نقل کردم. مأمون اسبی و شمشیری که شب در دست داشته بود به جهت او فرستاد.
امّ الفضل گفت: مرا پیغام کرد اگر بار دیگر حرفی شکوهناک از آن حضرت از تو بشنوم، جز به کشتنت راضی نخواهم شد.
خود به خدمت آن حضرت آمد، او را دربر گرفت و حضرت او را نصیحت کرد که ترک شرب خمر کند. در دست آن حضرت تائب شد و ایشان دعایی به او تعلیم نمود و فرمود: چون شب این دعا با من بود، ضرری از آن زخم ها به من نرسید.
آن دعا در مهج الدّعوات مذکور است، آن حرز جواد می باشد و تا مأمون زنده بود، به برکت آن دعا از جمیع بلاها محفوظ ماند و بلاد بسیاری برای او مفتوح گردید.
[معجزات حضرت هادی (علیه السلام)] 10 مسکه:
از جمله معاجز حضرت ابی الحسن علی بن محمد الهادی (علیه السلام) آن است که محمد بن جریر به سند خود از ابی سفیان روایت کرده که خدمت حضرت علی بن محمد الهادی (علیه السلام) مشرّف شدم، دیدم انبان خالی نزد او است. فرمود: دست خود را داخل این انبان نما! داخل نمودم، دیدم چیزی در آن نیست. دست خود را بیرون آوردم، دوباره امر فرمود؛ دست خود را داخل کن. دوباره دست در آن انبان نمودم، دیدم مملوّ از ذهب است.
نیز محمد بن جریر به سند خود از عمّاره بن زید روایت کرده که به علی بن محمد (علیهما السلام) عرض کردم: آیا قادری از این استوانه رمّانه ای را بیرون آوری؟
فرمود: بلی! با تمر و عنب. سپس دست مبارک را به جانب استوانه برد، رمّان و تمر و عنب بیرون آورد، تناول نمودیم و با خود برداشتیم.
هم چنین محمد بن جریر از عماره بن زید روایت کرده که به ابی الحسن علی بن محمد الهادی (علیهما السلام) عرض کردم: آیا قدرت داری به آسمان صعود نمایی و با خود چیزی بیاوری که در زمین یافت نشود، تا ما به امامت تو علم حاصل نماییم؟
ناگاه آن حضرت به جانب آسمان بلند شد و من به او نگاه می کردم تا از نظر من غایب شد، بعد از زمانی مراجعت نمود و در دست مبارک او مرغی از طلا بود که در گوش او دیناری از ذهب و در منقار او درّی بود و آن مرغ می گفت: لا إله الّا الله محمّد رسول الله علیّ ولیّ الله. حضرت فرمود: این طیر از طیور بهشت است. سپس او را رها کرد و آن طیر به آسمان مراجعت نمود(629).
در کتاب خلاصه الاخبار از محمد بن القاسم از یوسف بن زیاد از امام حسن عسکری (علیه السلام) روایت کرده که آن حضرت فرمود: شخصی نزد پدرم امام علی النقی (علیه السلام) آمد، می لرزید و می گریست. آن حضرت فرمود: سبب لرزیدن و گریه تو چیست؟
گفت: یا بن رسول الله! والی به واسطه دوستی تو، پسر مرا به دست فلان حاجب داده که او را ببرد، از فلان کوه به زیر اندازد و همان جا خاک کند. من چه چاره کنم؟
آن حضرت فرمود: چه می خواهی؟
گفت: آن چه پدر مهربان بر فرزند پسندد.
فرمود: برو که فردا نماز شام فرزندت، خندان و شادان پیش تو بیاید و عجایبی که دیده به تو بازگوید. او تسلّی یافته، روز دیگر چون شام شد، دید پسر شادان و نازان می آید. گفت: مرا از حال خود خبر ده.
گفت: پسر فلان حاجب مرا برد که از فلان کوه بیندازد. وقتی به آن جا رسیدیم، خواست آن جا بخوابد و روز دیگر مرا بیندازد، قبری برایم کنده بودند، من می گریستم و دو نفر موکّل بودند مرا نگاه دارند، ناگاه ده نفر را دیدم که با صورت های نیکو، جامه های پاکیزه و موهای خوش آمدند، موکّلان ایشان را نمی دیدند، گفتند: تو را چیست و این چه گریه و بی قراری است؟
حال خود را از کوه انداختن و دفن کردن ایشان گفتم.
گفتند: غم مخور ما حاجب را به جای تو از کوه می اندازیم به شرط آن که بروی و به خدمت روضه رسول مشغول شوی.
قبول کردم. فی الحال حاجب را گرفته، کشان کشان بالای کوه بردند، او فریاد می کرد و موکّلان نمی شنیدند تا بالای کوه رسیدند. آن ها حاجب را از کوه انداختند، پیش از آن که به زمین برسد، پاره پاره شد. موکّلان او را دیدند و افغان کنان از صدمه آن گریختند. آن ده تن مرا برداشته، پیش تو رساندند، اکنون ایستاده اند و انتظار دارند مرا با خود ببرند و برای خدمت تربت آن حضرت به مدینه حضرت رسول برسانند. او با ایشان رفت.
روز دیگر پدر خدمت امام (علیه السلام) آمد و احوال پسر را عرض کرد. در حال خبر آمد که حاجب را از کوه انداختند و پسر گریخت، حضرت از آن خبر تبسّم می نمود و به پدر پسر می فرمود: آن چه ایشان نمی دانند، ما می دانیم. چه هرکه به دین خاندان تولّا کند، هرگز مکروهی او را نه در دنیا و نه در عقبی نرسد.
نیز از مستنصر بن متوکّل مروی است که گفت: پدرم در باغی که داشت، مورد کاشته بود. چون آن برآمد، بلند شد و شاخه ها برآورد، در آن موضع، فرشی انداختند، پدرم نشست و من پیش وی ایستاده بودم. به من گفت: پیش آن رافضی - یعنی امام علی النقی (علیه السلام) - برو و بپرس سبب چیست که بعضی شاخه های این مورد زرد شده، چون او می گوید من غیب می دانم لکن اگر می خواهی او را امتحان کن.
روز دیگر مستنصر خدمت آن حضرت آمد و حال را عرض کرد. فرمود: برو نزد آن بتّه ای از مورد که زرد شده، زیر آن کلّه پوسیده آدمی خواهی یافت، آن مورد از بخار آن کلّه زرد شده، رفتم و آن را کندم. کلّه پوسیده ای یافتم، چنان چه حضرت فرموده بود. بعد از آن، پدرم گفت: این سخن را به کسی مگوی!
ایضا از ابی هاشم مروی است گفت: در آن وقت که بغا برای طلب اعراب به مدینه آمده بود، امام به من فرمود: بیا بیرون برویم و این ترک را ببینیم. چون بیرون رفتیم، ترکی بر ما گذشت. حضرت به زبان ترکی با وی سخن گفت. آن ترک فرود آمد و بر سمّ اسب آن حضرت بوسه داد.
ابو هاشم گوید: من بازایستادم و از ترک پرسیدم این مرد چه گفت؟
گفت: پیغمبر است؟
گفتم: نه، لکن از فرزندان پیغمبر آخر الزمان و از دوستان خالق منّان و وارث علوم پیغمبران است.
ترک گفت: من چیز عجیبی از او شنیدم که تعجّب کردم و امر عجیب آن است: در کودکی مرا نامی کرده بودند که در دیار ترکستان کسی بر آن اطّلاعی نداشت، مگر به اندکی که در کودکی مرا به آن نام می خواندند و تا این زمان کسی نمی دانست، او مرا به این نام می خواند، پس معلوم شد او از خواصّ است.
[معجزات حضرت عسکری (علیه السلام)] 11 مسکه:
از جمله معجزات حضرت ابی محمد الحسن العسکری (علیه السلام) آن است که علی بن حسین شابور روایت کند که یک سال به واسطه خشک سالی، در زمان امام حسن عسکری (علیه السلام)، خلیفه به حجّاب و اهل مملکت گفت: برای دعای باران بیرون روید. سه روز پی درپی رفتند و دعا کردند، باران نیامد. روز چهارم، جاثلیق با رهبانان و نصارا به صحرا رفتند و دعا کردند، باران آمد و روز دوّم بیشتر آمد. خلق به شکّ افتادند و به کیش نصارا میل کردند.
خلیفه کسی را خدمت امام (علیه السلام) فرستاد و گفت: امّت جدّت را دریاب که هلاک شدند. حضرت آن وقت محبوس بود. او را از حبس بیرون آوردند، فرمود: ان شاء الله فردا بیرون روم و شکّ را از ایشان زایل گردانم. روز سوّم، امام با اصحاب خود بیرون رفت. جاثلیق و رهبانان نیز بیرون رفتند. تا راهب ایشان، دست به دعا برداشت، حضرت به یکی از اصحاب خود گفت: برو دست راست او را بگیر و آن چه میان انگشتان دارد از آن بیرون کن. او به فرموده حضرت رفت، دست راست او را گرفت و استخوان سیاه شده ای از میان انگشتان اش بیرون کرد و آورد.
حضرت فرمود: این زمان دعا کن! دست ها برداشت و دعا کرد. ابرها رفتند، هوا گشوده و آفتاب پیدا شد.
خلیفه گفت: یا ابا محمد! این استخوان چیست؟
فرمود: این راهب، مردی از فرزندان یکی از انبیا و این، استخوان پیغمبری است، هرگاه استخوان پیغمبری را ظاهر کنند، در حال، باران ببارد. راهب بعد از آن، هرچه دعا کرد، باران نیامد. خوار و خجل شده، بازگشت.
آن گاه به حضرت التماس کردند تا برای آمدن باران دعا فرماید. دعا فرمود، تا سه شبانه روز باران بارید، همه غدیرها پرآب شد، کشت ها تازه گشت و صحراها سبز شد. خلیفه از قرب آن حضرت به حق تعالی حیران ماند، یقین شیعیان بر امامت آن حضرت زیاد شد، خرّم شدند و شکر باری تعالی به جای آوردند(630).
نیز از ابی هاشم مروی است؛ خدمت امام حسن عسکری (علیه السلام) رفتم تا از او اندک نقره ای بستانم و انگشتری بسازم، از خاطرم محو شد. وقتی بیرون آمدم، در حال وداع انگشتری به سوی من انداخت و فرمود: خواستی برای انگشتری از من نقره بگیری، من آن را به تو دادم تا از نگین و اجرت فارغ شوی.
ابو هاشم گفت: گواهی می دهم تو امامی و طاعت تو بر ثقلین فرض است.
فرمود: یا ابا هاشم! خدای تعالی تو را بیامرزد.
نیز هم چنین از اسماعیل بن محمد بن ابی علی بن اسماعیل بن علی بن عبد الله بن عبّاس مروی است که روزی بر سر راهی نشسته بودم. ناگاه امام حسن عسکری (علیه السلام) بر من بگذشت. گفتم: یا سیّدی! و الله چیزی ندارم.
فرمود: چرا به دروغ سوگند می خوری؛ حال آن که دویست دینار در خانه دفن کرده ای، این را برای آن می گویم که دیگر سوگند دروغ نخوری. سپس به غلام امر فرمود صد دینار به من بدهد و فرمود: ای اسماعیل! تو از آن دویست دینار که دفن کرده ای، محروم خواهی ماند هنگامی که بسیار به آن محتاج باشی.
او گوید: چنان شد که حضرت فرموده بود، زیرا چون صد دینار امام را نفقه کردم، چیزی نماند، گویا به واسطه سوگند دروغ در روزی بر من بسته شد و بسی احتیاج پیدا کردم. خواستم آن دویست دینار را از زمین بیرون آورم و نفقه کنم. ندانستم در کجا نهاده ام، بسیار جستجو کردم، نیافتم و به یادم نیامد. تا معلوم شد یکی از پسران من می دانسته، آن را برداشته، گریخته بود و چنان چه آن جناب فرمود دیناری از آن به من نرسید.
[معجزات حضرت ولی عصر (علیه السلام)] 12 مسکه:
از جمله معاجز حضرت ولیّ عصر و ناموس دهر - ارواحنا فداه - آن است که علی بن محمد بن نصر بن صباح بلخی، او از محمد بن یوسف شاشی روایت کرده، او گفته:
ناسوری از مقعد من بیرون آمد. آن را به اطبّا نمودم و در معالجه اش مال بسیار صرف کردم. هیچ گونه دوا تأثیری در آن نکرد. آن گاه رقعه نوشتم و مسألت دعا نمودم.
در جواب آن، توقیعی بدین مضمون به من رسید: خدای تعالی تو را لباس صحّت و عافیت بپوشاند و در دنیا و آخرت با ما گرداند. جمعه ای نگذشت مگر آن که صحّت یافتم و آن محلّ ناسور، مانند کف دستم صاف گردید. آن گاه طبیبی را از اصحاب خود خواندم و آن را به او نمودم، او گفت: ما دوای آن را نشناخته ایم و تو جز از جانب خداوند عالم عافیت نیافته ای.
نیز در کتاب کافی از حسن بن فضل بن یزید همانی روایت کرده، او گفت: پدرم به خطّ خود مکتوبی نوشت، جوابش رسید. بعد از آن به خطّ من نوشت، جواب آن هم رسید. سپس به خطّ بعضی از فقهای اصحاب ما نوشت. جواب آن ردّ نگردید، آن گاه فکر کردیم، دانستیم سبب نرسیدن جواب این بوده که آن مرد از دین برگشته، خارجی شده بود(631).
ایضا جماعتی از ابی غالب نقل نموده اند که گفت: رقعه ای نوشتم و در آن رقعه خواهش نمودم که اراضی من قبول کرده شود، در آن وقت مقصودم از این، تقرّب به خدا نبود، بلکه خواهش نفسم این بود که با طایفه ای نوبخت، آمیزش کنم و با ایشان به لذّت های دنیویّه مشغول شوم. جواب آن به من نرسید، در این خصوص اصرار نمودم.
آن گاه به من نوشته شد: کسی را که به او وثوق داری، اختیار کن و اراضی را به اسم وی بنویس! زیرا بعد از مدّتی به آن ها محتاج خواهی شد.
آن ها را به اسم ابی قسم موسی بن حسن زجوجی پسر برادر ابی جعفر نوشتم، زیرا به دیانت و مال داری و ثقه بودن او، وثوق داشتم.
چند روزی از آن نگذشت که جماعت اعراب مرا اسیر کردند و اراضی را گذاشته، همه را غارت نمودند. به قدر هزار دینار از غلّات و چهارپایان و اسباب من برده شد و خودم مدّتی در اسیری ایشان ماندم تا آن که خود را به صد دینار و هزار و پانصد درهم از آن ها خریدم و از جهت اجرت پیک ها که به اطراف فرستادم، پانصد درهم علاوه بر این ها متضرّر گردیدم، از آن جا خلاص شدم و درآمدم. به فروختن آن محتاج گردیدم و فروختم.
نیز در کتاب کمال الدین از ابن ولید، او از سعد بن علان، او از محمد بن جبرییل، او از ابراهیم و محمد پسران فرج، ایشان از محمد بن ابراهیم بن مهزیار روایت کرده که او گفته: به عزم زیارت، به قریه عسکر آمدم و ناحیه مقدّسه را قصد نمودم. در این اثنا زنی به من دچار گردید و گفت: آیا تو محمد بن ابراهیمی؟
گفتم: آری!
گفت: برگرد! زیرا در این وقت به زیارت نخواهی رسید، در این وقت شب به این جا برگرد، در خانه هم برای تو باز می شود. بعد از آن داخل خانه شو و خانه ای که در آن چراغ هست، قصد کن.
به گفته او عمل نمودم و به در خانه آمدم. ناگاه دیدم در باز است. داخل صحن خانه شدم و به خانه ای که او گفته بود، داخل گردیدم. شنیدم کسی با صدای بلند ما بین دو قبر گریه می کرد، ناگاه صدایی برآمد: یا محمد! از خدا بپرهیز، از همه کارهای بد توبه و بازگشت بکن! به درستی که امر بزرگی را به گردن گرفته ای.
نیز در همان کتاب، از پدرش، از سعد، او از علی بن محمد شمشاطی فرستاده جعفر بن ابراهیم یمانی روایت نموده او گفته: در بغداد اقامت داشتم. بعد از چندی مهیّا شدم که با قافله اهل یمن بیرون روم. آن گاه رقعه ای نوشته و در خصوص رفتن با آن قافله اذن طلبیدم. جواب آمد: با ایشان نرو که تو را در همراهی ایشان خیر نیست و در کوفه اقامت بکن! آن قافله بیرون رفت، ناگاه طایفه بنی حنظله بر سر ایشان ریخته، آن ها را هلاک نمودند.
او گوید: بعد از آن نوشتم و اذن طلبیدم در خصوص این که به کشتی سوار شوم و بروم. جواب درآمد: نرو! هیچ کشتی در آن سال نرفت، مگر این که بوارج که طایفه ای در نزدیکی قسطنطنیّه هستند، راه را بر ایشان گرفته، اموال ایشان را تاراج نمودند.
او گوید: به عزم زیارت به عسکر رفتم، وقت غروب آفتاب، در مسجد بودم، ناگاه غلامی نزد من آمد و گفت: برخیز!
گفتم: آیا مرا می شناسی که کیستم و کجا می روم؟
گفت: علی بن محمد، فرستاده جعفر بن ابراهیم یمانی هستی. برخیز تا به منزل برویم.
او گوید: احدی از دوستان ما بر آمدن من به آن جا مطّلع نشده بود. برخاستم، به منزل او رفتم و اذن طلبیدم که از اندرون زیارت کنم، آن گاه مأذون گردیدم.
نیز محمد بن یزداد رقعه ای نوشت و در خصوص پدر و مادرش، التماس دعا نمود.
جواب رسید: خدای تعالی تو را با پدر و مادر و خواهر وفات کرده ات که نامش کلکی است ببخشد و این کلکی، نام زن صالحه ای بود که خود را به جواد تزویج نموده بود.
رقعه دیگری نوشتم در خصوص فرستادن پنجاه دیناری که از مؤمنان فراهم آمده، از آن جمله ده دینار از پسر عمّ من بود که اعتقاد و ایمانش محکم نبود. نام او را سطر آخر رقعه نوشتم و خواهش نمودم مرا به ترک نمودن دعا در حقّ پسر عمّم دلالت نماید.
آن گاه میان سطرهایی که نام های مؤمنین را نوشته بودم درآمد: خداوند تعالی این عمل را از ایشان قبول فرماید، به آنان احسان کند و تو را هم جزای خیر دهد. ولی پسر عمّم را به هیچ قسم دعا ننموده بود.
او نیز گفته: چند دیناری که از مؤمنان فراهم آمده بود، فرستادم و مردی که محمد بن سعید نام داشت، چند دیناری به من داد و آن ها را به اسم پدرش گذراندم، زیرا خودش تدیّن کاملی نداشت. آن گاه نوشته رسیدی به اسم محمد درآمد که من آن را تغییر داده بودم(632).
هم چنین محمد بن شاذان گفته: ابو العبّاس گفت: مردی پاره اموالی برداشت که آن ها را برساند و چنین خواهش کرد که بر معجزه و دلیلی واقف گردد. در آن حال توقیعی آمد که اگر هدایت می طلبی، هدایت کرده می شوی و اگر چیزی می خواهی، آن را می یابی. مولای تو می گوید: آن اموالی را که با خود داری، بردار، بیاور!
آن مرد گوید: از آن اموال شش دینار وزن نکرده، برداشتم و مابقی را تسلیم نمودم.
توقیع آمد: آن شش دینار را که از این اموال، بدون وزن برداشته ای به ما ردّ کن. وزن آن ها هم شش دینار و پنج دافق و یک حبّه و نیم است.
آن مرد گوید: آن ها را وزن نمودیم. دیدیم، بدون کم و زیاد به همان قرار است که حضرت فرموده.
نیز شیخ کلینی از حسن بن جعفر قزوینی روایت کرده، گفت: وقتی یکی از برادران ما از اهل وفاییم به غیر وصیّت مرد. از ناحیه در باب اموال او سؤال کردیم که کجا گذاشته؟
جواب آمد: مال، فلان قدر، در فلان موضع و فلان مکان است. چون آن مکان را قلع کردند، همان قدر مال، یافت شد.
ایضا از ابو الحسن محمد بن احمد بن ابو الّلیث (رحمهم الله) روایت شده، گفت: در بغداد بودم و اراده قتل مرا داشتند. از خوف کشته شدن به مقابر قریش، یعنی مشهد کاظمین (علیهما السلام) پناه بردم، در آن جا تضرّع و دعا نمودم، تا آن که حضرت صاحب الأمر (علیه السلام) این دعا را به من تعلیم کرده، خواندم و به برکت آن دعا از آن بلیّه نجات یافته، مأمون گردیدم.
آن دعای شریف این است: «اللّهمّ عظم البلاء و برح الخفاء و انکشف الغطاء و ضاقت الأرض و منعت السّماء و إلیک یا ربّ المشتکی و علیک المعوّل فی الشّدّه و الرخاء اللّهمّ صلّ علی محمّد و آل محمّد الّذین أمرتنا بطاعتهم و عجّل اللّهمّ فرجهم بقائمهم و أظهر إعزازه یا محمّد یا علیّ یا علیّ یا محمّد اکفیانی فإنّکما کافیانی یا محمّد یا علیّ یا علیّ یا محمّد انصرانی فإنّکما ناصرانی یا محمّد یا علیّ یا علیّ یا محمّد احفظانی فإنّکما حافظانی یا مولای یا صاحب الزّمان ثلاث مرّات الغوث الغوث أدرکنی أدرکنی.»
راوی گوید: چون آن بزرگوار این دعا را برای من خواند و به فقره یا صاحب الزّمان رسید به سینه مبارک خود اشاره نمود و من چنین فهمیدم که مقصود آن بزرگوار آن بود که خواننده این دعا در آن فقره باید اشاره به آن حضرت نماید.
این ناچیز گوید: این دعا میان شیعیان عرب، خصوصا اهل نجف اشتهار تمام دارد و در شداید و بلیّات خاصّه و عامّه، مثل بروز امراض مسریّه از طاعون و وبا، شداید مهلکه از قحط و غلا، قلّت امطار و میاه، تعدّیات سلاطین و حکّام و نحو آن در مظان استجابات و عقیب فرایض و صلوات به این دعا مداومت می نمایند و از آن آثار سریع عجیب مشاهده گردیده است.
إشاره فیها فرح و استبشار فی معأجزه المنقوله عن مستدرک البحار:
[معجزات حضرت ولی عصر (علیه السلام)]:
بدان عالم جلیل ربّانی و مؤیّد به تأییدات ملک سبحانی حجّه الاسلام معاصر آقا میرزا محمد عسکری طهرانی - ادام الله بقائه بحقّ ساداته السّبع المثانی - که از تربیت یافتگان حوزه مرحوم عقل حادی عشر و مجدّد مذهب شیعه در مائه ثالث عشر، المبرّء عن جمیع العیوب و المخازی آیه الله آقا میرزا محمد حسن شیرازی - اعلی الله مقامه الشّریف و نوّر الله مضجعه المنیف - می باشد که مشغول به تألیف مستدرکات بحار الأنوار و الحاق مافات عن المجلسی المرحوم عن درجه فیه من الأخبار است.
از جمله در استدراک در باب معجزات حضرت ولیّ عصر (عجّل الله فرجه الشریف) که در جلد سیزدهم بحار است، معجزاتی نقل نموده و آن ها را به معتمدین از علمای اطیاب و غیرهم منتسب فرموده، لذا خوش داشتم منقولات آن جناب را «تزیینا للکتاب و تلذیذا للأحباب و تثبیتا للإعتقاد بوجود من ینتظره الشّیعه من الشّیخ و الشّاب»، در ذیل عنوان چند مسکه به قید استنساخ و استکتاب درآورم.
فنقول:
[خواب شیخ عبد الحسین حویزاوی] 1 مسکه:
در این باب است که جناب آقا شیخ عبد الحسین حویزاوی حضرت بقیّه الله را در خواب می بیند و خوابش به معجزه ای متعقّب می شود.
خبر داد، عالم ربّانی، آقا میرزا هادی خراسانی بجستانی از شیخ فاضل نبیل، شیخ عبد الحسین حویزاوی، گفت: تقریبا بیست و پنج سال قبل، رییس بلدّیه نجف اشرف، مردی میرزا احمد نام بود که کاروان سرای مصلّا متعلّق به او است و آن را از پول او ساختند. او مرد متدیّن خوبی بود که ریاست بلد را جبرا به او دادند. شبی در عالم رؤیا محلّی را دیدم که دو تخت گذاشته اند؛ در وسط، سجّاده ای مفروش است و حضرت ناموس دهر، بقیّه الله تعالی، ولیّ عصر (علیه السلام) روی سجّاده تشریف دارند و همان مرد متدیّن - رییس بلدیّه - نزد آن سرور حاضر است.
حضرت به او تغیّر فرمودند: چرا داخل امر حکومتی شدی و اسم خود را در زمره آن ها محسوب داشتی؟ در بین، فرمایشی فرمودند، آن مرد نفهمید، خواستم به او بفهمانم؛ گفتم: حضرت حجّت می فرماید: ﴿وَ لا تَرْکَنُوا إِلَی الَّذِینَ ظَلَمُوا فَتَمَسَّکُمُ النَّارُ﴾ (هود: 113).
آن گاه حضرت روی مبارک به من نمود و فرمود: تو چرا مدح آن ها می کنی؟
عرض کردم: تقیّه می کنم.
حضرت دست مبارک بر دهان گوهرنشان گرفته، سه مرتبه تبسّم کنان فرمود:
تقیّه! تقیّه! تقیّه! به عنوان ردّ و انکار بر من؛ یعنی چنین نیست و از روی خوف و تقیّه نیست. دو مرتبه حضرت متوجّه رییس بلدیّه شدند، فرمودند: هفت روز بیشتر از عمر تو باقی نمانده، فردا برو و مهر حکومتی را ردّ کن.
علی الصباح از خانه بیرون آمدم و در فکر خواب بودم. دیدم بعضی به بعضی دیگر می گویند؛ خبر داری چه شد؟ رییس بلدیّه پیش حکومت رفت، استعفا داد و کلیدها را تسلیم کرد، تعجّب کردم. روز بعد او ناخوش شده، حالش سخت شد، گفتم؛ بروم ببینم.
وارد خانه اش شدم، دیدم حالش خوب نیست و از هوش رفته، نزدش نشستم. چون به هوش آمد و چشم باز کرد، نظرش به من افتاد و گفت: «ها یا شیخ عبد الحسین! أنت کنت حاضر»، دست مرا گرفت و با کمال ضعف و زاری گفت: تو در آن مجلس بودی، دیدی و شنیدی. خواستم او را تسلیت و دلداری بدهم، گفتم: بلی! ان شاء الله تعالی خوب می شوی، دل بد مکن!
گفت: چه می گویی؟ مطلب از همان قرار است.
احدی از اهل مجلس و حضّار مطّلع نشد ما چه می گوییم، خیال کردند سابقه ای داریم که چندی قبل جایی بوده ایم و مطلبی واقع شده است. به هرحال مرضش خورده خورده شدّت گرفت تا سر وعده رحلت کرد و از دنیا رفت.
[استبصار شیخ محمد طه قاضی حسین] 2 مسکه:
در این باب است که شیخ محمد طه قاضی حسین، آن حضرت را در خواب می بیند و خوابش به معجزه ای متعقّب می شود.
شیخ محمد طه قاضی حسین ساکن قریه دوآب که سنّیان متعصّب دارد و از حدود افغان تربت شیخ جام و پدرش قاضی است؛ مستبصر گردیده؛ چهار ماه است که از خانه خود بیرون شده، در عین زمستان و سردی هوا و با این سختی حکومت و منع زوّار به کربلا مشرّف گردیده، هیچ کس متعرّض او نشده، بلکه بعضی از جاندارم ها که در مقام منع او در حدود برآمده اند، بعد از بیان حال، بر او ترحّم کرده، به وی پول داده اند و دو ماه است که در عتبات عالیات می باشد.
جهت استبصار آن که چند مرتبه در خواب، خدمت ولی عصر - ارواحنا له الفداء - مشرّف شده است.
اوّلا در روز خوابیده بود، دید در بیابان بزرگواری حاضر گردید؛ گویا عمّامه سبزی بر سر دارد، لکن جمال مبارکش را درست ندیده، فرمود: برو کربلا، این جا نمان و الّا این دریا را ببین!
گفت: نظر کردم، دریای عظیمی به نظرم آمد، از وحشت از خواب جستم. وقتی بیدار شدم، گفتم: این خواب است، اعتباری ندارد.
بعد از چند شب، نزدیک صبح، همان بزرگوار را در خواب دیدم، فرمود: نگفتم برو کربلا. دیدم شمشیری بر کمر بسته، فرمود: الان از جنگ بالشویک آمدم و آن ها را شکست دادم.
از وحشت و خوف بر خود لرزیدم. عیالم مرا بیدار کرد که برخیز! وقت اذان است، چرا می لرزی؟ چون بیدار شدم خود را غرق عرق دیدم. لباس عوض کردم. اذان نگفتم، چون همیشه اذان می گفتم، با همان حال به مسجد آمدم تا آن که پدرم به مسجد آمد او امام جماعت بود، پرسید: چرا اذان نگفتی؟
گفتم: معذور بودم. بعد از نماز و تعقیب خواب خود را بیان کردم، ولی اسم کربلا را نیاوردم.
بعضی از حضّار گفتند: از بس با شیعیان مراوده می کنی، این خواب ها را می بینی.
دیگری گفت: ابو بکر بوده.
پدرم گفت: خواب خوبی است، لکن گوسفندی ذبح و به فقرا قسمت کن! دو روز بیشتر طول نکشید که خبر رسید، بلشویکی شکست خورد.
در روزنامه نو باد تند و غباری آمد، آن ها را شکست داد. چون بالشویک تمام بخارا و بلخ و آن نواحی را تصرّف کردند و از آن جا داخل خاک افغان شدند، یک مرتبه شکست خوردند و افغان ها آن ها را تعاقب کردند. بعد از چند روز به تربت شیخ جام رفتم؛ چون از آن محل، سه منزل دور است، باز در خواب دیدم، همان بزرگوار تشریف آوردند و شیخ احمد جام، کشکول به دست و طبرزین به دوش عقب آن سرور است. نهیبی به من زد که هنوز این جایی؟ نگفتم برو کربلا! دست به قائمه شمشیر زدند و فرمودند: اگر شیخ احمد شفاعت تو را نمی کرد، الان تو را به زمین فرومی کردم. برو کربلا، دیگر به خانه خود مرو!
عرض کردم: شما کیستید؟
فرمود: من صاحب الزمانم.
بیدار شدم. با همان حال راه افتادم و یک تومان بیشتر نداشتم. الی الآن امورم به احسن حال گذشته و تعجّب دارم چگونه این همه راه آمدم. جز از کاظمین به کربلا در هیچ جا سوار نشدم، کسی مرا مجّانی سوار کرد و شب نیمه شعبان مشرّف شدم.
[دعای حضرت حجّت برای عالم تویسرکانی] 3 مسکه:
در این باب است که عالم جلیل، مرحوم آقا شیخ حسن تویسرکانی آن حضرت را در خواب می بیند و خوابش به معجزه متعقّب می شود.
عالم ربّانی، آقا میرزا هادی خراسانی بجستانی - ایّده الله تعالی - ما را از مرحوم سید عالم فاضل عابد زاهد ممجّد، حاج سید حسین اصفهانی متولّی مدرسه صدر نجف اشرف خبر داد که از عالم فاضل محقّق، شیخ حسن تویسرکانی شنیدم، که گفت: اوایل جوانی که در نجف اشرف مشغول تحصیل بودم، امر معیشت بر من سخت می گذشت.
بنا گذاشتم فقط به قصد دعا کردن برای توسعه حال به کربلا مشرّف شوم. چون مشرّف گردیدم، شب را خوابیدم، هنوز به حرم محترم مشرّف نشده بودم که در خواب به حضور باهر النور موفور السّرور حضرت ناموس دهر، بقیّه الله ولیّ عصر - ارواحنا له الفداه - مشرّف گردیدم. فرمودند: فلانی، دعا کن!
عرض کردم: یا مولای! به قصد دعا مشرّف شدم.
فرمودند: خیلی خوب، همین جا بالای سر است، دعا کن! دست به دعا برداشتم و با تضرّع و زاری دعا کردم.
فرمودند: نشد. دو مرتبه بهتر از اوّل مشغول دعا کردن شدم. باز فرمودند: نشد.
مرتبه سوّم آن چه می دانستم به جدّ و جهد الحاح نمودم. باز فرمودند: نشد.
دیگر عاجز شدم، عرض کردم: سیّدی! دعا کردن وکالت بردار هست یا نه؟
فرمودند: بلی! هست.
عرض کردم: من شما را وکیل کردم که برایم دعا فرمایید.
فرمودند: خیلی خوب. سپس دست به دعا برداشتند و دعا فرمودند.
چون به نجف اشرف مراجعت نمودم، شخص تاجر تویسرکانی که ساکن طهران بود به زیارت عتبات و حضور مبارک حجّه الاسلام میرزای رشتی (رحمه الله) مشرّف شد و چون شیخ حسن تویسرکانی از شاگردهای مبرّز ایشان بود، لهذا مرحوم میرزا، جناب شیخ حسن را بسیار توصیف کردند و بالاخره به او فرمودند: دخترت را به او بده! حاجی مذکور فورا قبول نمود. بعد از چند روز جناب شیخ حسن صاحب عیال، مال، خانه و زندگی گردید.
[تشرف روضه خوان تبریزی در رؤیا] 4 مسکه:
در این باب است که حاج ملّا سلطان علی، روضه خوان تبریزی آن حضرت را در خواب می بیند و خوابش به حلّ مشکلی متعقّب می شود.
از شیخ جلیل و خطیب بلامثیل، آقا شیخ علی اکبر روضه خوان تبریزی از شیخ جلیل، حاج ملّا سلطان علی، روضه خوان تبریزی که از جمله عبّاد و زهّاد بود، حکایت نمود و نقل کرد که گفت: در عالم رؤیا به حضور وافر السرور حضرت بقیّه الله مشرّف شدم، عرض کردم: مولانا! آیا آن چه در زیارت ناحیه مقدّسه ذکر شده که می فرمایید: «فلأندبنّک صباحا و مساء و لأبکینّ علیک بدل الدّموع دما»، صحیح است.
فرمودند: بلی! صحیح است.
عرض کردم: آن مصیبتی که به جای اشک، خون گریه می کنید، کدام است؟ آیا مصیبت حضرت علی اکبر است؟
فرمودند: نه! اگر علی اکبر زنده بود او هم در این مصیبت، خون گریه می کرد.
گفتم: آیا مصیبت حضرت عبّاس است؟
فرمودند: نه! بلکه اگر حضرت عبّاس در حیات بود، او هم در این مصیبت، خون گریه می کرد.
عرض کردم: البتّه مصیبت حضرت سید الشّهداست.
فرمود: نه! اگر حضرت سیّد الشّهدا (علیه السلام) در حیات بود، ایشان هم در این مصیبت، خون گریه می کردند.
عرض کردم: پس این کدام مصیبت است که من نمی دانم؟
فرمودند: آن مصیبت اسیری زینب (علیها السلام) است، ابد الأباد.
[تبدیل ساعت به طلا] 5 مسکه:
در این باب است که عالم جلیل، آقا شیخ عبد الصمد زنجانی آن حضرت را در خواب می بیند و خوابش به معجزه متعقّب می شود.
ما را از مرحوم شیخ اسد الله زنجانی (رحمه الله) از شیخ اجلّ، معتمد آقا عبد الصمد زنجانی خبر داد، گفت: یک سال حدود هشتاد تومان مقروض شدم و از عهده ادای آن عاجز بودم. بر من خیلی سخت می گذشت. مشغول بعضی ختومات و ریاضات شرعی و توسّلات شدم، تا آن که شبی حضرت صاحب العصر (عجّل الله فرجه) را در خواب دیدم و از نور حضور آن مهر ظهور، دیده جان را منوّر کردم.
حضرت دست کرامت باز کرده، فرمودند: ساعت خود را به من بنما! ساعت خود را از جیبم درآورده و به دست بی عیب آن محیط بر هرشهود و غیب دادم. آن سرور ساعت را گرفت و سپس به من ردّ فرمود، گرفتم و از خواب بیدار شدم. وقتی به هوش آمدم، از بی قابلیّتی خود به جوش آمدم که بعد از این همه زحمات، آن جناب همین قدر به ساعت من نظر فرمود و لکن خودم به جز حرمان از فیوضات آن منبع فیض رحمان، بهره ای نبردم؛ نه از من سؤالی و نه از آن سرور نوالی. به هرحال با کمال بی حالی شب را به صبح رساندم و به مجلس بعض از رفقا رفتم.
قدری گذشت، ساعتم را از بغل درآوردم، نظر کردم چه وقت است، یکی گفت:
فلانی این ساعت طلا را از کجا پیدا کردی؟
گفتم: چه می گویی؟ من کجا، ساعت طلا کجا! ساعت برنجی است، از فلانی خریده ام.
دیگری نظر کرد، گفت: چه می گویی طلای احمر است!
تأمّل کردم، تعجّب مرا گرفت. فرستادیم نزد شخصی که ساعت را از او خریده بودم، حاضر شد. گفت: بلی! ساعت برنج فروختم، هیچ شکّ و شبهه ای نیست، من نیز از فلان کس خریدم و فروختم.
نزد ثالث فرستادیم، او هم گفت: برنجی بوده، تا چند دست که متوارد شده بود همه گفتند: برنجی بوده. همی تعجّب و تحیّر من زیاد می شد. ناگاه خواب دیشب به خاطرم آمد و حال و قصّه خواب را برای حضّار مجلس بیان کردم. بر همه معلوم شد از اثر کیمیای دست آن برگزیده خدای بی همتا بوده که برنج اصفر، طلای احمر گردیده.
یکی از اهل مجلس گفت: قرض شما چقدر است؟
گفتم: هفتاد یا هشتاد تومان.
گفت: من قرض شما را ادا می کنم، این ساعت را به من هدیه فرمایید.
شیخ جلیل گفت؛ به او گفتم: خانه آباد! چرا ساعت را از دست دادی؟ اگر نگاه می داشتی، هفتاد هزار تومان حاصل می بردی.
[تشرف در رؤیا] 6 مسکه:
ایضا در این باب است که آقای آقا سید حسن حضرت بقیّه الله را در خواب می بیند و خوابش به کرامتی متعقّب می شود.
چنان چه آقای آقا میرزا هادی - سلمه الله تعالی - فرمود: رفیق شفیق متدیّن خود، سید حسن مرا حکایت کرد و گفت: چهل شب چهارشنبه چلّه گرفتم و در مسجد سهله حاضر می شدم. لیله موعود، بزرگواری را با کمال مهابت در عالم رؤیا دیدار نمودم.
ولی روی انور او را ندیدم. فرمود: برخیز! کار تو درست شد. وقت نماز است، کار تو درست شد. دیدم یک ساعت به صبح مانده، مشغول نماز شب شدم. به نجف اشرف مراجعت کردم، چند روزی گذشت، اثری نیافتم. بنا گذاردم چلّه دیگری روانه مسجد شوم. عصر سه شنبه روانه شدم، در بازار مردی به من رسید و گفت: صد لیره وجه بر ذمّه دارم، می خواهم به مکّه مشرّف شوم، با تو به بیست لیره مصالحه می کنم که هشتاد لیره به من ببخشی. قبول کردم. صد لیره از وجه خمس قبض کردم و هشتاد لیره به او بخشیدم. او، به مکّه رفت و بعد از آن هم، رسیدگی هایی به من کرد.
این ناچیز گوید: مندرجات این شش مسکه، با یواقیت مندرجه ای در عبقریّه نهم بساط چهارم مناسب است که به الیاقوت الأحمر ملقّب است، کما لا یخفی علی من رأی.
[توسل نسخ ابراهیم صاحب الزمانی] 7 مسکه:
در مورد متوسّل شدن مرحوم آقا شیخ ابراهیم صاحب الزمانی به حضرت بقیّه الله و اثر ظاهری دیدنش است.
جناب آقا شیخ ابراهیم ترک روضه خوان، از اتقیا و ابرار و سال ها پناهنده ناحیه مقدّسه بود، او اختصاصی به حضرت ولیّ عصر - ارواحنا فداه - داشت؛ دائما در ذکر آن بزرگوار بود و به شیخ ابراهیم صاحب الزمانی معروف شده بود و می گفت: من هرروز بر حضرت گریه می کنم.
در یکی از اسفار زیارت حضرت ثامن الأئمّه معجزاتی از توسّل به حضرت ولیّ عصر (عجّل الله فرجه) - ارواحنا فداه - دیده بود؛ از جمله، جناب آقا میرزا هادی - ایّده الله تعالی - از ایشان حکایت فرمود و گفت: در مراجعت ارض اقدس، یکی از سادات که همراه من از رشت به ترکستان حرکت می کرد، یک لنگه جوال ابریشم حمل نموده، به کنار رود اراس می رفتیم.
طریق سلوک در آن چند فرسخ، خاک روس بود. آن سیّد، بسته ابریشم را به شیخ واگذاشت و خود از طرف خاک ایران پیاده راه پیمود. شیخ گفت: من از ممنوعیّت ورود ابریشم به خاک روس و آن که به گمرک و تذکره محتاج است، غافل بودم.
یک مرتبه در اثنای راه، چهار نفر از مأمورین روس با سلاح از میان درخت ها بیرون آمدند و صیحه زدند: نگاه دارید! مکّاری ما که ترک مؤمنی بود، گفت: این آقا خوند است. چیز گمرکی ندارد، بگذار برویم. یکی از آن کفّار با چوب به پای آن بیچاره زد، او نعره ای کشید، زمین خورد و پایش شکست.
سپس بر سر من آمدند، من در بیابان تنها بودم و عیال جوان و طفل کوچکی همراه داشتم. بچّه از مشاهده آن ها می ترسید و فریاد می زد. گفتم: چه می گویند و چه می خواهند؟
گفت: بارها و اسباب ها را باز کن ببینم چه داری؟
بقچه ها را باز کردم، یک یک لباس و خرده ریزها حتی اسباب زن ها را نظر می کردند و می گفتند: ابریشم داری؟ وقتی دیدم تمام همّ این ها برای ابریشم است، فهمیدم کار سخت است. کنار رفتم و یقین کردم الآن بر سر لنگه ابریشم سید می آیند و مرا خواهند برد. بر خود نترسیدم، مگر بر عیال و بچّه ام که زن جوان در این بیابان و در چنگ این کافران چه خواهد شد؟
اشک از چشمم سرازیر و امیدم از همه جا منقطع شد، قرآن مجید را دست گرفتم و به حضرت ولیّ عصر - ارواحنا فداه - متوسّل شدم و عرضه داشتم: این جا محلّی است که جز حضرت تو ملجاء و پناهی نیست. کنار ایستادم و تسلیم شدم. آن چهار نفر خودشان همه اسباب ها را زیر و بالا کردند تا به لنگه ابریشم رسیدند و آن را باز کردند.
دیدم هرقسم ابریشم که خوب و خوش رنگ بوده، سید با خود برداشته. آن کافران ابریشم ها را کلافه کلافه بیرون می کشیدند، نظر می کردند، به یکدیگر نشان می دادند و می گفتند: این چیست و آن را می انداختند، آخر به هیچ یک از کلاف ها تصدیق نکردند که ابریشم باشد، تا آن که از همه گذشتند، کنار رفتند و گفتند: آقاخوند بار کن برو، چیزی نبود. اسباب ها را بستم، دیدم نمی توانم بار کنم، آمدم سر مکّاری، دیدم پایش مانند خیک باد شده، آن قدر باد کرده که بیچاره نزدیک مرگ رسیده؛ صدا کردم: برخیز!
گفت: پایم شکسته، الان می میرم.
فریاد زدم بگو: یا صاحب الزّمان، برخیز! و هم چنان اشکم جاری بود.
گفت: محال است، نمی توانم برخیزم. دستش را گرفتم، گفتم: بگو یا صاحب الزّمان! برخاست. مأمورین به ما نظر می کردند که چه می کنیم. بیچاره آن مکّاری خورده خورده پا بر زمین گذاشت و راه افتاد، لکن پایش مانند مشک پر بود تا آن که بارها را بار کردیم و راه افتادیم. چند قدمی راه رفتیم؛ گویا پای او مشکی بود که سرش را باز کردند، بادهایش بیرون رفت.
پرسیدم: پایت چطور است؟
نشان داد، ابدا الم و علامتی نداشت؛ «کأن لم یکن شیئا مذکورا». در کمال صحّت و آسودگی طیّ طریق کردیم و آن مکّاری، اعتقاد غریبی به حقیر پیدا نمود. بعد از دو ساعت که از خاک روس بیرون شدیم، ایرانیان ما را دیدند و خیلی تعجّب کردند و می گفتند: چگونه ابریشم ها را از آن راه آوردید، اگر می گرفتند، ده سال حبس داشت و باید فلان مقدار نقدی می دادید.
[توسل دیگر نسخ ابراهیم صاحب الزمانی] 8 مسکه:
ایضا در باب متوسّل شدن شیخ ابراهیم مزبور به آن حضرت در قضیّه دیگر و اثر ظاهری دیدنش است.
چنان چه حکایت کرد که بعد از آن واقعه، در عرض راه به محلّی رسیدیم که از آن جا لازم بود عابرین پیاده عبور کنند. کوه و کمر سخت و هوا بی نهایت سرد بود، پیاده شده، با عیال و طفل خود روانه شدیم و مکّاری به حیوان های خود مشغول بود تا آن که بعد از مدّتی دیدیم در بیابان تنها مانده ایم، باد چنان بلند شد و سرما چنان شدّت کرد که ما را از رفتن باز داشت. قدری تأمّل و به اطراف نظر کردم، دیدم وقت هم تنگ است، گفتم امشب این جا خواهیم ماند و از سرما و صدمه حیوانات درّنده تلف خواهیم شد.
به جز مسأله توسّل به درگاه امام زمان امیدم از طریق نجات، منقطع شد، با نهایت خضوع، گریه و زاری و سوگواری دست تمسّک به ولای عروه الوثقی الهی درآورده، به درگاه آن نجات دهنده درماندگان روی آوردم.
یک مرتبه دیدم چهار نفر مرد ترک می آیند که اهل آن نواحی بودند. به هزار زحمت و تأنّی، قدری نزدیک شدند. دیدم اسبی یک پای خود را بالا گرفت و ابدا بر زمین نمی گذارد، آن چهار مرد نیز آن را به کتف خود راه می برند. چون به ما رسیدند، به ایشان روی نمودم و گفتم: من مجاور نجف اشرف ملّا هستم، به زیارت امام رضا (علیه السلام) مشرّف شده ام، الان هم در راه مراجعت به نجف هستم، به خاطر خدا، من و عیال و بچه مرا از مردن نجات دهید.
یکی از آن ها بر من صیحه زد: نمی بینی ما چگونه مبتلا هستیم؟ این اسب پایش را زمین نمی گذارد و ما چهار نفر آن را می بریم. قدری از ما گذشتند، خیلی منقلب شدم.
یکی دیگر گفت: بیا عیال خود را سوار اسب کن! اگر پایش را زمین گذاشت و راه رفت، ما امشب شما را نجات می دهیم و الّا بهتر است همه شما اللّیله طعمه گرگ شوید و به رفقایش گفت: اگر ما برویم و قدری از آن ها دور شویم، درّندگان فورا بر سرشان می ریزند.
بالاخره صبر کردند، پنج نفری عیال را بلند کرده، روی اسب گذاردیم. اسب فورا پای خود را که ابدا بر زمین نمی گذاشت و بالا می گرفت، بر زمین نهاد و هنوز به او شلّاق نزده، راه افتاد.
مرد ترک داد زد: ملّا بیا بچّه را هم به مادرش بده! بچّه را هم سوار کردیم. آن جماعت خیلی فریفته من شدند و مرا در رفتار تشجیع و از راه رفتن عذرخواهی می کردند، هفت ساعت که از شب گذشت، از آن درّه خلاص شده، از سنگلاخ بیرون رفتیم. چون نزدیک قریه آن ها رسیدیم، دیدیم همه مردان و زنان آن ها بیرون آمده، انتظار می کشند، زنی هم گریه می کند و پسر خود را فریاد می زند تا چشمش به پسرش افتاد، دوید و گفت: ما مأیوس بودیم و گفتیم درّندگان شماها را خورده اند.
گفتند: ما از برکت این ملّا نجات یافتیم. ضعیفه آمد، مرا بغل گرفت و سر و رویم را بوسید.
چند روز ما را نگاه داشتند. صبح که شد، همه اهل ده آمدند و دعا گرفتند. دیدم همه ترک نماز و احکام شرعی کرده اند. پرسیدیم: شما را چه می شود؟
گفتند: از روزی که ملّای ما را اسیر کردند و بردند، ما از خدا قهر کردیم.
ایشان را موعظه کردم و گفتم: او را سلامت دیدم، می خواهد مراجعت کند، تا آن که آن ها را به راه آوردم.
[توسل دیگری از همین شخص] 9 مسکه:
ایضا در باب متوسّل شدن شیخ مزبور به آن سرور در قضیّه دیگر و اثر ظاهری دیدنش است.
چنان چه نقل کرد: در همین سفر، چند نفر با شیخ همراه بودند که از یک مکّاری مال گرفته بودند. در عرض راه به محلّی رسیدند که غالبا مخوف و جای دزدان بود، یک مرتبه، مکّاری آشفته حال دوید جلو، اسب شیخ را گرفت و گفت: به آن طرف نظر کن، این سوارها که می بینی، فلان دزدها هستند. محال است به اسباب عادّی و به سلامت از ایشان بگذریم، من چیزی غیر از این حیوان ها ندارم، اگر این ها را ببرند، روزی من قطع خواهد شد، چاره ای بکن!
گفتم: ای مرد! چه از دست من می آید؟
گفت: اگر این قدر عرضه نداشته باشی پس تو چه ملّایی هستی؟
به حقیقت، این کلمه در دلم تأثیر نمود، عن ظهر القلب دست شفاعت و توسّل به حبل المتین، ملاذ کل، امام زمان - ارواحنا فداه - برآوردم. به آن ها گفتم: هرچه بگویم، قبول می کنید.
گفتند: بلی!
مکّاری گفت: من راضی ام این اسب که زیر پای تو است، پنجاه تومان بخرم تا به آن ها بدهی و از ما بگذرند.
گفتم: من از میان راه به سمت آن ها می روم، شما از خارج طریق به سرعت بروید، قبل از رسیدن من به ایشان، شما از درّه بیرون رفته باشید، اگر هم مرا کشتند، اعتنا نکنید و به کمال سرعت، طیّ طریق کنید، نجات عیال اولی است.
آن ها قبول کردند، از ایشان جدا شدم، صدا را به قرائت سوره مبارکه الرحمن بلند کردم و دامنه کوه را از صدا پر کردم. دزدها منتظر بودند که قافله میان درّه محصور شوند تا به زیر آیند و غارت کنند. وقتی دیدند به سمت آن ها می روم و صدا بلند کرده ام، تعجّب کرده، همی نظر می کردند و من به کمال اطمینان و به قاعده راه می رفتم تا به ایشان رسیدم، سلام کردم، پیرمردی را میان ایشان دیدم؛ روی زمین نشسته، یک پای خود را عرضا بغل گرفته بود.
چون از ایشان گذشتم، آن پیر کلب کبیر به لسان ترکی به جوانان گفت: بروید این ملّا را لخت کنید، به او اعتنا نکنید.
جوانی گفت: ما این طعمه را به تو مختصّ کردیم و در او با تو شرکت نداریم. خود برو او را لخت کن و غنیمتش را مختصّ شو.
چند مرتبه آن پیر خبیث بر اخذ متاع من تحریص کرد، ولی جوان ها قبول نمی کردند، تا این که گفتند: ما جوانیم و از عمر خود می ترسیم.
پیرمرد گفت: این قدر مهلت می دهید تا قافله از چنگتان بیرون رود، بروید این ملّا را لخت کنید. بالاخره دزدها مشغول من شدند و در انتظار آمدن قافله ماندند، تا آن که قافله از محلّ خوف و درّه کوه به فسحت و مأمن رسیدند.
سپس من به ایشان ملحق شدم. مکّاری بسیار شکر لطف الهی به جای آورد و خلوص غریبی به من پیدا کرد. بعد ورود به محلّ، مقصود را خواست و خواست از پنج تومان کرایه به جهت سلامتی حیوان هایش و نجات از دزدان بگذرد و از من نگیرد، اما کرایه اش را بالتمام دادم و حمد و شکر الهی را به جای آوردم.
[گویا شدن زبان آقا مهدی شیرازی] 10 مسکه:
در باب متوسّل شدن آقا مهدی شیرازی لال به آن حضرت در سرداب مقدّس است که گویا شدن زبانش از اعجاز آن جناب می باشد.
سید علّامه، آقا میرزا محمد حسین شهرستانی - اعلی الله تعالی فی الخلد مقامه - در زوائد الفرائد ذکر فرموده: از جمله کرامات حضرت حجّت منتظر - عجل الله فرجه - که در سرداب مقدّس ظاهر شد، آن است که شخص لالی در سرداب منوّر، شفا یافت و این خبر، کم کم شایع شد، تا آن که مذکور گردید. آن شخص وارد کربلا شده است، به قصد ملاقات او و تحقیق حال، به منزلش رفتیم؛ خانه نبود.
بعد از مراجعت به خانه اش، وقتی خبردار شدند به قصد ملاقات او رفته بودم؛ عصر با رفقایش به منزل حقیر آمدند، من جمله از رفقایش، عالی شأن عمده التجّار، حاجی کربلایی اسماعیل، تاجر شیرازی، ساکن کاظمین است و غیر ایشان که غالب از ثقات و معتمدین اند و با او از هند در کشتی نشسته، کمال معاشرت را داشتند و همه شهادت دادند او لال بوده و از قراین خارج و داخل، به لال بودن او قطع حاصل شد.
اسم خود آن شخص، آقا مهدی است و شیرازی ساکن ملومین از توابع ماچین می باشد. حاج کربلایی اسماعیل مذکور، بیان کرد: آقا مهدی، پسر عموی من است. به قدر دو هزار تومان مایه تجارت داشت که در طیّ معاملات کم کم تلف شد. او به جهت غصّه این امر و فکر و خیالات، مخبّط شد و به جنون منجر گردید. مدّتی مجنون بود تا این که با معالجه و غیره، جنونش تخفیف یافت و در زبانش لکنت پیدا شد. چون بالمرّه جنون رفع شد، زبانش بالکلّیه لال شد طوری که جز به اشاره نمی توانست مطالب را افهام کند، سه سال و کسری به این حالت بود تا این که ما عازم زیارت عتبات شدیم، او هم به قصد توسّل و استشفا و ملاقات مادرش که در عتبات بود، طالب این معنی شد و با ما در کشتی نشست تا به بغداد رسیدیم. در همین حال جهاز دودی به سرّ من رای می رفت. او را به زیارت آن جا روانه کردم و خود در کاظمین ماندم.
سپس خود آقا مهدی در بیان قضیّه سرّ من رای شروع کرد و گفت: روز پنج شنبه، نهم ماه جمادی الثانی سنه هزار و دویست و نود و نه که سنه حال است، وارد سرّ من رای شدم و بعد از زیارت حرم مطهّر، پای منبر روضه خوانی نشستم. سید عبّاس بغدادی روضه خواند، گریه کردم و در دل، ملتجی و متوسّل بودم.
صبح جمعه نیز به منزل بعضی از طلّاب رفتم که مجلس روضه خوانی داشتند، از آن جا به منزل حجه الاسلام حاجی میرزا محمد حسن شیرازی - سلّمه الله تعالی - رفتم و با اشاره، التماس دعا کردم. ایشان نیز اظهار محبّت و دعا کردند. بعد از آن رفتم که در سرداب مشرّف شوم، کسی را نیافتم که برایم زیارت بخواند.
سپس به منزل مراجعت کردم، عصر دوباره رفتم و بر در سرداب ایستاده، بر دیوار نوشتم: من لالم؛ به جهت من زیارت بخوانید. آن گاه شیخ علی روضه خوان از سرداب بیرون آمد، نوشته را به ایشان نشان دادم. او به سیّدی گفت: این شخص را زیارت بده!
گفت: پول بیاورد. من به اشاره گفتم تا آن شخص از خود، چیزی به او داد، مرا داخل سرداب کرده، زیارت داد. سپس مرا نزد صفّه غیبت طلبیدند. چون تاریک بود و من غریب و تنها بودم؛ می ترسیدم. عاقبت رفتم، دیدم آن جا چاهی است؛ دو نفر همان جا نشسته بودند، زیارتی خواندند و چیزی خواستند. من یک قمری به ایشان دادم، خم شدم، لب چاه را بوسیدم و عرض دل خود بیان کردم، سپس به سمت صحن سرداب بیرون آمدم، ایستادم که نماز زیارت بخوانم و به موجب عادت تکبیر را به اشاره گفتم.
تا قصد قرائت کردم، زبانم به بسم الله الرحمن الرحیم جاری شد. سپس قرائت و اذکار را به تجوید خواندم و بعد از نماز، دو دوره تسبیح، استغفار کردم و صیغه توبه خواندم.
آن گاه بیرون آمدم و به هرکه رسیدم، سلام کردم تا این که اشخاصی که قبلا حال مرا دیده بودند، رسیدند؛ مطلب را فهمیدند، اطرافم را گرفتند و جامه مرا پاره و ازدحام کردند. عاقبت به منزل گریختم. چون جناب حجّه الاسلام به طلب من فرستاده بودند، صبح به منزل ایشان رفتم؛ قضیّه را سؤال نموده، فرمودند: قرائت خود را بخوان! خواندم، سپس عرض کردم: چند سال است قرائت نکرده ام، البتّه پسند سرکار، نخواهد بود. فرمودند: بسیار خوب خواندی.
آن گاه جمعی از زوّار که آن جا بودند، خواهش کردند که چراغان کنند و چون اذن یافتند، چراغان بسیار معتبری کردند و الحمد لله ربّ العالمین و صلی الله علی محمد و آله الطّاهرین. در لیله الاربعاء التاسع و العشرین من شهر جمادی الاخره، سنه هزار و دویست و نود و نه، خود آقا مهدی و حاجی کربلایی اسماعیل شیرازی این قضیه را در عصر گذشته برای حقیر در کربلای معلّا نقل کردند.
این ناچیز گوید: اگر چه این معجزه را در یاقوته پنجم از عبقریه یازدهم بساط چهارم از نجم ثاقب مرحوم، استادنا المحدّث النوری - نوّر الله مرقده - نقل نموده ایم، لکن نقلش در این مورد به خاطر مزایا و خصوصیّاتی است که در نقل نجم ثاقب ذکر نشده است. چنان چه از خصوصیّات این معجزه - که از هردو بزرگوار ناقل فوت شده - این است که عالم جلیل، مؤلّف این مستدرک البحار که خود حاضر الوقت در قضیّه بوده، فرمودند:
شب اوّل چراغان که مرحوم آیت الله المجدّد و نیز مرحوم میرزای شیرازی، شرف حضور داشته اند از گلدسته شرقی به گلدسته غربی طنابی بسته و عدد کثیری از فانوس های شیشه ای بر آن آویخته بودند، لذا ناگاه طناب گسیخته شد و اغلب فانوس ها بر پشت بام ایوان مقدّس و بر بالای یکدیگر ریخت و از اعجاز ائمّه ثاوی و مغیّب در آن بلد مبارک، به قدر درهمی به چراغ ها و شیشه ها آسیب نرسید.
[توسل آقا نجفی اصفهانی] 11 مسکه:
در باب متوسّل شدن عالم جلیل، آقای آقا نجفی اصفهانی در مکّه معظّمه به آن حضرت و اثر فوری دیدن می باشد.
از سید جلیل، سید محمد حسین اصفهانی و ایشان از رساله مرحوم آقا نجفی اصفهانی نقل نموده که آن جناب در کتاب مذکور ذکر فرموده: مرّه ثانیه، - یعنی مرتبه دوّم از تشرّفش خدمت امام عصر (عجل الله تعالی فرجه الشریف) آن است که روزی بعد از ورود به مکّه معظّمه، به خارج شهر رفته، مشغول عبادت بود، در بین صلات که با کمال شرایط و آداب به جا می آورد، یکی از اعراب و اشقیا آن جناب را از بالای کوه دید؛ آتش بغض در سینه پرکینه اش سرشار گردیده دست به خنجر برد و به سوی آن جناب دوید، چون فضا خلوت از انام و فارغ از ازدحام بود، آن جناب یقین نمود که الان است آن نابکار، کار را تمام کند.
در همان حال نماز و توجّه به مناجات حضرت کارساز بی نیاز، دست توسّل به ملجأ کل حضرت ولیّ عصر زد در آن حال توسّل، فی الفور پای آن رجس بر سنگی گرفته، منقلب گردید؛ گویا کسی دستی بر قفای او زده، او را از بالای کوه بر زمین افکند و فی الحال به اسفل درک جحیم وارد گردید.
[توسل و نجات آقا سید محمد علی تبریزی] 12 مسکه:
در باب متوسّل شدن سید جلیل، آقا سید محمد علی تبریزی به آن بزرگوار است که از غرق نجات می یابد.
ایضا جناب آقا میرزا هادی از سید عالم فاضل جلیل، سید محمد علی تبریزی حکایت نموده، گفت: در سال تشرّف به عتبات عالیات، بین تبریز و کرمانشاه در یکی از منازل بین راه، نهری بود. من از قافله عقب ماندم، خواستم از نهر عبور کنم، پیاده شدم که دست به آب رسانم، ناگاه قاطر متوجّه آب شد، پایش لغزید و در آب فرورفت و چون اسبابم بر او بود، ناهموار خود را در آب انداختم تا که او را بیرون آورم و نمی دانستم نهر، گودی دارد، از قضا نهر بیش از یک شتر، عمق داشت.
در آب فرورفتم و به مصاحبت مرکوب، آب مرا برد، گاهی پایم به زمین می رسید و گاهی سرم در آب فرومی رفت. تقریبا چهار ساعت به این حال همراه آب می رفتم تا آن که جوفم مملوّ از آب شد، مشرف به هلاکت شده، به حضرت ولیّ عصر - عجّل الله تعالی فرجه - متوسّل گردیدم، ناگاه در همان حال بی هوشی، سیّدی را کنار نهر دیدم.
دست فراآورده، من و حیوان را از آب بیرون کشید. چشمم می دید، ولی زبان و سایر اعضایم حسّ و حرکتی نداشت. کنار نهر بر زمین افتادم و از هوش رفتم.
قدری گذشت، صدای چاوش و سایر رفقای قافله را شنیدم که فریاد می زدند و آن وقت، هوا تاریک شده بود. وقتی به من رسیدند، مدّتی مرا معلّق نگاه داشتند تا آب ها از جوفم بیرون شد و قدری به حال آمدم. سپس مرا به منزل بردند. تقریبا سه فرسخ راه بود. دو شب آن جا ماندند تا حالم به جا آمد.
من دیگر آن سید را ندیدم و احتمال نمی رفت اهل آن محال باشد. چون اهالی آن منازل، همه اکراد نواصب و سنّیان متعصّب اند که به خون زوّار تشنه می باشند.
از برکت دست مبارک آن سرور و یمن قدوم آن بزرگوار، از آن منزل تا ورود به نجف اشرف، تمامش مهمان زوّار و غیرهم بودم، کمال خوشوقتی و آسایش به من روی داد.
این ناچیز گوید: مندرجات این شش مسکه، با یواقیت مندرج در عبقریّه یازدهم بساط چهارم مناسب است که به الیاقوت الاحمر فی من رأی الحجّه المنتظر (عجل الله تعالی فرجه الشریف) ملقّب است، کما لا یخفی.
[رؤیت حضرت در زیّ اکراد] 13 مسکه:
افتخار العلماء العاملین، حاج سید حسین حائری، ساکن ارض اقدس، در اوایل شهر ذی القعده الحرام سنه هزار و سی صد و شصت و چهار ما را خبر داد، فرمود: سنه هزار و سی صد و چهل و پنج یا شش هجری در اوان عشره محرّم، سیّدی غریب از اهل عراق که او را نمی شناختم، در منزل احقر در کرمانشاه ورود نمود و غالبا زوّار اهل علم و غیرهم، ورود می نمودند و احقر هم، پذیرایی می نمودم. بعد از دو روز از ورود سید مذکور، یکی از اهل علم نجف اشرف به دیدن احقر آمد، آن سید را شناخت و به احقر اشاره نمود این آقا را می شناسید؟
گفتم: با ایشان سابقه ندارم.
گفت: یکی از مرتاضین بسیار مهم می باشند، به ظاهر در کوچه مسجد هندی دکّان عطّاری دارد و غالبا از نجف اشرف مفقود می شود، اهل و عیال او هرچه در کربلا و کاظمین و حلّه تفحّص می نمایند، او را نمی یابند، بعد از چند ماه معلوم می شود در یکی از حجرات مسجد کوفه پنهان شده است، وقتی او را ملاقات کردند موی سر و ریش او بلند شده بود، با یک حال پریشانی او را به نجف آوردند. باز بعد از چند روز مفقود می شد و به خادم مسجد می سپرد به اهل او خبر ندهند.

بالاخره من بعد از اطّلاع بر حال ایشان بیشتر به او محبّت کردم و اظهار داشتم شما را از مرتاضین می دانند، کمال انکار و امتناع را داشتند. بالاخره بعد از معاهده به این که اظهار نشود، گفتند: دوازده سال در مسجد کوفه و غیره ریاضت کشیدم. شرط تکمیل ریاضت، دوازده سال است و در کمتر از این زمان، کسی به مقامی نمی رسد. در حالی که کمالات خودش را مخفی می کرد، فقط گفت: احضار جنّ ممکن است، ولی جنّ دروغ می گوید، راست هم می گوید. اعتمادی به قول آن ها نیست، احضار ملک هم ممکن است، ولی نظر به این که آن ها مشغول عبادت اند، شایسته نیست آن ها را از عبادت باز کرد و گفتند: من همین علمای عدول را احضار می کنم و آن چه از مغیّبات سؤال کنم، جواب می گویند.
احقر در چند سال اخیر که شیوع آزادی و کثرت اشخاص بی دیانت که بالنّسبه به مجالس روضه خوانی و سینه زنی توهین می کردند، محض تقویت اساس شرع، مجلس روضه خوانی خیلی مفصّلی اقامه می نمودم؛ مجلس، اوّل فجر، عقد و یک ساعت بعد از ظهر ختم می شد، از حیث مصارف کثیره و زحمات بدنی، بسیار در زحمت بودم، در آن مجلس، شصت نفر روضه خوان شهری و غریب - که از سایر بلاد آمده بودند - و پنج مدّاح، تعزیه می خواندند، در این هشت نه ساعت که مجلس طول می کشید، سی نفر و بقیّه در باقی ایّام به نوبت می خواندند و همه آن ها حقوق داشتند.
احقر از این آقا خواهش کردم از علما سؤال کند که این مجلس، با این زحمات و مصارف، مقبول اهل بیت (علیهم السلام) هست یا نه؟
گفتند: من شب کار می کنم، بنا شد مشغول شوند و گفتند: به چهار نفر از علما یعنی مرحوم آقا میرزا حبیب الله رشتی، مرحوم آقا میرزا محمد تقی شیرازی، مرحوم آقا سید اسماعیل صدر و مرحوم آقا سید علی داماد - قدّس الله اسرارهم - ، مراجعه و سؤال می کنم؛ که آقا سید علی داماد، داماد آقا شیخ حسن مامقانی و به این جهت به داماد معروف بودند.
فردا گفتند: آقایان را احضار و سؤال کردم، گفتند: بلی! این مجلس، مقبول اهل بیت - سلام الله علیهم - است و در روز نهم یا دهم، حضرت ولیّ عصر - عجّل الله فرجه و سلام الله علیه - به این مجلس تشریف می آورند.
احقر با کمال وجد و شوق گفتم: چرا روز را تعیین نکردید؟
گفتند: امشب سؤال می کنم. فردا صبح گفتند: آن چه می گویم بنویسید و نگاه دارید.
آن روز، روز پنجم محرّم بود و وضع احقر در مجلس، خلاف وضع ریاست و ترتیب علما در کرمانشاه بود که در ناحیه معیّنی بنشینند و اشخاص محترم، طرف ایشان بیایند و قهرا آن مجلس، صدر محسوب می شد؛ بلکه احقر، درب خانه نشسته یا ایستاده بودم و برای هرکسی قیام می نمودم.
این مجلس، محلّ توجّه عموم اهل شهر بود، غالبا راه مجلس مسدود می شد و جماعت دیگری در اطراف کوچه انتظار داشتند تا زمانی که تبدّل اشخاص شود، جماعتی خارج شوند و آن جماعت به جای آن ها بیایند.
سید گفت: روز نهم، ساعت دو و سه که دو ساعت از دسته می گذرد، شما پای چاه که نزدیک در خانه است، نشسته ای؛ یک مرتبه حال شما پژمرده می شود و تمام بدنتان تکان می خورد. در آن حال به آن نقطه معیّن نگاه کنید که آخر حدّ مجلس زن هاست، زیرا نصف فضای خانه متعلّق به زنانه بود که جلو واقع می شد و نصف مؤخّر مردانه بود که هنگام جلوس، مردها پشت سر زن ها واقع می شدند، منبر محاذی زن ها گذارده می شد و مردها صورت زن ها را نمی دیدند، مجلس اندرون خانه که وسیع تر بود برپا می شد و احقر نزد در می ایستادم و پذیرایی می کردم. اطاق بیرونی نیز مجمع آقایان روضه خوان بود.
سید گفت: هر وقت تکان خوردی به آن نقطه مجلس متوجّه باش، یک عدّه اشخاص حدود ده دوازده نفر به یک هیأت و یک لباس و یک شکل نشسته اند. یکی از آن ها حضرت ولیّ عصر است.
اوّل ساعت دو از دسته آنان از اطاق روضه خوان ها از طرف بیرونی وارد می شوند و تا ساعت سه تشریف دارند. ساعت سه که مجلس به جهت تبدّل اشخاص به هم می خورد، ضمن مردم بیرون می روند و شما ملتفت نمی شوید.
سید گفت: با وضو باشید، به محضر مبارکشان بروید و خدمتی از قبیل چای دادن یا استکان برداشتن بکنید. آن ها برای شما قیام نمی کنند و می گویند: این خانه خودمان است، در خانه بروید و از مردم پذیرایی کنید. در ساعت جلوس ایشان، دو روضه خوان می خوانند، هر دو از امام زمان می گویند و کسی مصیبت نمی خواند؛ مع ذلک، مجلس بسیار مشوّش و ضجّه و ناله از هرروز بیشتر می شود. آقای اشرف الواعظین که هرروز یک ساعت بعد از ظهر می آیند و مجلس را ختم می کنند، همین ساعت می آیند، منبر می روند و از امام زمان می گویند.
به هرحال روز پنجم محرّم این مذاکرات شد، این مطالب را نوشتم و تا روز نهم در فکر این قضیّه روزشماری می کردم. روز نهم، در ساعت مذکور مجلس بسیار ازدحام داشت. بنده پای چاه نشسته بودم، ناگاه قشعریره ای بر من عارض شد و بدنم تکان خورد. فورا به آن نقطه مذکور نظر کردم، دیدم در همان مکان، یک حلقه مشتمل بر ده، دوازده نفر دایره وار در لباس متعارف آن روز اهل کرمانشاه نشسته اند؛ یعنی قبای بلند، کلاه نمد و دستمال روی آن و کفش قندره پاشنه خوابیده و بعضی از آن ها چپق می کشیدند، جمیع آن ها اسمر اللّون و قوی استخوان بودند و در سنّ قریب به چهل سالگی، موهای ریش و ابرو و چشم شان سیاه بود.
به عنوان خوش آمدید نزد آن ها رفتم و فریاد کردم چای بیاورید!
آن ها به احقر، تبسّم کردند و قیام و تواضعی که برای من معمول هرکسی بود حتی حکومت و امرای لشکر نکردند؛ گفتند: خانه خودمان است، همه چیز آورده اند، شما در خانه بروید و مشغول پذیرایی باشید. به مکان خود مراجعت نمودم و دانستم این آقایان از در اطاق بین بیرونی و اندرونی آمده اند.
به هرحال در آن ساعت، دو نفر منبر رفتند و با آن که روز تاسوعا مصیبت حضرت ابو الفضل (علیه السلام) را می خوانند، هر کدام چند دقیقه منبر رفتند و به عنوان تعزیت به امام زمان (علیه السلام) خطاب داشتند و مجلس در گریه و زاری هنگامه ای بود. آقای اشرف الواعظین که باید بعد از ظهر بیایند، ساعت دو از دسته آمدند، به اطاق روضه خوان ها نرفتند و در همان حال وارد مجلس شدند. کنار در خانه، پهلوی من نشستند و گفتند:
امروز برای رفع خستگی تعطیل کردم، فردا عاشوراست و کار زیاد است؛ ولی نتوانستم این جا نیایم.
بعد از صرف چای و قلیان منبر رفت، سکوت طولانی کرد و بعد بدون مقدّمه معمول اهل منبر صدا کرد: ای گم شده بیابان ها! روی سخن ما به تو است. مجلس به حدّی از این کلمه پریشان شد که مردم بی اختیار شدند و به سر و سینه زدند. بعد از یک لحظه دیدم آن حلقه نیستند. دانستم از همان در اطاق بینی رفته اند.
امّا احوال آن سیّد، اسم ایشان سید محمد و اهل رشت بود، اهل علم و فضل نبود. از کسبه ضعیف نجف اشرف بود، کسبی نمی کرد. ایّامی که در منزل من بودند، آن چه از ایشان مشاهده کردم، مواظب عبادت بود. هر روز زیارت عاشورا می خواند و نماز حضرت جعفر طیّار (علیه السلام) را ترک نمی کرد، نافله ابتدائیّه دو رکعتی بسیار می خواند و اظهار مقام و کرامتی نمی کرد، ولی احقر، پاره ای امور از ایشان مشاهده نمودم.
یکی آن که مرحوم آقا محمد مهدی که از علما و رؤسای کرمانشاه بودند، منزل بنده آمده، دیدند سیّدی غیر معروف، نزد من نشسته و خیلی مورد توجّه من است.
سؤال کردند: ایشان کیستند؟
گفتم: سیّدی ساکن نجف اشرف و عطّار است.
ایشان از توجّهات من به او، برایش مقامی استنباط کردند و ایشان را محرمانه و در خفا به منزل خود مهمان کردند. چون پسر بزرگ ایشان مرحوم شده بود و بسیار دلتنگ و کسل بودند، به جهت صحّت مزاج و قوّه ریاست از سید استمداد کرده بودند و در مهمانی خیلی از ایشان پذیرایی کرده و قدری پول به ایشان داده بودند. بعد از دو سه روز، سید به منزل احقر آمد و گفت: من خیلی از این آقا خجلم.
گفتم: چرا؟
گفت: مرا تنها و محرمانه مهمان و استمداد کرد و من برعکس، مأمور شدم. الان خانه ایشان بودم و به ایشان نگاه موت کردم، او تا هفتاد روز دیگر می میرد. تاریخ بگذارید. به هرحال روز هفتادم، احقر برای تشییع جنازه او رفتم.
ایضا گفتند: آقای شمس الدین که از آقایان کرمانشاه بود، حالش به این منتهی می شود که مثل مرده می گردد، ولی نمی میرد. بعد از مدّتی ایشان سکته کردند و به فلج مستوعب مبتلا شدند که به هیچ قسم بر حرکتی قادر نبودند. حتی باید ایشان را از این پهلو به آن پهلو برمی گرداندند.
دیگر گفتند: فلان شخص از اهل منبر؛ در منبر به اشخاصی هتک می کند، از غیب به او پشت گردنی زده می شود و زنخ او به سینه اش متّصل می گردد و دیگر بر منبر رفتن قدرت نخواهد داشت. به همین نحو شد.
دیگر آن که احقر آن زمان، در کرمانشاه مرجعیّت تامّ داشتم و تمام روز و قدری از شب را صرف حوایج مردم می کردم. چون در زمان قبل از ایّام پهلوی، علما مرجع امور بودند، آن سید فرمود: شما مرجع مردم هستید و کارتان مهم است. من عوض شما یک اربعین تنها در اطاق ارتیاض می کنم که اثر آن برای شما باشد ولی از علما اذن می گیرم.
فردا گفت: از آقای صدر، آقای آقا میرزا محمد تقی و آقای آقا سید علی داماد سؤال کردم. همه آن ها اهلیّت شما را از حیث علم و عمل تصدیق کردند و گفتند: هرچه بکنید ایشان اهل می باشند، علی هذا اطاق بالا را از زمین و دیوار و طاق جاروب کامل بنمایند که به کلّی گرد نباشد و حصیر فرش کنند، من باید چهل روز آن جا تنها باشم و غذای من مطلقا از حیوانیّات نباشد، حتی عسل و قند نمی خورم و با شکر سرخ چای می خورم و خوراک من باید مغز گردو، بادام، کشمش، مویز و گاهی چلو با روغن زیت و امثال آن از روغن نباتات باشد.
ما هم به دستور ایشان معمول داشته، اطاق را مهیّا کردیم، فردای آن روز گفتند: به جهت اهمیّت مطلب، آقا میرزا حبیب الله رشتی را خواستم و از ایشان سؤال کردم، ایشان گفتند: فلان کس اهلیّت کامل دارد، لکن ترقیّات باطنیّ ایشان بعد از انقلاب ایران است و این عمل شما باعث تقدیم انقلاب است و مقدّرات ایشان حاصل می شود؛ چه شما عمل را به جا بیاورید چه نیاورید. ولی عمل شما سبب تقدیم انقلاب خواهد شد، این قضایا سال دوّم یا سوّم سلطنت پهلوی بود.
سؤال کردم: انقلاب ایران چیست؟
گفتند: رفع حجاب می گردد، چادرها پاره می شود، عمّامه ها از بین می رود، عمّامه طلّاب پاره و روضه خوانی قدغن می شود، اهل علم و اهل منبر حبس می شوند و توهین به علما و روضه خوان ها بسیار می شود.
بعد از چند سال، تمام آن قضایا مشاهده شد. قضایای دیگری از سید مشاهده شد که ذکر آن ها موجب تطویل است، من نیز بعد از چند سال به جهت علمم به واقع شدن این قضایا به مشهد مقدّس هجرت نمودم و در کمال انزوا بوده و هستم، بحمد الله از این قضایا و قضایای واقعه در ارض اقدس، نسبت به علما و طلّاب و سایر مردم در حرم مطهر و مسجد گوهرشاد از قتل و تبعید و توهین علما و اهل منبر به سلامت بودم.
این ناچیز گوید: سید جلیل ناقل این قضیّه، از علمای معاصرین و کمال وثوق و اطمینان به قول و فعل ایشان است و مرحوم آقا محمد مهدی و شمس الدین مذکور در این قضیّه از رفقای نجف اشرف و شرکای بحث این حقیر در حوزه فقه مرحوم آیت الله آقای حاج میرزا حسین خلیلی و آقا شمس الدین بودند و بعد از ابتلا به فلج به مدّت پنج، شش سال، همین تازگی ها مرحوم شدند - (رحمه الله) علیهم اجمعین -.
مراد از اشرف الواعظین، مرحوم سید اکبر شاه شیرازیّ الاصل و طهرانی المسکن است که در اواخر عمر خود، سکونت کرمانشاه را اختیار نمود. (رحمه الله).
مستور نماند؛ قضیّه تشرّف آقا سید محمد از قضایای کسانی است که آن حضرت را دیده و در حال دیدن، شناخته اند.
[ملاقات شیخ هاشم در سرداب مقدّس] 14 مسکه:
در این باب است که شیخ هاشم و کاظم نامی آن حضرت را در سرداب مقدّس می بینند و هنگام رؤیت، ایشان را می شناسند.
مؤمن متدیّن شیخ هاشم که از شیعیان سکنه سامره، پسر عبد الباقی که اهل بیتی از ربیعه و مضر هستند و از اهل سامره نیستند، برای ما حکایت نمود و گفت: در سنّ طفولیّت که مکتب می رفتم، به یکی از اطفال که کاظم نام، شیعی و ایرانی بود، گفتم: بیا برای بیرون آوردن رقاع استغاثه از چاه که مردم می انداختند به سرداب مقدّس برویم و وقت خلوتی بود.
چون از پلّه ها پایین رفتیم، در پلّه پهن وسط پلّه های سرداب مطهّر، سید بزرگواری را دیدیم که همه لباس هایش سبز یک رنگ بود؛ عمّامه، عبا، قبا و حتی کفش ساغری سبز در پای مبارک داشت، جز پیراهن اطهرش که سفید بود. مستوی القامه و گندم گون بود. طرف راست چهره منوّرش، بین چشم و دهان، خال سیاهی عارض بود که علامت رهبری اصحاب یمین و حجر الاسود کعبه مقصود متّقین است.
به مجرّد دیدار آن بزرگوار، مهابت و جلالت آن ولیّ کردگار، دهشت و ترس عظیمی در دل ما افکند. به رفیقم فریاد زدم: بپرهیز و بگریز! این صاحب الزّمان است.
برگشتیم، آن بزرگوار به لسان گوهرنثار، اظهار ملاطفت کرده، فرمود: «ابنائی أنتم، ما یخالف غیرکم»؛ فرزندان من، شما بیایید، دیگران نیایند!
من و رفیقم، گریزان دویدیم؛ پیرمردی که از سنّیان بود، در کفشداری خوابیده بود، نام او را بردیم و گفتیم: برخیز! صاحب الزمان در سرداب حاضر گردیده، آن مرد برخاست، ما نیز عقب او روانه شدیم، وارد سرداب شده، همه نقاط و محال آن را تجسّس کردیم. ابدا اثر و علامتی از آن بزرگوار نیافتیم.
این ناچیز گوید: آقا شیخ هاشم مذکور در حیات است و از معمّرین می باشد، او بسیار مخلص، متدیّن و متعصّب در تشیّع است. با سنّی ها بسیار مناظره می نماید و یک پسرش را علی افضل، اسم گذارده؛ در وقت تحریر نفوس اسم پسرش را از او پرسیدند، گفت: علی افضل. ننوشتند.
گفت: اسمش همین است. ناچار مأمورین عثمانی در دفتر تحریر نفوس به همین اسم نوشتند.
[ملاقات در مسجد سهله] 15 مسکه:
در این باب است که سید مهدی عباباف نجفی آن حضرت را در مسجد سهله می بیند و ایشان را می شناسد.
سید جلیل و عالم ثقه نبیل، حاج سید نصر الله اصفهانی از سید تقی نقی، جوان عباباف نجفی، سرطمه حمّام نزدیک مدرسه قزوینی ها، مسمّا به سید مهدی خبر داد.
او از خویشان و اقربای ابی الزّوجه مرحوم مبرور عالم تقی، حاج سید محمد کاشانی بود؛ آن سید بزرگوار مرحوم همیشه به تشرّف مسجد سهله در لیالی اربعا مداومت داشت. گفت: شبی با جمعی از رفقا مشرّف شدیم، دیدیم رکن قبله مسجد، طرف شرقی، همان جا که مقام حجّت در آن واقع است، روشن می باشند.
پیش رفتیم، دیدیم سید بزرگواری در آن محراب، مشغول عبادت است و آن، روشنی چراغ نیست، بلکه نور وجه مبارک آن سرور، در و دیوار را منوّر ساخته است، به جای خود برگشته، باز نظر کردیم و آن صفّه را روشن دیدیم؛ گویا چراغ نور بخشی در آن گذارده اند. دوباره نزدیک شدیم و همان حال سابق را یافتیم، تا این که یقین کردیم آن بزرگوار، امام ابرار و نجل ائمّه اطهار است.
مهابت حضرت همه ما را فراگرفت. هریک مانند شجر خشک از حسّ و حرکت افتادیم، مگر من که چند قدمی از رفقا پیش رفتم. هرچه خواستم نزدیک روم یا عرضی کنم، یارایی در خود ندیدم، جز آن که امری در خاطرم آمد و عرض کردم:
استخاره ای بفرمایید.
دست مبارک باز نمود و از آن سبحه که با آن به ذکر معهود، مشغول بود، قبضه ای قبض فرمود، بعد از حساب معدود، جواب فرمود: خوب است. بعد از چندی روی مبارک به سوی ما فرمود. مدّتی نظر فیض اثر بر ما مستدام داشت؛ گویا آن بزرگوار انتظار داشت حاجات دنیا و آخرت خویش را از درگاه لطف و عطایش درخواست نماییم. چون سعادت و استعداد، ما را یارایی نکرد، قفل خموشی، کام ما را مسدود داشت. سپس آن بزرگوار به سمت در مسجد روانه گردید.
قدری که تشریف بردند، در پای خود قوّت یافته، روان شدیم. چون خواست از در مسجد بیرون رود، دو مرتبه روی مقدّس به جانب ما نمود و مدّتی بدان حال بود، ما که چند قدم دورتر بودیم، دوباره از حسّ و حرکت افتادیم و نامقدور شدیم تا این که بالاخره از مسجد خارج شدیم و به عرصه بین البابین رسیدیم.
آن حضرت به خارج باب ثانی قدم نهاد؛ به مجرّد آن، قوّت و شعور ما قوی گشت.
فورا و با سرعت، سمت باب ثانی دویدیم، به طرفه العین از باب ثانی خارج شده، به اطراف بیابان نظر انداختیم، اما احدی را نیافتیم. در بیابان هرچه به اطراف و اکناف دویدیم، به هیچ وجه اثری نیافتیم و مکشوف شد به مجرّد خروج، آن سرور از باب ثانی از نظر مستور گردیده است. پس بر بی قابلیّتی و فوت ذکر مقاصد خود، بی اندازه دریغ خوردیم و متأثّر شدیم.
[عنایت کردن حضرت] 16 مسکه:
در این باب است که جدّه آقا سید محمد علی تبریزی آن جناب را دیده و شناخته است.
جناب آقای آقا میرزا هادی بجستانی ما را از عالم فاضل جلیل، سید محمد علی تبریزی مذکور خبر داد، گفت: والده ایشان شبی در تبریز، به واسطه عارضه ای، خیلی در هموم و غموم فرورفته، در میان حسینیّه که یکی از منازل ایشان است و دائما آن جا عزا و ماتم اقامه می شود، به گریه و زاری و توسّل مشغول گردیده، آن جا درختی بود و بر فوق درخت؛ مانند قندیل، چراغی ظاهر گردیده، تمام آن شب می درخشید؛ به حدّی که تمام خانه، بلکه خانه همسایگان را نور می بخشید. سحر همان شب حضرت ولیّ عصر (عجّل الله فرجه) بر آن مکرّمه ظاهر شدند و یک اشرفی به او عنایت فرمودند. از برکت آن، خیرات و برکات بر او و بر نسل او روی آورده، به مکّه و مشهد مشرّف شده و ثروتمند گردید.
[رؤیت حضرت بر بام حرم مطهر] 17 مسکه:
در این باب است که مشهدی ابو القاسم خادم و مؤذّن مدرسه سامره آن حضرت را می بیند و آن سرور را می شناسد.
آقای میرزا هادی مذکور از عبد صالح، مشهدی ابو القاسم، مؤذّن و خادم مدرسه سامره حکایت نمود، فرمود: از او پرسیدم این چند سال که در شرف جوار این ناحیه مقدّسه به سر برده ای، آیا معجزه ای مشاهده کرده ای؟
گفت: بلی! شبی برای اذان صبح، به پشت بام حرم مطهّر آمدم. چند نفر را آن جا دیدم، سپس ساکت شد.
گفتم: تمام قضیّه را ذکر کن.
گفت: الان، حال ندارم. باشد تا وقت فرصت، بیان نمایم. این بود و چند مرتبه مطالبه اتمام می کردم؛ همان جواب را می داد تا لیله بیست و دوّم صفر الخیر که حال تحریر، بیست و دوّم از شهر مذکور از سنه هزار و سی صد و سی و پنج در حرم عسکریّین (علیهما السلام) مقابل ضریح مقدّس است، به وی گفتم: حکایت را بگو!
گفت: تا الان به احدی نگفته ام. پنج سال قبل ظاهرا لیله جمعه بود، وارد صحن مطهّر شدم، در پلّه ها همیشه مقفّل است. قفل را باز کردم، از پلّه ها بالا رفته، به فضای پشت بام رسیدم. هفت نفر از سادات را در فلان محلّ مخصوص دیدم که رو به قبله نشسته اند و بزرگواری عمّامه سیاه بر سر مبارک دارد و جلوی آن ها نشسته؛ مانند امام جماعت و من پشت سر ایشان بودم. از یکی سؤال کردم: این ها چه کسانی هستند؟
فرمود: این بزرگوار، حضرت صاحب الزمان (عجّل الله فرجه) است و ما نماز صبح را به ایشان اقتدا می کنیم.
مشهدی ابو القاسم گفت: من از هیبت نام مبارک آن حضرت، یارای زیستن نکردم.
به سمت مناره روانه گشته، بالا رفتم. صبح طالع شد و اذان گفتم، چون پایین آمدم، احدی را در فضای بام ندیدم.
[فریادرسی یکی از بندگان خدا] 18 مسکه:
در این باب است که صدّیق الذّاکرین طهرانی آن حضرت را می بیند و می شناسد.
ایضا آقای آقا میرزا هادی - سلّمه الله - ما را از مؤمن متّقی عابد زاهد، صدّیق الذّاکرین طهرانی حکایت نمود و فرمود: چند سال است به شرف مجاورت حضرت سید الشهدا مشرّف شده و کمال اتّحاد با داعی دارد. بعد از نماز جماعت که حقیر در جوار حضرت، اقامه می دارم، با حال خوشی ذکر مصیبت می نماید و همیشه اهمّ حوایجش ظهور فرج و توسّل به ولیّ عصر - عجل الله فرجه - بوده و می باشد.
گفت: چندی قبل که تقریبا بیست سال می شود، به کربلا مشرّف شدم. مرکوب من قاطری راهوار و ملک خودم بود، مبالغی نقدینه طلا نیز در همیانی بر کمر داشتم و خورجین و اسباب شایسته همراهم بود. در هرمنزلی که قافله منزل می کرد، شبانه ذکر تعزیت می کردم؛ آجیلم خوب بود تا این که در آخرین منزل که مسیّب است، قافله سحرگاه حرکت کرد، به راه افتادیم. در عرض راه، عربی سوار بر اسب، با من رفیق شد.
مشغول صحبت شدیم و از قافله جلو افتادیم. بعد از ساعتی مرد عرب گفت: اینک سواران و دزدها قصد ما دارند. این را گفت، مال را تند کرد و اسب را راند، من قدری با او همراهی کردم، ولی او رفت و من تنها ماندم.
دزدها رسیدند. فورا مرا نشانه نیزه و مگوار و خنجر کردند. بر زمین افتادم و از هوش رفتم. بعد از مدّتی که به هوش آمدم، شنیدم در باب تقسیم پول ها نزاع می کردند.
چون از من حرکتی دیدند و دانستند زنده ام، یکی فریاد نمود: اذ بحوه.
یک مرتبه متوجّه من شدند، خنجر را بر گلوی خود دیدم و مرگ را بالمعاینه مشاهده کردم. در همان حال یأس و انقطاع، به ولیّ کارخانه الهی، ناموس عصر (عجّل الله فرجه) توجّه قلبی جستم؛ فقط به تلگراف روحانی نه به اشاره جسمانی یا به تکلّم لسانی. فورا و کمتر از طرفه العینی دیدم نور است که از زمین به آسمان بالا می رود و دور آن قطعه زمین، هم چنان کوه طور، یک قطعه تجلّی حضرت نور الأنوار گردیده و صدای دلربای آن معشوق ما سوی بلند است که می فرماید: برخیز! با آن که سر و پیکرم مجروح بود، مشرف به موت بودم و خون از جراحاتم جاری بود؛ مع ذلک از برکت فرمایش آن جان جهانیان و زندگی بخش ارواح ایمانیان، حیات تازه در جسم و جانم دمیده شد و از مصرع مرگ برخاستم.
فرمود: این قبر جدّ بزرگوارم است، روانه شو!
نظر کردم، دیدم چراغ های گلدسته ها و قبّه طاهره پیداست. هیچ اثری از اعراب و اسباب نیافته، بلکه همه را فراموش کردم و با کمال خوبی پیاده می رفتم تا آن که خود را در کوچه باغ های کربلا دیدم و هوا روشن شده بود. گفتم: نماز را به شهر نمی رسانم، همین جا تیمّم کرده، نماز می گزارم. چون نشستم و تیمّم کردم، احساس ضعف و الم جراحات نمودم، دو رکعت نماز را به هزار زحمت نشسته خواندم و همان جا از هوش رفتم، چشم باز نکردم، مگر در خانه مرحوم آقا شیخ حسین نجل حجّه الاسلام مازندرانی قدّس سرّه؛ معلوم شد عربانه های سکّه از کاظمین و بغداد، عبورشان به من افتاده، مرا حمل نموده و به خانه شیخ آورده بودند.
شیخ وقتی مرا زنده دید، گفت: غم مخور! شهدای کربلا هفتاد و سه نفر شدند؛ یعنی تو یکی از ایشانی. چند ماه معالجه زخم ها نمودم تا به برکت نفس مبارک حضرت صاحب الزمان - روحی له الفدا - سلامتی و عافیت یافتم. و لله الحمد.
[تشرف در مسجد سهله] 19 مسکه:
در این باب است که عیال آقا سید عبد الله قزوینی آن حضرت را در مسجد سهله می بیند و می شناسد.
ایضا آقای آقا میرزا هادی - سلّمه الله تعالی - ما را از سید جلیل نبیل، سید عبد الله قزوینی حکایت نمود که در صبیحه پنج شنبه، یازدهم صفر الخیر سنه هزار و سی صد و چهل و چهار گفت: در سنه هزار و سی صد و بیست و هفت با اهل و عیال به عتبات مشرّف گشتیم.
روز سه شنبه به مسجد کوفه مشرّف شدیم. رفقا خواستند به نجف اشرف مشرّف شوند. من گفتم: خوب است شب چهارشنبه به جهت اعمال به مسجد سهله رویم و روز چهارشنبه به نجف مشرّف شویم، قبول کردند. به خادم گفتیم، رفت و شانزده الاغ به عدد رفقا اجاره کرد، گفتند: ما شبانه در این بیابان سیر نمی کنیم. بالاخره اجرت همه مال ها را داده، سه نفر زن همراه داشتیم. به سمت مسجد سهله روانه شدیم و الاغ های یدکی همراه ما بود.
نماز مغرب و عشا را به جماعت در مسجد ادا کردیم و مشغول دعا و گریه شدیم، یک مرتبه ملتفت شدیم ساعت از دو گذشته، خوف مفرط بر من عارض شد که چگونه با سه نفر زن، به تنهایی و با مکاری عرب غریب، در این شب تاریک به کوفه برگردیم و سالی بود که عطیّه نامی بر حکومت، یاغی شده، راهزنی می کرد. پس با نهایت اضطراب قلبا به ولیّ عصر - عجل الله فرجه - متوسّل گردیده، روی نیاز و دل پر سوز به سوی آن مهر عالم افروز نمودم، یک مرتبه به مقام مهدی (علیه السلام) که وسط مسجد است، چشم انداخته، آن مقام کریم را روشن تر از طور کلیم دیدیم و روانه شدیم، دیدیم سید بزرگواری، با کمال مهابت، وقار و نهایت جلال و بزرگی در محراب عبادت نشسته است.
پیش رفتیم، دست مبارک آن سرور را گرفته، بوسیدیم. خواستم بر پیشانی نهم؛ دست خود را کشید و نگذاشت. مشغول دعا و زیارت شدم. چون به نام همایون امام صاحب الزمان سلام می کردم، جواب می فرمود: و علیکم السّلام.
من از این مطلب برآشفتم که من به امام سلام می کنم، این آقا جواب می گوید، یعنی چه؟ و گویا در آن مقام شریف صد چراغ و قندیل آویز از روشنی و انوار است. سپس روی مبارک به ما فرمودند که به اطمینان دعا بخوانید. به اکبر کبابیان سفارش کردم شما را به مسجد کوفه برساند و برگردد، آن ها را شام بدهید. تا این را شنیدم، مأنوس شدم، التماس دعا کردم و سه حاجت خواستم: یکی آن که تنگدستیم رفع شود. دوّم، خاکم کربلا باشد. این دو را قبول فرمودند. سوّم، فرزند صالحی خواستم. قسم یاد فرمود که این امر به دست ما نیست.
سید می گوید: ساکت شدم و نگفتم شما از خدا بخواهید. چون در اوّل جوانی، زن پدری داشتم، دختر خوبی از او در خانه بود که به من نمی دادند و می خواستند به شخص مالداری بدهند. من در بالای سر امام ثامن (علیه السلام) دعا کردم این دختر را به من بدهند دیگر از خدا اولاد نمی خواهم. این قضیّه در خاطرم بود، لذا مانع از اعاده سؤال و اصرار گردید.
آن گاه عیالم پیش آمد و سه حاجت خواست: یکی، وسعت، دیگر آن که زیر دست من به خاک رود. سوّم، آن که مشهد مقدّس یا کربلای معلّا مدفن او باشد. همه را اجابت فرمود و چنین هم شد، در مشهد مقدّس فوت شد و خودم او را به خاک سپردم.
زن دیگری همراهمان بود، پیش آمد و سه مطلب، عرض حاجت کرد؛ یکی، شفای عروسش، فرمود: آن را جدّم موسی بن جعفر شفا عطا خواهد فرمود. دوّم، دولت برای فرزندش و سوّم، طول عمر برای خودش. همه را اجابت و قبول فرمود و چنان شد.
عروسش در کاظمین شفا یافت و خودش نود و پنج سال عمر کرد.
پرسیدم: فعلا چند سال است، فوت کرده؟
گفت: تقریبا پنج سال است، فوت کرده. معلوم شد بعد از قضیّه بیش از بیست سال باقی مانده و فعلا پسرش از متموّلین تجّار است و اسم برد که در خاطر حقیر ضبط نشده است.
سید گفت: بعد از دعا و زیارت چون پا را از مقام مهدی (علیه السلام) از عتبه بیرون نهادیم، عیالم گفت: دانستی این سید بزرگوار که بود؟ شناختی؟
گفتم: نه!
گفت: حضرت حجّت (علیه السلام) بود. از دهشت، رو برگرداندم، دیدم جز یک فانوس که آویزان است، از آن انوار به قدر صد چراغ، اثری نیست. تاریکی و ظلمت، عالم را فرا گرفته و از آن سید بزرگوار، علامتی نیست. دانستم آن روشنایی ها از اثر جبین منیر آن سرور بوده است.
کنار مسجد آمدیم، جوانی نزد من آمد و گفت: هر وقت فارغ شدید، ما شما را به مسجد کوفه می رسانیم.
گفتم: تو چه کسی؟
گفت: اکبر بهاری.
خیلی در وحشت افتادم و دلم تنگ شد. خیال کردم می گوید: بهایی. گفتم: چه می گویی؟ بهایی یعنی چه؟
گفت: من در همدان در محلّه کبابیان نشسته ام، از قریه بهار که یکی از قرای همدان است و حضرت مستطاب، عالم سالک و بدر مسالک، آقا میرزا محمد بهاری از آن قریه است.
سپس شناختم و مأنوس شدم، گفتم: آن سید بزرگوار را شناختی؟
گفت: نشناختم، لکن دیدم خیلی جلیل است. به من امر فرمود شما را به مسجد کوفه برسانم و از مهابت آن سرور، نتوانستم حرفی بزنم و فورا قبول کردم.
گفتم: آن سرور حضرت صاحب الامر (علیه السلام) بود و علایم آن را گفتم. آن جوان به وجد آمد.
وقتی خواستیم مراجعت کنیم، آن جوان و رفقای او که چهار نفر بودند، پیاده در رکاب ما به راه افتادند؛ با آن که قریب به دوازده الاغ، فارغ بود و کرایه همه را داده بودم و همراه داشتیم؛ اصلا هیچ کدام، قدمی سوار نشدند و از شوق امر امام (علیه السلام) پروانه وار دور رکاب ما می رفتند. چون به جامع کوفه رسیدیم، به امر امام (علیه السلام)، شام حاضر کرده، همه آن ها را شام دادیم.
[رؤیت نور حضرت در سرداب مقدس] 20 مسکه:
در این باب است که عمّه مکرّمه آقا سید علی صدر الدین آن حضرت را در سرداب مقدّس می بیند و می شناسد.
ایضا جناب آقا میرزا هادی در کتاب دعوه الاسلام از جناب آقا سید علی صدر الدین از علویّه عمّه مکرّمه خود حکایت نموده گفت: در سرداب مقدّس مشرّف بودم. چون مشغول نماز گردیدم، دیدم در صفّه ثالثه غیبت، شخصی به هیأت انسانی کامل، از نور نمودار گردید. لکن جسم و جسد او را نمی دیدم. گفت: خواستم نماز را بر هم زنم و خود را به حضرتش برسانم. ترسیدم آن سرور از شکستن نماز متألّم شود و خوف داشتم اگر نماز را تمام کنم، ایشان تشریف ببرند. لهذا نماز را مستعجلا تمام کردم، به مجرّد سلام دادن از نظرم غایب گردید و تکدّر خاطر، مرا فروگرفت.
این ناچیز گوید: مندرجات مسکه سیزدهم تا این جا با مندرجات یواقیت عبقریّه پنجم از بساط چهارم مناسب است.
[تشرف حاج سید علی بجستانی] 21 مسکه:
در این باب است که مرحوم آقای حاج سید علی بجستانی آن حضرت را در راه مکّه می بیند، نمی شناسد و دیدنش به معجزه ای متعقّب می شود.
آقای آقا میرزا هادی - سلّمه الله تعالی - فرمود: بعد از تشرّف حضرت آیت الله المجدّد، میرزای شیرازی - اعلی الله مقامه - به مکّه معظّمه، سال بعد، آقای حاج سید علی مرحوم مشرّف شدند و چون ایشان در تطهیر و وضوی در سفر بسیار محتاط بودند؛ خصوصا در راه و طریق مکّه صعب می گذشت و نماز پنج گانه را به وضوی صبح به جا می آوردند.
در یکی از منازل بر سر غدیری نشستند، آفتابه بزرگی پر از آب کردند، دیدند سوراخ شده، آبش می رود. همّی بر ایشان عارض شد. به دقّت نظر کردند، سوراخش را دیدند. همان جا نشسته، در همّ و حیرت فرورفتند، ناگاه از طرف دیگر غدیر، جوانی به زیّ و لباس اعراب به ایشان رو کرده و با نهایت مهربانی و شیرین زبانی فرمود: میر سید علی اشبیک؛ یعنی تو را چه می شود؟
لفظ میر، اسم عجمی بود که اعاجم عراق این اسم را غریب می دانند، چه رسد به اعراب و هیچ کس از اهل نجف، ایشان را به این اسم نمی دانستند، جز اشخاصی که از اقارب و غیرهم در ولایت بودند.
بالجمله به مجرّد تکلّم و درّافشانی آن جوان به ایشان مأنوس شده که اگر کس دیگری تکلّم می کرد، به جهت همّی که برای سوراخ شدن آفتابه و نداشتن ظرف به جهت تطهیر و وضو داشتند، حتما تندی می کردند. ظاهرا دو سه مرتبه آن جوان لطف فرموده، بالاخره از حال والد جستجو نمودند و ایشان جواب دادند. نیز در حقّ میرزا - اعلی الله مقامه - دعا کرده، فرمود: من از نام، مسکن و گزارشات ایشان سؤال نمودم؛ هم چنان که ایشان مرحمت فرموده، از والد حقیر، سؤال نموده بودند.
سپس از اسم، فرمودند: عبد الله، از مسکن، فرمودند: حرم الله، از عمل، فرمودند:
طاعه الله. هکذا چند مطلب مقفّی نمودند تا آن که فرمودند: چرا مهمومی؟
بیان حال را از احتیاط، قلّت آب و سوراخی آفتابه معروض داشتم.
آن جناب فرمودند: آفتابه سوراخ نیست.
عرض کردم: خودم با دقّت ملاحظه کردم و سوراخ را دیدم، الآن آبش می رود.
فرمودند: نه، دوباره ملاحظه کن! چون مشغول ملاحظه شده، مثل سابق از ندیدن آن سوراخ در آفتابه تعجّب کردم و اثری نیافتم، در آن حالت حیرت به خود آمدم که این چه بود و چه شد؟ آن گاه ملتفت شدم آن بزرگوار، امام (علیه السلام) بوده است. آفتابه را بر زمین زدم و سر و سینه زنان راه بیابان پیش گرفتم. چند نفر از رفقا و علما که همراهم بودند، حقیر را نصیحت کردند و برگرداندند.
سپس ایشان اسم آن علما را تعیین فرمودند و گفتند: بروید سؤال کنید که موجب قوّه یقین گردد، ولی حقیر اسمای مبارک ایشان را ضبط نکرده ام.
[تشرف مرحوم کرکری در سفر حج] 22 مسکه:
ایضا آقای آقا میرزا هادی بجستانی فرمودند: ملّا عبد الرسول کرکری - تغمّده الله بغفرانه - که از اخلّا و احبّای مخصوص حقیر بود و به رحمت ایزدی پیوست و نیز شیخ عبد الله کرکری که هرکدام مؤمن و خداترس و هریک از دیگری بهترند، نقل نمودند:
حاجی شیخ علی محمد کرکری، چند سفر پیاده به حج مشرّف شده، با یک انبان آرد بر دوش در یکی از اسفار، به اصرار بعضی احبّا به بعضی از حجّاج ترک و رفقا منضمّ و ملحق شده، از راه جبل مشرّف شدند.
در یکی از منازل، بنا شد سماور برنجی بزرگی را آتش کند. او برخاست، آتش بسیاری در سماور انداخت ولی فراموش کرد، آب بریزد، چون قدری گذشت یک مرتبه اجزای سماور از یکدیگر پاشید و منفصل شد.
غیرت ترکی و تقدّس حاج شیخ به جوش آمد که چرا سماور مردم، در چنین راهی که ابدا چیزی پیدا نمی شود، چنین شد؟ به حدّی حزنش شدید گردید که از خود بی خود شد، اجزای سماور را جمع نمود و از خیمه بیرون آمد، هرچه گفتند: کجا می روی؟ باز نشد. از اوّل قافله حاج تا آخر، قدم زده، به چند نفر عرب ها که سفیدگر بودند و مس سفید می کردند، رسید. به ایشان گفت: سماور را درست کنید.
گفتند: کار ما نیست و ما اسباب نداریم. مأیوس گشته، متحیّر ماند، ناگاه سیّدی عمّامه سبز پیدا شد و گفت: من درست می کنم و یک قران اجرت می گیرم. تو برو یک قران را بیاور! من سماور را نزد این عرب ها می گذارم. حاج شیخ، سماور را داده، به سمت خیمه که قریب یک فرسخ بود، روانه شد و مطلب را به رفقا اظهار داشت.
گفتند: یعنی چه؟ این جا چه کسی پیدا می شود که سماور را درست کند؟ بالاخره چون بازگشت، سماور را درست کرده آن جا یافت و از آن سیّد، نشانی نیافت و اعراب گفتند: ما سید را ندیدیم و از سماور شما هم خبر نداریم.
جناب آقا میرزا هادی فرمود: حاج شیخ از عبّاد و زهّاد عصر بود و در غیر لباس اهل علم، مشغول تحصیل بود. پیراهن عربی کرباس، کفش نعلین عربی بحرینی و یک قطعه عبای خرمایی رنگ بر سر می پیچید. غالبا هر شب جمعه از نجف اشرف پیاده به کربلا مشرّف می شد. روزها روزه می گرفت و یک وقت، نان جوی خشک و سرکه می خورد. صداقت تامّه و رفاقت کامله بین ما، به واسطه ملّا عبد الرسول بود. در مدرسه صحن مطهّر نجف اشرف مسکن داشت. در سفر آخر که پیاده به حجّ مشرّف شد، به رحمت ایزدی پیوست.
[تشرف چوپانی از خراسان] 23 مسکه:
در این باب است که مردی چوپان از اهالی خراسان آن حضرت را می بیند ولی ایشان را نمی شناسد و دیدنش به معجزه متعقّب می شود.
ایضا آقای آقا میرزا هادی از مرحوم عالم بارع جلیل نبیل، سید محمد ابراهیم قزوینی نقل نمودند که از اجلّه علما و ائمّه جماعت کربلا و نجل زکیّ حجه الاسلام، آقای آقا سید هاشم قزوینی که از اجلّ تلامیذ مولانا المجدّد، مرحوم میرزای شیرازی - قدس سره - بود و سید ابراهیم مذکور دو سه ماهی است به رحمت ایزدی پیوسته - اعلی الله مقامه و رفع الله درجته - که فرمود: در مشهد مقدّس شنیدم چوپانی در یکی از دهات، حضور مقدّس باهر النور آن سرور شرفیاب گشته است، به عزم ملاقات او از مشهد مقدّس بیرون رفته، در شش منزلی به او رسیدم. بر او وارد گشتم، غذا حاضر ساخت و رفت از گوسفندی شیر بیاورد که خیلی دور بود، با آن که گوسفندان بسیاری نزدیک بودند، سبب پرسیدم؟
گفت: این ها مال مردم هستند. بعد از احضار طعام پرسیدم: راست است که شما حضور آن سرور مشرّف شده اید؟
گفت: حال غذا تناول کنید. بعد از صرف غذا گفت: آیا کسی هست که کار بزرگی بکند و خدمت آن جناب مشرّف نشود؟ واقعه من آن است که در فلان سال که قحط و غلا رخ داده بود، من، زوجه و مادرم هرروز چهار قرص نان جیره داشتیم. یکی برای زنم، یکی برای مادرم و دو قرص برای خودم. یکی را صبح و یکی را ظهر می خوردم.
روزی دیدم مادرم گریه می کند. سبب پرسیدم؟
گفت: گربه نان مرا خورده است و زوجه ام از طبخ نان امتناع کرد. من یک نان از حقّ خودم را به مادرم دادم و گفتم؛ به یک نان اکتفا می کنم. در صحرا بیرون شدم، ظهر که گوسفندها خوابیدند، عزم غذا خوردن کردم، سواری حاضر شد، گفت: مهمان می خواهی؟ ناچار تعارف کردم. پیاده شد، با آن که گرسنه بودم، یک نان را نزد او گذاشتم، با شیر تناول نمود.
سپس گفت: کسی هست، مرا به مشهد راهنمایی کند، یک تومان به او بدهم. به خود گفتم؛ چه از این بهتر که هم به مشهد مشرّف شوم و هم وجهی نقد شود.
گفتم: من دلالت کنم، لکن گوسفندان را چه کنم؟
گفت: به خدا بسپار!
من، عن ظهر القلب گفتم: گوسفندان را به خدا سپردم و روانه شدم. چون او سوار و من پیاده و گرسنه بودم، عقب افتادم، عرض کردم: آهسته تر، من به شما نمی رسم.
فرمود: دست خود را بده، پنجه خود در پنجه من برآورد. قدری که گذشت، دروازه و حصار مشهد نمودار شد. فرمود: برو زیارت کن! مرا همین جا دریابی.
داخل شهر شدم، یکی از کسانی که گوسفندان او نزد من بود، به من برخورد. گفت:
کجا؟
گفتم: زیارت.
گفت: در این وقت تنگ یا گوسفندان ما را یا فروخته ای یا خورده ای؟ و الّا نمی آمدی.
گفتم: چنین نیست. گوسفندان را به خدا سپردم. اصرار کرد. گفتم: فرضا چنین است. الحال چه می کنید؟
بالاخره از ایشان رها شده، بعد از زیارت به خارج شهر رفتم. آن جناب را به همان حالت در محلّ خویش دیدم، رسیدیم، گوسفندها محفوظ بود، یک تومان هم مرحمت فرمودند و رفتند تا از نظر غایب شدند.
[تشرف یکی از حجاج شوشتری] 24 مسکه:
در این باب است که یکی از حجّاج شوشتری آن حضرت را در مکّه معظّمه می بیند ولی ایشان را نمی شناسد و دیدنش به معجزه ای متعقّب می شود.
عالم متّقی الحاج سید ابو القاسم شوشتری از احفاد مرحوم سید نعمه الله جزایری - قدس سره - از سید مرتاض مصفّی، العالم العامل سید محمد حسین شوشتری برای ما حکایت کرد - و راوی، آن جناب را توثیق و تجلیل می نمود - می فرمود: یکی از حجّاج شوشتری گفت: سالی که به شرف حجّ مشرّف شدم، در مکّه وبای عظیمی شدّت داشت، هرکه را به خسته خانه دولتی می بردند، چاره ای جز مردن نداشت و به سرعت از خستگی دنیا راحت می شد.
چون من مبتلا شدم و کسی را نداشتم، مرا به خسته خانه بردند. مشرف به موت افتاده بودم، قبل از رسیدن مأمورین محلّ، مردی در زیّ عساکر عثمانی بر من ظاهر شد و از حالات من مترقّب گشت، از من پرسید چه میل داری؟ آش ماش برایت نیکو است، رفت و طولی نکشید با کاسه آشی در دست برگشت و نزد من گذاشت.
خواستم یک قاشق بخورم، دیدم ابدا از گلویم فرونمی رود. دست در جیب نمود، نارنج یا مثل آن را بیرون آورد، شکست و روی آش فشرد. به سبب حموضتش قدری از آن حلقم فرورفت. بعد از آن به من رو نمود و فرمود: تو را باکی نباشد، برخیز و از این جا بیرون رو!
عرض کردم: اینک مأمورین را مشاهده می کنم که نزد در جمع می باشند و البتّه مرا از خروج منع می نمایند.
فرمود: برو، شاید تو را نبینند.
برخاستم، به اتّفاق او از آن محلّ بیرون شدیم و کسی ابدا متعرّض ما نگردید. چون بیرون شدیم، عرض کردم: شما کیستید که این همه به من احسان نمودید.
فرمود: چون به وطن برگشتی سوّم کسی که با تو مصافحه نماید، مرا می شناسد و از من گذشت.
این بود و همین طور در فکر بودم تا به شوشتر مراجعت نمودم. شبانه وارد شدم، در عرض راه، قبل از دخول، در دروازه مردی با من مصافحه کرد و من در خاطر آن شخص افتادم. بعد دیگری با من مصافحه نمود و من منتظر سوّمین نفر شدم. دروازه بان که مأمور گمرک است، پیش دوید و با من مصافحه کرد. ایستادم و متعجّبانه به سوی او نظر کردم. مرد دروازه بان به من فرمود: چرا متعجّبی؟ آن شخص بزرگوار که در مکّه به فریادت رسید، حضرت ولی عصر - ارواحنا له الفداء - بود. تعجّبم زیاد شد که گمرگ چی و این مقام شامخ!
آن مرد فرمود: حال برو، چند روز دیگر به تو خواهم گفت. بعد از چندی نزد او رفتم، فرمود: اما این که مرا گمرگ چی می یابی؛ من هرماه مواجبی محوّل بر یکی از تجّار دارم و تا به حال، ابدا یک شاهی از کسی قبول نکردم. و ثانیا؛ مأموریّت من در شب است، در این جا اگر خواب باشم فبها و اگر هم بیدار باشم کأنّه خوابم، هرکه هر چه بخواهد بیرون برد یا داخل کند، متعرّض او نشوم.
سپس من سؤال کردم از کجا می گویی آن شخص بزرگوار، حضرت بقیه الله (عجّل الله فرجه) می باشد؟
فرمود: این سرّ ابدا بر تو فاش نگردد و گرنه این که مرگ من نزدیک شده بود و همین قدر هم بر حالم مطّلع نمی شدید.
جناب آقا سید ابو القاسم فرمود: من از سید حسین پرسیدم: آن شخص حاج و آن مرد گمرک چی کسانی هستند؟
فرمود: ایشان را تعیین نخواهم کرد، شاید راضی نباشند.
[تشرف حاج عنایت الله] 25 مسکه:
در این باب است که حاج عنایت الله آن حضرت را در مکّه معظّمه می بیند، ولی نمی شناسد.
شیخ متعبّد ورع تقی، حاج عنایت الله برای ما حکایت کرد، گفت: سنه هزار و سی صد و سی و یک در طریق مراجعت از حجّ بودم. لیله جمعه از منا به مسجد الحرام آمدم. با دو نفر از اتقیا نزدیک مسجد میلاد حضرت امیر المؤمنین (علیه السلام) نشستیم و به ختم ﴿أَمَّنْ یُجِیبُ الْمُضْطَرَّ إِذا دَعاهُ وَ یَکْشِفُ السُّوءَ﴾، برای تعجیل فرج حضرت ولی عصر عجّل الله تعالی فرجه الشریف - مشغول شدیم.
از آن جایی که تقدیر را تدبیر، تغییر نمی دهد، هر سه ما را خواب ربود. قریب به دو هزار بار گفته بودیم، ناگاه از خواب بیدار شدم، دیدم بر یکی از دو رفیق که از مسجد بیرون رفته، کمال کدورت و کلال عارض شد. فورا رفتم و تجدید وضو نمودم. با نهایت تأسّف، وارد مسجد شدم و عجم جز ما دو نفر کسی نبود و از اعراب سنّیان دو سه نفر مشغول مناجات بودند. به موضعی آمدم و به تضرّع و زاری مشغول شدم.
هنگام سحر بود، ناگاه احساس کردم بزرگواری به شانه من دست گذاشت و فرمود:
حال بسیار خوبی است. وقت بسیار خوبی است، حال بسیار خوبی داری، در دعا اهتمام نما.
به مجرّد شنیدن این کلمات، بدنم مرتعش گردید و حالم دگرگون شد. چون نظر کردم، احدی را نیافتم و در مسجد، جز رفیقم که در جای خود بود، کسی عجم نبود.
یقین کردم حضرت ناموس دهر و ولیّ عصر (عجل الله تعالی فرجه الشریف) بود.
[تشرف حاج علی قاو] 26 مسکه:
در این باب است که جناب حاجی علی قاو آن حضرت را در مسجد کوفه می بیند و نمی شناسد. دیدنش به معجزه ای متعقّب می شود.
سید جلیل نبیل، آقا سید محمد علی، معروف به بهشتی برای ما حکایت نمود که عالم کامل فاضل، شیخ عبد الهادی، معروف به شابله در ناحیه مقدّسه سامرّا در محضر قدوه الفقهاء الراسخین و العلماء الزاهدین، حاج شیخ حسن علی طهرانی - اعلی الله مقامه - از مؤمن ثقه متّقی، حاج علی قاو - طاب ثراه - و سید راوی، توثیق و تعدیل نمود و گفت: من در نجف اشرف او را ملاقات می نمودم، او همیشه برای تشرّف به مسجد سهله در لیالی چهارشنبه مواظبت داشت.
شیخ عبد الهادی گفت: روزی از او پرسیدم: در این مدّت آیا حضور مبارک حضرت سیّدنا و مولانا صاحب الزمان (علیه السلام) رسیده ای؟
گفت: در سنّ جوانی با جمعی از مؤمنین اخیار که یازده نفر بودیم، بر این عمل قیام داشتیم و ابدا مانعی از امورات قهریّه، جلوگیر ما نبود. چنین رسم داشتیم که هرشب از بین ما رفقا، یکی باید به تهیّه اسباب چای و شام برای ما قیام نماید، تا آن که شبی به عهده یکی از رفقای ما افتاد که مرد سرّاجی بود، او هم تهیّه دیده، نان و آذوقه را در دکّان مهیّا کرده بود، از قضا آن را فراموش کرده، دکّان خود را بسته، مثل هفته های سابق، روانه مسجد سهله گردید و آن روز هوا خیلی منقلب و در شدّت سرما بود.
جمعیّت ما مثلا دو نفر دو نفر متفرّقا روانه شدند تا آن که در مسجد سهله اجتماع کردیم. به طریق معهود، نماز مغرب ادا کرده، روانه مسجد کوفه شدیم. چون در حجره نشستیم، گفتیم: شام را حاضر کنید.
دیدیم کسی جواب نمی دهد. گفتیم: امشب نوبت کیست؟ به یکدیگر نظر کردیم، دیدیم نوبت آن مرد سرّاج است. به او گفتیم: چه کردی مؤمن؟ امشب ما را گرسنه گذاشتی، چرا در نجف نگفتی که دیگری مهیّا کند؟
گفت: آگاه باشید! من همه چیز را مهیّا کردم و در دکّان آوردم. لکن بالمرّه، وقت حرکت فراموش کردم و الان به خاطر آوردم؛ چون به نجف رجوع کنیم، در دکّان نظر کنید تا آثار صدق مرا ببینید.
آن شب، شب سردی بود و کسی در در مسجد نبود. در حجره را بستیم، ولی از گرسنگی خوابمان نمی برد. با هم سخن می گفتیم، قدری چنین گذشت، ناگاه دیدیم کسی با کمال بلاغت، در حجره را می کوبد. خیال کردیم اثر هواست، دوباره در را کوبید.
چون خلق ما به جا نبود، یکی فریاد کرد: کیست؟
شخصی با لسان عربی جواب داد: در را بگشا!
یکی از رفقا با نهایت بدخویی و تندی برخاست، در را گشود و گفت: چه می خواهی؟ خیال کرد مرد غریبی است، آفتابه می خواهد یا کار دیگر دارد. ناگاه دیدیم مردی جلیل و سید بزرگواری است. سلام کرد. به همان یک سلام ما را زنده و غلام خود کرد. همگی ما مأنوس او شدیم.
فرمود: آیا مرا این جا، جا می دهید؟
گفتیم: بفرما! اختیار داری. تشریف آورد و نشست. ما همگی به جهت تعظیم و تشریف او برخاستیم، نشستیم و به بیانات روح افزای جان، زنده شدیم.
بعد از مدّتی فرمود: اگر خواسته باشید، اسباب چای در این خورجین حاضر است، یکی از رفقا برخاست، در یک لنگه خورجین، سماور بسیار اعلی با لوازم آن بیرون آورد. مشغول شدیم و به یکدیگر اشاره می کردیم تا می توانید چای بخورید که عوض شام است. در این بین، آن بزرگوار می فرمود: قال جدّی رسول الله (صلّی الله علیه و آله و سلّم) و احادیث صحیحه بیان می فرمود.
بعد از صرف چای فرمود: اگر شام خواسته باشید، قدری در این خورجین حاضر است. به یکدیگر نظر کردیم، تا آن که یکی از ما برخاست و از لنگه دیگر خورجین یک طاس کباب بیرون آورد، وسط مجلس گذاشت. چون در آن را برداشت، مملوّ از برنج طبخ شده و خورش بالای آن و از آن بخار متصاعد بود، کأنّه الان از آتش برداشته اند. مشغول شدیم تا این که همگی سیر شدیم و قدری هم باقی ماند.
فرمود: آن را به خادم مسجد بدهید. در جستجوی خادم برخاستیم، رفتیم و به او دادیم. سپس سید بزرگوار فرمود: شب گذشته، بخوابید. همگی بیاسودیم. سحر که شد، یک یک برخاسته، تجدید وضو نمودیم، در مقام حضرت آدم (علیه السلام) مجتمع شدیم، اوراد معتاده و نماز فریضه را ادا کردیم.
وقتی بنای حرکت به سمت نجف شد، گفتیم: خوب است در خدمت آن سید بزرگوار روانه شویم. هریک از دیگری پرسیدیم: آن سرور کجا رفت؟
همه گفتیم: جز اوّل شب، دیگر آن سرور را ملاقات نکردیم. در طلب او برآمده، تمام مسجد، متعلّقات آن و هرمحلّ محتملی را ملاحظه و مراجعه کردیم. ابدا اثر و نامی و نشانی از آن جناب نیافتیم. از خادم مسجد پرسیدیم: چنین مردی را ملاقات نکردی؟
گفت: اصلا چنین کسی را ندیدم و هنوز در مسجد بسته است و کسی بیرون نرفته است.
بالاخره از ملاقات مأیوس گشته و ملتفت شدیم که این عجایب چه بود؟ یکی گفت: این سید کجا رفت و چه شد، حال این که در مسجد هنوز بسته است؟ یکی گفت:
دیدی در آن هوای سرد و آن وقت شب چگونه از طعام بخار متصاعد بود؟ یکی گفت:
چه سخنان می فرمود: قال جدّی رسول الله. لذا همگی یقین کردیم غیر از حضرت ولیّ عصر - عجل الله تعالی فرجه - کسی نبوده و بر مفارقت و عدم معرفت در آن وقت افسوس خوردیم.
[تشرف میرزا مقیم قزوینی] 27 مسکه:
در این باب است که حاج میرزا مقیم قزوینی آن حضرت را در سرداب مقدّس می بیند ولی ایشان را نمی شناسد.
جناب آقا میرزا هادی - سلّمه الله تعالی - از عالم ربّانی و عارف صمدانی حاج میرزا مقیم قزوینی حکایت نمود و گفت: یک اربعین اقامت کوه طور سرداب مقدّس را اختیار کردم و در اوقات خلوت مشرّف می شدم. قریب به تمام یک روز به سبب بعضی عوارض، کدورت تامّه بر من عارض شده، با دل گرفته و قلب شکسته مشرّف شدم. مشغول نماز و اوراد مخصوصه شدم، یک مرتبه بین نوم و یقظه دیدم سرداب مطهّر مملوّ از بوی عطر و عنبر گردید.
چشم باز نمودم، دیدم از سرداب مسدّس که قبل از اصل سرداب مقدّس است؛ سید جلیلی با عمّامه سبز وارد سرداب مقدّس شد. خرامان خرامان، با هزار سکینه و وقار، نرم نرم قدم برمی داشت تا این که داخل صفّه ای گردید که در و پنجره چوبی داشت. من چنان بی خود شدم که بر حرکت دادن هیچ عضوی از اعضای خود قادر نبودم جز آن که چشمم باز بود و جمال آن منبع انوار را می دید. بعد از مدّتی که وارد صفّه مذکور شدند و نماز خواندند، با همان سکون و اطمینان و با کمال آهستگی روانه گردیدند و من به همان نحو، از خود بی خبر بودم.
چون از سرداب اصلی، داخل سرداب اوّلی شدند، به خود آمدم، برخاستم و گفتم:
البتّه هنوز بالا نرفته است. با کمال سرعت دویدم اما کسی را ندیدم، از پلّه ها بالا رفتم، ابدا اثری نبود. گفتم؛ یقین اشتباه کردم، هنوز در سرداب تشریف دارند. دویدم، همه جا، حتی مسجد زن ها را جستجو کردم، چیزی ندیدم. حتی به مجرّد غیاب آن مهر عالم تاب، آن بوی مشک و عنبر هم از مشامم محو گردید. پس با کمال گرفتگی و زاری نشستم و به نفس بی قابلیّت خود، بسیار عتاب و خطاب کردم و لکن با این بی لیاقتی چه سود!
[تشرف در حرم حضرت امیر المؤمنین (علیه السلام)] 28 مسکه:
ایضا در این باب است که حاج میرزا مقیم قزوینی آن حضرت را در حرم حضرت امیر المؤمنین (علیه السلام) می بیند ولی ایشان را نمی شناسد.
نیز حاج میرزا مقیم مذکور نقل کرد: نزدیک به اتمام اربعین دیگری در حرم محترم حضرت ابی الأئمّه الطّاهرین (علیهم السلام) در بالای سر مبارک، از سمت پیش رو به جانب قبر منوّر حضرت سید الشهدا ایستاده و مشغول زیارت بودم، دیدم سید بزرگوار جلیلی بالای سر مطهّر، رو به قبله و متّصل به ضریح مطهّر ایستاده، دست ها را به جانب آسمان بلند نموده، مشغول دعاست.
چنان آثار جلال و مهابت از آن بزرگوار ظاهر است که به وصف نیاید و نیز عصایی در دست دارد، تعجّب کردم! یعنی چه؟ این بزرگوار، جوان است، نباید مقتضی عصا باشد، دیگر آن که خدّام نمی گذارند کسی با خود عصا به حرم مطهّر بیاورد. در همین خیال بودم تا به سمت پایین پا برگشتم، ملتفت شدم این سید جلیل که بود که بالای سر منوّر ایستاده بود؟
خواستم برای ملاقات او برگردم، گفتم؛ مناسب نیست، زیارت را تمام نکرده بروم، قدری از ضریح مطهّر دور شدم، بین دو در ایستادم و چشم خود را به در پشت سر دوختم. گفتم؛ آن سید جلیل از هرکدام از این سه در که بخواهد بیرون برود، او را خواهم دید و از عقب او خواهم شتافت. زیارت را تمام کردم، اما ندیدم او بگذرد. به سمت بالاسر منوّر روانه شدم، نظر کردم ولی سید را ندیدم. از زیارت حضرت آدم و نوح دست کشیدم، به سمت رواق دویدم، به اطراف رواق و کفشداری ها رفتم، اثری از او نیافتم.
در اربعین دیگری قریب به اتمام، روزی در مدرسه معتمد در حجره خوابیده بودم.
در عالم رؤیا دیدم یکی از رفقا که شخص متدیّن و با ورعی بود، از در حجره وارد شد و به من خطاب نمود: فلانی، مطلب تو چیست و حاجت تو به درگاه حضرت بقیّه الله (عجّل الله فرجه) چه می باشد؟
گفتم: حاجت خود را به غیر آن حضرت، جای دیگر اظهار نمی کنم و چون مشرّف شوم از آن بزرگوار سؤال خواهم نمود.
گفت: شما که هفته قبل خدمتش مشرّف شدی، چرا حاجت خود را عرض نکردی؟
گفتم: چه کنم، سعادت مرا یاری نکرد و ایشان را نشناختم.
سپس از خواب بیدار شدم، لیله چهارشنبه پیش آمد. به مسجد سهله رفتم. بعد از مراجعت به نجف اشرف، باز روزی در حجره خوابیده بودم. دیدم برادرم که یکی از اوتاد و اهل صفا و باطن است، وارد حجره شد و گفت: مقیم! چه مطلب داری و از حضرت صاحب الامر چه درخواست می کنی؟ اظهار کن!
گفتم: برادر! چرا حاجت خود را خدمت ایشان عرض نکنم؟ چون به عزّ تشرّف نایل شوم، دست سؤال به دامن نوال او دراز خواهم کرد.
گفت: دو هفته قبل به حضور مبارک آن سرور مشرّف شدی، چرا حاجت خود عرض نکردی؟
گفتم: بخت برگشته من در خواب ماند و از معرفت آن سرور کامیاب نگشتم.
[تشرف سید حسن شوشتری] 29 مسکه:
در این باب است که آقای آقا سید حسن شوشتری در بین راه نجف به کربلا آن حضرت را می بیند ولی ایشان را نمی شناسد.
حاج میرزا جواد از سید جلیل نبیل، آقا سید حسن شوشتری که سابقا حکایتی از ایشان نقل شد برای ما حکایت نمود و گفت: از نجف اشرف به زیارت خامس آل عبا (علیه السلام) مشرّف شدم. در مراجعت به هیچ وجه زاد و راحله ای نداشتم. تقریبا دو فلس یا اقلّ از آن پیدا کردم، خرما خریده، خوردم و روانه شدم.
در اثنای طریق، تشنگی مرا از حال برد. برای وصول به شطّ به سمت یسار روانه شدم، قدری راه رفتم تا رسیدم، دیدم سفره ای بسته در بلندی گذاشته شده، گمان کردم کسی از زوّار آن جا باشد. آب خوردم، هرچه تفحّص کردم، کسی را نیافتم و اثر آمدن کسی را پیدا نکردم. فهمیدم برای من مهیّا شده، باز کردم، دو نان و یک مرغ بریان در آن بود. همه را خوردم و پیاده راه افتادم.
شب را در کاروان سرای میان راه بیتوته نمودم، علی الصباح پیاده راه افتادم. در نصف راه گرسنگی سخت مرا اذیّت کرد. ناگاه دیدم سواری به صورت یکی از اعراب بادیه، از عرض طریق، قطع مسافت می کند. وقتی به من رسید، فرمود: از پشت سر اسب سفره را باز کن و طعام بخور! سفره را باز نمودم، طعام خوردم تا سیر شدم.
سپس فرمود: آیا آب می خواهی؟
عرض کردم: منّت گذارید، بدهید!
دیدم اسب خود را تاخت، رفت و برگشت. ظرف آب خوش گواری به من عطا فرمود، بدون آن که از کسی بگیرد یا از جایی بردارد. تا این جا قضیّه را نقل کردند و از بقیّه اطّلاعی ندادند.
[تشرف در مسجد صعصعه] 30 مسکه:
در این باب است که سید حسّون بغدادی آن حضرت را در مسجد صعصعه می بیند ولی ایشان را نمی شناسد.
شیخ جلیل نبیل، حاج شیخ عبد الحسین بغدادی برای ما حکایت کرد که سید جلیل، افتخار الذاکرین، سید حمود بن سید حسّون بغدادی که از اخیار رفقای ایشان و در کمال تدیّن، عنیف النفس و ابیّ الطبع بود و با آن که به شعار صالحین که فقر است، مبتلا بوده، برای تشرّف خدمت حضرت ولیّ عصر - ارواحنا فداه - چهل شب جمعه به جهت نیل به این مقصود عزم زیارت حضرت سیّد الشهدا نموده، از بغداد به کربلا حرکت می کرد.
حیوانی به جهت این امر ابتیاع نموده و متکلّف مخارج آن گردیده بود که بسیار بود و یک قمری بیشتر نداشت، به زاد توکّل و توشه توسّل بیرون آمد. حق تعالی چنان محبّت آن بزرگوار را در قلوب انام انداخت که اهل محمودیّه ای که غالبا اهل سنّت و جماعت اند، در انتظار او برآمده، دیده به راه داشته و به مجرّد ورود، گرد او جمع شدند، ترحیب و تکریم نمودند و برای آن سید جلیل آب و طعام و برای حیوانش علوفه مهیّا کردند و کذلک اهل اسکندریّه که همگی سنّیان متعصّب می باشند، بالجمله چون یک اربعین آن بزرگوار به اکمال رسید، در آخر آن غفلت کرد که این لیله اربعین است یا لیله سی و نهم می باشد.
آن شب با زیارت مخصوصه حضرت ابی الأئمّه الطّاهرین امیر المؤمنین (علیه السلام):
مصادف گردید، به نجف اشرف مشرّف و شب چهارشنبه با جمعی از رفقا به مسجد سهله مشرّف گردید، تا آن که روز چهارشنبه را به سمت کربلا متوجّه گردد، اعمال مسجد سهله را به جا آورد و با جماعتی به مسجد صعصعه مشرّف شده، دو رکعت نماز ادا نمودند و به خواندن دعای مکتوبه بر لوح مشغول شدند. جماعت به سجده رفتند و سید دعای سجده را برای ایشان خواند.
سپس سید به سجده رفت و به رفقا گفت: شما دعای سجده را برای من بخوانید.
چون آن ها عوام بودند و خطّ سنگ درهم بود، نتوانستند درست بخوانند و شکسته بسته ادا نمودند. جناب سید قدری حدّت مزاج داشت، برآشفت، به رفقا درشتی کرد و بد گفت: این چه وضعی است؟
یک مرتبه شعشعه انوار کبریایی و لمعات جمال خدایی، در و دیوار مسجد را چون وادی مقدّس طور و ذی طوی پرنور و ضیا کرد. ندای روح افزای امام، چون ندای ربّ رحیم به موسای کلیم، گوشزد آن سید عظیم و رفقای او گردید و فرمود: «ولدی حمّود! أنا أتمّم لک الدّعاء» و به قرائت دعای سجده شروع فرمود، در و دیوار مسجد به قرائت موافقت نموده، تمام مؤمنین حاضرین، این انوار اسرار قرائت و اذکار را استماع نمودند، لکن شخص او را نمی دیدند.
سید بزرگوار خواست سر از سجده بردارد و به دامان آن مسجود ملایکه، دست توسّل برآورد، اما عقل او را منع کرد و امر امام بر وعده آن سرور به اتمام رساندن دعا را به خاطر آورد و به هزار آرزو و انتظار سر از سجده بلند کرد تا جمال دل آرای آن مصباح جلال، حضرت کبریایی - تعالی شأنه - را دید.
حضرت تمام مسجد را چون زجاجه، مشکات انوار گردانید لمعه لمعه، نور علم به کاخ آسمان برکشانیده، قدّ و قامت آن سرو گلشن امامت، قیامت را بر آن سید برپا نمود و به زبان گهربار، غمگساری دل زار آن سید سعادت کردار نموده، فرمود: «شکر الله سعیک؛» اشاره به این که این عمل عظیم و مداومت بر زیارت حضرت سید الشهدا (علیه السلام) از تو قبول باد که به فیض مقصود نایل گردیدی! این بفرمود و از نظر سید غایب گردید و آن نور ناپدید شد.
جماعت مؤمنین دوان دوان بر در و دیوار و اطراف و اکناف برآمدند. در هرجای صحرا نظر افکندند، ابدا اثری از او نیافتند. جماعتی هم در مسجد سهله بودند؛ «منهم الشّیخ الفقیه الأعظم، الشّیخ محمّد حسین الکاظمی»، مصنّف هدایه الأنام (رحمه الله) علیه از همان جا انوار مسجد صعصعه و معاینه آثار را مشاهده نمودند، همه بیرون دویدند، دیدند مؤمنین سراسیمه به عقب آثار آن ماه تابان می دوند.
لباس های سید مذکور را برای تبرّک پاره پاره کردند و به یغما بردند، مگر قبای برکی که بر جای ماند. بدین سبب، سید دیگر زیارت شب جمعه کربلا را ترک نکرد و بر آن مواظبت داشت تا چندی قبل که وفات نمود.
[رؤیت حضرت بر آب] 31 مسکه:
در این باب است که مرحوم حجّه الاسلام آقا نجفی اصفهانی آن حضرت را می بیند ولی نمی شناسد.
در کتاب مؤلّف خود، مرقوم فرموده: مرتبه اوّل در کشتی نشسته بودم. دیدم شخصی بر روی آب دریا می خرامد و لجج بحار را همچون زمین، سهل می پیماید. در اثنای مشاهده این امر عجیب، به خاطر گذراندم این بزرگوار، حضرت بقیّه الله (عجّل الله فرجه) است. به مجرّد خطور این معنی در دلم، آن بزرگوار ناپدید شد.
[تشرف فقیه اصفهانی] 32 مسکه:
ایضا آن جناب در همان کتاب فرموده: مرّه ثالثه، شبی بعد از ادای فریضه و نوافل از مسجد الحرام متوجّه منزل گردیدم، در بین راه که خالی از رفت و آمد بود؛ بزرگواری خود را به من نمود و فرمود: شیخ محمد تقی! أنت فقیه اصفهان.
از استماع این سخن روح افزا روحم تازه و فرحم بی اندازه گشت ولی در حیرت ماندم که در این شب تار، چه کسی این غریب از شهر و دیار را می شناسد که نام و حال مرا می داند و متعجّب بودم از کجا می داند؟ در دل خیال کردم شاید حضرت ولیّ عصر و ناموس دهر (عجّل الله فرجه) باشد، چون نظر کردم، احدی را ندیدم. بنابراین دانستم بیش از این، قابلیّت تشرّف خدمت آن سرور را نداشتم.
[تشرف روضه خوان تبریزی] 33 مسکه:
در این باب است که آقا شیخ علی اکبر روضه خوان تبریزی آن حضرت را می بیند ولی نمی شناسد.
جناب آقا میرزا هادی - أیّده الله تعالی - از شیخ جلیل فاضل نبیل، شیخ علی اکبر روضه خوان حکایت کرد که گفت: من دو مرتبه خدمت حضرت ولیّ عصر (عجل الله تعالی فرجه الشریف) مشرّف شدم.
مرتبه اوّل؛ شبی در مقام حضرت صادق (علیه السلام) در مسجد کوفه خسته شده بودم و از شدّت گریه، گویا پوستی به صورت کشیده بودم. به دیوار مسجد، سمت حرم مسلم (علیه السلام) تکیه داده بودم.
در دل آن شب تار نظر افکندم، ناگاه چند قدم دورتر از مقام در فضای مسجد، شبح بزرگواری ظاهر شد که نور به زمین می افکند گویی چراغی زیر عبا دارد. هرچه نظرم را بالاتر بردم، به همین نحو نور می دیدم؛ گویا سرپوشی بر روی او گذارده اند و او را مستور کرده اند لکن روشنی آن نمایان است و هکذا تا نهایت قامت ایشان، کامل و تمام به این نحو نمایان بود، از مشاهده آن، محو تماشا شدم و ابدا خیالی در خاطرم خطور نمی کرد. نفهمیدم مشغول عبادت بود یا صرف قیام بود.
مدّتی بدین منوال بود تا آن که حرکت کردند و از مدّ نظر به طرف پشت سر رفتند.
تا برگشتم، کسی را ندیدم، برخاستم و به سمت صحن مسلم دویدم، اثری ندیدم.
بلافاصله به سمت حرم هانی دویدم، اثری ندیدم. باز به سمت مسجد مراجعت نمودم و فریاد از نهاد برکشیدم. از شدّت ناله و افسوس من، والده از حجره بیرون جست، مرا بغل گرفت و گفت: تو را چه شده است؟ حکایت حال را بیان نمودم.
ایضا فرمود: مرتبه دیگر در حرم مطهّر حضرت ثامن الحجج - علیه و علیهم افضل الصّلاه و السلام ما هبط ملک و عرج - در طرف پایین پا، متحیّرانه ایستاده بودم و انتظار محلّ فارغ و جایی می کشیدم. ناگاه دیدم بزرگواری، عمّامه سیاه بر سر، ردای عزّت در بر، در نهایت جلالت و بزرگی، یک سر و گردن از سایر مردم رشیدتر و افزون تر؛ از محلّ خود حرکت فرمود و خطاب مرحمت به من نمود که بیا این جا!
من از اشتیاق جا که مبادا دیگری سبقت بگیرد، به آن بزرگوار ملتفت نشدم با آن که از پهلوی من گذشت و شاید لباس آن سرور به این احقر برخورد کرده باشد. التفات نکردم که این قرب را غنیمت عظمی شمارم، گفتم؛ خود را به جا، برسانم قدم فرو گذاردم و سپس آن بزرگوار نظر کنم، نظر کردم ولی او را ندیدم.
آن وقت ملتفت شدم، به سرعت در عقب آن سرور دویدم. از این طرف به آن طرف، واله و حیران، به این و آن، تنه می زدم و می دویدم. اصلا و ابدا کسی را نیافتم که به آن سرور شباهت داشته باشد. آن شب را به تحیّر، سرگردانی و ناامیدی گذراندم و از همه اعمال بازماندم.
[تشرف عالم اصفهانی] 34 مسکه:
در این باب است که سید جلیلی از اهل اصفهان آن حضرت را می بیند ولی نمی شناسد.
ایضا جناب آقا میرزا هادی در کتاب دعوه الاسلام حکایت نموده: در سنین سابق، سید جلیلی از اهل اصفهان به زیارت عتبات عالیات مشرّف شد. در کربلای معلّا قصّه ای غریب و حکایتی عجیب نقل نمود که مختصرا نقل می کنم. آن سید بعد از وقوع قضیّه، حکایت آن برای ما و ظهور امارات صدق، شهادت ما را در ورقه خود، به خطّ و ختم این حقیر و از جناب آقا سید عبد الحسین کلیددار گرفت.
به ما خبر داد که مدّتی به ضریح مقدّس حسینی - علی مشرّفه السّلام - متوسّل گردیده و تشرّف به حضور مبارک آن حضرت یا به حضور مبارک ولیّ عصر - ارواحنا له الفداء - را خواهش می نمود، تا آن که شب جمعه طاقتش طاق شد، پیش روی مبارک آمد، یک سر شالی را به گردن و یک سر به ضریح بسته و تا نزدیک صبح به گریه و زاری مشغول بود.
قریب به صبح که شد، مردم دوباره به حرم آمدند و سید که از اوّل شب عرض کرده بود باید امشب مراد مرا بدهید؛ چون دید وقت گذشت، ناامید شد؛ از جا برجست؛ عمّامه خود را از سر گرفت، بالای ضریح مقدّس پرانید و گفت: این سیادت هم مال شما، حال که مرا ناامید کردید، من هم رفتم. پشت به ضریح، از حرم بیرون آمد.
میان ایوان، سید بزرگواری به او رسید و فرمود: بیا به زیارت حضرت عبّاس برویم؛ به مجرّد استماع امر، مطاع شد، همه اوقات تلخی خود را فراموش کرد و به چشم و گوش مجذوب کلّی گردید. از کفشداری مقابل باب قاضی الحاجات، طرف قبله که در یمین خارج است، کفش پوشیدند، روانه شدند و مشغول صحبت گردیدند، آن بزرگوار فرمودند: چه مطلب داشتی؟
عرض کرد: خدمت حضرت سید الشهدا (علیه السلام) برسم.
فرمودند: در این وقت ممکن نیست.
عرض کرد: خدمت حضرت صاحب الامر برسم.
فرمودند: این ممکن است.
مطالبی عرض کرد و جواب شنید. نزدیک بازار داماد که قریب صحن است، فرمودند: سرت برهنه است؟!
عرض کرد: عمّامه ام را روی ضریح انداختم. در آن حین دکّان بزّازی طرف یمین بازار بود، به صاحب دکّان فرمود: چند ذرع عمّامه سبز به این سید بده! توپ پارچه سبز قنطازی آورد. عمّامه ای به من داد، بر سر بستم. سپس به زیارت حضرت ابی الفضل رفتیم. از در جلوی رو که یسار داخل است، به زیارت پیش رو مشرّف شدیم و نماز زیارت و بقیه اعمال را به جا آوردیم.
فرمود: دو مرتبه به حرم حضرت سید الشهدا (علیه السلام) مشرّف شویم. آمدیم، باز از همان کفشداری داخل شدیم. مشغول زیارت بودیم که صدای اذان بلند شد. سمت بالا سر آمدیم، فرمود: آقا سید ابو الحسن نماز می خواند. برو با او نماز بخوان!
من از گوشواره بالای سر آمدم، در صف اوّل یا دوّم - تردید از مؤلّف است - ایستادم. لکن خود آن سرور، جلوی صف در کنار گوشواره ایستادند و آقا سید ابو الحسن به ایشان نزدیک بود؛ گویا او امامت آقا سید ابو الحسن اصفهانی می کند، مشغول نماز صبح شدیم. در بین نماز آن جناب را می دیدم که نماز می گزارند. در دل خود خیال کردم؛ یعنی چه؟ چرا به من فرمود: با آقا سید ابو الحسن نماز بخوان ولی خودش فرادا نماز می خواند و جلوی آقا سید ابو الحسن ایستاده، در این فکر بودم و نماز می خواندم تا این که نماز تمام شد، گفتم؛ بروم تحقیق کنم، این سید بزرگوار کیست؟
نظر کردم ولی آن جناب را در جای خود ندیدم. سراسیمه به این طرف و آن طرف نظر انداختم، ایشان را ندیدم. دور ضریح مقدّس دویدم، کسی را ندیدم. گفتم؛ بروم به کفشداری بسپارم، آمدم پرسیدم، گفت: الان بیرون رفت.
گفتم: او را شناختی؟
گفت: نه! شخص غریبی بود.
دویدم، گفتم؛ نزد دکّان بزّازی بروم و از او بپرسم. به بازار آمدم، دیدم همه دکّان ها بسته و هوا هنوز تاریک است. از این دکّان به آن دکّان می رفتم، دیدم همه بسته اند و ابدا دکّانی باز نیست، همین طور رفتم تا باز به صحن حضرت عبّاس (علیه السلام) برگشتم. گفتم؛ شاید باز بوده و من از آن گذشتم، تا صحن سید الشهدا آمدم، ابدا اثری ندیدم. فهمیدم به شرف حضور باهر النور، روح عوالم امکان رسیدم و نفهمیدم.
بعد از دو سه روز خدمت، عمّامه سیاه سید را از روی ضریح پایین آوردند، از عمّامه سبز سید یک وصله گرفتم و با تربت مبارکه همیشه در تحت الحنک خود داشتم، چند روز است که مفقود شده.
[حکایت شیخ عرب] 35 مسکه:
در این باب است که شیخ عربی آن حضرت را می بیند و نمی شناسد و این دیدن به معجزه متعقّب می شود.
ایضا از والده فرزندش سید محمد مهدی - حفظه الله تعالی - برای ما حکایت کرد که در رواق بالاسر حضرت جوادین (علیهما السلام) مشغول نماز بودم. شیخ عربی برای چند نفر حکایاتی نقل می کرد، من جمله که آن را بعد از نماز مغرب خوب ضبط نمودم، این بود: در بدو حرب عمومی، با جماعتی از افراد عسکریّه در مرکبی سوار بودیم.
حکومت در عرض راه، بین بغداد و بصره، بر سر ما آمد و امر داد. مرکب بر لب شطّ ایستاد. تمام اهل مرکب را امر داد که بیرون آیند، از دو طرف، عساکر تفنگ به دوش، صف کشیده بودند و بنا شد یک یک از بین عساکر بیرون روند و تفتیش شوند. افراد همه لباس خود را کندند و خود را در آب انداختند تا نجات یابند.
من استخاره کردم خود را در آب افکنم، بد آمد. بنا گذاشتم وضو بگیرم و دو رکعت نماز حاجت به جا آورم. از شطّ آب برداشتم، وضو ساختم، عبا را روی تخته پهن کردم و مشغول نماز شدم. در قنوت، دعا خواندم؛ مضمون دعایم، طلب نجات و خلاصی بود.
جز من و یک نفر دیگر، کسی در مرکب باقی نماند.
ناگاه عربی عقالی، بر ما درآمد، دست مرا گرفت و گفت: با من بیا! مرا از بین صفّین عساکر بیرون آورد، آن مرد هم عقب ما بود، هیچ کس ما را ندید و ابدا متعرّض نگردید، تا آن که از دستگاه مأمورین و عسکرها دور شدیم. به من فرمود: کجا می خواهی بروی؟
من فکر کردم، کوت را در نظر آوردم که داماد ما آن جا بود و ظاهرا سید عبّاس نام داشت، گفتم: می خواهم بروم کوت.
با دست به طرفی اشاره کرد و فرمود: این کوت است، برو! من دست در جیب بردم، یک مجیدی بیشتر نداشتم. بیرون آورده، تقدیم داشتم. فرمود: نه! من توقّعی ندارم.
سپس فوری رفتیم و به کوت رسیدیم. کسی را دیدم، گفتم: داماد ما را خبر کن، نزد من آید. چون داماد ما آمد، گفت: واعجبا! در این آتش باران این جا چه می کنی؟
گفتم: مرا به بغداد بفرست. رفت و یک مال سواری و مکّاری آورد. سوار شدم تا به بغداد رسیدم. دکّان شعربافی داشتم. وارد دکّان شدم، دیدم نه متاعی دارم و نه می توانم دکّان را باز کنم. لهذا گوشه دکّان را نیم دری باز می کردم و خود را کنج آن پنهان می کردم. روزی زنی آمد، کاغذی آورد. گفت: این کاغذ را برای من بخوان.
گفتم: همان بیرون بنشین، من می خوانم، تو گوش کن. ترسیدم مطلب را اظهار کنم، در این اثنا ضعیفه وارد دکّان شد، دید خشک و خالی است. گفت: شیخ، چرا بیکاری؟
گفتم: مایه ندارم.
گفت: من بیست لیره به تو قرض الحسنه می دهم، مشغول کسب شو، هر وقت خواستم، ده روز قبل خبر می کنم، بعد از آن ردّ نما. سپس بیست لیره آورد، ابریشم خریدم، چهارقد و چیزهای دیگر، در خانه بافتم لکن کسی را نداشتم که ببرد و بفروشد و خودم در خانه پنهان بودم.
روزی مردی در خانه آمد و صدا بلند کرد: فلانی این جاست؟
زن ها جواب دادند: فلانی کجا، این جا کجا؟
فرمود: از من پنهان می کنید؟ من امام او هستم که دستش را گرفتم و از بین عساکر نجاتش دادم. این بیست لیره را بگیرد و قرض خود را بدهد، شخصی هم می فرستم که اجناس او را به فروش رساند.
در این اثنا خدّام حرم کاظمین (علیه السلام) آمدند و گفتند: شیخنا! این جا محلّ قصّه نیست.
پس به دعا مشغول گردید، سخن قطع نمود و گفت: این ها قصّه نیست، بلکه ذکر فضایل اهل بیت (علیهم السلام) است.
[ملاقات شیخ صالح قطیفی] 36 مسکه:
در این باب است که شیخ صالح قطیفی آن حضرت را می بیند ولی نمی شناسد.
عالم عامل تقی نقی، شیخ صالح قطیفی، صاحب کتاب اعمال السّنه ما را خبر داد، او این حکایت را در کتاب مذکور بعد از دعای افتتاح ذکر نموده که از طرایف قضایا، این که بعد آن قتالی که در روز یک شنبه، بیست و هفتم شهر رجب سنه هزار و سی صد و بیست و پنج، در شهر قدیح - به ضمّ قاف و فتح دال و سکون یا - که از بلاد قطیف و مسکن قواست، واقع شد؛ در حالی که محصور بودیم و من مشغول تألیف این کتاب بودم و اغتشاش حواس داشتم، شب جمعه، در مسجد قدیح بعد از ادای فریضه، مشغول صلات و تیره بودم.
ناگاه صدای شخصی را شنیدم که از حفظ، مشغول خواندن دعای افتتاح است، حال آن که از اهل آن بلده احدی آن دعا را حفظ نداشت و اهل قرائت آن دعا را از حفظ نبود؛ خصوصا در آن حال انحصار و تغیّر احوال و تتابع مضارّ. آن دعا را به لهجه عربی با کمال رقّت و حالی محزون می خواند که مناسب آن حال بود و زیاده با حسن قرائت دعا به آن، موجب تعجّب من گردید، در حین خواندن فقره «اللّهمّ إنّا نشکوا إلیک فقد نبیّنا» ملتفت شدم ببینم کیست که این دعا را به این حال حزن و رقّت می خواند؟
دیدم شخصی فقیر و مریض و بسیار صابر بر فقر و مرض است و در نهایت عامی و بلادت به نظر می رسید و این چنین عبادتی از او بسیار بعید بود! تعجّبم زیادتر شد و غبطه خوردم که همچو شخصی، چنین حالی در عبادت دارد و من همچو حالی ندارم.
مدّتی مشغول استماع دعا خواندن او بودم، نفس خود را ملامت می کردم، به او خطاب و از وی التماس دعا کردم، او هم از من التماس دعا کرد.
از مسجد بیرون آمدم و این قضیّه را فراموش کردم. پانزده روز از این قضیّه گذشت.
شب جمعه در همان مسجد، همان شخص را دیدم که اسمش مهدی بود؛ به همان حالت آن شب جمعه نشسته، از کثرت تعجّب از او سؤال کردم: شما این دعا را که هر شب ماه رمضان خوانده می شود، حفظ داری؟
گفت: نه.
گفتم؛ شاید اسم این دعا را نمی داند، بعضی از فقرات آن را که از آن شخص شنیده بودم، خواندم تا شاید به خاطر آورد.
گفت: نه. پس دانستم خواننده آن، حضرت ولیّ عصر (عجّل الله فرجه) یا یکی از اولیاء الله بوده است. و الله اعلم.
[ملاقات شیخ کاظم نهاوندی با حضرت] 37 مسکه:
در این باب است که شیخ کاظم دماوندی آن حضرت را می بیند و نمی شناسد و دیدنش به معجزه ای متعقّب می گردد.
عالم برّ تقیّ و صدّیق صفیّ وفی، جناب آقا شیخ محسن، مشهور به شیخ آقا بزرگ طهرانی - ایّده الله تعالی - در شهر ذی حجّه الحرام سنه هزار و سی صد و پنجاه و سه به ما خبر داد و گفت: صدّیق ما شیخ ثقه امین، شیخ کاظم نجل زکیّ حاج میرزا بابای دماوندی، بعد از مراجعتش از سفر زیارت عتبات عالیات - علی مشرّفیها آلاف التحیّه و الثّناء و الصّلوات - سنه هزار و سی صد و یازده ما را خبر داد و در آن سفر با حاج بابای بقّال و بعضی دیگر از کسبه محلّه ما مصاحب بود. من همه آن ها را می شناسم، همه آن ها امّی و بی سواد بودند و از این جهت او را همراه برده بودند که مسایل را به آن ها تعلیم نماید و ادعیه و زیارات را بر ایشان بخواند و قرار کرده بودند هریک در هر منزلی، قدری او را سوار نمایند و خوراک او با آن ها باشد و وفا نمودند.
او گفت: قرار بر این بود که من، اوّل شب بخوابم، قدری که از شب می گذشت، کمی قبل از حرکتشان مرا بیدار می کردند، قبل از آن ها راه می افتادم و به قدر یک فرسخ می رفتم، چون به من می رسیدند، هریک قدری مرا سوار می نمودند تا به کرند رسیدیم. آن ها مرا از آن منزل، منزل قبل و بعد از آن می ترسانیدند و سفارش می نمودند که زیاد جلو یا عقب نیفتم، زیرا کردها در آن منازل، زوّار را لخت می کردند و چون منحرف از دین و علی اللّهی بودند، از کشتن زوّار مضایقه نداشتند.
وقتی به کرند رسیدیم، شب را ماندیم، قدری که از شب گذشت، مرا بیدار کردند.
شب تاریکی بود. قبل از حرکت آن ها تنها به راه افتادم، طریق، ناهموار و سنگلاخ بود، من از راه رفتن روز، خسته و تعب ناک بودم و از جهت خستگی و کم خوابی، متمکّن از راه رفتن نبودم. با این حال راه افتادم تا این که آبادی از نظرم ناپدید شد، قدری که راه طیّ کردم، در کنار جادّه خوابیدم و گفتم؛ چون قافله و رفقا رسیدند، بیدار می شوم.
خوابیدم و جز به حرارت آفتاب نزدیک زوال بیدار نشدم.
وقتی بیدار شدم، در کار خود متحیّر ماندم و خوف شدید بر من مستولی شد، گفتم؛ چاره ای نیست مگر آن که خود را به رفقا برسانم. همین که شروع به رفتن کردم، راه را گم کردم و ندانستم دوباره به کرند برمی گردم یا به رفقا می رسم، خوفم زیادتر شد، گفتم؛ الان یکی از اکراد به قصد سلب و قتل من می رسد. با دل شکسته و ترس و گریه، به ائمّه اطهار - صلوات الله علیهم اجمعین - متوسّل شدم و لرزه بر اندامم افتاد.
ناگاه سواری دیدم که از وسط آن وادی پیدا شد. به هلاک خود یقین نمودم و مشغول توبه و استغفار و گفتن شهادتین شدم، تا آن که سوار نزدیک شد. دیدم مردی به شکل اعراب و بر اسب قرمزی سوار است. من از ترس، بر او سلام کردم. جواب سلامم را داد و به زبان فارسی از حال من سؤال نمود. قضیّه خود را برایش ذکر نمودم.
گفت: بر تو باکی نیست، با من بیا تو را به رفقایت می رسانم. چند قدمی که با او رفتم، از اسبش پیاده شد و گفت: تو سوار شو، من دست به آب می رسانم و به تو می رسم.
در کنار طریق نشست و مثل کسی که می خواهد ادرار کند، پشتش را به من آرد.
سوار بر اسب شدم و لجام آن بر قرپوس زین و دست من بر روی آن بود، چون قلبم آرام رفت و حواسم جمع شد، کأنّه قضیه و حال خود را فراموش نمودم، غفلت مرا گرفت و ملتفت حال خود نشدم، مگر آن که خود را سوار بر اسب در دالان کاروانسرای شاه عبّاسی دیدم، گفتم؛ لا اله الا الله، این بنده شایسته خدا مرا بر اسب خود سوار کرد، من شتاب کردم و او به من نرسید. اما تأمّل کردم که من نه لجام به دست گرفتم و نه به رکاب، اسب راندم، پس پیاده شدم تا از صاحب اسب و رفقای خود تفحّص نمایم و غفلت کردم که لجام اسب را بگیرم و نگاه دارم، داخل کاروانسرا شدم تا وسط آن رفتم و مشهدی حاج بابا را صدا کردم، جواب داد و گفت: کجا بودی، چرا عقب افتادی و طول دادی؟
گفتم: این سؤال و جواب را بگذار و بگو صاحب این اسب با شما و در بین شما بود یا نه؟
گفت: او که بوده؟
دانستم که با آن ها نبوده، برگشتم که اسب را بگیرم و نگاه دارم تا صاحبش برسد. اما آن را نیافتم و مفقود شد. جماعتی رسیدند، به آن ها گفتم: این اسب چه شد؟ الحال صاحبش می آید و آن را مطالبه می کند.
سپس به جستجوی اسب در کاروانسرا و خارج کاروانسرا مشغول شدیم، اثری از آن نیافتیم و الی الآن احدی نیامده آن اسب را مطالبه نماید.
[ملاقات خادم مسجد سهله] 38 مسکه:
در این باب است که جناب آقا شیخ حسین، خادم مسجد سهله آن حضرت را می بیند و نمی شناسد و دیدنش به معجزه ای متعقّب می شود.
ایضا جناب آقا شیخ آقا بزرگ - ایّده الله و سدّده - ما را خبر داد و قضیّه را به جهت حقیر نوشت، از عبد صالح ثقه، شیخ حسین، خادم مسجد سهله که از خصّیصین اصحاب مرحوم مغفور عالم جلیل نبیل، ملّا حسین قلی همدانی و متخلّق به اخلاق و متأدّب به آداب ایشان بود و مرحوم آقاخوند، صاحب کرامات باهرات و از اجلّای تلامیذ و اصحاب علّامه انصاری - قدّس الله تعالی روحهما - بودند.
تفصیل سفر اوّلش را به ارض اقدس به مصاحبت شیخنا الاعظم، شیخ محمد طاها - اعلی الله مقامه - نقل نمود، تا آن که گفت: چون به اطول منازل راه خراسان که آن منزل میامی می باشد، رسیدیم. سوار حیوانی شدم که از خودم بود. چیزی از راه را طیّ نکرده بودیم که آن حیوان از راه رفتن بازماند و کم کم از قافله عقب افتادم تا حدّی که اثری از قافله پیدا نبود. پیاده شدم و قدری با حیوان راه رفتم، حیوان به جهت ورمی که در دستش پیدا شده بود، نمی توانست راه برود و من هم از راه رفتن عاجز شدم.
چون خودم و حیوان از راه رفتن بازماندیم، بارم را فرود آوردم، فرشم را بر زمین فرش کردم و وسط صحرا نشستم، کأنّه در خانه ام نشسته ام. مدّت مدیدی در فکر بودم و به حضرت رضا (علیه السلام) خطاب و عرض ها می نمودم؛ مثلا عرض می کردم: من زایر توام، از قافله عقب افتادم، دست حیوانم هم شل شده و امثال این عرض ها.
ناگاه دیدم شخص عجمی رسید که بر مال قویّ سفیدی سوار است، گفتم؛ این زوّار است. رسید و سلام کرد. جواب سلامش را دادم. خیال کردم به واسطه امری از قافله عقب افتاده است. چون سلام کرد و جواب او را دادم، به زبان عجمی شروع کرد با من حرف زدن و من زبان عجم را می دانستم، مرا به اسم صدا کرد و گفت: ای شیخ حسین! تو این جا نشسته ای، کأنّه در خانه ات نشسته ای، آیا نمی دانی این چه جایی است؟
گفتم: بلی! و لکن قضیّه من چنین و چنان است.
گفت: برخیز! بار تو را روی حیوانت می گذارم و برویم. شاید خداوند ما را به قافله برساند.
گفتم: آیا نمی بینی دستش چه شده؟ نمی تواند راه برود. اصرار کرد.
گفتم: لا حول و لا قوّه الّا بالله. برخاستم، بارم را روی حیوان گذاشتم و او را به جبر می راندم، کم کم راه می رفت.
در بین راه که می رفتیم، گفت: شیخ حسین! بار من از بار تو سبک تر است، بار تو را روی حیوان خود و بار خود را روی حیوان تو می گذارم.
گفتم: میل، میل شماست. پس بار مرا گرفت، روی حیوان خود و بار خودش را روی حیوان من گذاشت.
به همین کیفیّت می رفتیم که گفت: شیخ حسین! نمی خواهی حیوان خود را سر به سر با حیوان من مبادله کنی؟
گفتم: ای برادر! تو عجمی و من عرب، گمان می کنی نمی فهمم به من استهزا و سخریّه می کنی؟! من می دانم که حیوان شما، ده برابر حیوان من می ارزد با این که من در این صحرا در معرض تلفم و چاره ای ندارم جز این که مال و بارم را بگذارم و بروم، تا خود را از تلف خلاص کنم و این حرف تو جز استهزا و سخریّه نیست.
گفت: از استهزا و سخریّه نمودن به خدا پناه می برم. تو چه کار داری، من می خواهم حیوانم را با حیوان تو معاوضه کنم. هرچه می گفتم: ای برادر! مرا مسخره مکن؛ الحاح می کرد تا این که اصرارش به حدّی رسید که من قبول کردم.
گفت: پس سوار شو! من بر حیوان او سوار شدم، دیدم او مثل مرغی، کأنّه می پرد و گفت: تو به قافله ملحق شو! من هم ان شاء الله تعالی ملحق می شوم. زمان قلیلی نگذشت الّا این که در نزدیکی منزل به قافله رسیدم و کأنّه از آن مرد غافل شدم. همین که به منزل رسیدم، پیاده شدم و به امر حیوان مشغول شدم. وقتی فارغ شدم، به جهت قهوه خوردن خدمت شیخ محمد طاها مشرّف شدم، چون داخل شدم و سلام کردم، فرمود: شیخ حسین! چرا امروز در راه با ما نبودی؟
چون بنای من این بود که هرروز یک ساعت یا بیشتر حیوانم را جلوی محمل شیخ راه می بردم و ایشان برای من حکایاتی نقل می فرمودند. عرض کردم: شیخنا! قضیّه من کذا و کذا بود.
فرمود: آن مرد کجاست؟
عرض کردم: می رسد، هنوز نرسیده است.
فرمودند: بلکه او قبل از تو رسید، آیا گمان می کنی این نحو معامله را در همچو مکانی کسی غیر از ائمّه معصومین (علیهم السلام) بنمایند؟ سپس حضرت شیخ، قصیده ای در مدح حضرت رضا (علیه السلام) انشا فرمود و این قضیّه را در آن درج کرد.
جناب شیخ آقا بزرگ فرمودند: شیخ حسین بعضی از اشعار آن قصیده را برایم خواند ولی من فراموش نمودم و گفت: دیگر آن شخص را ندیدم و تا مشهد مقدّس سوار بر آن حیوان شدم. سپس با آن حیوان تا طهران برگشتم، مریض شدم و آن را به قیمت گزافی فروختم و در معالجه مرض و مراجعتم صرف نمودم.
[تشرف مرحوم حاج سید عزیز الله تهرانی] 39 مسکه:
در این باب است که مرحوم حاج سید عزیز الله طهرانی آن حضرت را می بیند، نمی شناسد و دیدنش به معجزه ای متعقّب می شود.
سید جلیل نبیل، عالم ثقه، حاج سید حسن (رحمهم الله)، خاله زاده آقای آقایی این قضیّه - سلّمه الله نجل زکی - عالم زاهد عابد، سید عزیز الله پسر مرحوم حاج سید نصر الله طهرانی، معروف به دعانویس است و دعاهایی که به جهت حوایج و شفای امراض می نوشت، بسیار مجرّب بود؛ خصوصا به جهت مرض صداع. از والدش حاج سید عزیز الله برای ما حکایت کرد، فرمود: در ایّامی که در نجف اشرف مشرّف بودم به مجاهدات نفسیّه و ریاضات شرعیّه از روزه، نماز، ادعیه و غیر ذلک مشغول بودم.
سپس به جهت زیارت عید فطر به کربلای معلّا مشرّف شدم و در مدرسه صدر، در حجره بعضی از رفقا منزل نمودم، غالبا به حرم مطهّر مشرّف بودم و بعضی اوقات به جهت استراحت به حجره می آمدم. بعضی از رفقا و زوّار در آن حجره بودند و از حال من و اراده رجوع به نجف اشرف سؤال نمودند.
گفتم: من مراجعت ندارم، امسال اراده تشرّف پیاده به حجّ دارم، تحت قبّه مقدّسه از خدا خواسته ام و امید اجابت دارم. همه از روی سخریّه و استهزا گفتند: کثرت ریاضات به دماغ تو ضرر زده است، چگونه با ضعف مزاج تو، پیاده به حجّ رفتن بی زاد و راحله و مؤونه ای که اصلا نداری، ممکن است و بسیار استهزا نمودند، به حدّی که سینه ام تنگ شد و محزون و کئیب و متغیّر الحال از حجره خارج شدم به طوری که به چیزی شعور نداشتم، تا وارد حرم مطهّر شده، زیارت مختصری کردم و به سمت بالاسر مقدّس متوجّه شدم، در آن مکانی که همیشه می نشستم با حزن تمام، متوسّلا بالحضره المقدّسه الحسینیّه نشستم.
ناگاه دستی بر کتف من گذارده شد. چون به صاحب دست رو کردم، دیدم مردی کأنّه از اعراب است، لکن با من به فارسی تکلّم نمود و مرا به اسم من، نام برد و گفت: تو پیاده اراده حجّ داری؟
گفتم: بلی!
گفت: من هم اراده حجّ دارم، آیا با من مصاحبت می کنی؟
گفتم: بلی!
گفت: پس مقداری نان خشک که کفایت یک هفته را بنماید، مهیّا کن، مطهّره آب بگیر، احرامت را بردار، فلان روز در فلان ساعت همین جا بیا و زیارت وداع کن تا از این مکان به آن جایی بیرون رویم که اراده داری.
گفتم: سمعا و طاعه. از حرم مطهّر بیرون رفتم، مقدار کمی گندم گرفتم و به بعضی از زن های اقربای خود دادم که نان بپزد و رفقا همان روز به نجف اشرف مراجعت کردند.
چون روز موعود شد، نان و مطهّره را برداشتم، به حرم مطهّر مشرّف شدم و زیارت وداع نمودم. آن گاه آن مرد در همان وقت موعود آمد، از حرم مطهّر، صحن مقدّس و از بلد بیرون رفتیم. تقریبا به قدر یک ساعت رفتیم، نه او با من تکلّمی کرد، نه من با او تکلّمی کردم تا به غدیر آبی رسیدیم. خطّی کشید و گفت: این خط، قبله و این، آب است. این جا بمان، غذا بخور و نماز کن! همین که عصر شد، می آیم.
رفت تا از نظرم غایب شد. غذا خوردم، وضو گرفتم، نماز خواندم و آن جا بودم، عصر که شد، آمد و گفت: برخیز، برویم! برخاستم و مقدار ساعتی با او رفتم. سپس به آب دیگری رسیدیم. خطّی کشید و گفت: این خطّ قبله و این، آب است، شب را این جا می مانی، من صبح نزد تو می آیم و بعضی از اوراد را به من تعلیم نمود و برگشت.
شب را مستریحا آن جا ماندم. چون صبح شد و آفتاب طلوع کرد، آمد و گفت:
برخیز، برویم! به مقدار روز اوّل رفتیم. باز به آب دیگری رسیدیم. خطّ قبله را کشید و گفت: عصر می آیم. عصر که شد، مثل روز اوّل آمد و به همان نحو رفتیم.
هکذا هرصبح و عصر می آمد و به مقداری می رفتیم که از راه رفتن به جهت کمی آن احساس تعب نمی کردیم تا روز هفتم، صبح که شد، آن مرد آمد و گفت: این جا برای احرام غسل کن، مثل غسلی که من می کنم، احرامت را بپوش و تلبیه کن؛ مثل تلبیه من.
پس مثل او به جا آوردم.
آن گاه کمی رفتیم. ناگاه صدایی شنیدیم؛ مثل صدایی که بین کوه ها حاصل می شود.
از آن صدا سؤال کردم، گفت: از این کوه که بالا رفتی، بلده ای می بینی، داخل آن بلده شو! این را گفت و از من گذشت. تنها بالای کوه رفتم و بلده عظیمی را دیدم، از کوه فرود آمدم و داخل آن بلده شدم، از اهل آن بلده سؤال نمودم که این کدام ولایت است؟
گفتند: این مکّه معظّمه است.
آن وقت ملتفت حال خود و از غفلت خود متنبّه شدم و دانستم به جهت جهلم به حال آن مرد، خیر عظیمی از من فوت شد. پشیمان شدم در حالی که پشیمانی نفعی نداشت.
دهه دوّم و سوّم شوّال، تمام ذی القعده و ایّامی از ذی الحجّه آن جا بودم، تا این که حجّاج رسیدند و عموزاده من، حاج سید خلیل، پسر حاج سید اسد الله طهرانی در بین آن ها بود، او با جماعتی از حجّاج طهران از طریق شام آمده بود و تشرّف مرا نمی دانست. همین که مرا دید؛ با خود نگاه داشت، مصارف و خرج مرا داد و برای مراجعت من، کجاوه گرفت و بعد از حجّ از طریق جبل تا نجف اشرف و از نجف تا طهران مرا همراه خود آورد.
[تشرّف حاج سید احمد اصفهانی] 40 مسکه:
در این باب است که جناب حاج سید احمد اصفهانی آن حضرت را می بیند، نمی شناسد و این دیدن به کرامتی از آن سرور متعقّب می شود.
اشرف السّادات و منبع السّعادات السّید الجلیل النّبیل، حاج سید احمد اصفهانی، معروف به خوشنویس ما را خبر داد. او از مهاجرین به ناحیه مقدّسه سرّ من رای در زمان سیّدنا الاستاد الاعظم المجدّد (قدّس سرّه) بود و به مصاحبت شیخنا الأجل العالم العامل و الانسان الکامل، مولانا الحاج مولا فتح علی السّلطان آبادی به مکّه معظّمه مشرّف شد و گفت: چون وارد مکّه معظّمه شدیم، به جهت توجّه به منا از جمّالی که اسم او صالح بود و چند شتر اجاره کردیم. چون شترها را از خارج بلده آوردند، یک شتر او مفقود شده بود، حجّاج را سوار کرد و رفتند.
صالح جمّال گفت: بگذار حجّاج بروند، من شتری می فرستم که بدون تعطیلی و تأخیری تو را بیاورد. من تنها ماندم و در خانه ای که منزل کرده بودم، کسی نماند مگر یک پیرزن که به جهت حفظ خانه، او را در خانه گذاردند؛ من بدون چاره و علاجی تنها، محزون و غمگین ماندم. من در خانه مطوّف خود سید جلیل مبجّل، میرزا ابو الفضل شیرازی، در طبقه رابعه منزل داشتم و بر در خانه منتظر جمّال ایستاده بودم که شتر را بفرستد و به حجّاج ملحق شوم؛ تا این که آفتاب غروب کرد و شب تاریک شد، از آن عجوزه خواستم به خانه صالح جمّال برود و خبری بیاورد، گفتم: یک لیره عثمانی به تو می دهم.
قبول نکرد و گفت: اگر هزار لیره هم بدهی، خانه را نمی گذارم و بروم. چون حجّ من استیجاری بود، حال خزی و فضیحت دنیا و آخرت مرا گرفت؛ بالای بام رفتم، گریه شدیدی کردم، به روی خاک بر سجده افتادم و به حضرت صاحب الأمر (عجّل الله فرجه) التجا و استغاثه نمودم.
ناگاه مردی را به شکل جمّال ها دیدم که در خانه ایستاده و شتری با اوست. به عجوزه گفت: سید را خبر کن که صالح جمّال مرا فرستاده، او را به حجّاج برسانم. سپس به درجه رابعه بالا آمد، بار مرا گرفت و بر در خانه برد. من عقب او آمدم، مرا با حسن حال سوار کرد، زمام شتر را به دست من داد و گفت: اصلا نترس! این شتر تو را به حجّاج می رساند و از نظر غایب شد؛ سیر من کمتر از یک ساعت بود که حجّاج را دیدم.
صالح جمّال را حاضر و از او سؤال کردند، گفت: من متمکّن نشدم برای سید شتر بفرستم، این شتر از شترهای من نیست و مثل این شتر در شترهای حجاز یافت نمی شود؛ بلکه از شترهای یمن است. بین حجّاج، مطوّف و جمّال مشاجرتی افتاد و مطوّف به این حکم کرد که جمّال باید حبس و از او جزا گرفته شود. پس از فراغت از اعمال حجّ، جناب حاج ملّا فتح علی سلطان آبادی امر به سکوت و ترک این گفتگوها نمود.
چون به مکّه مراجعت نمودیم و از اعمال حجّ فارغ شدیم، حجّاجی اراده رجوع به اوطان خود نمودند. مطوّف به جمیع دلّال ها امر کرد جمیع جمّال ها را به محضر جمیع حجّاجی که باقی مانده اند، جمع نمایند و سؤال کنند کدام یک از آن ها به قضیّه این شتر علم دارد و کدام یک از آن ها به منزل من آمده است؟
هیچ یک جوابی ندادند و علمی به این مطلب نداشتند و آن شخص هیچ یک از آن ها نبوده است. آن شتر را شصت لیره عثمانی خریدند و به من تسلیم نمودند.
[تشرف دوباره حاج سید احمد] 41 مسکه:
ایضا در این باب است که حاج سید احمد مزبور آن حضرت را می بیند.
ایضا حاج سید احمد (رحمهم الله) ما را خبر داد و برای ما نوشت: من به مسجد سهله مشرّف بودم و روز جمعه در حجره نشسته بودم. ناگاه سید موقرّی معمّمی بر من داخل شد.
قبای فاخر و عبای قرمزی پوشیده بود، به آن چه در زاویه حجره شامل کمی کتب، بعضی ظروف و فرشی بود، نظری کرد و فرمود: برای حاجت دنیا تو را کفایت می کند و تو هرروز صبح به نیابت حضرت صاحب الزمان زیارت عاشورا می خوانی. به قدر کفایت، معیشت هرماهت را از من بگیر که اصلا به احدی محتاج نباشی.
قدری پول به من داد و گفت: این کفایت یک ماه تو را می نماید، رو به در مسجد رفت و من به زمین چسبیده بودم، زبانم بند آمده بود، هرچه خواستم تکلّم نمایم، نتوانستم و نتوانستم برخیزم تا سید خارج شد. همین که بیرون رفت، کأنّه قیودی از آهن بر من بود که باز شد و شرح صدری پیدا کردم. برخاستم و از مسجد خارج شدم، هرچه تفحّص کردم، اثری از آن آقا ندیدم.
[تشرف در عرفات] 42 مسکه:
در این باب است که سید خلیل آقا سید خلیل طهرانی آن جناب را در عرفات می بیند ولی نمی شناسد.
فاضل معاصر ربّانی، جناب شیخ محسن، معروف به آقا شیخ آقا بزرگ طهرانی، صاحب کتاب الذّریعه إلی کتب الشّیعه - که پنج جلد آن به طبع رسیده است - از خالوی خود، سید جلیل و فاضل نبیل، حاج سید خلیل طهرانی و مرحوم مبرور، شیخ اسماعیل محلّاتی که از اجلّه علمای معاصرین بود، از حاج سید خلیل، نوشتن کیفیّت این رؤیت را خواسته بود و چون از تلامیذ مرحوم آقاخوند ملّا محمد علی محلّاتی والد مرحوم شیخ اسماعیل بوده، برای ایشان نوشته و از خطّ او نقل نمودم و آن، این است:
سنه هزار و سی صد و دوازده برای چهارمین بار به مکّه معظّمه مشرّف شدم و به مصاحبت مرحوم ملّا محمد علی رستم آبادی که از ازهد علمای عصر خود در طهران بود، از راه شام مشرّف شدیم. آن سال در هلال ماه ذی حجّه، بین فریقین عامّه و خاصّه اختلاف شده بود. روز هفتم که عامّه، آن روز را هشتم گرفته بودند، عامّه حجّاج، از عامّه و خاصّه احرام بستند و به منا رفتند و جماعتی که از جمله آن ها مرحوم آقاخوند ملّا محمد علی بود و من هم با ایشان بودم، تخلّف نمودند، احرام بستیم و شب را در مکّه معظّمه بیتوته نمودیم. صبیحه روز هشتم که نزد عامّه روز نهم بود، به منا رفتیم، مکث نکردیم و متوجّه به عرفات شدیم و در عامّه حجّاج داخل شدیم. چون خیمه خود را نصب نمودیم و مستقرّ شدیم، من به جهت ملاقات سید حسین طهرانی، داماد حاج ملّا هادی اندرمانی از خیمه بیرون آمدم. تا نزدیک ظهر بین حجّاج می گشتم و تفحّص می نمودم، تعب بسیار کشیدم و خیمه او را نیافتم، به سر ایستگاه حجّاج رسیدم، عقب نهری که در یسار جبل بود، به خیمه ای رسیدم که بعد از آن خیمه ای نبود. آن خیمه از پشم سیاه و خطوط سفیدی در آن بود. در ساحت آن خیمه نشستم که قدری استراحت نمایم. شخصی از داخل خیمه مرا به اسم صدا زد و گفت: حاج سید خلیل!
نظر کردم، دیدم شخصی که مرا صدا زد، درون خیمه ایستاده است، گفتم: چه می گویی؟
گفت: بیا، داخل شو!
داخل شدم و سلام کردم. جواب سلامم را داد. دیدم وسط خیمه، روی زمین و رو به قبله ایستاده. خیمه با بساطی از پشم شتر و دو پوست فرش شده بود که پوست گوسفند نبود، یا پوست مرغز بود یا پوست شکار. در زاویه خیمه، عقب آن شخص، دو نفر نشسته و هردو ساکت بودند. آن شخص سؤال کرد: عقب که می گردی؟ سپس خودش گفت: در طلب حاج سید حسین، داماد مرحوم حاج ملّا هادی می گردی؟
گفتم: بلی!
گفت: حال او و زوجه اش خوب است و در آن مکان می باشد، با دستش به مکانی اشاره کرد و گفت: نزدیک فلان حمله دار خیمه زده اند و اسمش را برد که من فراموش نموده ام. سؤال کرد از کدام راه آمده ای؟ خودش گفت: از طریق شام و از طهران آمده ای.
گفتم: بلی! از هرچه در راه واقع شده بود به طریق استفهام سؤال می کرد و خودش جواب می گفت. از جمله اموری که بین راه برای من واقع شده بود، این بود که در وادی لیمو در حالی که محرم بودم، بین من و شخصی از اعراب، کلامی واقع شد و آن شخص با تازیانه اش چند مرتبه بر سر من زد و من چون محرم بودم، ساکت ماندم.
از این قضیّه خبر داد و گفت: هرچه بر بندگان واقع می شود، خوب است. دیدم وقت، نزدیک ظهر است. خواستم احتیاطا نیّت وقوف کنم، گفت: امروز روز هشتم و فردا روز نهم است، امروز نیّت وقوف نکن. از او قبول کردم.
بالجمله، بعد از آن برخاستم، از او التماس دعا نمودم، از آن خیمه بیرون آمدم، به خیمه خودمان آمدم و خوابیدم. فردا که روز نهم بود با جناب حاج ملّا محمد علی و دو نفر دیگر به دیدن حاج سید حسین رفتیم، در بین راه که از منزل او سؤال می نمودیم، ناگاه شخصی اسم آن حمله داری که دیروز آن شخص ذکر کرده بود و من فراموش نموده بودم؛ ذکر نمود.
حاج سید حسین را دیدیم، به مسجد رفتیم و چند رکعت نماز بجا آوردیم و در حین رجوع از مسجد آن خیمه را دیدیم. بعضی از رفقای ما گفتند: آن قدر حجّاج زیاد شده اند که تا این جا خیمه زده اند. بعضی دیگر از رفقا گفتند: این خیمه هیزم فروش هاست. من گفتم: این خیمه حجّاج است.
وقت قریب زوال شد، در نهر غسل کردیم و به منزلمان رفتیم. بعد از غروب آفتاب از عرفات به سوی مشعر بار کردیم. صبح که شد، از مشعر به سوی منا بار کردیم. وقت ذبح هدی، من و چند نفر دیگر هدیه مان را برداشتیم تا به آن مکان مخصوصی ببریم که در آن جا قربانی می کنند.
چون از بین خیمه ها خارج شدیم و در جادهّ افتادیم، شخصی را دیدیم که دیروز در آن خیمه بود و با من تکلّم کرد؛ نزد من آمد، اسم مرا برد و گفت: قربانیت را به آن مکان نبر! مکان دیگری را نشان داد و با دست به آن مکان اشاره نمود. من قبول کردم، سه نفر دیگر از رفقا نیز از من متابعت نمودند ولی بقیّه از او قبول نکردند. به دستش عصای کوچک یا غیر آن بود و تکلّم می نمود، آن چه از کلام او فهمیدم و یادم ماند این بود که می گفت: و قلیل من عبادی الشّکور.
وقتی از قربانی ها و سایر اعمال فارغ شدیم و به مکّه رفتیم، در مسجد الحرام مشغول طواف شدم، آن شخص را دیدم که مقابل حجر الاسود به فاصله دو ذراع یا کمتر ایستاده، دست ها را مقابل صورتش نگاه داشته و مشغول دعاست، در هرهفت شوط، او را به همان حال، مشغول دعا دیدم.
بعد از فراغت از طواف که خواستم، حجر الاسود را تقبیل نمایم، به سوی آن جهتی که او بود، رفتم. دیدم جماعت حجّاجی که در طواف اند، همین که به او می رسند، هیچ یک از پیش روی او نمی روند، او مثل کوهی ایستاده و مردم از پشت سر او می روند.
چون خواستم، حجر الاسود را تقبیل و مسّ نمایم، آن شخص دست مرا گرفت و به حجر الاسود رسانید، با کمال اطمینان، تقبیل و مسّ نمودم، دستم را بر کتف او گذاردم و گفتم: التمس منکم الدّعاء و أسئلکم الدّعاء، قبول نمود و برای من دعا کرد.
سپس برای نماز طواف متوجّه مقام ابراهیم شدم و چیزی به خادم مقام دادم، مقابل در مقام ایستادم و مشغول نماز طواف شدم، بین نماز، دیدم آن شخص مقابل حجر الاسود و چیزی بین من و او حایل نیست، نه خود مقام و نه ضریح، هیچ یک از این ها حایل نیست. در این مطلب به فکر افتادم و چون داخل تشهّد شدم، متفطّن گردیدم و به خود گفتم؛ هیهات! چگونه این جماعت بین من و او حایل نیستند؛ با این که حایل اند و چگونه در این مدّت مکث نمود؟ خواستم نماز را قطع کنم، به سوی من اشاره کرد که حرکت مکن!
نماز را تمام کردم، از مکان خود برخاستم، دویدم و به زمین خوردم، چون به آن مکانی که او در آن ایستاده بود، رسیدم، او را ندیدم و هرچه در اطراف بیت نظر کردم و تفحّص نمودم او را ندیدم. یقین کردم آن حضرت بقیّه الله (عجّل الله فرجه الشریف) بوده است. بعضی از حجّاج گفتند: تو را چه شده است؟
گفتم: همیانی را گم کرده ام، بر سر خود می زدم و بسیار گریه می کردم تا صدایم گرفت، چند روز به این حال بودم و هرکس از سبب این حال سؤال می کرد، می گفتم: در آب سرد رفته ام و سرما خورده ام.
[تشرف حجاج ایرانی با ایشان] 43 مسکه:
در این باب است که دو سید از حجّاج ایرانی آن حضرت را در بیابان نجد می بینند ولی ایشان را نمی شناسند.
سید سند و ثقه معتمد، جناب حاج سید محمد شیرازی ابا و بروجردی امّا ما را خبر داد و فرمود: سنه هزار و سی صد و نوزده به حجّ مشرّف شدیم و دو سیّد، از اهل خراسان با ما بودند که سوار کجاوه شده بودند و حکّامی داشتند که مواظب کجاوه آن ها بود.
از مناسک حجّ فارغ و به زیارت مدینه منوّره مشرّف شدیم و از مدینه طیّبه به طرف نجد مشرّف شدیم تا به وادی بین مدینه طیّبه و جبل رسیدیم که آب و علف در آن نبود، زمین را دو سه ذرع می کندیم، آب جمع می شد و حجّاج هم، چنین می کردند.
چون در آن وادی صبح کردیم، معلوم شد آن دو سید در میان ما نیستند و هنوز به آن وادی نرسیده اند.
پس جماعتی از اخصّای رفقای ما در مقام تفحّص از آن ها در بین خیمه ها برآمدند.
عمده و عمید آن ها سید جلیل نبیل، زاهد عابد، حاج سید علی، بزرگ سادات، ملقّب به اخوی بود؛ هیچ اثری از آن ها نیافتند، از آن منزل بار نکردند و بر ماندن اصرار کردند تا حال آن دو سید معلوم شود و به امیر حاجّ شکایت نمودند. امیر حاجّ جماعتی از سوارهای خود را به اطراف بیابان فرستاد که از آن ها تفحّص نمایند و بعضی را به منزل دیروز فرستاد.
نزدیک شب مأیوس برگشتند و دو روز در آن وادی ماندند. روز سوّم وقت ضحی، ناگاه آن دو سید را دیدیم که در کجاوه هستند و با حکّامشان صحیح و سالم وارد شدند و از آن ها استقبال کردیم. آن ها در خیمه جناب عالم جلیل، حاج سید عبد الحسین اصفهانی فرود آمدند که مشهور به مدرّس و ملقّب به سیّد العراقین بود و در بین قافله منزلتی داشت و خیمه ایشان از همه خیمه ها بزرگتر بود، حجّاج در آن خیمه و خارج خیمه - و من هم در آن ها بودم - جمع شدند و از حال آن ها و سبب تأخیرشان سؤال می نمودند.
گفتند: حکّام ما بعد از آن که بارهای ما را بار کرد و با قافله فرستاد، مشغول حمل کجاوه ما شد و به جهت ضعف و سستی او در کار، ما آخرین کسی بودیم که از آن منزل راه افتادیم و عقب سوادی می رفتیم که گمان می کردیم سواد قافله است. مقداری که رفتیم، معلوم شد راه را گم کرده ایم و آن سوادی که گمان می کردیم، سواد قافله است؛ سواد خار مغیلان بوده است، پس همان حین فرود آمدیم و شب را آن جا ماندیم.
چون صبح واضح شد، نماز صبح را به جا آوردیم و به هوای بادی راه افتادیم که گمان می کردیم هوایی است که از طرف جبل می آید تا این که روز نصف شد، هوا گرم گردید و شتر از راه رفتن بازماند، آن چه آب در مشک هایمان بود، تمام شد و طاقت ما هم تمام گردید و چاره ای جز فرود آمدن نداشتیم؛ هیچ اسبابی که موجب امیدواری به زندگی باشد، ندیدیم و چاره ای جز تسلیم برای مرگ نداشتیم، از زندگی مأیوس و بر مرگ عازم شدیم و به تضرّع با تمام خلوص مشغول گردیدیم که لازمه شخصی است که تن به مرگ داده است و بعد جمیع اسباب ظاهره معتاده حیات به حضرت صاحب الزّمان (عجّل الله فرجه) متوسّل شدیم.
ناگاه دیدیم شخصی سوار بر شتر ذلولی نزدیک ماست و از سبب آمدن ما به آن جا استخبار نمود. پس عرض حال و بسط مقال برای او نمودیم.
گفت: باکی بر شما نباشد، عن قریب به قافله می رسید و به آن ها ملحق می شوید.
حکّام شما کجاست تا من راه را به او نشان دهم؟ به ما تلطّف نمود و گفت: شکّی نیست که شما گرسنه هستید و از خورجین خود طعامی درآورد که شبیه به چیزی بود که ما آن را کوفته می گوییم، کأنّه همان آن، از روی آتش برداشته اند. غذا خوردیم و سیر شدیم، به ما آب داد و به حمل کجاوه و راه افتادن امر کرد.
گفتیم: شتر از رفتن عاجز است و اگر کجاوه را بر آن حمل کنیم، راه نمی رود.
اشاره به رفتن به طرفی کرد که در آن، زمین بلندی می دیدیم و گفت: چون به آن بلندی رسیدید، نهر آبی می بینید، فرود آیید و شتر را آب دهید، نماز ظهر و عصر را به جا آورید، کنار نهر را بگیرید و بروید، تا آن که یک بلندی می بینید؛ آن جا جماعتی هستند که شیخ آن ها از شما استقبال می کند و شما را در منزل خود، فرود می آورد، شب را تا طلوع آفتاب استراحت می کنید، او شما را به قافله می رساند.
چون به امتثال آن چه ما را به آن امر کرده بود، مشغول شدیم؛ دیدیم شتر به تمام قوّت برخاست، از آن شخص غفلت کردیم و چون ملتفت شدیم با وجود صافی هوا و معتدل بودن صحرا احدی را ندیدیم.
سپس به راه افتادیم تا آن نهر پیدا شد. کنار آن فرود آمدیم، تطهیر نمودیم، وضو گرفتیم و نماز کردیم، شتر هم آب خورد و از کنار نهر رفتیم تا به آن بلندی رسیدیم.
سیاهی جماعتی ظاهر شد و یکی از آن ها از ما استقبال کرد، ترحیب و اکرام نمود و ما را فرود آورد، شب را در منزل او استراحت نمودیم. چون فجر طالع شد، برخاستیم و نماز صبح را به جا آوردیم. بعد از صرف لقمه الصّباح، برای رفتن راه افتادیم و شیخ، دلیل ما بود تا ما را به این جا رساند.
تمام مردم از این معجزه ظاهره از حضرت صاحب الزمان - علیه و علی آبائه الطّاهرین، افضل الصلاه و السّلام - تعجّب نمودند و اعراب عارف به آن بیابان گفتند:
در این ایّام و در این بریّه تا مسافت چند روز، نه جماعتی هست و نه آبی چه رسد به مسافت چند ساعت! این جز امر غریبی از جانب حضرت صاحب الزمان (علیه السلام) نیست.
[ملاقات با طلعت رشیده] 44 مسکه:
در این باب است که جناب آقا شیخ محمد تقی قزوینی آن حضرت را می بیند و آن سرور را به معرّفی حضرت امیر (علیه السلام) می شناسد.
فاضل معاصر، جناب شیخ اسماعیل محلّاتی (رحمه الله) ما را خبر داد و از شیخ جلیل و ثقه نبیل، میرزا عبد الجواد محلّاتی برای ما نوشت که او از اتقیای مجاورین نجف اشرف بود و شیخ محمد تقی قزوینی که در مدرسه صدر منزل داشت، در مراتب علم، عمل، تقوا و زهد، عدیم النّظیر بود و دایما می گفت: مطلبی که من از خدا می خواهم و در روضه مقدّسه و اوقات دعا، دعا می کنم، این است که تشرّف به خدمت حجّت عصر، حضرت صاحب الزمان (عجّل الله فرجه) و تقبیل اقدام آن حضرت را روزی من کند و در کمال عجز و انکسار می گفت: اللّهم أرنی الطلعه الرشیده و الغرّه الحمیده.
پس به مرض سل مبتلا شد و با این که به فقر و فاقه مبتلا بود، در نهایت عفاف بود و ستر حال خود می نمود و مدّت هجده سال موفّق به اشتغال علم و به نعمت مجاورت، متنعّم بود، مرض او طول کشید، او به سعال مبتلا بود و هروقت سرفه می کرد از سینه اش خون می آمد تا آن که از حجره اش به مخزن مدرسه منتقل شد که اطراف حجره به خلط و خونی که از سینه اش دفع می شود، ملوّث نشود.
مدّتی در آن مخزن بود و خون از سینه اش دفع می شد تا این که از او مأیوس شدند و کسی گمان نمی کرد از این مرض، عافیت یابد. چند روزی گذشت. او را در کمال صحّت و عافیت یافتند. همگی از عافیت یافتن او از آن مرض شدید، با آن قذف دمی که مبتلا بود، تعجّب نمودند، که چگونه دفعتا عافیت یافت و گفتند: این جز به سبب غیبی نبوده است. پس از سبب شفایش از او سؤال نمودند.
گفت: شبی از شب ها حال من منتهی شد به حدّی که حسّ و حرکت و شعور برایم نماند و اوایل فجر بود. ناگاه دیدم سقف مخزن شکافته شد؛ شخصی که با او کرسی ای بود، فرود آمد و کرسی را مقابل من گذارد. بعد از آن شخص دیگری فرود آمد و بر آن کرسی نشست، کأنّه به من گفتند: این شخص امیر المؤمنین (علیه السلام) است. حضرت به من توجّه فرمود و از حال من تفقّه نمود.
عرض کردم: ای سید و مولای من! مطلب مهمّ من، شفای از این مرض و رفع فقر من است.
فرمود: اما مرض، تو شفا یافتی.
عرض کردم: آرزوی طویلی دارم، به حضرت مقدّس دعا می کنم و از خدا می طلبم که مستجاب شود.
فرمود: فردا قبل از طلوع آفتاب بر بالای بلندی وادی السلام می روی و می نشینی، در حالی که به جادّه و راه کربلا متوجّه باشی؛ فرزند من صاحب العصر و الزّمان از کربلا می آید و دو نفر اصحاب او همراهش هستند، به او سلام کن و هرجا می روند، همراه او باش.
آن گاه حواسّ من به من برگشت، به هوش آمدم و احدی را ندیدم و به خود گفتم؛ این مطلب از خیالات مالیخولیایی بوده؛ مدّت زمانی گذشت؛ سرفه نکردم و دیدم به احسن وجه عافیت یافته ام. تعجّب کردم و تصدیق نمی کردم که عافیت یافته باشم، تا این که شب شد و اصلا سعالی عارض نگردید و اثری نماند. گفتم؛ اگر آن چه وعده فرموده اند که فردا واقع می شود؛ واقع شد و به زیارت مولایم صاحب الزّمان - عجّل الله تعالی فرجه - مشرّف شدم، پس بدون شکّی و ریبی به سعادت خود فایض شده ام.
چون صبح شد، علی الطّلیعه، وقت طلوع آفتاب به محلّی که امر فرموده بود، رفتم و در آن جا نشستم و به جادّه کربلا توجّه داشتم. ناگاه سه نفر را دیدم، یکی از آن ها مقدّم و با کمال وقار و سکون بود و دو نفر عقب او بودند؛ کأنّه دو مجسّمه متحیّر کند. لباس آن دو نفر از پشم و در پای آن ها گیوه بود.
هیبت و سطوت و شوکت آن بزرگوار مرا گرفت. به حیثیّتی که چون نزد من رسید، به جز بر سلامی اصلا قادر نبودم، سلام کردم و جواب دادند. از پای آن بلندی بالا آمدند و از پشت دیوار شهر از جادّه ای که به طرف ثلمه است و به سوی محلّی که به مقام مهدی (علیه السلام) معروف است، رفتند. آن حضرت بر صفّه ای که در آن مقام است، نشستند و آن دو نفر بر طرف در صفّه ایستادند، من هم نزدیک آن ها ایستادم، آن دو نفر ساکت بودند و اصلا تکلّمی نمی کردند.
روز بلند شد و آفتاب بالا رفت، صبر من تمام شد، گفتم؛ داخل صفّه می شوم و به بوسیدن پای مبارک مولای خود مشرّف می شوم. چون در فضای حجره ای که صفّه در آن است پا گذاردم، احدی را ندیدم. دنیا در نظرم تاریک شد و تا شب در کنار دریای قدیم نجف، خود را در خاک و گل می مالیدم و فریاد می زدم و عزم کردم خود را از نهایت غصّه ای که داشتم، هلاک کنم.
اما تأمّل کردم که دعای من اللّهمّ أرنی الطّلعه الرشیده و الغرّه الحمیده بود که مستجاب شد، پس وجهی ندارد که خود را تلف کنم. لذا به محلّ خودم برگشتم و تا به حال، این قصّه را به کسی نگفته ام.
[تشرف یک از طلّاب علوم دینی] 45 مسکه:
در این باب است که یکی از طلّاب علوم دینی آن حضرت را می بیند، ولی نمی شناسد.
آقای آقا میرزا هادی بجستانی - سلّمه الله تعالی - از بعضی از ثقات طلّاب ما را خبر داد و فرمود: اسم او را فراموش کرده ام که برای حقیر نوشت: سنه هزار و سی صد و چهار هجرت، با والده ام به زیارت عتبات عالیات مشرّف شدم. از منزل معروف به قصر شیرین، به خانقین می رفتم، راه را گم کردم، از تلّی به تلّی می دویدم و نمی دانستم چقدر از راه را طیّ کرده ام.
خستگی بر من غالب شد، از رفتن عاجز شدم و زانوهایم مساعدت نمی نمود. سپس بر تلّی نشستم، بر آن تلّ شخصی را دیدم که خنجری به دست داشت. به حدّی ترسیدم که نزدیک بود روح از بدنم مفارقت کند. سه مرتبه گفتم: یا أبا صالح ادرکنی! مرتبه چهارم گفتم: یا أبا الغوث اغثنی!
ناگاه خود را در جادّه دیدم و گرسنگی بر من غالب شده بود. گفتم: ای پروردگار من! تو گفته ای که بندگانت را هرجا که باشند، روزی می دهی.
ناگاه مرد عربی دیدم که دامن او مملوّ از نان بود، گفت: این نان ها را به یک آنه بخر! یک آنه که پول معمولی آن وقت عراق بود، دادم و نان ها را گرفتم. پس از آن به قلعه ای رسیدم که به قلعه سبزی معروف است، مرد دیگری از اعراب را دیدم، گفت: چرا تا این وقت عقب افتادی؟
گفتم: چاره ای نداشتم.
گفت: تعجیل کن!
به مجرّد این که گفت: تعجیل کن، فورا به برکت قول او دیدم به خانقین رسیده ام.
والده ام را ملاقات کردم، بسیار خوش وقت شد. به او گفتم: در چه ساعتی مضطرب شدی؟
گفت: در فلان ساعت، دو پستانم را روی دست گرفتم، در حالی که به سوی خدا تضرّع می کردم؛ ناگاه دیدم نوری ساطع شد، دانستم خداوند به برکت آن نور تو را به من می رساند.
[تشرف تاجر تبریزی] 46 مسکه:
در این باب است که جناب حاج صادق تبریزی آن حضرت را نزدیک بقعه طفلان مسلم می بیند ولی نمی شناسد.
ایضا فرمود: آقای آقا میرزا هادی - حفظه الله - که برای ما نوشت: عبد صالح ثقه برّ تقی، حاج صادق تبریزی، نجل زکیّ مرحوم حاج محمد علی فرزند حاج الله وردی تبریزی نجفی المسکن و المدفن - (رحمهم الله) جمیعا - گفت: سنه هزار و سی صد و شش اوّلین سفری بود که به کربلای معلّا مشرّف شده بودم. چون وارد مسیّب شدم، غسل کردم و اراده تشرّف به زیارت دو طفل از اولاد مسلم - نوّر الله مرقدهما - نمودم. راه مخوف بود؛ مالی اجاره کردم.
جناب آقا میرزا احمد با من بود که سابقا وزیر بود و از تصدّی امر وزارت توبه کرده بود، دو برادرش نیز همراه ما بودند. پس رفتیم و نزدیک مرقد منوّر آن دو بزرگوار رسیدیم که چون به سواری عادت نداشتیم، پاهای من از سواری متصدّم شد.
پیاده شدم و به قدر بیست قدم از آن ها که با من بودند، جلوتر رفتم و به نهری که نزد آن قبّه منوّره هست، رسیدم. سیّدی از آن نهر بیرون آمد؛ گویا از زیارت آن دو طفل معظّم مراجعت نموده بود و لباس های فاخر پرقیمت دربر داشت.
گمان کردم از اهل عراق و عقب او زوّار است و از این جهت، در این راه مخوف، و با این اطمینان خاطر می رود و الّا احدی جرأت نمی کرد با این لباس ها تنها برود، ما لباس های خود را بیرون آورده بودیم و با یک قبا می رفتیم.
گمان کردم از ساداتی است که به جهت اخذ سهم سادات یا سهم امام (علیه السلام) با زوّار می روند و این لباس های ثمین را پوشیده تا او را تعظیم نمایند و در خور شأنش، با او رفتار کنند، حتی شال ترمه سبز تو زردی بر سر بسته بود که گویا الان از دکّان تاجر گرفته است به جهت این که گمان نکند از او ترسیده ام، به او سلام نکردم.
چون چهار قدم از نهر دور شد، رو به مسیّب برگشت، به ما توجّه نمود و به صدای بلند خارج از عادت فریاد زد: ای اهل تبریز! ای ناظم التجّار! گمان نکنید این ها طفل اند. به درستی که برای این ها نزد خدای تعالی، منزلت عظیمه ای هست. پس به واسطه و به برکت این ها هرچه می خواهید از خدای تعالی بخواهید!
من وقعی به کلام او نگذاردم، زیرا به مقام آن ها عارف بودم و کلام او نزد من از قبیل تحصیل حاصل بود. داخل نهر شدم و عمق نهر مانع از آن بود که طرف دیگرش دیده شود، چون از نهر خارج شدم، در آن طرف احدی از اشخاص را ندیدم که گمان می کردم آن ها عقب سیّد هستند و تعجّب کردم کسی به آن هیأت در آن طریق مخوف تنها برود و نترسد. برگشتم ببینم این سید کیست؟ احدی را ندیدم و کسانی که به قدر بیست قدم، دورتر بودند، صدا زدم و گفتم: این سید که الان بر من گذشت، کجا رفت؟
گفتند: کدام سید را می گویی؟ ما سیّدی ندیدیم.
پس در قبّه مبارکه داخل شدم و در خود انقلاب حالی دیدم که هم چو حالی از من معهود نبود. آن سید مربوع القامه و مژگانش بسیار و سیاه بود، کأنّه سرمه کرده و حال آن که سرمه نکرده بود.
[تشرف حاج شیخ محمد صاحب الزمانی] 47 مسکه:
در این باب است که جناب حاج شیخ محمد صاحب الزمانی آن حضرت را در مسجد الحرام می بیند، ولی ایشان را نمی شناسد.
جناب فخر الذاکرین، شیخ محمد رشتی از اجلّا و اتقیای ذاکرین و والهین در ولا و محبّت اهل بیت (علیهم السلام)، خصوصا حضرت ولیّ عصر (عجّل الله فرجه) است و به جهت کثرت ذکرش آن حضرت - عجل الله فرجه - را بر منابر و غیره به شیخ محمد صاحب الزمانی معروف است و صاحب کتابی در احوال آن حضرت؛ از هرجهت است و نیز ذکر علاماتی که ظاهر شده است؛ ایشان برای ما حکایت کرد و فرمود: سنه هزار و سی صد و سی و هشت به حجّ بیت الله مشرّف شدم.
در جدّه، نفقه مرا دزدیدند و رفقا از خوف این که برای مساعدت من مکلّف بشوند، از من دوری کردند و من از هرجهت مأیوس و بیچاره ماندم. از مرکب خارج، محرم و متوجّه مکّه - زادها الله شرفا و تعظیما - شدم و از باب بنی شیبه داخل مسجد الحرام گردیدم و برای هرچه به جهت بیچاره شدن بر سرم آید، مستعدّ شدم. در معبر حاج، متضرعا إلی الله تعالی ایستادم و به تضرّع عرض می کردم: پروردگارا! اگر در مشهد مقدّس این معامله با من می شد، به حضرت رضا (علیه السلام) شکوه می کردم. آیا در حجّ غیر از من نبود و نفقه هیچ کس غیر از من نباید سرقت شود؟
ناگاه مردی خوش رو، با چشم های سیاه و در زیّ اهل یمن را دیدم که تا به حال احدی به آن خوش رویی و عدل هیأت ندیده بودم؛ او به من گفت: خیر است، چه بسیار نفقه ها را سرقت کرده اند. نفقه فلان سید را هم برده اند. مشغول طواف شو و خود را مشغول کن!
گفتم: «یا أخی! ما ترید منّی، دعنی و اذهب عنّی»؛ ای برادر! از من چه می خواهی؟ مرا بگذار و از پیش من برو. پس به روی من تبسّم نمود. مشغول طواف شدم، چند قدمی که رفتم ناگاه دو مرتبه آمد و طرف احرام مرا کشید و گفت:
«تعال! اعطیک من الدّراهم و تتشرّف ان شاء الله إلی المدینه و تروح إلی الزّینبیّه و ترجع من طریق الشّام إلی النّجف إن شاء الله تعالی. فتنفد نفقتک و یصلک هناک ما یوصلک الی خراسان به حال حسن»؛ بیا مقداری پول به تو بدهم، ان شاء الله به مدینه مشرّف می شوی و به زینبیّه می روی و از طریق شام به نجف برمی گردی و نفقه تو تمام می شود و ان شاء الله آن جا به قدری به تو می رسد که تو را به حال خوشی به خراسان می رساند.
چون طرف احرام مرا گرفت، صد و چهارده لیره عثمانی شمرد و در احرام من ریخت. یکی از آن ها روی زمین افتاد، گفت: محکم ببند تا از تو ندزدند، خم شدم تا آن یکی که روی زمین افتاده بود، بردارم، در نفس خود گفتم؛ ببینم این لیره ها چیست که به من داده است؟
سرم را بلند کردم، کسی را ندیدم. آن وقت دانستم که حضرت حجّت - عجّل الله تعالی فرجه - بوده است و چون به نجف اشرف رسیدم، نفقه من تمام شد. به کربلای معلّا مشرّف شدم، این سفر من در سال آخر عمر آیت الله العظمی، مرحوم آقا میرزا محمد تقی شیرازی (قدّس سرّه) و در عشره عاشورا بود. شب های عشره، اقامه روضه نموده بودند و اطعام می کردند و منبر منحصر به من بود. پس آن قدر به من دادند که مرا به خراسان رسانید.
[تشرف مرحوم ملایری خدمت آن جناب] 48 مسکه:
در این باب است که مرحوم حاج سید عبد الله ملایری آن حضرت را در حجره مدرسه حضرت عبد العظیم می بیند، ولی ایشان را نمی شناسد.
فاضل معاصر حاج سید ابو القاسم ملایری که از اجلّای علمای مشهد مقدّس است از مرحوم والدش، آقای حاج سید عبد الله ملایری - طاب ثراه - ما را خبر داد، فرمود:
آن مرحوم، صاحب همّت عالی بود و فرمود: چون به جهت تحصیل اراده سفر به خراسان نمودم، از جمیع علایق دنیوی از باغ و اسباب صرف نظر نموده، پیاده راه افتادم.
قدری راه که طی کردم؛ با بعضی از آشنایان خود مصادف شدم که سابقا در جند از ذوی المناصب بود و جماعتی با او بودند. پس مرا اکرام نمود و به قم رسانید. در قم به جناب عالم جلیل، آقای حاج سید جواد قمی رسیدم که از اکابر علمای قم بود. بین من و ایشان مذاکراتی واقع شد که ایشان از من خوششان آمد. وقت وداع، مصرف تا طهران را به من دادند.
در راه طهران با یکی از اهل طهران مصادف شدم، از من استدعا نمود که در طهران مهمان او باشم و مهمان دیگری نشوم، در طهران مهمان او بودم. هر روز بر اکرام من می افزود تا آن که من از کثرت اکرام او خجل شدم و منزل غیر او هم، نمی توانستم مهمان شوم. پس به منزل امیر کبیر، یعنی صدر اعظم میرزا علی اصغر خان رفتم که حالم اصلاح شود و مصرف تا خراسان را تهیّه کنم. در بیرونی خانه او نشسته بودم و منتظر بودم که از اندرون بیرون بیاید.
چون ظهر شد، مؤذّن بالای بام رفت که اذان بگوید. به خود گفتم: این مؤذّن بالای بام خانه صدر اعظم برای اذان نرفت مگر به امر خود صدر اعظم که به جهت التزامش به دیانت اسلام، نزد مردم محترم باشد، کسانی که اغیارند خود را به انتسابشان به اسلام محترم می دارند و تو با این که با انتسابت به اهل بیت نبوّت محترمی، چرا به بیوت اغیار آمده ای؟
از این جهت بر خود قرار کردم و ملتزم شدم که حالم را به صدر اعظم اظهار ننمایم و از او چیزی نخواهم. بعد از معاهده با خود، صدر اعظم به بیرونی بیرون آمد و مردم همه برای او برخاستند، من کنار مجلس نشسته بودم و برنخاستم، به آن ها ملتفت نشد، به سمت من توجّه نمود و نزدیک من آمد.
اعتنایی به او نکردم. دو سه مرتبه رفت و آمد و من به حال خود بودم. چون دیدم مکرّر آمد و برگشت، خجالت کشیدم و به خود گفتم: شایسته نیست این مرد عظیم به من توجّه نماید و من اعتنایی به او نکنم، مرتبه اخیر برایش برخاستم.
گفت: آقا فرمایشی دارید؟
گفتم: مطلبی ندارم. گفت: ممکن نیست. لابدّ باید بگویی؟
گفتم: مطلبی ندارم.
گفت: گفتم؛ لابدّ باید امری داری بفرمایی. چون دیدم دست برنمی دارد، مطلبی که اوّل داشتم، اظهار نکردم و گفتم: مقصد من اشتغال در مدرسه است، امر بفرمایید در مدرسه ای که در حرم حضرت عبد العظیم است، حجره ای به من بدهند.
به کاتبش گفت: به صدر الحفّاظ - که ریاست مدرسه به دست او بود - بنویس؛ این آقا مهمان عزیز ماست، حجره ای برای ایشان معیّن نمایید.
بعد از این مذاکرات اصرار کرد و مرا با خود به حجره ای برد که ترتیب نهار داده بودند. پس از صرف طعام به خادمش امر کرد مقداری وجه بیاورد، سر جیب مرا گرفت و پول ها را در جیب من ریخت و چون در صرف آن وجه، اشکال می نمودم، آن را نزد شخصی ودیعه گذاردم و به حرم حضرت عبد العظیم مشرّف شدم و از آن وجهی که آقای حاجی سید جواد داده بودند، صرف می نمودم تا آن که تمام شد.
یک روز صبح دیدم پولی ندارم که نانی بخرم. گفتم: دیگر با این حال اشکالی ندارد آن وجه را صرف نمایم. کسی را نیافتم که برود و آن وجه را بیاورد. داخل حجره ام شدم، نفس خود را مخاطب ساختم و گفتم: عبد الله! از تو سؤالی می نمایم و غیر از من، کسی در حجره نیست، به من بگو آیا به خدا معتقد هستی یا نه؟ اگر معتقد به خدا نیستی، پس معنی اشکالت در صرف آن وجه و عدم صرف آن چیست؟ و اگر معتقد به خدا هستی بگو ببینم خدا را به چه صفت می دانی؟
گفتم: من به خدای تعالی معتقد هستم و او را مسبّب الاسباب من غیر سبب و مفتّح الابواب به نحوی که بخواهد، می دانم.
گفتم: بنابراین از حجره بیرون میا! آن چه مقدّر شده بشود، می شود. در حجره را بستم؛ آن حجره منفذی نداشت حتی به قدر این که گنجشکی داخل شود. سه روز تا زوال ماندم و چیزی نشد. روز آخر نماز ظهر و عصر را به جا آوردم و بعد از نماز سجده شکر کردم که اگر مردم به آن حال مرده باشم.
چون به سجده رفتم، غشوه بر من عارض شد و معلوم است کسی که از گرسنگی غشوه کند، اقامه نمی کند مگر بعد از آن که غذایی به او برسد. ناگاه دیدم نشسته ام و شخص جلیلی مقابلم ایستاده است. به در حجره نظر کردم، دیدم بسته است، آن شخص در من تصرّف کرد طوری که قدرت بر تکلّم نداشتم.
گفت: ای فلان! مردی از تجّار طهران که اسمش ابراهیم و ورشکسته است در حرم حضرت عبد العظیم متحصّن شده، اسم رفیقش سلیمان است در حجره تو نهار می خورند؛ با آن ها نهار بخور! بعد از سه روز تجّار طهران می آیند و کار او را اصلاح می کنند.
بعد از آن که این مطلب را گفت، گویا تمام اعضای من با دو چشم، چشم شده، به او نظر می کردم. پس او را ندیدم و از نظرم غایب شد و ندانستم به آسمان، بالا رفت، به زمین فرورفت و یا از دیوار خارج شد. از حسرت دست به دست می زدم و می گفتم:
مطلوب به دستم آمد و از دستم خارج شد. دیدم فایدتی در تحسّر نیست و چون غشّ بر من عارض شده بود، گفتم: از حجره بیرون می روم و تجدید وضو می نمایم، در حالتی مثل مست ها بودم؛ نظری به ملک یا فلک نداشتم. از حجره بیرون آمدم و به وسط مدرسه رسیدم، آن جا سکّویی بود که روی آن چای می فروختند و شخصی آن جا نشسته بود تا خواستم از نزد او بگذرم، گفت: آقا بفرمایید چای بخورید.
گفتم: مناسب و وظیفه من نیست که این جا چای بخورم، اگر میل دارید، بیایید در حجره چای بخورید و قند و چای داشتم.
گفت: اذن می دهید نزد شما نهار بخوریم؟
گفتم: اگر تو فلانی هستی و نمی پرسی کی این مطلب را به من خبر داد، مرخّصی و الّا فلا.
اسم رفیقش را هم که حاضر نبود بردم و گفتم: اگر اسم رفیقت فلان است و از اسم کسی که مرا به این مطلب خبر داده، سؤال نمی کنید، مرخّصید. چون اسم رفیقش را که حاضر نبود بردم، تعجّب کرد. گفتم: اگر آمدنت این جا به جهت این است که ورشکسته ای و امر چنان است مرخّصید و الّا فلا.
پس تعجّبش زیاد شد، نزد رفیقش رفت و گفت: این آقا از غیب خبر می دهد. اگر اصلاحی برای امر ما باشد، به دست این سید است. آن گاه نان و کبابی خریدند و به حجره من آمدند، غذا خوردند و من با آن ها غذا خوردم. چون چند روز بود از شدّت گرسنگی خواب درستی نکرده بودم، بعد از صرف غذا خوابیدم، وقتی بیدار شدم، چای درست کرده بودند. چای خوردم، سپس سؤال و اصرار کردند که کی کار ما اصلاح می شود؟
گفتم: بعد از سه روز تجّار طهران می آیند و کار شما را اصلاح می کنند.
بعد از سه روز تجّار طهران آمدند و امر ایشان را اصلاح کردند و به طهران رفتند، این مطلب را برای مردم ذکر کردند. مردم آمدند و مرا به طهران بردند. دیدم مردم با من غیر سلوکی که اوّل می کردند، می کنند. عتبه در را می بوسند و با من معامله مرید با مراد می کنند، با دیدن این وضع از بین آن ها بیرون آمده، متوجّه خراسان شدم.
[تشرف دو نفر از طلاب] 49 مسکه:
در این باب است که دو نفر از طلّاب، آن بزرگوار را در میان خانقین و قصر شیرین می بینند، ولی آن حضرت را نمی شناسد.
شیخ تقیّ نقی، شیخ علی اکبر طهرانی ساکن مشهد مقدّس، در خانه ما در سرّ من رای در اوایل عشر رابع از مائه رابعه، بعد از الف، برای ما حکایت کرد و گفت: شیخ عالم متّقی، شیخ محمد تقی تربتی که از اکابر فضلا و علمای اخلاق و از تلامذه علّامه رشتی میرزا حبیب الله و مجاز از ایشان بود به ما خبر داد و فرمود: بعض از سادات مریدین متدیّنین از تلامذه من از اهل تربت به ما خبر داد و گفت: هنگام مراجعت حقیر از زیارت عتبات عالیات، از خانقین خارج شدم و با یکی از طلّاب، عقب قافله، رو به قصر شیرین پیاده می رفتیم، من از شدّت عطش و تعب، از راه رفتن عاجز شدم.
با زحمت زیاد خود را به قافله رساندیم، دیدیم دزدها قافله را غارت کرده اند، اموالشان را برده اند و بعضی مجروح در بیابان افتاده اند، محمل ها شکسته و روی زمین افتاده است. من و رفیقم به کناری رفتیم و در نهایت ترس از تلّی بالا رفتیم. ناگاه دیدیم سید جلیلی با ماست، بعد از ادای تحیّت بین ما، هفت دانه خرمای زاهدی به من داد و گفت: چهار عدد آن را خودت بخور و سه دانه آن را به شیخ بده.
چون خوردیم، عطش ما رفع شد و گفت: این دعا را به جهت نجات و حفظ از شرّ دزدها بخوانید: اللّهمّ! انّی اخافک و اخاف ممّن یخافک و اعوذ بک ممّن لا یخافک.
با آن سید راه می رفتیم، جز مقدار کمی نرفتیم. ناگاه اشاره کرد و گفت: این منزل است. پس نظر کردیم، دیدیم منزل، پایین آن تلّ است. چون وارد منزل شدیم، از شدّت تعبی که کشیده بودیم خواب ما را گرفت و ملتفت آن چه برای ما اتّفاق افتاده بود، نشدیم. وقتی بیدار شدیم، به قضیّه متنبّه گردیدیم و برای ما منکشف شد که حضرت ولیّ عصر (عجّل الله فرجه) بوده است.
[تشرف شیخ مهدی دجیلی] 50 مسکه:
در این باب است که جناب شیخ علی مهدی دجیلی آن حضرت را در راه حرّ به کربلا می بیند، ولی ایشان را نمی شناسد.
شیخ ثقه فاضل، فخر اقران و اماثل، شیخ علی مهدی دجیلی - دجیل بلده ای در نه فرسخی سامرّه به فرسخ مکاری است - ما را خبر داد. این شیخ از افاضل مشتغلین سامرّه و مقیم به وظایف شرعیّه در دجیل است. او قضیّه ای برای ما نوشت که ترجمه اش این است:
بسم الله الرحمن الرحیم من اقلّ طلبه، علی مهدی پسر حسین، آن چه را عیانا از مشاهده حضرت حجّت - عجّل الله تعالی فرجه - دیدم ذکر می کنم و کیفیّت آن این است:
اوّلین سفری که به زیارت حضرت سیّد الشهدا (علیه السلام) مشرّف شدم، اراده تشرّف به زیارت حرّ - رضوان الله علیه - نمودم. مالی ذهابا و ایابا اجاره کردم و مکّاری همراه من نیامد. ساعت ده از روز به حرّ مشرّف شدم و چون مراجعت نمودم، احدی از زوّار با من نبود و آفتاب مشرف به غروب بود. رو به ولایت روانه شدم و چون به سکّه حدیدیّه و خطّ آهن رسیدم که نزدیک حرّ است، به جهت تنها بودن و غروب نمودن آفتاب، ترس مرا گرفت. ناگاه گلوله ای از نزدیک سر من گذشت؛ گلوله دوّم، سوّم، چهارم و پنجم. یقین کردم دزدند و به قصد من هستند.
پس به حضرت ولیّ عصر - عجّل الله تعالی فرجه - متوسّل شدم و عرض کردم:
سیّدی! من زائر جدّت حسین (علیه السلام) می باشم و این، اوّلین سفر من به زیارت است. آیا تو راضی می شوی من سلب شوم با این که در این ولایت غریبم؟ ناگاه رعب و ترس از من زایل شد، قلبم آرام گرفت و فراموش نمودم که به آن حضرت متوسّل شده ام. سید معمّم به عمّامه سیاهی را دیدم که به سنّ چهل سال و به زیّ طلّاب بود و ندانستم که از طلّاب نجف اشرف، کربلای معلّا و یا جای دیگر است که از کوچه باغ ها پیدا شد، سلام کرد و فرمود: سامرّا چگونه است؟
گفتم: بحمد الله به خیر است.
آن گاه از حال حجّت الاسلام جناب آقا میرزا محمد طهرانی سؤال کرد. گفتم:
خوب است و از حال ثقه الاسلام جناب آقای شیخ آقا بزرگ طهرانی سؤال کرد. گفتم:
در احسن حال است.
گفت: حال شما طلّاب چگونه است؟
گفتم: خوب است.
گفت: امر معیشت شما چطور است؟
گفتم: از برکت حضرت صاحب الزمان (علیه السلام) خوب است. سپس او را تعارف کردم سوار شود، ابا نمود. پیاده شدم و او را اصرار به سواری نمودم. مقدار کمی سوار شد و سپس پیاده شد و من سوار شدم. ناگاه خود را نزد قهوه خانه ای که در مدوّر نهر حسینیّه است، دیدم که اوّل ولایت است. او وداع کرد و به یکی از کوچه باغ ها رفت.
چون رفت به فکر افتادم که من الان در سکّه حدیدیّه بودم که آفتاب غروب کرد و با این مسافت بیش از یک فرسخ به فاصله پانزده دقیقه خود را در ولایت می بینم و صدای اذان هم بلند است و این سید که بود از اهل سامرّه و از اوضاع آن از من سؤال نمود و چگونه شناخت من اهل سامرّا هستم و من ابتدا به که متوسّل شدم.
لذا یقین کردم آن آقا حضرت ولیّ عصر - عجّل الله تعالی فرجه - بوده است. محقّق این معنی آن که در راه، از اسمش را پرسیدم، گفت: سید مهدی. بدون مهلت برگشتم ببینم کجا رفت و حال آن که آن جا نه در باغی و نه راه دیگری بود، غیر از آن راهی که آمدیم، گویا به زمین رفت یا به آسمان پرواز کرد.
[تشرف دوباره شیخ مهدی] 51 مسکه:
ایضا در این باب است که شیخ علی مهدی مزبور، نور آن بزرگوار را در سرداب مقدّس می بیند.
چنان چه گفت: ایدّه الله تعالی که قضیّه دیگری مشاهده کردم و آن این است: من هر شب از شب های ماه رمضان در سامرّه به سرداب مقدّس مشرّف شده، گاهی نماز، گاهی دعا و گاهی قرآن می خواندم تا شب قدر شد. در اثنای قرائت قرآن به خود گفتم:
معلوم می شود ما مرضیّ مولای خود حضرت صاحب الزّمان (علیه السلام) نیستیم و الّا چگونه می شود در این سنین متعدّد با آن که در جوار آن حضرت هستیم، ایشان را نبینیم.
ناگاه دیدم، بدنم مرتعش شد و به لرزه درآمد و نوری ظاهر شد که سرداب مقدّس روشن گردید، آن جا جز یک فانوس نبود و این نور به منزله پنجاه فانوس بود. پس متحیّر شدم و گریه من شدّت نمود و گفتم: ای سید من! اگر تو خودت هستی، حاجت فلانیّه من تا صبح برآورده شود. چون صبح شد، حاجتم برآورده شد.
[تشرف آقا شیخ حسین نجفی] 52 مسکه:
در این باب است که جناب آقا شیخ حسین نجفی آن حضرت را در راه مکّه می بیند، ولی ایشان را نمی شناسد.
شیخ عالم فاضل، شیخ اسد الله زنجانی ما را خبر داد و شیخ جلیل وحید، شیخ عبد الحمید زنجانی شیوع این قضیّه را در مجلس تصدیق نمود و شیخ اسد الله گفت: آن را از دوازده نفر از فحول علما شنیدم؛ مثل شیخ الاکبر الاثقی، الاوحد فی زمانه فی الریاضات و المجاهدات، آخوند ملّا حسین قلی همدانی و سید اجلّ عالم امجد، السید محمد آل بحر العلوم و عمّه الأکمل، السید حسین و غیر ایشان که به سند متّصل از شخصی روایت نمودند که حاضر محضر انور سید محمد مهدی بحر العلوم بوده که گفت: شیخ اجلّ اشرف، جناب آقا شیخ حسین نجفی از زیارت بیت الله به نجف اشرف مراجعت نمود.
بزرگان دین و علمای راسخین برای تهنیّت و زیارت ایشان تشریف فرما شدند و در منزل ایشان مجتمع گردیدند. سید بحر العلوم قدّس سرّه چون با جناب آقا شیخ حسین، کمال اتّحاد و یگانگی داشت؛ در اثنای صحبت روی مبارک به جناب شیخ نمود و فرمود:
شیخ حسین! تو آن قدر سربلند و بزرگ سر گردیدی که باید با حضرت صاحب الزمان (علیه السلام) هم کاسه و هم غذا شوی؟
شیخ مرحوم، متغیّر و حضّار مجلس از استماع این کلام، گشاده چشم و متبصّر الحال گردیده، از تفصیل این اجمال، سؤال نمودند.
فرمود: آقا شیخ حسین آیا در خاطر نداری بعد از مراجعت از حجّ در فلان منزل، در خیمه خود نشسته بودی و کاسه ترید که آبگوشت بود، برای نهار خود مهیّا نموده بودی، ناگاه از دامنه برّ، جوان خوشرو و خوشبویی به زیّ اعراب وارد گردید و از غذای تو تناول فرمود. آن آقا، روح روان همه عوالم امکان، حضرت صاحب الامر و الزمان (عجل الله تعالی فرجه الشریف) بوده است.
[تشرف در راه بلوچستان] 53 مسکه:
در این باب است که یکی از ارباب ریاضت آن سرور را در راه بلوچستان می بیند، ولی آن حضرت را نمی شناسد.
فاضل معاصر، صاحب کتاب بضاعه مزجاه که در ذکر ادعیه ای است که باید در زمان غیبت حضرت ولیّ عصر - ارواحنا فداه - خوانده شود و سنه هزار و سی صد و سی و پنج در ایران طبع شده، فرموده: حاج میرزا محسن تاج الواعظین در کتاب درّه، ذکر نموده: زمان اقامت در فارس، رساله مختصری از ابو اسحاق اسفراینی در فواید سوره مبارکه کوثر، توحید و آل عمران دیدم که اگر کسی روزهای جمعه هرسه سوره را مداومت کند، از دنیا نرود مگر این که قائم آل محمد را زیارت کند.
بعد ذکر نموده: من موفّق نشدم، ولی یکی از احبّا مداومت کرد و خدمت آن بزرگوار رسید، تفصیلش این است: او به سمت بلوچستان می رفت. گفت: بین راه شخصی را دیدم سوار شتر و لباسش به شکل لباس اهل بلوچستان است، ولی جوان است. سلام کردم، جواب گفت. بعد پرسید: از خواندن سور چه مقصود داری؟
می گوید، گفتم: زیارت حجّت زمان.
گفت: اگر او را دیدی چه می خواهی؟
گفتم: چند سؤال دارم، باید بپرسم.
گفت: سؤالات خود را بپرس! با خود گفتم؛ چه ضرر دارد، بین راه است، باید راهی طیّ شود و صحبتی بداریم. شروع به گفتن چند سؤالی که در نظر داشتم، کردم. از جمله این بود که اقرب طرق به سوی خدا کدام است؟
در جواب گفت: اگر کیمیاگری به تو بگوید کیمیا می سازم و می دانی که دروغ می گوید؛ چرا که اگر سازنده بود، اظهار نمی کرد. با این تفصیل به قول دروغ او اعتماد می کنی که شاید داشته باشد، مال خود را خرج می کنی و زحمت بسیار می کشی.
آن چه می گویم قول پیغمبر و ائمّه راشدین است و حکمای ظاهری هم آن را تصدیق نموده اند؛ مثل شیخ الرئیس بو علی سینا در اشارات خود در نمط تاسع. پس چه ضرر دارد اگر عمر خود را صرف کنی و چهل شبانه روز، سوره مبارکه کوثر، توحید و آل عمران بخوانی، البتّه نه به قصد امتحان، بلکه به قصد عبادت، تا آن چه مقصود تو است، عمل آید.
ولی شخص سائل الحال که جواب می شنود، نمی داند گوینده جواب کیست و نمی داند او، حجّت زمان است و ذکر نموده: اسفراینی از علمای عامّه، صاحب نور العین فی مشهد الحسین است.
مؤلّف گوید: از فرمایش آن حضرت که فرموده: نه به قصد امتحان، معلوم می شود آن شخص این عمل را به قصد امتحان به جا آورده که ببیند به مقصود نایل می شود یا نه.
این ناچیز گوید: سه نفر از علمای عامّه به اسفراینی منسوبند.
اوّل: ابو اسحاق ابراهیم بن محمد بن ابراهیم اسفراینی الفقیه الشافعی.
دوّم: ابو حامد احمد بن ابی طاهر الفقیه الشافعی.
سوّم: محمد بن احمد بن تاج الدین، مؤلّف کتاب اللّباب فی النّحو.
اسفراینی صاحب رساله ای که این مطلب را از او نقل نموده، ظاهرا به قرینه تکنیه او به ابی اسحاق، اوّلی آن هاست و اگر هریک از دوّمی و سوّمی هم باشد، از جمله علمای اهل سنّت محسوب می شود که به حیات و وجود فعلی حضرت بقیّه الله قایل اند؛ چنان چه عدّه ای از ایشان در عبقریه هفتم این بساط ذکر شده اند.
فتبصّر من کلماتهم.
[ملاقات حضرت و سید بحر العلوم] 54 مسکه:
در این باب است که سید بحر العلوم آن حضرت را در راه سامره می بیند ولی ایشان را نمی شناسد.
عالم عامل، فخر الاوایل و الاواخر، جناب حاج شیخ علی اکبر النهاوندی در کتاب جنّه العالیه خود ذکر نموده: بدان بعضی از ارباب مقاتل برای توضیح و تشریح اخباری که در فضیلت گریه بر سید الشّهدا (علیه السلام) وارد شده که خداوند گناه گریه کننده را به یک قطره اشک می آمرزد. به ملاقات مرحوم بحر العلوم با حضرت حجّت (علیه السلام) در راه سامرّه متشبّث شده اند و مجمل کیفیّت آن علی ما هو المعروف این است:
آن مرحوم وقتی به سامرّه می رفت، در بین راه به این مسأله فکر می کرد که گریه بر حسین (علیه السلام) گناهان را می آمرزد، ناگاه دید عربی سوار بر حصاء مقابلش رسید، سلام کرد و پرسید: جناب سید شما را متفکّر می بینم، چه خیال می کنید؟ اگر مسأله علمی است، صحبت بدارید! شاید من هم بی ربط نباشم.
جناب بحر العلوم فرمود: در این خصوص متفکّرم که چگونه می شود حق تعالی این همه ثواب به زائرین و بکّایین حضرت سید الشّهدا (علیه السلام) بدهد که در هرقدمی که زائر برمی دارد، ثواب یک حجّ و یک عمره در نامه عملش نوشته شود و برای یک قطره اشک، تمام گناهان صغیره و کبیره اش آمرزیده شود.
آن سوار عرب فرمود: تعجّب مکن! من برای شما مثلی می آورم تا مشکلت حلّ گردد. وقتی سلطانی در صحرا و بادیه در شکارگاه وارد خیمه ای شد؛ چون غلامان از سلطان دور افتاده بودند. پس در آن سیاه چادر، پیر زال با پسری دید و در گوشه خیمه عنیزه ای داشتند؛ یعنی بزی که از آن شیر دوشیده، گذران می کردند. آن ها بز را برای سلطان کشتند و طعام حاضر کردند و بر چیز دیگری غیر از آن قدرت نداشتند، سلطان را نمی شناختند و محض اکرام ضیف، این عمل را کردند. سلطان شب آن جا ماند.
روز بعد در سلام عام سلطان کیفیّت خود را نقل نمود که من در شکارگاه، تشنه و گرسنه در بادیه خونخوار از غلامان دور افتادم تا آن که در شدّت گرمی هوا به خیمه این پیر زال رفتم و مرا نمی شناختند.
ما یملک این عجوزه و پسرش بزی بود که از شیر آن گذران می کردند. بز را کشته، برای من کباب نموده، حاضر ساختند، الحال چه کنم؟ در عوض به این ها چه بدهم و چه کنم که تلافی محبّت این زن و پسرش بشود؟
یکی گفت: صد گوسفند به او بدهید. دیگری از وزرا گفت: صد گوسفند و صد اشرفی بدهید. دیگری گفت: فلان مزرعه را به ایشان بدهید.
سلطان فرمود: هرچه بدهم، کم است. اگر سلطنت و تاج و تختم را بدهم، آن وقت مکافات به مثل کرده ام. چون آن ها هرچه داشتند، به من دادند، من هم باید هرچه دارم، به ایشان بدهم تا مکافات شود.
الحال، جناب بحر العلوم! حضرت سید الشهدا (علیه السلام) هرچه از مال و منال، اهل و عیال، پسر و برادر، دختر و خواهر، سر و پیکر داشت، در راه خدا داد، پس اگر خداوند به زائرین و باکین آن جناب، آن همه اجر و ثواب بدهد، نباید تعجّب نمود. این را فرمود و از نظر سید غایب شد.
[تشرف مؤذن قمی] 55 مسکه:
در این باب است که ملّا حبیب الله مؤذّن قمی آن حضرت را می بیند ولی ایشان را نمی شناسد.
عالمان عاملان، حاج سید محمود و حاج سید احمد قمّیان قدّس سرّهما نجلان زکیّان العالم العلّامه، حاج سید صادق قمی - طیّب الله رمسه - که از اجلّای اصحاب محقّق رشتی صاحب بدایع الاصول و از مهاجرین به ناحیه مقدّسه سرّ من رای به جهت استفاده از سیّدنا الاستاد الاعظم المجدّد بودند، به ما خبر دادند و برای حقیر نوشتند:
بسم الله الرحمن الرحیم «و ممّن تشرّف بالسّعاده العظمی و نال بالمرتبه الکبری العالم المؤیّد الربّانی، کاشف الرموز و الدّقائق، الحاج سید محمّد صادق القمی - طاب رمسه و نوّر الله مضجعه - »
قضیّه او، آن که بنده متّقی الموثوق الموسوم به ملّا حبیب الله، مؤذّن مسجدی که آن مرحوم تأسیس نمود، برای ما حکایت کرد و گفت: عادت من این بود که یک ساعت قبل از فجر به مسجد می آمدم و در سرما نافله شب را در مسجد و در گرما بر پشت بام مسجد به جا می آوردم؛ بعد از ادای نافله بر سطح ایوان مرتفع، بالا می رفتم و قبل از اذان قدری اشعار مناجات می کردم و چون وقت داخل می شد، اذان می گفتم و فرود می آمدم. قریب به بیست سال عادت من به این کیفیّت بود.
شبی از شب ها که شب تاریکی بود و باد می وزید به عادت به مسجد خود آمدم، دیدم در مسجد باز و یک روشنایی در مسجد است، گمان کردم خادم در مسجد را نبسته و چراغ را خاموش نکرده است. داخل مسجد شدم که تحقیق مطلب نمایم، دیدم سیّدی به زیّ علمای ایران در محراب مشغول نماز است و آن روشنایی که ساطع بود، از روی مبارک آن سید است نه از چراغ. پس در آن سید و روی نورانی او تفکّر می نمودم.
چون از نماز فارغ شد، به من توجّه نمود، مرا به اسم صدا کرد و گفت: به آقای خود بگو، بیاید! بلا تأمّل امر او را اطاعت نمودم و رفتم که مرحوم حجّت الاسلام را خبر کنم. وقتی به در خانه رسیدم و ایستادم، در را به آرامی کوبیدم، دیدم آن مرحوم معمّما عقب در ایستاده است. کأنّه می خواهد از خانه بیرون بیاید. سلام کردم و عرض نمودم:
سید عالمی در مسجد است، شما را می خواهد و احضار نموده است.
فرمود: او را شناختی؟
گفتم: او را نشناختم، از علمای ولایت ما نیست و گفتم: آقا! چقدر صورتش نورانی است، من در مدّت عمرم همچو صورت نورانی ای ندیده ام. ولی آقا به من جواب نمی دادند. با ایشان بودم تا داخل مسجد شدند. دیدم نسبت به آن سید به یک نحو تأدّب، خضوع، تذلّل و سکونی تأدّب می کند.
به او سلام کرد، نزدیک او شد، نشست و با او مذاکره ای نمود. بعد از مدّت زمانی، آن سید از مسجد خارج شد. من از خضوع ایشان نسبت به آن سید تعجّب کردم و چون آن سید از مسجد خارج شد. از ایشان سؤال نمودم: این سید که بود و به چه جهت به این حدّ نسبت به او خضوع نمودید؟
رو به من نمود و فرمود: او را نشناختی؟ گفتم: نشناختم.
سپس از من مواثیق مؤکّد گرفتند که در مدّت حیات ایشان بروز ندهم. فرمود: آن مولای من و مولای تو حضرت صاحب العصر و الزّمان (عجّل الله فرجه الشریف) بود.
من ایشان را گذاردم و به سوی در مسجد دویدم، دیدم در بسته و مسجد تاریک است و احدی در مسجد نیست. از کلام حضرت به ایشان چیزی نفهمیدم جز این که به اقامه جماعت نماز صبح در اوّل فجر امر فرمود.
ملّا حبیب الله این مطلب را جز بعد از وفات حجّت الاسلام والد بروز نداد و سه مرتبه بر صدق این قضیّه، به قرآن کریم قسم خورد. انتهی.
[تشرف امین الواعظین اردبیلی] 56 مسکه:
در این باب است که جناب امین الواعظین اردبیلی آن حضرت را در حرم کاظمیّین (علیهما السلام) می بیند ولی ایشان را نمی شناسد.
فاضل معاصر، جناب آقا میرزا محمد علی اردوبادی - ادام الله تعالی تأییده و کثّر فی الفرقه النّاجیه امثاله - برای ما حکایت نمود. او در کتاب کشکول خود الجوهر المنضّد ذکر نموده: خطیب بارع، حاج میرزا حسن، نجل حضرت قلی ملقّب به امین الواعظین اردبیلی، نزیل تبریز در نجف اشرف، روز دوشنبه، پنجم شهر صفر سنه هزار و سی صد و پنجاه و هشت از هجرت مقدّس به ما خبر داد و سه شنبه سادس صفر، یعنی فردای آن روز در خانه سید محمد نایب، کلیددار حرم مطهّر علوی (علیه السلام) قضیّه را برای من نوشت:
تقریبا در سنه هزار و سی صد و چهل و سه مشاهد مقدّسه عراق را زیارت کردم و نهایت مقصد و اهمّ حاجات من در این مشاهد مقدّسه، تشرّف خدمت حضرت ولیّ عصر (عجّل الله فرجه) بود. لایزال توشه برمی داشتم و به زیارت مراقد مطهّره نجف اشرف، کربلا، مساجد مبارکه، جامع اعظم کوفه، مسجد سهله و کاظمین مشرّف می شدم و عادت من سابقا و لاحقا این بود که روز جمعه پس از غسل و بعد از ادای فریضه ظهر و عصر در حرم مطهّر می ماندم و تا وقت نماز مغرب و عشا آن چه از مستحبّات روز جمعه وارد شده، ادا می کردم. سپس از حرم مطهّر بیرون می آمدم. یک روز جمعه به حرم مطهّر جوادین مشرّف شدم، بالاسر مطهّر حضرت جواد (علیه السلام) نشستم و تا وقت دعای سمات مشغول قرائت شدم. ساعت آخر روز به جهت درک آن ساعت ازدحام زیاد و جا تنگ شد، وقت هم تنگ گردید، یک ربع به مغرب مانده بود، مستعجلا مشغول خواندن دعای سمات شدم.
ناگاه در جنب خود، مرد وسیم جمیلی، معمّم به عمّامه سفید با محاسن سیاه دیدم.
معتدل القامه، معتدل اللّباس و المحاسن و بر گونه راستش خالی بود. نزد من نشسته، به دعا خواندن من استماع می نماید و به اغلاطی که می گفتم، مرا ملتفت می نماید. از جمله این که من خواندم: «و اذا دعیت بها علی العسر للیسر تیسّرت».
فرمود: چرا فعل را مؤنّث می خوانی، حال آن که در فاعل تأنیثی نیست.
گفتم: به جهت رعایت مجانست با ما قبل و ما بعدش، چون افعال در آن ها مؤنّث است.
فرمود: این مطلب غلط است. سپس گفت: مقصود از راء و ایراد به تو نبود، خواستم بدانی؛ چون تو اهل علمی؛ بر این مطلب از او، تشکّر نمودم، ناگاه برخاست. و در قلبم افتاد که ببینم این با این اوصاف کیست و چگونه با این ضیق در مکان نزد من نشست که جا در حال نشستن بر من تنگ شده بود.
دعا را واگذاردم و از عقب او برخاستم که تفحّص نمایم او کیست. با جدّ اکیدی جستجو نمودم ولی او را نیافتم و بقیّه دعا را جز با اسف و اشک های جاری و ناله تمام نکردم. بعد از آن هروقت متذکّر این قصّه می شدم، آه می کشیدم، تا آن که به وطنم برگشتم و این قضیّه را فراموش نمودم.
بعد از سه سال یا قریب به سه سال، شبی در عالم رؤیا دیدم در حرم مطهّر کاظمین (علیه السلام) مشرّفم و حضرت جواد (علیه السلام) نشسته و آن حضرت اسمر اللّون است؛ من مسایل مشکله را از آن حضرت سؤال می نمودم که آن ها را فراموش کرده ام.
از جمله عرض هایی که نمودم، آن که عرض کردم: دائما در مشاهده مشرّفه به خدای تعالی الحاح می نمودم و به تو و اجدادت، ائمّه طاهرین (علیهم السلام) متوسّل بودم که مرا به رؤیت ولیّ منتظرش - سلام الله علیه - مشرّف کند و لکن دعایم مستجاب نشد.
فرمود: چنین نیست. تو دو مرتبه آن حضرت را دیدی؛ یک مرتبه در اوّل سفرهایت به مشاهد مشرّفه، در راه سامره و مرتبه دیگر در حرم کاظمین (علیه السلام)، وقتی بالاسر نشسته بودی و دعای سمات می خواندی، شخصی که نزد تو نشسته بود؛ با آن صفاتی که به یاد داری و در فقره ای که می خواندی به تو ردّ نمود: «و اذا دعیت به للعسر تیسّرت» و به تو فرمود: چرا فعل را مؤنّث می خوانی، حال آن که در فاعل آن تأنیثی نیست، آن امام زمانت بود.
گفت: سپس بیدار شدم و یاد دارم این قضیّه را به تمامه در ظهر کتابی نوشته ام که در اردبیل است و آن چه از آن قضیّه به خاطرم مانده، در نجف اشرف هنگام عصر در ششم شهر صفر سنه هزار و سی صد و پنجاه و هشت در خانه سید محمد نایب، خازن حرم مطهّر علوی نوشتم. کتب ها اقل المحدّثین حسن بن حضرت قلی الشّهیر به حاج امین الواعظین اردبیلی تبریزی و دفین الحایر ان شاء الله تعالی.
مؤلّف گوید: جناب امین الواعظین، حال تحریر که غرّه شهر رمضان المبارک سنه مذکوره است، در سامره به زیارت عسکریین (علیهما السلام) مشرّف شد.
[تشرف در مسجد کوفه] 57 مسکه:
در این باب است که جناب حاج شیخ محمد کوفی آن حضرت را در مسجد کوفه می بیند، ولی نمی شناسد.
ایضا جناب آقا میرزا محمد علی از کتاب مذکورش از جناب حاج شیخ محمد تستری پسر حاج محمد طاهر، نزیل شریعه کوفه، در شب چهارشنبه بیست و یکم شهر جمادی الأولی سنه هزار و سی صد و پنجاه و هفت در مسجد سهله به ما خبر داد که حدود سنه هزار و سی صد و سی و پنج، شب هجدهم شهر رمضان قصد مسجد کوفه نمودم که در شب نوزدهم، شب ضربت خوردن حضرت امیر المؤمنین (علیه السلام) و شب بیست و یکم، شب وفات آن جناب را بیتوته کنم و در این امر عظیم و حادثه بزرگ تفکّر نمایم و عزاداری کنم.
گفت: نماز مغرب و عشا را در مقام مشهور به مقام امیر المؤمنین (علیه السلام) به جا آوردم، برخاستم به یک طرفی از اطراف مسجد بروم و افطار کنم، نان و خیار همراه داشتم.
پس به طرف شرقی مسجد متوجّه شدم. چون از طاق اوّل گذشتم و به طاق دوّم رسیدم، دیدم بساطی فرش شده، شخصی به خود عبا پیچیده و بر آن فرش خوابیده است و شخص معمّمی به زیّ اهل علم نزد او نشسته. به او سلام کردم. جواب سلامم را داد و گفت: بنشین، نشستم.
آن گاه شروع کرد از حال یک یک علما و افاضل سؤال کردن و من می گفتم به خیر و عافیت است. سپس آن شخص خوابیده، کلمه ای به او گفت که نفهمیدم چه گفت و آن شخص دیگر سؤالی نکرد.
سؤال کردم: این کیست که خوابیده؟
گفت: این سید عالم است - به فتح لام - کلام او را کلام بزرگی شمردم و گمان کردم می خواهد این شخص را بزرگ شمارد، در نفس خود گفتم؛ سید عالم، آن حجّت منتظر - سلام الله علیه - است.
گفتم: این سیّد، عالم - به کسر - است.
گفت: نه! این سید عالم - به فتح - است. پس ساکت شدم و از آن کلام متحیّر گردیدم و این که می دیدم بر دیوارها نور ساطع است؛ مثل نور چراغ ها و حال آن که شب تاریک و در اوّل های شب است و ملتفت نمی شدم به این نوری که ظاهر است و به معنی کلام این شخص که می گفت: این سید عالم به فتح است.
شیخ محمد گفت: شخص جالس آب خواست. دیدم، شخصی با کاسه آبی در دست نمودار شد. کاسه آب را به او داد، آشامید و بقیّه را به من داد. گفتم: تشنه نیستم. آن شخص کاسه را گرفت، چند قدمی که رفت، غایب شد. پس به جهت نماز در مقام برخاستم و در مصیبت عظمای امیر المؤمنین (علیه السلام) تفکّر نمودم.
آن شخص از مقصد من سؤال کرد مقصود خود را گفتم، مرا ترحیب و دعا کرد.
به مقام آمدم، چند رکعت نماز به جا آوردم و کسالت و نعاس بر من غالب شد. به خواب رفتم و بیدار نشدم مگر این که دیدم هوا مثل روز، روشن است. بنا گذاردم بر ملامت کردن خود بر فوت شدن قصد من از عبادت و بدحالی خود و محزون بودم به جهت مصیبت به آن حضرت و این که چه چیز در این مقام مرا به خواب کرد و حال آن که فوز من در قیام به این مقام بود. آن گاه در آن جا جماعتی دیدم که دو صف کشیده اند، اقامه نماز شده و یک نفر امام جماعت است. یکی از آن جماعت گفت: این جوان را با خود ببریم. امام جماعت گفت: بر او دو امتحان است؛ یکی از آن در سنه چهل و یکی در سنه هفتاد.
حاج محمد گفت: به جهت وضو به خارج مسجد رفتم و چون برگشتم، دیدم هوا تاریک است و اثری از آن جماعت نیست. بعد متنبّه شدم که آن سید عالم، همان حجّت منتظر بود که تمدّد نموده بود و نوری که بر دیوارها ساطع بود، نور امامت بوده و او در مرتبه دوّم امام جماعت بود و هوا به انوار متجلّی آن حضرت، روشن و منجلی شده بود، آن جماعت، خواصّ آن حضرت بودند و آب آوردن آن شخص و برگشتنش از اعجاز آن حضرت (علیه السلام) بوده است.
[تشرف در راه سامره] 58 مسکه:
در این باب است که والده مرحوم حاج سید علی اصغر شهرستانی آن حضرت را در راه سامرّا می بیند ولی نمی شناسد.
سید ثقه جلیل، متعبّد فاضل، سید علی اصغر شهرستانی معاصر (رحمه الله) نجل العالم الربّانی السید محمد تقی الشهرستانی نزیل کربلا ما را خبر داد که والد مرحوم با علویّه والده - طاب ثراهما - به زیارت عسکریّین مشرّف شدند.
در یک شقّ کجاوه، والده با طفل رضیعی که داشت و در شقّ دیگر مرحوم آقا علی اخوی و دو طفل دیگر از اخوه بودند و والد مرحوم با بقیّه زوّار و در راه متفرّق بودند تا به سه فرسخی سامره رسیدند. مالی که کجاوه بر آن بود، از رفتن واماند و اندک اندک از قافله عقب افتاد تا آن که ایستاد و مکاری عقب آن حیوان راه می رفت، مکاری چون دید آن حیوان ایستاد، به نهایت اضطراب، مضطرب شد، زیرا؛ در آن زمان ها راه مخوف بود. نزد علویّه والده آمد و گفت: علویّه! حیوان وامانده و راه مخوف است. به اجداد طاهرینت متوسّل شو که غیر از ائمّه طاهرین (علیهم السلام) از دزدها خلاص و مناص و ملجایی نیست.
والده با شنیدن این مطلب جزع و فزع نمود و به اجداد طاهرینش - صلوات الله علیهم اجمعین - استغاثه کرد. در آن بین که او به این حال بود، ناگاه سیّدی نورانی که آثار ابّهت و جلال از او ظاهر بود، از بین آن تلال و وهال با لباس های سفید فاخری که دربر داشت، ظاهر شد و نظر حادّی به آن حیوان که کجاوه بر آن بود، نمود، تبسّمی فرمود و غایب شد.
ناگاه آن حیوان که عاجز و از رفتن بازمانده بود، کأنّه دو بال درآورد و به احسن وجه و اسرع وقت می رفت. تا این که مدّتی قبل از زوّار وارد سامرّه شدند، به قافله مرور ننمودند، به احدی از زوّار عبور نکردند و بر خانه ای وارد شدند که پسر عمّ ما حجّت الاسلام حاج میرزا محمد حسین شهرستانی منزل نموده بود و قبل از ورود زوّار به زیارت مشرّف شده بودند. چون دیدند والده قبل از زوّار وارد شده، تعجّب نموده، گفتند: چگونه قبل از زوّار قبل از قافله و تنها وارد شدید؟
مدّتی بعد از آن ها والد مرحوم با زوّار وارد شدند و به جهت عدم اطّلاعشان به حال کجاوه در نهایت تشویش بودند، همه از این معجزه باهره تعجّب نمودند و مسرور شدند. و الحمد لله.
[تشرف در حرم سید الشهداء] 59 مسکه:
در این باب است که سید هاشم نایب التّولیه حرم حسینی و شیخ حسین شمّاع آن حضرت را در حرم مطهّر سید الشّهدا (علیه السلام) می بیند، ولی آن حضرت را نمی شناسد.
عبد صالح ثقه، شیخ حسین، شمّاع حرم مطهّر حسینی که از ثقات و معمّرین خدمه حائر حسینی (علیه السلام) است، به ما خبر داد و گفت: من و سید جلیل، سید هاشم مرحوم نایب التّولیه - طاب ثراه - مباشر بستن و باز کردن درهای حرم مطهّر بودیم و در صحن مقدّس بیتوته می نمودیم. عادت ما این بود که اوّل جمیع زوایای رواق مقدّس و حرم مطهّر را تفحّص می نمودیم، آن گاه درها را می بستیم و ایضا بعد از باز کردن جمیع زوایا را تفحّص می نمودیم که کسی مخفی نشده باشد.
شبی از شب ها بر حسب عادت تمام زوایا را تفحّص نمودیم، درها را بستیم و خوابیدیم. آن شب، قدری پیش از وقت همه شب ها بیدار شدم و سید هاشم را بیدار کردم. گفت: نیم ساعت باقی است و بأسی نیست که در حرم مطهّر مشغول نماز باشیم و چون وقت شد، درها را باز نماییم، لذا در رواق مقدّس را گشودیم و از عقب بستیم و یکی از سه در حرم مطهّر را که پیش روی مبارک است، باز کردیم، داخل شدیم و تفحّص نمودیم تا به بالاسر مقدّس رسیدیم، دیدیم سیّدی نورانی ایستاده، مشغول نماز و در حال قنوت می باشد و دست ها را مقابل صورت نگاه داشته است.
سید هاشم گفت: فلانی مگر اوّل شب، وقت بستن درها، تفحّص نکردی؟
گفتم: کمال تفحّص و دقّت را نمودم و احدی را نیافتم.
سید هاشم گفت: چراغ بیاور به صورت او نظر کنیم، ببینیم او را می شناسیم یا نه؟
چراغ آوردم و نظر کردم، گفتم: او را نمی شناسم و هرگز او را ندیده ام. پس ایستادیم و منتظر شدیم او از نماز فارغ شود تا این که خسته شدیم و او هنوز در قنوت بود.
سید هاشم گفت: بیا برویم و تجسّس نماییم کسی را غیر از او در حرم می یابیم یا نه؟
از عقب ضریح مطهّر به طرف پیش روی مقدّس رفتیم و از آن جا به طرف بالاسر مقدّس رفتیم اما او را در آن جا ندیدیم. مشغول تفحّص شدیم و ابدا اثری از او ندیدیم.
سید هاشم گفت: درها که بسته است، پس این سید از کجا خارج شد؟ آن گاه عمّامه خود را از سر انداخت و بنا کرد بر سر خود زدن.
گفتم: سید تو را چه می شود؟
گفت: یقین کردم این سید مولای ما حضرت حجّت - عجّل الله تعالی فرجه - بوده است و او را نشناختیم و نفهمیدیم. گریه بسیاری کرد، وقت داخل شد و درها را از برای زوّار باز کردیم.
[تشرف در راه طویرج] 60 مسکه:
در این باب است که شیخ مرتضی بهبهانی آن حضرت را در طریق طویریج می بیند ولی ایشان را نمی شناسد.
سید فاضل ثقه، سید کاظم شوشتری از احفاد علّامه شوشتری سید عبد الصّمد - اعلی الله مقامه - ما را خبر داد و گفت: شیخ مرتضی بهبهانی به ما خبر داد که یک سال در کربلا وبا شایع شد. حکومت قرنطینه گذارد و مدّت سه ماه از رجوع به نجف اشرف ممنوع بودیم تا این که آن مدّت گذشت.
به رفقا گفتم: برویم نجف، می ترسم قرنطینه دیگری بگذارند. موافقت ننمودند.
فرصت را غنیمت شمرده، مالی کرایه کردم، ساعت ده روز بود که از کربلا به سوی طویریج خارج شدم تا مال را در طویریج تسلیم نمایم. چون مقدار کمی رفتم، هوا ابر شد و باران بارید، عبا را بر سر کشیدم. باران شدّت نمود و مثل سیل می بارید. حیوان از راه رفتن بازماند، ناگاه عربی پیدا شد، زمام حیوان را گرفت و گفت: پیاده شو!
گمان کردم یکی از قطّاع طریق است. گفتم: پیاده نمی شوم.
گفت: پیاده شو! این طویریج است. عبا را از سر برداشتم، دیدم راست می گوید، به طویریج رسیده ام. پیاده شدم و حیوان را به او تسلیم نمودم. به قدر ربع ساعت بیشتر راه طیّ نکرده بودم، حال آن که از کربلا تا طویریج چهار فرسخ به فراسخ مکّاریه است.
پس یقین کردم آن عرب، جز امام زمان (عجّل الله فرجه) نبوده.
[تشرف در وادی السلام نجف اشرف] 61 مسکه:
در این باب است که سید هاشم شوشتری آن حضرت را در راه مقام مهدی (علیه السلام) که در وادی السلام است، می بیند ولی ایشان را نمی شناسد.
ایضا سید فاضل ثقه، سید کاظم شوشتری - ایّده الله - ما را خبر داد که سنه هزار و سی صد و پنجاه و هفت، روزها در نجف اشرف به مقام مهدی (علیه السلام) مشرّف می شدم.
روزی در بین راه، آقا سید هاشم مذکور را ملاقات کردم و به اتّفاق ایشان به مقام مهدی (علیه السلام) رفتیم. در مراجعت برای من نقل کرد:
یک روز در حین رجوع از این مقام شریف به این محلّ رسیدم و مکان را نشان داد.
دیدم سیّدی با عمّامه سبز و محاسن سیاه، در این جا راه می رود. چون به من رسید، سلام کرد. جواب سلامش را دادم و از من گذشت. شب که شد، در عالم رؤیا دیدم در آن مکانی که روز آن سید را دیده بودم، جماعتی ایستاده اند و آن سید را دیدم که از راه منحرف شد، پرسیدم این سید کیست؟
گفتند: فرزند امام حسن عسکری (علیه السلام) است.
[تشرف شیخ محمد حسن مازندرانی] 62 مسکه:
در این باب است که شیخ محمد حسن مازندرانی آن حضرت را در بام منزل خود در کربلای معلّا ولی آن جناب را نمی شناسد.
شیخ جلیل و ثقه نبیل، شیخ محمد تقی حائری از والدش شیخ محمد حسن مازندرانی حائری ما را خبر داد و گفت: چون تزویج نمودم، به مرض سل مبتلا شدم، مرضم شدّت نمود و ضعف بر من مستولی شد؛ به حدّی که بر بیرون رفتن از خانه قادر نبودم، مگر آن که روزی یک مرتبه، وقت عصر به حرم مطهّر مشرّف می شدم و به جهت شدّت ضعف فورا مراجعت می نمودم و عادت من بر این بود که در پشت بام مسند و متّکایی انداخته بودند و به مجرّد رسیدن، تمدّد می نمودم.
یک روز از حرم مطهّر برگشته و تمدّد نموده بودم، ناگاه دیدم سیّدی که به مرحوم سید مهدی قزوینی حلّی در ایّام کهولتش شبیه بود؛ بدون آن که اخبار نماید بر بام برآمد. تعجّب کردم و خواستم به جهت احترام ایشان برخیزم و زن ها را خبر کنم که کسی بالای بام نیاید. به دستش اشاره کرد که ساکن و ساکت باش، دستش را بر پیشانی من مالید و فرمود: حال تو چگونه است؟ و فرمود: بر تو باد به مواظبت قرائت قرآن! دیدم فی الفور مرضم رفع شد و دیدم آن سید غایب گردید و نفهمیدم به آسمان بالا رفت یا به زمین.
[تشرف مجدد شخص مذکور] 63 مسکه:
ایضا در این باب است که شیخ محمد حسن مذکور آن جناب را در بازار کربلا می بیند، ولی نمی شناسد.
سید جلیل نبیل، میرزا عبد الله توسّلی از شیخ محمد حسن مذکور برای ما حکایت کرد که شبی از شب ها، ساعت پنج، مهمانی بر ما وارد شد، حال آن که ما هیچ چیز به جهت پذیرایی مهمان در خانه نداشتیم. متوکّلا علی الله از خانه بیرون آمدم. دیدم تمام دکّان ها بسته است. در بازار می گشتم که شاید دکّانی باز باشد. پس به دکّانی برخوردم که باز بود. سؤال کردم: برنج و روغن و اشیای دیگر که می خواستم، داری یا نه؟
گفت: هرچه می خواهی دارم. آن چه می خواستم خریدم و از کیسه ام وجهی درآوردم که خورد کند، قیمت اجناس خود را بردارد و بقیّه را بدهد.
گفت: بقیّه را ندارم. فردا صبح بیا، ظرف روغن و کیسه ای که برنج در آن است، بیاور تا برای تو خورد کنم.
به خانه آمدم. برای مهمان تهیّه شام دیدیم. شام خوردند و خوابیدیم. صبح که شد ظرف روغن و کیسه برنج و مبلغی که طلب داشت، برداشتم و به بازار رفتم، دیدم همان شخص در دکّانش نشسته، ظرف روغن و کیسه برنج را به او عرضه کردم.
گفت: این ها چیست؟
گفتم: چیزهایی است که دیشب از تو گرفتم.
انکار کرد و گفت: من دیشب ساعت سه در دکّانم را بستم و این ها از من نیست، توهّم کرده ای. کیسه و ظرف را از من نگرفت. اصرار کردم و قسمش دادم. قسم خورد که این ها از من نیست و دکّان دیگری هم جنب دکّان او نبود که برنج و روغن و امثال این ها در آن فروخته شود. بنابراین یقین کردم او امام عصر (عجّل الله فرجه) یا یکی از ملازمین دربار آن بزرگوار بوده است.
[تشرف شیخ محمد تقی حائری] 64 مسکه:
در این باب است که جناب آقا شیخ محمد تقی حائری مازندرانی آن حضرت را در مسجد سهله می بیند، ولی نمی شناسد.
شیخ محمد تقی مذکور ما را خبر داد که شب چهارشنبه ای به مسجد سهله مشرّف شدم و در حجره فوقانی که به گنبد مقام مهدی (عجّل الله فرجه) متّصل است، منزل نمودم و خوابیدم؛ به قصد این که برای نافله شب و تهجّد بیدار شوم. چون بیدار شدم، دیدم وقت، قریب به فجر است. برای تجدید وضو و تهجّد برخاستم، ناگاه صوتی شنیدم که به دعا بلند است و در و دیوارهای مسجد، زمین و هوا با او موافقت می نمایند. فضای مسجد پر از صدا شده بود، من صدا و صوت خوانندگان دعا را در مسجد شنیده بودم و لکن این صدا و صوت غیر از آن ها بود و بین این و آن فرق بسیار بود.
رعب مرا گرفت و تجسّس می نمودم ببینم صدای کیست؟ شخصی را دیدم که عقب آن مقام شریف در مسجد، در طرف مشرق است و مشغول دعا می باشد. نشستم، به قبّه شریفه مقام تکیّه دادم و به دعای او گوش فرادادم که شاید او را بشناسم ولی از دعای او چیزی نفهمیدم الّا لفظ طوارق اللّیل و النّهار، از استماع این کلمه چیزی نفهمیدم، این عبارت در بعضی از دعاها هست و نفهمیدم الّا این که به لفظ شیعتی برای شیعیانش دعا می نمود.
چون این کلمه را شنیدم، خواستم برخیزم اما به جهت ضعف و حالت غشوه ای که بر من عارض شده بود، نتوانستم. چون به حال آمدم، برای تجدید وضوی نماز سرعت نمودم و لکن در آن مکان شریف احدی را ندیدم.
[تشرف در مدرسه مروی تهران] 65 مسکه:
در این باب است که یکی از طلّاب مدرسه مروی که در طهران واقع است، آن حضرت را در آن مدرسه می بیند، ولی نمی شناسد.
عبد صالح، ثقه تقی، حاج حبیب الله، عمّ شیخنا شیخ آقا بزرگ طهرانی صاحب کتاب الذّریعه إلی کتب الشّیعه که بحمد الله پنج جلد آن طبع شده ما را خبر داد و گفت:
عالم ورع تقی، حاج سید خلیل طهرانی عمّه زاده ما به ما خبر داد و گفت: در ایّامی که در مدرسه خان مروی که در طهران است، مشغول به تحصیل بودم، یکی از طلّاب آن مدرسه به جهت تشرّف خدمت حضرت ولیّ عصر (عجّل الله فرجه) مدّت چهل شب مشغول به اعمالی بود.
لیله چهلم، نصف شب به جهت بعضی از کارها از حجره اش بیرون آمد، چون به حوضی که وسط مدرسه است، رسید، شخصی را دید، آن جا ایستاده و به اسم صاحبان خانه هایی که اطراف مدرسه است، اخبار می نماید و می گوید: این خانه تا چند طبقه پیش آن ملک فلان و فلان بود.
طلبه ای گفت: این دزد است، می خواهد مرا مشغول کند، آن گاه برود و دزدی کند.
گفت: رفتم عقب خادم که پشت در مدرسه می خوابید، او را بیدار و به آن چه گمان کرده بودم اخبار کردم.
خادم گفت: در مدرسه و در پشت بام بسته است، دزد از کجا می رود. پس با هم به آن موضعی آمدیم که آن شخص را دیده بودم. احدی را ندیدم. پس یقین کردم آن شخص حضرت ولیّ عصر (عجّل الله فرجه) بوده است.
[تشرف یکی از علمای مستبصر] 66 مسکه:
در این باب است که یکی از علمای مستبصر به حقّ آن حضرت را در منزل شریف مکّه می بیند، ولی نمی شناسد.
سید سند و حبر معتمد، جناب حاج سید محمود شوشتری مرعشی در خانه اش در نجف اشرف در شهر ذی القعده الحرام از این سال که سنه هزار و سی صد و شصت و دو است از سید جلیل فاضل معاصر، السید الممجّد السید علی مدد خراسانی از فخر المحدّثین، آقا میرزا هادی واعظ خراسانی از عالم اجلّ، جناب حاج آقا محسن سلطان آبادی (رحمه الله) ما را خبر داد که گفت:
از طریق شام به حجّ بیت الله مشرّف شدم و سوار شتر بودم. در بعضی از منازل، قافله چند روزی معطّل شد. من محصور شدم و سینه ام تنگ شد. سؤال کردم: در این قریه عالمی هست که با او مجتمع و مأنوس شویم؟
گفتند: از علمای جعفریّه کسی نیست و لیکن عالمی از علمای سنّت هست و اسم او را ذکر کردند.
گفتم: باکی نیست با او مأنوس می شویم و مذاکره علمی می نماییم. نزد او رفتم و بر او داخل شدم، در حالی که مشغول تدریس بود. چون مرا دید، نهایت اکرام و تعظیم نمود، مرا مصدر نمود و به تلامیذش گفت: امروز به جهت اکرام این سید درس را ترک می نماییم.
تلامیذ که رفتند، سؤال نمودم: این اکرام و تعظیم مخصوص من بود یا هرکس بر شما وارد شود به این نحو او را اکرام می نمایید؟
گفت: نه! مخصوص تو، غیر از دیگری است که بر من وارد شود و نیز هرکسی که مثل تو فاطمی باشد. از مذهبش سؤال کردم. گفت: من جعفری مذهب هستم.
گفتم: پس چگونه برای این ها تدریس می نمایی؟
گفت: من اهل این قریه هستم و تقیّه می نمایم. از سبب تشیّعش سؤال نمودم. گفت:
من در دو امر، تفکّر می نمودم؛ یکی این که شیعه می گویند: علویّین بر حقّ می میرند و من می بینم بسیاری از آن ها از اشرارند و به آن حال می میرند و یکی آن که قایل به امام غایبی هستند که کسی او را نمی بیند. پس فایده همچو امامی چیست؟
آن گاه به حجّ مشرّف شدم و شریف مکّه، یعنی شریف حسین، مریض بود. به نزد او رفتم، او تنها بود. چون مرضش مسری بود، از او اجتناب می کردند. او را در حال نزع دیدم، ناگاه سیّدی نورانی بر او وارد شد و شهادتین و اسمای ائمّه (علیهم السلام) را به او تلقین نمود و همان حین وفات کرد.
سپس آن سید رو به من نمود و گفت: حال اولاد فاطمه (علیها السلام) این نحو می شود و امام غایب به این نحو فایده دارد و غایب شد. بیرون آمدم و به وفات شریف اخبار نکردم که مبادا به قتل او متّهم شوم. چون به منزل رسیدم، صیحه از خانه شریف بلند شد. آن گاه صحّت نسب شریف، کیفیّت حال اولاد فاطمه هنگام مردن و فایده وجود امام غایب را دانستم.
این ناچیز گوید: شریف مکّه که در این قضیّه، نام او را شریف حسین ذکر نموده اند؛ غیر از شریف حسینی است که قبل از تسلّط ابن مسعود وهّابی، شریف مکّه بوده و شاید جدّ این شریف حسین بوده و یا در اسم آن اشتباهی واقع شده، چون فوت مرحوم حاج ملّا محسن عراقی چندین سال پیش از فوت این شریف حسین مخذول در زمان وهّابی واقع شده است. فتنبّه.
[تشرف حاج ابو القاسم یزدی در راه مکّه] 67 مسکه:
در این باب است که حاج ابو القاسم یزدی آن حضرت را در راه مکّه می بیند، و نمی شناسد و این تشرّف، به معجزه ای از آن سرور مقرون می شود.
جناب فخر المحدّثین و الذاکرین معروف به مروّج الاسلام از چهار نفر پیرمرد که از حاج ابو القاسم یزدی شنیده بودند، روایت می نمودند. من قضیّه را از ایشان خواستم، نقل کردند و برای حقیر نیز نوشتند که حاج ابو القاسم گفته:
من از گماشتگان حاج سید احمد بودم که از تجّار محترم یزد و به کلاهدوز معروف بود و با ایشان از نجف از راه جبل به سفر حجّ مشرّف شدیم. سه منزل که از نجف اشرف گذشتیم، صبح از منزل حرکت کردیم. قدری از آفتاب گذشته بود و قریب به دو فرسخ راه رفته بودیم، ناگاه شتری که اسبابم روی آن بود و من بر آن سوار بودم، رم کرد، مرا با اسباب انداخت و فرار کرد، ارباب من هم غافل بود.
هرچه صدا زدم بیایید مرا یاری کنید و شتر مرا بگیرید، کسی به حرفم گوش نداد.
از عقب هم، هرکه رسید و هرچه گفتم بیایید مرا کمک کنید، کسی به حرفم اعتنایی نکرد تا این که آمد و شد قافله ها تمام شد. به حدّی که دیگر کسی پیدا نبود و من بسیار می ترسیدم، زیرا شنیده بودم عرب های عنیزه برای مال، حجّاج را می کشند. نزدیک دو ساعت طول کشید و من در فکر بودم. در این بین کسی از عقب من رسید و شتری سوار بود که مهار پشمینه داشت. سؤال کرد: چرا معطّلی؟
گفتم: من عربی نمی فهمم؛ شما چه می گویید؟
به فارسی به من گفت: چه ایستاده ای؟
گفتم: چه کنم؟ شتر، مرا زمین زد و فرار کرد. میان بیابان متحیّر و سرگردان مانده ام.
چیزی نگفت. بازوی مرا گرفت و عقب سر خود سوار کرد. گفتم: اسبابم این جا مانده.
گفت: بگذار، به صاحبش می رسد. قدری که راه رفتیم به تلّ خاکی رسیدیم که خیلی کوچک بود. چوب کوچکی مانند عصا در دست داشت، به گردن شتر اشاره نمود، شتر خوابید. مرا پایین آورد. با عصا به تلّ اشاره کرد. نصف آن به طرفی و نصف دیگر آن به طرف دیگر رفت. در وسط، دری پیدا و باز شد. در سفید سنگی برّاقی بود و من ملتفت نشدم، چطور باز شد. به من گفت: حاجی با من بیا! چند پلّه فرود رفتیم. جایی چون دهلیز بود و از طرفی چند پلّه بود، بالا رفتیم. صحن بسیار وسیعی دیدم غرفه های بسیار داشت. باغی دیدم که به وصف نیاید و خیابان ها داشت. من سرم را به زیر انداخته بودم.
آن شخص فرمود: نگاه کن! نگاه کردم. قصرهای عالیه ای دیدم. چون به آن غرفه ها رسیدیم، غرفه ای را به من نشان داد و گفت: این مقام حضرت رسول است، دو رکعت نماز به جا بیاور!
گفتم: من وضو ندارم.
گفت: بیا برویم، دو سه پلّه بالا رفتیم. حوض کوچکی دیدم که آب بسیار زلال و صافی داشت. به نحوی که زمین حوض پیدا بود. گفت: وضو بگیر!
من به وضو گرفتن معمولی که رسم خودمان است، مشغول شدم، ولی با خوف و خشیت که مبادا این شخص سنّی باشد و برخلاف رسم ایشان وضو گرفته باشم.
گفت: حاجی نشد، این طور وضو بگیر! اوّل، شروع به شستن دست نمود. پس از آن، بر جلوی پیشانی آب ریخت و انگشت ابهام و سبّابه را تا زنخ به پایین کشید. سپس به چشم و بعد از آن بر دماغ دست کشید، بعد مشغول شستن دست ها شد، از مرفق گرفت تا سر انگشت ها، پس از آن سر و پاها را به رسم خودمان مسح کرد. پس از مسح گفت:
این رویّه را ترک مکن!
آن گاه به مقام رسول خدا رفتیم، فرمود: دو رکعت نماز بگذار!
گفتم: خوب است شما جلو بایستید و من اقتدا کنم.
گفت: فرادا بخوان!
دو رکعت نماز کردم. قدری که راه رفتیم، به غرفه ای رسیدیم، گفت: این جا هم دو رکعت نماز بخوان! این مقام حضرت امیر المؤمنین (علیه السلام) داماد حضرت رسول است.
گفتم: خوب است جلو بایستید و من اقتدا کنم.
گفت: فرادا بخوان!
دو رکعت نماز به جا آوردم. قدری که راه رفتیم، گفت: این جا هم دو رکعت نماز بخوان! این مقام جبرییل است. من هم دو رکعت نماز کردم. پس از آن به وسط صحن و فضای آن آمدیم، گفت: این جا هم به نیّت صد و بیست و چهار هزار پیغمبر دو رکعت نماز بگزار! من به جا آوردم.
مقام حضرت رسول سبز رنگ و مقام حضرت امیر، سفید رنگ و نورانی بود. خطّ دور آن سفید رنگ و نورانی و غرفه ها مسقّف بود جز مقام جبرییل که سقف نداشت و سر باز بود. از نماز که فارغ شدیم، گفت: حاجی بیا برویم. از همان راهی که آمده بودیم، برگشتیم. چون بیرون آمدیم، گفتم: بروم بالای بام یک دفعه دیگر تماشا کنم.
گفت: حاجی بیا برویم، بام ندارد. باز مرا سوار کرد.
وقتی شتر مرا زمین زد، خیلی تشنه بودم ولی بعد از آن که همراه او سوار شدم، هر چه با هم می رفتیم، اثر تشنگی هم رفع می شد. پس از سوار شدن، می دیدم زمین به طور غیر عادی زیر پای ما می گردد تا این که از دور به نظرم سیاهی آمد، گفتم: معلوم می شود این جا آبادی است.
گفت: چرا؟
گفتم: نخل های خرما به نظر می آید.
گفت: این علم حاجیان و چادر آن هاست. سپس فرمود: حمله دار شما کیست؟
گفتم: حاج مجید کاظمینی. طولی نکشید به منزل رسیدیم و شتر ما مثل برق از بین طناب های چادرها عبور می کرد و هیچ پای او به طناب خیمه ای بند نمی شد تا آمدیم پشت آن خیمه ای که حمله دار بود. باز با همان چوب به چادر حمله دار اشاره نمود، حاج مجید بیرون آمد. چشمش که به من افتاد، بنای بداخلاقی و تغیّر به من را گذاشت که کجا بودی و چقدر مرا به زحمت انداختی و من تو را پیدا نکردم.
آن شخص کمربند او را گرفت و نشاند، حال آن که حاج مجید، مرد قوی هیکل بود.
به او گفت: به حجّ و زیارت پیغمبر می روی، کسی که به حجّ و زیارت پیغمبر می رود، نباید این اخلاق را داشته باشد. این حرف ها چیست؟ توبه کن!
پس روانه شد و فوری به چادر ارباب من رسید که تخمینا یک میدان راه بود و بدون این که از کسی چیزی بپرسد، با چوب دست خود به چادر اشاره کرد. ارباب بیرون آمد. چشمش که به من افتاد، گفت: شتر سوار! آقا ابو القاسم آمد.
حاج سید احمد گفت: بیایید داخل. من و آن شخص به میان چادر رفتیم. گفت:
حاجی! این امانت که بین راه مانده بود. حاج سید احمد تغیّر کرد که حاجی کجا بودی؟
آن شخص گفت: حاجی هرجا که بود، آمد. دیگر حرفی نمی خواهد. پس آن شخص پا در رکاب کرده، نشست و خواست برود. حاج سید احمد به پسرش گفت: برو برای حاجی قهوه بیاور!
فرمود: من قهوه نمی خورم. حاج سید احمد به پسرش گفت: برو، انعام این شخص را بیاور! رفت یک طاقه شال خلیل خانی و یک کلّه قند آورد. قند را برداشت، کنار گذاشت و گفت: برای خودت باشد. شال را برداشت و گفت: به مستحقّ می رسانم.
بیرون رفت. ارباب هم به جهت مشایعت بیرون آمد. به محض این که بیرون شدند، او را ندیدند، یک مرتبه غایب شد.
آن وقت من حکایت خود را گفتم و ارباب، افسوس خورد. ما شب را بودیم، صبح پیش از بار کردن و حرکت کردن، به جهت امری از چادر بیرون آمدم، شخصی را دیدم باری به دوش گرفته، می آورد. به من رسید و فرمود: این اسباب شما است، بردار! من آن ها را از دوش او برداشتم و او رفت، لکن آن شخص سابق نبود.
[تشرف شیخ حسن کاظمینی] 68 مسکه:
در این باب است که جناب آقا شیخ حسن کاظمینی آن حضرت را می بیند، نمی شناسد و این دیدنش به اعجازی از آن جناب مقرون می شود.
جناب مستطاب، اشرف السّادات، فخر الذّاکرین سید حسن نجفی الأصل مشهدی المسکن در روز دوشنبه سیزدهم شهر ذی حجّه الحرام، سنه هزار و سی صد و شصت و چهار در اوقاتی که به زیارت حضرت ثامن الائمّه (علیه السلام) مشرّف شده بودم، از ناحیه مقدّسه سرّ من رای در منزل ما به ما خبر داد و فرمود: من و والدم حاج سید محمد، ولد سید محمد تقی، ولد سید رضی، ولد میرزا کوچک، ولد محمد تقی، ولد سید محمد مهدی بحر العلوم (رحمه الله) است و گفت: جدّ امّی والد من، شیخ حسن کاظمینی خبر داده و من از والدم شنیدم و آن از جدّ امجد، آقا سید محمد تقی که فرمودند:
شیخ حسن مذکور گفت: سنه هزار و دویست و بیست و چهار در کاظمین (علیه السلام)، من زیاد طالب تشرّف خدمت حضرت ولیّ عصر (عجّل الله فرجه) بودم و عشق و علاقه به این مطلب به اندازه ای شد که از تحصیل باز ماندم و ناچار شدم در کاظمین یک دکّان عطّاری و سقطفروشی باز کنم. روزهای جمعه، بعد از غسل جمعه لباس احرام می پوشیدم، شمشیر حمایل می کردم و مشغول ذکر می شدم. این شمشیر همیشه بالای دکّان ایشان معلّق بود. روز جمعه بیع و شرا نمی کردم و منتظر ظهور فرج امام زمان (عجّل الله فرجه) بودم.
یکی از جمعه ها مشغول ذکر بودم که سه نفر از سادات در مقابل صورتم ظاهر و تشریف فرما شدند؛ دو نفر از آن ها کامل مرد بودند و جوانی حدودا بیست و چهار ساله وسط آن دو آقا بود و صورت مبارکشان فوق العاده نورانی بود، به حدّی که توجّه مرا جلب نمودند و از ذکر تسبیحی که داشتم، بازماندم، محو جمال ایشان شدم و آرزو می کردم به دکّان من بیایند.
خرامان خرامان و با نهایت وقار آمدند تا به در دکّان من رسیدند. سلام کردم.
جواب دادند. فرمودند: آقا شیخ حسن، مثلا گل گاوزبان داری و اسم یک دوایی را بردند که نظرم نیست. آن دوا عقب دکّان بود و حال آن که من روز جمعه بیع و شرا نمی کردم و به کسی جواب نمی دادم، فورا عرض کردم: بلی! دارم.
فرمودند: بیاور!
عرض کردم: چشم. رفتم عقب دکّان برای آوردن آن دوایی که ایشان فرمودند و آن را آوردم. وقتی برگشتم، دیدم کسی در دکّان نیست، لکن یک عصایی روی میز جلوی دکّان بود، آن عصا، عصای آقایی بود که وسط آن دو نفر بود. عصا را بوسیدم و عقب دکّان گذاردم. از دکّان پایین آمدم، هرچه از اشخاصی که آن اطراف بودند، سؤال کردم این سه نفر سیّدی که در دکّان من بودند، کجا رفتند؟ گفتند: ما کسی را در دکّان تو ندیدیم.
دیوانه شده، به دکّان برگشتم، خیلی متفکّر و مهموم بودم که بعد از این همه اشتیاق ملاقات و تشرّف، به لقایشان فایز شدم ولی ایشان را نشناختم. در این اثنا مریض مجروحی را دیدم که او را میان پنبه گذارده اند و به جهت شفا به حرم مطهّر حضرت موسی بن جعفر (علیهما السلام) می برند. من آن ها را برگرداندم و گفتم: بیایید، من مریض شما را خوب می کنم.
مریض را برگرداندند و به دکّان من آوردند، مریض را رو به قبله روی تختی که عقب دکّان داشتم و روزها روی آن می خوابیدم، خوابانیدم و دو رکعت نماز حاجت خواندم، با این که یقین داشتم مولای من حضرت ولیّ عصر (عجّل الله فرجه) بوده که به دکّان من تشریف آورده، خواستم اطمینان خاطر پیدا کنم که آن آقا ولیّ عصر بودند یا نه! و در قلبم خطور دادم که اگر آن آقا ولیّ عصر بوده این عصا را روی این مریض می کشم، این عصا که از روی او ردّ شود بلافاصله شفا برای او حاصل و جراحات بدنش به کلّی رفع شود.
بنابراین عصا را از سر تا قدمش کشیدم، فی الفور شفا یافت و جراحات بدنش به کلّی برطرف شد و زیر عصا گوشت نو بالا آورد. مریض بلند شد و از شوق یک لیره جلوی دکّان گذارد، من قبول نمی کردم، او گمان می کرد آن وجه کم است و چون کم است قبول نمی کنم. از دکّان به پایین جست و از شوق، رو به رفتن گذاشت و من او را تعاقب کردم و می گفتم: پول نمی خواهم و او گمان می کرد می گویم کم است، تا به او رسیدم، پول را به او ردّ کردم، به دکّان برگشتم و اشک می ریختم که آن حضرت را زیارت کردم ولی نشناختم.
چون به دکّان برگشتم، دیدم عصا نیست. از کثرت هموم و غمومی که از نشناختن آن حضرت و نبودن عصا به من روی داد، فریاد زدم: مردم! هرکس مولای من، حضرت ولیّ عصر را دوست دارد، بیاید و تصدّق سر آن حضرت هرچه می خواهد از دکّان من ببرد. مردم می گفتند: باز دیوانه شده ای؟
گفتم: اگر نیایید ببرید، هرچه هست در بازار می ریزم. بیست و چهار اشرفی جمع کرده بودم آن را برداشتم، دکّان را گذاردم و به خانه آمدم، عیال و اولاد را جمع کردم و گفتم: من عازم مشهد مقدّس هستم هرکدام از شما میل دارید، بیایید با من برویم. همه همراه من آمدند جز پسر بزرگم، محمد امین.
پس به عتبه بوسی حضرت رضا (علیه السلام) مشرّف شدم و قدری از آن اشرفی ها که مانده بود، سرمایه کردم و روی سکّوی درب صحن مقدّس به تسبیح و مهرفروشی مشغول شدم. هر سیّدی که می گذشت و از بشره او خوشم می آمد، می نشاندم، جیگاره و فرمان چای می دادم. چون چای می آوردند، دامنم را به دامن او گره می زدم و او را به حضرت رضا (علیه السلام) قسم می دادم که شما امام زمان نیستی؟ خجالت می کشید و می گفت: من خاک قدم ایشان هم نیستم.
تا این که یک روز به حرم حضرت رضا (علیه السلام) مشرّف شدم، دیدم سیّدی به ضریح مطهّر چسبیده و بسیار می گرید. به شانه اش دست زدم و گفتم: آقا جان برای چه گریه می کنی؟
گفت: چگونه گریه نکنم و حال آن که یک درهم برای خرجی در جیبم نیست.
گفتم: فعلا این پنج قران را بگیر، اموراتت را اداره کن و برگرد این جا! من قصد معامله ای با تو دارم، سید اصرار کرد، اراده داری چه معامله ای با من بنمایی؟ من چیزی ندارم.
گفتم: من عقیده دارم هرسیّدی یک خانه در بهشت دارد. آیا آن خانه ای که در بهشت داری به من می فروشی؟
گفت: بلی! می فروشم و گفت: من که خانه ای به جهت خود نشان ندارم، اما چون می خواهید بخرید، می فروشم. من چهل و یک اشرفی جمع کرده بودم که برای اهل بیتم خانه ای بخرم، همان وجه را آوردم و خانه را به جهت آخرتم از سید خریدم. سید رفت و برگشت کاغذ و دوات و قلم آورد و نوشت: در حضور شاهد عادل، حضرت رضا (علیه السلام) خانه ای را که این شخص عقیده دارد من در بهشت دارم به مبلغ چهل و یک اشرفی که از وجوهات دنیاست به او فروختم و تسلیم کردم.
به سید گفتم: بگو بعت.
گفت: بعت.
گفتم: اشتریت و وجه را تسلیم کردم. سید وجه را گرفت و پی کار خود رفت و من هم ورقه را گرفتم و به خانه صبیّه ام مراجعت کردم. گفت: پدر جان چه کردی؟
گفتم: یک خانه برای شما خریدم که آب های جاری و درخت های سبز و خرّم دارد و از هرقسم میوه جات در آن باغ موجود است. آن ها خیال کردند در دنیا چنین خانه ای برایشان خریده ام. بسیار مسرور شدند.
گفتند: شما که این خانه را خریدید می بایست ما را ببرید که این خانه را ببینیم و بدانیم همسایه های این خانه چه کسانی هستند؟
گفتم: خواهید آمد و خواهید دید. سپس گفتم: یک حدّ این خانه به خانه حضرت خاتم النبیّینّ (صلّی الله علیه و آله و سلّم) و یک حدّش به خانه امیر المؤمنین است، حدّ دیگرش به خانه امام حسن (علیه السلام) و یک حدّش به خانه حضرت سید الشّهدا (علیهم السلام) است. این حدود اربعه آن خانه است.
آن وقت فهمیدند من چه کرده ام، گفتند: شیخ چه کرده ای؟
گفتم: یک خانه خریده ام که هرگز خرابی و زوالی برای آن نیست.
مدّتی از این قضیّه گذشت تا آن که روزی نشسته بودم، دیدم آقای موقّری مقابل من تشریف آوردند، سلام کردم و به جواب مشرّف شدم. مرا به اسم خطاب نموده، فرمودند: شیخ حسن! مولای تو امام زمان می فرمایند چرا این قدر فرزند پیغمبر را اذیّت می کنی و به ایشان خجالت می دهی؟
چه حاجتی از امام زمان داری و از آن حضرت چه می خواهی؟
من به دامن ایشان چسبیدم و عرض کردم: قربانتان شوم! آیا شما خودتان امام زمان هستید؟
فرمودند: من امام زمان نیستم، فرستاده ایشان هستم، می خواهم ببینم چه حاجتی داری؟ آن گاه دست مرا گرفتند و به زاویه صحن مطهّر بردند و برای اطمینان قلب من چند علامت و نشانی که کسی اطّلاع نداشت، برایم بیان نمودند، من جمله فرمودند:
شیخ حسن تو نیستی که در قفّه در دجله نشسته بودی، کشتی ای رسید، آب را حرکت داد و تو غرق شدی. در آن موقع به که متوسّل شدی و چه کسی تو را نجات داد؟
به ایشان متمسّک شدم و عرض کردم: شما خودتان هستید.
فرمودند: من نیستم، این علامت هایی است که مولای تو برایم بیان نموده و فرمودند: تو نیستی که در کاظمین دکّان عطّاری داشتی و قضیّه عصا که گذشت، نقل فرمودند و گفتند: آورنده عصا و برنده عصا را شناختی؟ آن مولای تو امام عصر - صلوات الله علیه - بود، حال چه حاجتی داری؟ حوایجت را بگو!
عرض کردم: حوایج من سه چیز بیشتر نیست.
اوّل: می خواهم بدانم با ایمان از دنیا خواهم رفت یا نه؟
دوّم: می خواهم بدانم از یاوران امام عصر هستم و معامله ای که با سید کرده ام درست است یا نه؟
سوّم: می خواهم بدانم چه وقت از دنیا می روم؟
سپس خداحافظی کردند و تشریف بردند. به قدر یک قدم که برداشتند، از نظرم غایب شدند و دیگر ایشان را ندیدم. چند روزی از این قضیّه گذشت و پیوسته منتظر خبر بودم.
روزی موقع عصر، چشمم به جمال ایشان روشن شد. دست مرا گرفتند، باز به زاویه صحن مطهّر، جای خلوتی بردند و فرمودند: سلام تو را به مولایت ابلاغ کردم، ایشان به تو سلام رساندند و فرمودند:
خاطر جمع دار که باایمان از دنیا خواهی رفت، از یاوران ما هم هستی و اسمت در اعداد یاوران ما ثبت شده، معامله ای هم که با سید کردی در نهایت صحّت است و اما موقع فوت تو هروقت برسد، علامتش این است: بین هفته در عالم خواب خواهی دید دو ورقه از عالم بالا به سویت نازل می شود. در یکی از آن ها نوشته شده: لا اله الّا الله محمّد رسول الله و در ورقه دیگر نوشته شده: علیّ ولیّ الله حقّا حقّا، طلوع فجر جمعه آن هفته به رحمت خدا واصل خواهی شد.
به مجرّد گفتن این کلمه که به رحمت خدا واصل خواهی شد، از نظرم غایب شدند و من منتظر وعده بودم.
سید تقی مذکور که سابق ذکر ایشان گذشت نقل کرد: یک روز دیدم شیخ حسن در نهایت مسرّت و خوشحالی از حرم حضرت رضا (علیه السلام) به طرف منزل مراجعت می کرد.
سؤال کردم: آقا شیخ حسن! امروز خیلی شما را مسرور می بینم.
گفت: من همین یک هفته بیشتر، مهمان شما نیستم، هر طور که می توانید مهمان نوازی کنید.
شب های این هفته به کلّی خواب نداشت، مگر روزها که خواب قیلوله می کرد و مضطرب بیدار می شد. پیوسته در حرم مطهّر حضرت رضا (علیه السلام) و یا در منزل، مشغول دعا خواندن بود تا روز پنج شنبه همان هفته، حنا گرفت، پاکیزه ترین لباس های خود را برداشته، به حمّام رفت و کاملا خود را شستشو داد. محاسن و دست و پا را خضاب نمود و خیلی دیر از حمّام بیرون آمد. آن روز و شب غذا نخورد و پیوسته در این یک هفته روزه بود.
بعد از خارج شدن از حمّام به حرم حضرت رضا (علیه السلام) مشرّف شد و نزدیک دو ساعت و نیم از شب جمعه گذشته بود، از حرم بیرون آمد، به طرف منزل روانه گردید و به من فرمود: تمام اهل بیت و بچّه ها را جمع کن! تمام را حاضر نمودم. قدری با آن ها صحبت کرده، مزاح نمود و فرمود: مرا حلال کنید! صحبت من با شما همین است. دیگر مرا نخواهید دید و اینک با شما خداحافظی می کنم. سپس بچّه ها و اهل بیت را مرخّص نمود و فرمود: همگی را به خدا می سپارم. تمام بچّه ها از حجره بیرون رفتند.
بعد به من فرمود: سید تقی، آقا جان! شما امشب مرا تنها نگذارید، ساعتی استراحت کنید، به شرط این که زود برخیزید! بنده خوابم نبرد، ایشان هم کاملا مشغول دعا خواندن بودند، من چون خوابم نبرد، برخاستم، گفتم: شما چرا استراحت نمی کنید، این قدر خیالات نکنید، شما که حالی ندارید، قدری استراحت کنید!
به صورت من تبسّم کرد و فرمود: نزدیک است استراحت کنم، اگر چه من وصیّت کرده ام، باز هم به «اشهد أن لا اله الّا الله و اشهد أنّ محمّدا رسول الله (صلّی الله علیه و آله) و اشهد انّ علیّا و اولاده المعصومین حجج الله» وصیّت می کنم. اما بدان مرگ حقّ است و سؤال نکیرین حقّ است و «انّ الله یبعث من فی القبور». عقیده دارم بر این که معاد حقّ و صراط و میزان حقّ است و اما بعد من قرض ندارم، حتی یک درهم، یک رکعت از نمازهای واجب من در هیچ حالی قضا نشده، یک روز، روزه ام را قضا نکرده ام و یک درهم، مظالم عباد به گردنم نیست و چیزی برای شما باقی نگذاشته ام، مگر دو لیره که در جیب جلیقه ام است، آن هم برای غسّال، حقّ دفن و مختصر مجلس ترحیمی است که برایم تشکیل دهید و همه شما را به خدا می سپارم، و السّلام. از حالا به بعد با من صحبت نکنید و آن چه در کفنم است با من دفن کنید و ورقه ای که از سید گرفته ام، در کفنم بگذارید «و السلام علی من اتّبع الهدی».
پس به اذکاری که داشت، مشغول شد و به عادت هرشب، نماز نافله شب را خواند.
بعد از فراغت از نماز شب، روی آن مصلّایی که داشت، نشست، گویا منتظر مرگ بود.
یک مرتبه دیدم از جای بلند شد و در نهایت خضوع و خشوع به کسی تعارف کرد.
شمردم سیزده مرتبه بلند شد و در نهایت ادب تعارف کرد.
ناگاه دیدم مثل مرغی که بال بزند خود را به سمت درب اطاق پرت کرد و از دل نعره زد: یا مولای! یا صاحب الزّمان! و چند دقیقه ای صورت خود را بر عتبه در گذاشت. من بلند شدم و در حالی که او گریه می کرد، زیر بغلش را گرفتم. بعد گفتم: شما را چه می شود؟ این چه حالتی است که دارید؟
گفت: اسکت و به عربی گفت: چهارده نور مبارک همگی در این حجره تشریف دارند.
من با خود خیال کردم و گفتم؛ از بس عاشق چهارده معصوم است، به نظرش می آید.
فکر نمی کردم این حال سکرات است و آن ها تشریف دارند؛ چون حالش خوب بود، هیچ درد و مرضی نداشت و هرچه می گفت، صحیح بود، حالش هم پریشان نبود.
فاصله ای نشد، دیدم تبسّم کرد، از جای حرکت نمود و سه مرتبه گفت: خوش آمدی ای قابض الارواح! آن وقت در حالی که دست هایش را بر سینه گذاشته بود صورت را به اطراف حجره برگردانید و عرض کرد: السلام علیک یا رسول الله! اجازه می فرمایید؟
و بعد عرض کرد: السلام علیک یا امیر المؤمنین (علیه السلام) اجازه می فرمایید؟ و همین طور به تمام چهارده نور مطهّر سلام عرض نمود، اجازه طلبید و عرض کرد: دستم به دامنتان.
آن گاه رو به قبله خوابید و سه مرتبه عرض کرد: یا الله! به این چهارده نور مقدّس.
بعد قطیفه را روی صورت خود کشید و دست ها را پهلویش گذاشت.
چون قطیفه را عقب کردم، دیدم از دنیا رفته، بچّه ها را برای نماز صبح بیدار کردم و گریه می کردم، آن ها از گریه من مطلب را فهمیدند. صبح جنازه ایشان را با مشیّعین زیادی برداشته، در غسّال خانه قتله گاه غسل دادیم و شب در دار السّعاده حضرت رضا (علیه السلام) دفن کردیم، (رحمه الله) علیه.
[تشرف شیخ محمد شوشتری] 69 مسکه:
در این باب است که جناب حاج شیخ محمد شوشتری کوفی، آن حضرت را در راه سماوه می بیند، نمی شناسد و رؤیتش به معجزه ای از آن سرور مقرون می شود.
شیخ تقی نقی، حاج شیخ محمد شوشتری، ساکن شریعه کوفه به ما خبر داد: سنه هزار و سی صد و پانزده با والد ماجد، الحاج شیخ محمد طاهر، به حجّ مشرّف شدیم.
عادت من این بود که روز پانزدهم ذی حجّه الحرام با رفد مسمّا به طیّاره رجوع می کردم؛ به واسطه آن که آن ها اسرع بودند، تا حایل با آن ها بودیم، از حایل، مفارقت می نمودیم و با صلیب می آمدیم و آن ها ما را به نجف اشرف می رساندند.
آن سال، تا سماوه که از بلاد عراق است، با ما بودند و من در خدمت والد خود بودم.
ناقه ای داشتم و برای والدم، قاطری از جنّازها - اجاره کرده بودم که به نجف اشرف حمل جنازه می نمایند - که ما را به نجف اشرف برسانند.
سپس من و والدم و یک نفر جنّاز روانه شدیم و او جنازه ای برای بردن به نجف اشرف بر قاطری حمل کرده بود و قاطر دیگرش را برای سواری پدرم از او کرایه کرده بودیم. در راه نهرهای کوچک بسیاری بود و چون ناقه من ضعیف بود، در رفتن خصوصا در عبور از نهرها کند بود. تا به نهر عاموره رسیدیم که نهر عریضی بود و عبور نمودن از آن نهر بر ما سخت بود، پس آن شتر را در نهر انداختیم و جنّاز ما را مدد نمود تا آن را عبور دادیم، کنار نهر، بلند و سرازیر بود، پاهای شتر را به طناب بستیم، آن را کشیدیم، خوابید و دیگر حرکت نکرد.
در نقل جناب تائب تبریزی در اعجاز نامه، افتادن شتر در یکی از نهرهای کوچک بوده و چون آن شتر مورد توجّه حضرت بقیه الله شد؛ چنان که مذکور می شود، پس از نهر عامور که اگر کشتی در آن غرق شود، چوب دیلک آن از عمیق آن نمایان نخواهد بود، آن شتر در نهر راهی پیدا کرده و از جلوی قاطرها داخل نهر شد، قاطرها از عقبش در نهر روان شدند و به قدر دو وجب بیشتر، دست ها و پاهای آن حیوانات در آب فرو نرفت.
الحاصل، شیخ محمد مذکور گوید: در امر آن حیوان متحیّر ماندم و سینه ام تنگ شد. پس به قبله توجّه نمودم، به حضرت حجّت (علیه السلام) استغاثه کردم و گفتم: «یا فارس الحجاز! یا ابا صالح! ادرکنی، أفلا تعیننا حتّی نعلم انّ لنا اماما یرینا و یغیثنا»؛ آیا به فریاد ما نمی رسی تا بدانیم امامی داریم که ما را رعایت می کند و به فریاد ما می رسد؟
ناگاه دیدیم دو نفر نزد ما ایستاده اند؛ یکی جوان و دیگری مردی کاملی بود. بر آن جوان سلام کردم. جواب داد. گمان کردم یکی از سکنه نجف اشرف است که اسمش محمد بن الحسین و شغلش بزّازی بود. فرمود: نه! من محمد بن الحسن (علیهما السلام) هستم.
گفتم: این مرد کامل کیست؟
گفت: این خضر است. در روی من تبسّم نموده، بنای ملاطفت گذارد و از حال من سؤال کرد. چون دید محزونم، گفتم: این ناقه من خوابیده و ما در این صحرا مانده ایم، نمی دانم مرا به اهلم می رساند یا نه؟
نزد ناقه پیش آمد، پایش را بر زانوهای ناقه گذارد و گوشش را نزد گوش آن برد. ناقه حرکت کرد و نزدیک بود بپرد. دستش را بر سر آن گذارد، ساکن شد. سپس روی خود را به من کرد و سه مرتبه فرمود: نترس! تو را می رساند. بعد از آن گفت: دیگر چه می خواهی؟
گفتم: کجا می خواهید بروید؟
گفت: می خواهیم به خضر برویم و آن مقام معروفی در شرق سماوه است.
گفتم: بعد از این شما را کجا ببینم؟
فرمود: هر جا بخواهی، می آیم.
گفتم: اهل من در جسر در کوفه است.
فرمود: به مسجد سهله می آیم.
چون به سوی آن دو نفر ملتفت شدم، غایب گردید.
در نقل جناب تایب تبریزی که این معجزه را به نظم آورده و نام آن را اعجاز نامه گذارده، چنین است: چون آن دو نفر را دیدم به واسطه برهنه بودنم که برای بیرون آوردن شتر در میان آب رفته بودم، رفتم پیرهنم را بپوشم که عورتم مستور شود. آن جوان فرمود: مرو!
چون نگاه کردم، اصلا و ابدا بدن خود را ندیدم. بعد از غایب شدن آن دو نفر، به پدرم و آن مرد جنّاز که همراه بودند؛ گفتم: این دو نفر که با آن ها تکلّم می نمودم کجا رفتند؟
پدرم و آن جنّاز گفتند: ما کسی را ندیدیم، مگر دیوانه شده ای که این حرف را می زنی؟ دانستم آن ها آن دو نفر را ندیده اند. پس بارمان را بر ناقه بار کردیم، راه افتادیم و ناقه بعد از آن که در جمیع راه عقب بود، بر قاطرها مقدّم می شد.
جنّاز تعجّب کرده، سؤال کرد: قضیّه این ناقه چیست؟
گفتم: این، از برکات امام عصر - ارواح العالمین له الفداء و عجّل الله فرجه - است.
الحاصل، آمدیم تا آن که نزدیک غروب آفتاب به چادرهای سیاه جماعتی از بدوی ها رسیدیم و به چادر شیخ آن ها وارد شدیم. شیخ گفت: شما از کجا و از چه راه آمده اید؟
گفتیم: ما از سماوه و از نهر عامور می آییم.
گفت: سبحان الله! راه متعارف سماوه به نجف، این راه نیست، با این شتر و قاطرها چگونه از نهر عبور نمودید و حال آن که عمیقی آن نهر به حدّی است که اگر کشتی در آن غرق شود، دیلک آن هم نمایان نخواهد بود. پس بر خانه خود وارد شدیم.
در نقل تائب در اعجازنامه چنین است: آن ناقه ما را تا مقابل قبر میثم تمّار آورد و آن جا به زمین خوابید. نزدیک گوشش رفته، آهسته به او گفتم: بنا بود ما را به منزلمان برسانی. تا این حرف را شنید، فی الفور حرکت نمود و به راه افتاد تا ما را به خانه ای رساند که در کوفه سکنا داشتیم. بعد از آن، آن ناقه، اوّل روز از منزل بیرون می آمد، رو به صحرا نموده، به چرا و علف خوردن مشغول بود؛ بدون آن که کسی از او مواظبت و نگاهبانی کند و آخر روز به جایگاه خود که در منزل ما داشت، برمی گشت.
مدّت ها بر این منوال بود و چون مدّتی گذشت، روزی بعد از نماز نشسته، مشغول تسبیح بودم، ناگاه شنیدم کسی دو مرتبه به فارسی ندا می کند: شیخ محمد، اگر می خواهی حضرت حجّت را ببینی، برو مسجد سهله! آن گاه سه مرتبه به عربی ندا کرد: «یا حاجی محمد! ان کان ترید تری صاحب الزّمان فامض إلی السّهله»؛ اگر می خواهی حضرت حجّت را ببینی، برو مسجد سهله!
برخاستم و به سرعت به سوی مسجد سهله روانه شدم. چون نزدیک در مسجد شدم، در مسجد بسته بود. در کار خود متحیّر گشتم و پیش خود گفتم: این ندا چه بود که مرا ندا کرد؟
دیدم مردی از طرف مسجدی که به مسجد زید معروف است، رو به مسجد سهله می آید. با هم ملاقات کردیم و قدری با هم آمدیم، تا به در اوّلی رسیدیم که در فضای قبل از مسجد است. نزد عتبه در ایستاد و بر دیوار طرف چپ تکیه کرد. من مقابل او نزد عتبه در ایستادم و به دیوار دست راست تکیه کردم، به او نظر می کردم و او سرش را پایین انداخته و دست هایش را از عبایش درآورده بود و دیدم خنجری به کمربندش بسته است.
ترس مرا گرفت و در خیال افتادم. دستش را بر در گذاشت و گفت: خضیّر باز کن! شخصی جواب داد: لبّیک! در حرکت کرد، قبل از آن که کسی باز کند، از داخل باز شد.
پس داخل فضای اوّل شد و من هم از عقب او داخل شدم، با رفیقش ایستاد و من به آن ها نگاه می کردم، داخل مسجد می شدم و متحیّر بودم آیا آن حضرت است یا نه؟
چند مرتبه از عقب سر خود نگاه کردم، دیدم با رفیقش ایستاده، داخل مسجد شدم و تا قدری از روز گذشت در مسجد بودم. برخاستم که نزد اهل خود برگردم. شیخ حسن، خادم مسجد را ملاقات کردم. سؤال کرد: تو دیشب در مسجد بودی؟
گفتم: نه!
گفت: چه وقت داخل مسجد شدی؟
گفتم: صبح.
گفت: چه کسی در را باز کرد؟
گفتم: غنّامه و گوسفنددارها که در مسجد بودند. خندید و رفت. شیخ محمد مذکور این قضیّه را در خانه اش، در شریعه کوفه در شب بیست و سوّم شهر ذی حجه الحرام سنه هزار و سی صد و پنجاه و سه به ما خبر داد.
ختمه للعبقرّیه و هدیّه للبریّه:
بدان چون خدمت ملازمین رسیدگان آن حضرت، بسیار و عدد آنان بی شمار است، لذا خوش داشتم چند قضیّه از آن ها را ذیل این عبقریّه به سمت تحریر درآورم، فأقول.
[تشرف خدمت ملازمین آن جناب] 70 مسکه:
حاج سید احمد مرحوم ما را حکایت کرد و برای من نیز نوشت: از ترکه مرحوم والدم، کتاب تحفه الابرار که رساله عملیّه سید العلماء الاعاظم حجّه الاسلام حاج سید محمد باقر شفتی رشتی است و او اوّل کسی بود که به حجّه الأسلام مشهور شد و گفت:
آن رساله به خطّ سید و خوش خطّ بود و بر پشت آن کتاب وصیّت های چندی، برای مطالعه کننده نوشته بود. از جمله این که نوشته بود:
در تمام اوقات به حضرت ولیّ عصر (عجّل الله فرجه) التزام تمام و اقبال به جمیع قلب داشته باشید که آن جناب، پدر شفیق جمیع خلق است. بپرهیزید از این که از توجّه به آن حضرت غفلت کنید و اقبال به غیر داشته باشید. من مشاهده جزیره خضرا، بحر ابیض و بلادی که اولاد آن سرور در آن حکومت دارند و خلق کثیری که در نهایت جلالت اند از آن حضرت می خواستم و خدا را به حقّ ولیّش (عجّل الله فرجه) قسم دادم که صحّت این امر بر من مکشوف گردد تا آن که شب عید غدیری که شب جمعه بود، ثلث آخر شب، در کنار باغچه ای در خانه ما در اصفهان، در محلّه کبیری که به آن بیدآباد می گویند، راه می رفتم.
ناگاه سید مجلّلی دیدم که به سیمای علما بود و مرا به جمیع ما فی الضّمیر من و به صحّت امصار و بلادی که در جزیره خضراست، خبر داد و گفت: آیا می خواهی به چشم خود ببینی، تا برای تو و سایر اولی الابصار عبرتی باشد؟
گفتم: بلی، ای آقای من! منّت عظیمی بر من می گذاری.
گفت: بیا، دو چشمت را بر هم گذار و هفت مرتبه بر جدّت محمد و آل او صلوات فرست! آن چه مرا امر فرمود، کردم. سپس فرمود: دو چشمت را باز و نظر کن، از آیات الهیّه چه می بینی؟
بلده ای دیدم که خانه آن از هم دور بود از چشمه ها و طرف راست و چپ آن از درخت ها و گل ها سبز و خرّم بود؛ کانّها جنّات تجری من تحتها الأنهار.
گفت: به آخر آن درخت ها نظر کن!
گفتم: بلی.
گفت: برو آن جا، مسجد و امامی می بینی، او نماز فجر را به جا می آورد و عقبش جماعت و صفوفی هست که نهایت ندارد؛ با آن امام نماز کن، او از طبقه هفتم اولاد حضرت صاحب الزمان و اسمش عبد الرحمن است، بعد از نماز مرا آن جا می بینی.
رفتم، دیدم زمین زیر پای من طیّ می شود تا به آن مسجد رسیدم؛ همان طوری که گفته بود و آن امام در محراب ایستاده بود؛ مثل بدر لامع و نور صورتش تا عنان آسمان، متصاعد بود. او مرا دید و من او را دیدم.
فرمود: مرحبا بک! به درستی که خدا بر تو منّت گذارد. سپس مسایلی از احکام از او سؤال کردم که مشکل بود. آن ها را جواب داد، مرا اکرام و انعام کرد و به بعض ما فی الضّمیر من، مرا اخبار نمود.
آن گاه نماز فجر را به جا آورد، به او اقتدا کردم و به تعقیباتی که داشتم مشغول شدم، تا آن که نزدیک طلوع آفتاب شد. در خاطرم گذشت همچو وقتی با مردم نماز می خواندم و آن ها بر عادت هرروز خود، منتظر من هستند، امروز گذشت و به آن ها نمی رسم.
آن گاه شنیدم آن سید امام که در محراب نشسته می گوید: مترس و محزون مباش! به زودی تو را به جای خود می رسانیم و با آن ها نماز می کنی. پس دیدم آن سید اولی نزد من است، دست مرا گرفت و گفت: به برکت امام زمان خود (عجّل الله فرجه) برویم؛ ناگاه خود را در مسجد خود دیدم، با جماعت نماز خواندم و دیگر آن سید را ندیدم.
ایضا، عالم فاضل ورع ثقه، جناب حاج میرزا محمود کلباسی که از احفاد محقّق کلباسی، صاحب اشارات، مناهج و غیرهماست، او از افاضل مهاجرین به ناحیه سامرّا بود و فعلا ساکن ارض اقدس و مقیم به وظایف شرعیّه است. این عالم فاضل، از سید جلیل آقا میرزا عبد الله توسّلی به ما خبر داد که گفت: روزی در محضر علّامه شیرازی آقا میرزا علی آقا نجل زکّی حضرت آیه الله العظمی المجدّد، حاج میرزا محمد حسن شیرازی - اعلی الله مقامه - بودم. جناب عالم ربّانی حلّاج، سید ابو محمد ساوجی که از اجلّای علما و نجل زکّی عالم جلیل نبیل، سید اسماعیل ساوجی و در زمان شیخنا الاعظم المذکور از مهاجرین ناحیه مقدّسه به جهت تحصیل علم و از متعبّدین و متهجّدین بود، گفت:
روزی در ساوه در محضر والد - اعلی الله مقامه - بودم که دو زن داخل شدند، همراه یکی از آن ها کتابی بود و گفت: شوهر من فلان عطّار رفت و مرا امر کرد این کتاب را به شما تسلیم نمایم.
والد فرمودند: من نزد شوهر تو کتابی نداشتم.
گفت: من نمی دانم، شوهرم مرا امر کرده این کتاب را به شما بدهم.
والد فرمود: کتاب را بگیر! فردای آن روز امر فرمود که در دکّان آن عطّار را مهر کنم.
گفتم: دکّان آن باز است.
گفت: باز نیست. برو می بینی که بسته است. رفتم، دیدم بسته است و مهر کردم.
فردای آن روز آن زن آمد، دفتر کوچکی با او بود و به والد عرض کرد: شوهر من سه یا چهار روز است رفته و خبری از او نشده، ما جمیع نقاط و اطراف را از او تحقیق و تفحّص نمودیم ولی او را نیافتیم، حال تکلیف ما چیست؟
والد به او فرمود: شوهر تو رفته، خطّی به من نوشته و در جوف آن کتابی گذارده که تو و نه غیر تو از امر او مطّلع نشوید، این کتاب هم از من نیست. پس گوش فراده تا بدانی چه نوشته و مضمون آن خطّ این بود:
الان در دکّانم نشسته بودم که دو یا سه نفر نزد من آمدند و گفتند: امام زمان به احضار تو امر فرموده، کارهایت را تصفیه کن و بیا!
سؤال کردم: آیا می دانید آن حضرت برای چه مرا می خواهد؟
گفتند: نمی دانیم. ولی گمان می کنیم می خواهد تو را به جای یکی از اصحابش که در این نزدیکی وفات نموده، وادارد. لذا کارهایم را تصفیه کردم و دیناری به احدی مدیون نیستم، مطالبات من در این دفتر رسمی است که در نزد من است. بعد از رفتنم، اموالم را علی ما فرض الله قسمت کنید و زوجه مرا طلاق بدهید، او در طلاق گرفتن و نگرفتن مختار است و دخترک مرا حفظ کنید تا بزرگ شود و به خانه شوهر برود و السّلام.
والده (رحمه الله) فرمود: من تا به حال این عطّار را ندیده ام.
ایضا در زمان سیّدنا الاستاد الاعظم المجدّد، حاج میرزا محمد حسن شیرازی - اعلی الله مقامه - در رنگون که از بلاد هند است، شخصی از تجّار، صبح از خانه اش در آمد، دیگر برنگشت و اثری از او به دست نیامد.
به حاج خلیل که از خدّام، شیعه و شخص متدیّنی بود در سامره نوشتند که از مرحوم میرزا بخواهد دو نفر مذکور از اصحاب را بفرمایند شب در حرم مطهّر عسکریّین (علیهما السلام) بخوابند تا شاید حضرت حجّت (عجّل الله فرجه) را خواب ببینند و از ایشان از آن شخص تاجر سؤال کنند که چه شده است؟
پس دو نفر از اجلّای اصحاب؛ یکی مرحوم حاج ملّا زمان مازندرانی که صائم الدّهر بود و یکی جناب آقا خوند ملّا اسماعیل سمنانی شبی رفتند و در حرم مطهّر خوابیدند.
جناب حاج ملّا زمان، در شاه نشین بالاسر مطهّر که سرش طرف ضریح و پایش رو به مغرب بود، خوابید. در عالم رؤیا دید حضرت ولیّ عصر (عجّل الله فرجه) از طرف بالاسر تشریف می آورند. چون به آن شاه نشین رسیدند، از حضرت از آن شخص تاجر سؤال کردند. حضرت لب های مبارک را به هم فشار دادند و چیزی نفرمودند.
بنابراین، این مطلب را در جواب نوشتند و مظنون این شد که حضرت آن تاجر را در اصحاب خود داخل نموده اند.
ایضا جناب اخلاقی کبیر، علّامه حاج میرزا علی قاضی طباطبایی نجفی تبریزی، در عصر روز جمعه غرّه ربیع الأوّل سنه صد و سی پنج در نجف اشرف به ما خبر داد:
یکی از آن هایی که با او الفت داشتند به او نوشته بود و اسم او را نبرد که در شب نیمه شعبان عریضه ای خدمت امام زمان (عجّل الله فرجه) نوشت و آن را به عادت معمول آن بلد در آب انداخت. بعد از چند روز شخصی آمد و گفت: عریضه تو به امام (علیه السلام) رسید و زود است که شب عاشورا بیایم و تو را به سوی آن حضرت ببرم.
او نوشته بود: آن چه از عبادات برای من ممکن بود، برای قابلیّت تشرّف خدمت امام (علیه السلام) انجام دادم تا آن که در لیله عاشورا که لیله میعاد از سنه مذکوره بود، ناگاه دیدم آن مرد آمد و در یک طرفه العین مرا به سوی جزیره ای برد که امام (علیه السلام) در آن ساکن است.
سپس آن چه خارج از حدّ وصف و بیان است، دیدم. ارواح انبیا و اوصیا (علیه السلام) آن جا بود و از آثار عظمت، آن چه را که مشاهده نمودم که مدهوش گردیدم و ملتفت نشدم امام (علیه السلام) را دیدم یا نه تا این که آن مرد در طرفه العینی مرا به سوی اهلم برگرداند.
ایضا عبد صالح ثقه، حاج سید احمد آقای خراسانی از پیرمردی به ما خبر داد که موجود است و گفت: در اوقات جوانی ما، او جوانی متدیّن بربری و منتظر ظهور موفور السرور حضرت ولی عصر (عجّل الله فرجه) بود، اسب و شمشیری مهیّا نموده بود که آن حضرت ظهور فرماید و در رکاب ظفر انتساب آن بزرگوار باشد.
او به سمتی رفته بود چون برگشت، بعضی به عنوان شوخی به او گفتند: آمدند عقب تو، نبودی.
پرسید: از کدام طرف رفتند؟
به شوخی گفتند: از این طرف و به طرفی اشاره کردند. همان نحو که سوار بود به آن سمت رفت، قدری که رفت، دیدیم سی نفر سوار ایستاده اند؛ رفت بین آن ها و با آن سوارها رفت و دیگر آن بربری را ندیدیم.
[توضیح روایت ردّ مشاهده کنندگان]:
حدّ عقد احلی من القند بدان وجوهی که علمای اعلام در جمع میان توقیع شریف علی بن محمد سمری که در آن چنین است: من ادّعی المشاهده قبل خروج السّفیانی و الصّحیحه فهو مفتر کذّاب و میان این حکایات این عبقریّه و امثال آن که در یاقوت الاحمر درج شده، بیان کرده اند در دو مورد از این کتاب به نحو اجمال و تفصیل ذکر نموده ایم و لکن آن چه در این مقام در نظر جلوه گر است، آن است که میان توقیع شریف و امثال این حکایات معارضه ای نیست که محتاج به جمع باشد، زیرا توقیع شریف در صدد ردّ و منع از دعوی ظهور است و مشاهده در آن به معنی ظهور و حضور است؛ چنان که در آیه مبارکه است: ﴿فَمَنْ شَهِدَ مِنْکُمُ الشَّهْرَ فَلْیَصُمْهُ﴾ (بقره: 185). بنابراین به معنی رویت نیست تا علما در حیص و بیص در جمع میان توقیع شریف و این حکایات بیفتند.
قرینه بر این معنی دو چیز است: یکی قول آن حضرت که می فرماید: فلا ظهور الّا بعد از هرج و مرج و فتنه و فساد و دیگری قول آن بزرگوار است که می فرماید: هرکس پیش از خروج سفیانی و صیحه آسمانی مدّعی مشاهده، یعنی ظهور باشد - که این ها هر دو از علایم ظهورند - مفتری و کذّاب است.
فعلی هذا، میان توقیع شریف آن بزرگوار و امثال آن، که ردع و منع از مشاهده آن حضرت در آن ها ذکر شده و میان این حکایات مسطوره در این کتاب شریف و سایر کتب هیچ معارضه ای نیست، خذه و اغتنم. انتهی.
[شرحی در دعای فرج]:
اشاره فیها بشاره:
بدان از جمله معاجز آن ولیّ کردگار و حجّت غایب از انظار، قضیّه ابو الحسن بن ابی البغل است که ما آن را در یاقوته بیست و دوّم از عبقریّه نهم این بساط، نقل نموده ایم و چون عمل مذکور در آن را حقیر به کرّات تجربه نموده، در انجاح مطلوب مؤثّر دیدم؛ لذا خوش دارم مؤثّر بودن آن را از معاصر مرحوم ملّا محمود العراقی نیز ذکر نمایم که او در دار السلام نقل نموده است. چون در آن کتاب، بعد از نقل قضیّه تشرّف ابو الحسن بن ابی البغل در حرم کاظمین در خدمت آن بزرگوار و دعای فرج، یا من أظهر الجمیل و ستر القبیح...، الخ را به او تعلیم می فرماید.
مؤلّف گوید: ذکر این خبر مناسب فصل سابق بود و ذکر این شخص در عداد کسانی که شرفیاب خدمت آن بزرگوار شده اند؛ انسب می نمود و سبب ذکرش در فصل معجزات، همان طور که در بحار هم در این باب ذکر شده، آن است که جهت معجزه را در آن اقوی دیدم، زیرا از این عمل آثار غریبه مشاهده کرده ام.
اوّلین بار که به این نعمت رسیدم سال هزار و دویست و شصت و شش بود که با امام جمعه تبریز، حاج میرزا باقر بن میرزا احمد تبریزی - طاب ثراهما - ، در همین بلده که دار الخلافه طهران است، منزل داشتیم؛ در خانه آقا مهدی ملک التجّار تبریزی که ما بین مسجد شاه و مسجد جمعه واقع شده، از ورثه میرزا موسی، برادر حاج میرزا مسیح - طاب ثراه - به او منتقل گردیده و الان در تصرّف پسرش حاجی محمد کاظم ملک التجّار است.
حقیر بر ایشان مهمان بودم، او برای مراجعت به تبریز از جانب شاه مأذون نبود؛ حقیر هم به سبب انسی که مانع از مراجعت به وطن بود و بدون تهیّه هم، چون عزم توقّف نبود، بیرون آمده بودم. امام جمعه هم به این ملاحظه بود که بر ایشان مهمانم و مخارج مأکول و مشروب با ایشان می باشد، غافل از آن که مصارف دیگر هم هست و چون با اهل بلد انسی نداشتیم، متمکّن از قرض گرفتن نبودم، لهذا برای بعضی مصارف مثل پول حمّام و غیر آن، بسیار در شدّت بودم.
اتّفاقا روزی میان تالار حیاط با امام جمعه برای استراحت و نماز، نشسته بودم، برخاسته به غرفه ای رفتم که در بالای شاه نشین تالار واقع است و مشغول ادای فریضه ظهرین شدم. بعد از نماز در طاقچه غرفه، کتابی دیدم، آن را برداشته، گشودم.
کتاب، ترجمه جلد سیزدهم بحار و در احوالات حضرت حجّت - عجل الله فرجه - بود.
تا نظر کردم، همین خبر در باب معجزات آن سرور جلوه گر آمد. با خود گفتم؛ با این حالت و شدّت، این عمل را تجربه نمایم. برخاسته، نماز، دعا و سجده را به جا آورده، فرج را خواستم، از غرفه به زیر آمدم تا در تالار نزد امام جمعه بنشستم، ناگاه مردی از در آمد، رقعه ای به دست امام جمعه داد و دستمال سفیدی نزد او نهاد. چون رقعه را خواند، آن را با دستمال به من داد و گفت: این مال تو است.
وقتی ملاحظه کردم، دیدم آقا علی اصغر تاجر تبریزی که در سرای امیر، اطاق تجارت داشت، بیست تومان که دویست ریال بود، در دستمال گذاشته و در رقعه به امام جمعه نوشته این را به فلانی بدهید. خوب تأمّل کردم، دیدم از زمان فراغت از عمل تا زمان ورود رقعه و دستمال، زیاده بر آن که کسی از سرای امیر بیست تومان بشمارد، رقعه بنویسد و به آن مکان روانه دارد، وقت نگذشته است. چون این را دیدم، تعجّب کرده، سبحان الله گویان خندیدم. امام جمعه از تعجّب من پرسید، واقعه را برایش نقل کردم.
گفت: سبحان الله! پس من هم برای فرج خود این را کار بکنم.
گفتم: زود برخیز و به جا آور. او هم برخاست، به همان غرفه رفت، نماز ظهرین را ادا کرد و بعد از آن، عمل مذکور را به جا آورد. زمانی نگذشت، امیر را که سبب احضار او به طهران شده بود، ذلیل و معزول نمودند و به کاشان فرستادند، شاه هم عذرخواه آمد و امام جمعه را با احترام به تبریز برگردانید.
بعد از آن، حقیر این عمل را ذخیره کرده، در مظانّ شدت و حاجت به کار می برده و آثار سریعه غریبه مشاهده می نمودم، تا این که یک سال در نجف اشرف ناخوشی وبا شدّت کرد، مردم را کشت و خلق را مضطرب نمود. حقیر چون این را دیدم، از دروازه کوچک بیرون رفتم و در خارج دروازه در مکانی، فرد، این عمل را به جا آوردم، رفع وبا را از خدا خواستم و بدون اطّلاع دیگران برگشتم. فردای آن روز از ارتفاع وبا خبر دادم.
آشنایان گفتند: از کجا می گویی؟
گفتم: سبب را نگویم، لکن تحقیق کنید، اگر از دیشب به بعد کسی مبتلا شده باشد، راست است.
گفتند: فلان و فلان امشب مبتلا شده اند.
گفتم: نباید چنین باشد، بلکه باید از پیش از ظهر دیروز و قبل از آن بوده باشد.
چون تحقیق نمودند چنان بود و دیگر بعد از آن در آن سال ناخوشی دیده نشد. مردم آسوده شدند ولی سبب را ندانستند. مکرّر اتّفاق افتاده که برادران را در شدّت دیده ام، به این عمل واداشته، به زودی فرج رسیده است، حتی آن که یک روز منزل بعضی از برادران بودم، بر شدّت امرش مطّلع شدم، این عمل را به او تعلیم نموده، به منزل آمدم.
بعد از اندک زمانی آواز در را شنیدم. دیدم همان مرد است، می گوید: از برکت دعای فرج برایم فرجی حاصل شد و پولی رسید؛ تو را هم هرچه قدر در کار است، بدهم.
گفتم: من از برکت این عمل حاجتی ندارم، لکن بگو امر تو چگونه شد؟
گفت: بعد از رفتن تو به حرم امیر المؤمنین (علیه السلام) رفتم و این عمل را به جا آوردم.
چون بیرون آمدم، در میان ایوان مطهّر کسی به من برخورد، به قدر حاجت در دستم نهاد و رفت.
بالجمله حقیر از این عمل آثار سریعه دیده ام، لکن در غیر مقام حاجت و اضطرار به کسی یاد ندادم و به کار نبرده ام، زیرا تسمیه آن بزرگوار، این را به دعای فرج، به این اشعار دارد که در وقت ضیق و شدّت اثر نماید. و الله العالم. انتهی.
قد تمّ البساط الثّانی من الکتاب المستطاب المسمّی بالعبقریّ الحسان فی احوال مولانا صاحب الزّمان فداه ارواح الانس و الجانّ علی ید مؤلّفه العبد المذنب الأحقر ابن محمّد حسین النهاوندی علی اکبر امنهما الله من فزع یوم المحشر فی العید السّعید الغدیر من عام الخمسین بعد الألف و ثلاث مائه من هجره من له العزّ و الشرف فی المشهد المقدّس الرضویّه علی مشرّفه آلاف الثّناء و التّحیه.

پاورقی:

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(1) المسک: طیب و هو من دم دابه کالظّبی یدعی غزال المسک و القطعه من المسک تدعی مسکه؛ جمع: مسک. المنجد [مرحوم مؤلّف].
(2) کفایه المهتدی[گزیده]، ص 133، حدیث بیست و نهم و نیز ر. ک: اثبات الهداه، ج 7، ص 138؛ کشف الحق(الاربعین) خاتون آبادی، ص 15.
(3) کمال الدین و تمام النعمه، ص 423 - 417.
(4) دلائل الإمامه، ص 496 - 489.
(5) الغیبه، شیخ طوسی، ص 214 - 208.
(6) ر. ک: روضه الواعظین، ص 256 - 252؛ مدینه المعاجز، ج 1، ص 521 - 512؛ بحار الانوار، ج 51، ص 15 - 10.
(7) دلائل الإمامه، ص 399.
(8) ر. ک: کفایه المهتدی[گزیده]، حدیث 29، ص 481 - 143.
(9) دلائل الإمامه، ص 391.
(10) ر. ک: کفایه المهتدی، همان صفحه.
(11) کمال الدین و تمام النعمه، ص 430 - 426.
(12) ر. ک: الثاقب فی المناقب، ص 203 - 201.
(13) الارشاد، ج 2، ص 351.
(14) ر. ک: مدینه المعاجز، ج 8، ص 20 - 14؛ بحار الانوار، ج 51، ص 15 - 11.
(15) الهدایه الکبری، ص 355.
(16) اثبات الوصیه للامام علی بن ابی طالب (علیه السلام)، ص 257.
(17) الغیبه، شیخ طوسی، ص 325.
(18) کمال الدین و تمام النعمه، ص 424.
(19) کمال الدین و تمام النعمه، ص 431.
(20) اثبات الوصیه للامام علی بن ابی طالب (علیه السلام)، ص 258.
(21) الهدایه الکبری، ص 356.
(22) بحار الانوار، ج 15، ص 274.
(23) اثبات الوصیه للامام علی بن ابی طالب، ص 259.
(24) اثبات الوصیه للامام علی بن ابی طالب، ص 258.
(25) الهدایه الکبری، ص 356.
(26) الغیبه، شیخ طوسی، ص 236.
(27) مشارق الانوار الیقین فی اسرار امیر المؤمنین، ص 157.
(28) الغیبه، شیخ طوسی، ص 236.
(29) سوره قصص، آیات 5 و 6؛ الغیبه للطوسی، 234.
(30) کمال الدین و تمام النعمه، ص 425.
(31) الغیبه، ص 238.
(32) کمال الدین و تمام النعمه، ص 425.
(33) الغیبه، ص 239.
(34) الهدایه الکبری، ص 356.
(35) اثبات الوصیه للامام علی بن ابی طالب، ص 259.
(36) الهدایه الکبری، ص 356.
(37) اثبات الوصیه للامام علی بن ابی طالب، ص 259.
(38) الهدایه الکبری، ص 356.
(39) الهدایه الکبری، ص 357.
(40) الأدبه و المأدبه طعام یصنع لدعوه او عرس جمع مأدب(المنجد).
(41) الارشاد فی معرفه حجج الله علی العباد، ج 2، ص 339.
(42) مسار الشیعه فی مختصر تواریخ الشریعه، ص 58 - 61.
(43) تاریخ قم، ص 204.
(44) الهدایه الکبری، ص 334.
(45) اثبات الوصیه، ص 257، در آن جا فقط روایت پنجاه و پنج یافت شد و از پنجاه و شش نامی برده نشده بود.
(46) غایه المرام، ج 3، ص 264.
(47) فوائد الرجالیه، ج 2، ص 358.
(48) مناقب آل ابی طالب، ج 3، ص 499.
(49) بحار الانوار، ج 99، ص 79.
(50) فوائد الرجالیه، ج 2، ص 317.
(51) الارشاد فی معرفه حجج الله علی العباد، ج 2، ص 295.
(52) کمال الدین و تمام النعمه، ص 430 - 426.
(53) مشارق الانوار الیقین فی اسرار امیر المؤمنین، ص 157.
(54) بحار الانوار، ج 35، ص 24 - 19.
(55) ر. ک: مناقب آل ابی طالب (علیه السلام)، ابن شهرآشوب، ج 1، ص 183؛ عوالی اللئالی العزیزیه فی الأحادیث الدینیه، ج 1، ص 418؛ بحار الانوار، ج 16، ص 402.
(56) کمال الدین و تمام النعمه، صص 429 - 428.
(57) ر. ک: بحار الانوار، ج7، ص326؛ تفسیر القمی، ج2، ص253.
(58) ک: تهذیب الأحکام، ج6، ص107.
(59) ر. ک: بصائر الدرجات، ص172.
(60) ر. ک: بصائر الدرجات، ص172؛ بحار الانوار، ج26، ص39 - 28.
(61) بحار الانوار، ج26، ص21.
(62) ر. ک: الکافی، ج1، ص533؛ الخصال، ص419 و 480؛ دلائل الامامه، ص453.
(63) ر. ک: الامامه و التبصره، ص23؛ من لا یحضره الفقیه، ج4، ص176؛ الامالی، شیخ صدوق، ص488؛ کمال الدین و تمام النعمه، ص213؛ الامالی، شیخ طوسی، ص443.
(64) ر. ک: الاحتجاج، ج1، ص171؛ المحتضر، ص135.
(65) ر. ک: عیون اخبار الرضا (علیه السلام)، ج1، ص74؛ عده الداعی و نجاح الساعی، ص218؛ بحار الانوار، ج53، ص326.
(66) والی اللئالی، ج4، ص98؛ شرح الاسماء الحسنی، ص81.
(67) اثبات الوصیه للامام علی بن ابی طالب، ص261.
(68) ر. ک: الکافی، ج2، ص654؛ وسائل الشیعه، ج7، ص259 و ج12، ص90؛ بحار الانوار، ج73، ص52.
(69) الحدائق الناظره، ج9، ص100؛ الکافی، ج2، ص657.
(70) کافی، ج2، ص654.
(71) محبوب القلوب.
(72) صحیح البخاری، ج7، ص124؛ الادب المفرد، ص196.
(73) تفسیر ابن کثیر، ج2، ص178؛ ینابیع الموده لذوی القربی، ج1، ص55.
(74) بحار الانوار، ج51، ص28.
(75) الکافی، ج2، ص12 و ج6، ص13؛ التوحید، ص330؛ شرح الاخبار فی فضائل الائمه الاطهار، ج1، ص190.
(76) اثبات الوصیه للامام علی ابن ابی طالب (علیه السلام)، ص272.
(77) الهدایه الکبری، ص367.
(78) ر. ک: بحار الانوار، ج64، ص74.
(79) ر. ک: تهذیب الاحکام، ج9، ص322.
(80) کمال الدین و تمام النعمه، ص432.
(81) ر. ک: الطرائف، ص522؛ المناقب، خوارزمی، ص62؛ کشف الغمه فی معرفه الائمه، ج2، ص25.
(82) بحار الانوار، ج51، ص4 و 15 و 28 و ج52، ص16.
(83) الکافی، ج1، ص329.
(84) ر. ک: مدینه المعاجز، ج8، ص5.
(85) بحار الانوار، ج51، ص22.
(86) حدیقه الشیعه، ج2، ص939 - 936.
(87) مثنوی معنوی، دفتر دوّم، تتمه قصه مفلس.
(88) مثنوی معنوی، دفتر دوّم، تتمه قصه مفلس.
(89) مثنوی معنوی، دفتر اوّل، داستان پادشاه جهود.
(90) ر. ک: کمال الدین و تمام النعمه، ص44 و 317؛ بحار الانوار، ج51، ص133؛ اعلام الوری - باعلام الهدی، ج2، ص230.
(91) ر. ک: الغیبه، محمد بن ابراهیم نعمانی، ص177؛ بحار الانوار، ج52، ص98.
(92) مثنوی معنوی، دفتر اوّل، کژ ماندن دهان مردی که نام رسول الله را به تمسخر گرفت.
(93) روضه الواعظین، ص261؛ الارشاد فی معرفه حجج الله علی العباد، ج2، ص340.
(94) البیان فی اخبار صاحب الزمان، صص 94 - 93.
(95) الامالی، صص 352 - 351؛ بحار الانوار، ج28، ص45 - 47.
(96) الأمالی، شیخ صدوق، ص536؛ بحار الانوار، ج6، ص229؛ ج18، ص335؛ مسند احمد، ج1، ص257؛ ج4، ص208 و....
(97) صحیح بخاری، ج7، ص119.
(98) صحیح مسلم، ج7، ص124.
(99) ر. ک: کشف الغمه فی معرفه الائمه، ج3، ص273؛ بحار الانوار، ج51، ص84.
(100) مثنوی معنوی، دفتر سوّم، رسیدن خواجه و قومش به ده.
(101) بحار الانوار، ج51، ص27 و 19 و 14 و 3 و....
(102) شرح الاخبار فی فضائل الائمه الاطهار، ج3، ص170؛ مثیر الاحزان، ابن نماحلی، ص72؛ مقتل الحسین (علیه السلام)، ابو مخنف الازدی، ص208.
(103) بحار الانوار، ج51، ص18.
(104) الکافی، ج1، ص380؛ بحار الانوار، ج48، ص304.
(105) ر. ک: کمال الدین و تمام النعمه، ص359؛ کفایه الاثر فی النص علی الائمه الاثنی عشر، ص268.
(106) کمال الدین و تمام النعمه، ص394؛ الغیبه، نعمانی، ص157 - 154؛ الارشاد، ج2، ص276 و....
(107) الفأره: نافجه المسک ای دعاؤه؛ المنجد.[مرحوم مؤلف]
(108) رجال الکشی، صص 535 - 534.
(109) الکافی، ج1، ص517.
(110) الهدایه الکبری، ص328.
(111) ر. ک: بحار الانوار، ج51، ص61؛ الدر المنشور، ج3، ص31؛ تأویل الآیات، ج2، ص689.
(112) مقتضب الاثر فی النص علی الائمه الاثنی عشر، ص14 - 12.
(113) بحار الانوار، ج52، ص352.
(114) همان، ص365.
(115) الامالی، شیخ طوسی، ص291.
(116) الاختصاص، ص199.
(117) بصائر الدرجات، ص429.
(118) الارشاد فی معرفه الحجج الله علی العباد، ج2، ص386.
(119) همان، ج2، ص381.
(120) الهدایه الکبری، ص328.
(121) الخصال، ص396.
(122) ر. ک: جمال السبوع بکمال العمل المشروع، صص 42 - 41؛ بحار الانوار، ج99، صص 216 - 215.
(123) جمال الاسبوع بکمال العمل المشروع، صص 153 - 152.
(124) تاریخ موالید الائمه و وفیاتهم، ص45.
(125) همان، ص44.
(126) همان، ص45.
(127) ر. ک: الهدایه الکبری، ص366 - 364.
(128) مختصر بصائر الدرجات، ص185 - 184؛ بحار الانوار، ج53، ص10 - 9.
(129) کشف الغمه فی معرفه الائمه، ج3، ص270.
(130) کشف الغمه فی معرفه الائمه، ج3، ص288.
(131) البیان فی اخبار صاحب الزمان، ص132.
(132) بصائر الدرجات، ص279.
(133) همان.
(134) کمال الدین و تمام النعمه، ص431.
(135) مجمع البحرین، ج2، ص448.
(136) همان.
(137) ر. ک: بحار الانوار، ج7، ص71؛ مجمع البیان فی تفسیر القرآن، ج6، ص94.
(138) کشف الغمه فی معرفه الائمه، ج3، ص267.
(139) البیان فی اخبار صاحب الزمان، ص145.
(140) العمره، ص436؛ مصنف عبد الرزاق، ص372؛ تذکره الحفاظ، ج3، ص738.
(141) بحار الانوار، ج16، ص210؛ ج67، ص372.
(142) تأویل الآیات الظاهره، ص767 - 766.
(143) جنه الامان الواقیه و جنه الایمان الباقیه،(المصباح)، ص705.
(144) الصحاح تاج اللغه و صحاح العربیه، ج1، ص204؛ لسان العرب، ج1، ص682.
(145) نهج البلاغه، خطبه سوم.
(146) همان، کلام 119.
(147) ر. ک: تذکره الائمه، ص184.
(148) الارشاد، ج2، ص283.
(149) مجمع البحرین، ج3، ص571.
(150) الغیبه، شیخ طوسی، ص471.
(151) معانی الاخبار، ص65.
(152) الغیبه، محمد بن ابراهیم نعمانی، ص151.
(153) الغیبه، محمد بن ابراهیم نعمانی، ص155 - 154.
(154) کمال الدین و تمام النعمه، ص378.
(155) ر. ک: علل الشرایع، ج1، ص160.
(156) مجمع البحرین، ج3، ص571.
(157) الارشاد فی معرفه حجج الله علی العباد، ج2، ص386.
(158) ر. ک: الصراط المستقیم الی مستحقی التقدیم، ج2، ص254؛ بحار الانوار، ج53، ص90؛ اعلام الوری باعلام الهدی، ج2، ص292.
(159) الاحتجاج، ج1، ص228 - 226.
(160) الغیبه، محمد بن ابراهیم نعمانی، ص308 - 307.
(161) همان، ص307.
(162) الهدایه الکبری، ص328.
(163) الهدایه الکبری، ص404.
(164) ر. ک: بحار الانوار، ج52، ص390.
(165) الغیبه، ص243.
(166) بحار الانوار، ج26، ص203.
(167) بصائر الدرجات، ص196.
(168) الخرائج و الجرائح، ج2، ص691.
(169) کشف الغمه فی معرفه الائمه، ج3، ص272.
(170) علل الشرایع، ج1، ص161.
(171) معانی الاخبار، ص63.
(172) کمال الدین و تمام النعمه، ص653.
(173) الغیبه، ص454.
(174) ر. ک: وسائل الشیعه، ج11، ص490؛ الخرائج و الجرائح، ج3، ص1150؛ بحار الانوار، ج51، ص35.
(175) الامامه و التبصره، ص120؛ کمال الدین و تمام النعمه، ص286؛ کفایه الاثر فی النص علی الائمه الاثنی عشر، ص67.
(176) کمال الدین و تمام النعمه، ص432، پاورقی شماره 2.
(177) ر. ک: کشف الغمه فی معرفه الائمه، ج3، ص275؛ ینابیع الموده لذوی القربی، ج3، ص392؛ بحار الانوار، ج51، ص24.
(178) البیان فی اخبار صاحب الزمان، باب سیزدهم، ص129.
(179) الهدایه الکبری، ص328.
(180) ر. ک: کفایه المهتدی[گزیده]، ص286، ذیل حدیث سی و نهم.
(181) لقب مذکور در کتاب«الهدایه الکبری» یافت نشد.
(182) کمال الدین و تمام النعمه، ص268.
(183) مناقب آل ابی طالب، ج3، ص314.
(184) ر. ک: کفایه المهتدی[گزیده]، ص280، ذیل حدیث سی و نهم.
(185) تفسیر فرات الکوفی، ص193.
(186) تفسیر القمی، ج2، ص85.
(187) مشارق الانوار الیقین، ص157.
(188) الهدایه الکبری، ص328.
(189) کمال الدین و تمام النعمه، ص653.
(190) الهدایه الکبری، ص328.
(191) کمال الدین و تمام النعمه، ص432.
(192) الغیبه، ص179 - 178.
(193) بحار الانوار، ج51، ص37.
(194) الهدایه الکبری، ص328.
(195) الکافی، ج8، ص287.
(196) کمال الدین و تمام النعمه، ص325.
(197) الغیبه، شیخ طوسی، ص150.
(198) الغیبه، محمد بن ابراهیم نعمانی، ص149.
(199) ر. ک: علل الشرایع، ج1، ص245.
(200) کمال الدین و تمام النعمه، ص648.
(201) الغیبه، شیخ طوسی، ص202.
(202) کفایه الاثر فی النص علی الائمه الاثنی عشر، ص288.
(203) ر. ک: تذکره الائمه، ص184.
(204) الهدایه الکبری، ص366.
(205) تفسیر القمی، ج2، ص365.
(206) ر. ک: مختصر بصائر الدرجات، ص178؛ الهدایه الکبری، ص392؛ الصراط المستقیم، ج2، ص257 - 256.
(207) المحتضر، ص98؛ بحار الانوار، ج13، ص12 و ج51، ص45.
(208) اثبات الوصیه للامام علی بن ابی طالب، ص61.
(209) ر. ک: کفایه المهتدی،[گزیده]، حدیث دوم، ص28.
(210) الکافی، ج1، ص431.
(211) ر. ک: مجمع البحرین، ج2، ص585.
(212) الاقبال، ص573.
(213) المزار، ص486.
(214) بحار الانوار، ج98، ص274.
(215) تأویل الآیات، ص778 - 777.
(216) الهدایه الکبری، ص328.
(217) ر. ک: تذکره الائمه، ص184.
(218) کمال الدین و تمام النعمه، ص18.
(219) رجال ابن داود، ص296.
(220) الارشاد، ج2، ص362.
(221) الهدایه الکبری، ص328.
(222) تفسیر القمی، ج2، ص366.
(223) تهذیب الاحکام، ج6، ص76 - 75.
(224) مقتضب الاثر فی النص علی الائمه الاثنی عشر، ص26.
(225) الغیبه، ص109 - 108.
(226) تذکره الائمه، ص184.
(227) تفسیر فرات الکوفی، ص240.
(228) مقتضب الاثر فی النص علی الائمه الاثنی عشر، ص38.
(229) الکافی، ج8، ص233.
(230) کمال الدین و تمام النعمه، ص384.
(231) همان، ص378.
(232) کمال الدین و تمام النعمه، ص326.
(233) الغیبه، شیخ طوسی، ص158.
(234) الغیبه، ص176.
(235) تأویل الآیات، ص683.
(236) کمال الدین و تمام النعمه، ص668.
(237) الغیبه، شیخ طوسی، ص158.
(238) الهدایه الکبری، ص328.
(239) الغیبه، شیخ طوسی، ص176.
(240) الغیبه، محمد بن ابراهیم نعمانی، ص239.
(241) الهدایه الکبری، ص328.
(242) الغیبه، محمد بن ابراهیم نعمانی، ص239.
(243) الهدایه الکبری، ص328.
(244) الهدایه الکبری، ص328.
(245) اقبال الاعمال، ج2، ص335 - 333.
(246) بحار الانوار، ج51، ص37.
(247) الغیبه، ص307.
(248) همان، ص275.
(249) مصباح المتهجد، ص328.
(250) بحار الانوار، ج87، ص32.
(251) تفسیر القمی، ج2، ص129.
(252) تأویل الآیات، ص399.
(253) تفسیر العیاشی، ج2، ص281.
(254) تفسیر القمی، ص77.
(255) الغیبه، ص187.
(256) ر. ک: المحجه فیما نزل من الحجه، ص238.
(257) اثبات الوصیه للامام علی بن ابی طالب، ص269.
(258) الهدایه الکبری، ص376.
(259) مقتضب الاثر فی النص علی الائمه الاثنی عشر، ص7.
(260) کامل الزیارات، ص230.
(261) مصباح المتهجد، ص775.
(262) تفسیر فرات الکوفی، ص563.
(263) تفسیر القمی، ج2، ص425.
(264) غایه المرام، ج3، ص264.
(265) الهدایه الکبری، ص328.
(266) الهدایه الکبری، ص404.
(267) روض الجنان و روح الجنان فی تفسیر القرآن، ج3، ص368.
(268) الغیبه، ص238.
(269) ر. ک: بحار الانوار، ج52، ص390.
(270) الغیبه، ص243.
(271) الغیبه، ص270.
(272) الکافی، ج8، ص224.
(273) الهدایه الکبری، ص328.
(274) الامالی، ص300.
(275) مقتضب الاثر فی النص علی الائمه الاثنی عشر، ص40 - 39.
(276) الغیبه، ص477.
(277) نهج البلاغه، غریب کلامه، حدیث 1.
(278) ر. ک: تذکره الائمه، ص184.
(279) همان.
(280) البیان فی اخبار صاحب الزمان، باب سیزدهم، ص129.
(281) الهدایه الکبری، ص328.
(282) مقاتل الطالبین، ص453.
(283) ر. ک: تذکره الائمه، ص184.
(284) همان.
(285) همان.
(286) الهدایه الکبری، ص328.
(287) ر. ک: کافی، ج1، ص145؛ بحار الانوار، ج4، ص8.
(288) الهدایه الکبری، ص328.
(289) الهدایه الکبری ص358.
(290) ر. ک: کمال الدین و تمام النعمه، ص32؛ روضه الواعظین، ص97.
(291) ر. ک: تذکره الائمه، ص184.
(292) ر. ک: تذکره الائمه، ص184 آمده است که نام آن جناب در کتاب جاویدان«خورانه» و در کتاب نصارا«خسرو» است.
(293) این لقب در کتاب مذکور یافت نشد.
(294) الهدایه الکبری، ص362.
(295) کمال الدین و تمام النعمه، ص324.
(296) الغیبه، ص150.
(297) مشارق انوار الیقین، ص157.
(298) تذکره الائمه، ص184.
(299) ر. ک: تذکره الائمه، ص184.
(300) همان.
(301) الهدایه الکبری، ص328.
(302) همان.
(303) ر. ک: تذکره الائمه، ص184.
(304) الهدایه الکبری، ص364.
(305) همان، ص328.
(306) بحار الانوار، ج53، ص284.
(307) الهدایه الکبری، ص328.
(308) همان.
(309) حدیقه الشیعه، ص10؛ در کتاب حدیقه الشیعه«خلف صالح» آمده است.
(310) ر. ک: تذکره الائمه، ص184.
(311) ر. ک: تذکره الائمه، ص184.
(312) الهدایه الکبری، ص328.
(313) همان.
(314) همان.
(315) الهدایه الکبری، ص328.
(316) همان.
(317) همان.
(318) الهدایه الکبری، ص328.
(319) همان.
(320) همان.
(321) ر. ک: تذکره الائمه، ص184.
(322) همان.
(323) همان.
(324) الهدایه الکبری، ص328.
(325) الهدایه الکبری، ص328.
(326) همان.
(327) کمال الدین و تمام النعمه، ص444.
(328) ر. ک: تذکره الائمه، ص184.
(329) الهدایه الکبری، ص328.
(330) همان.
(331) ر. ک: تذکره الائمه، ص184.
(332) همان.
(333) ر. ک: تذکره الائمه، ص184.
(334) الهدایه الکبری، ص328.
(335) تذکره الائمه، ص184.
(336) همان.
(337) همان.
(338) همان.
(339) همان.
(340) همان.
(341) الهدایه الکبری، ص328.
(342) الغیبه، ص223. شیخ طوسی از کلینی نقل می کند و در کافی روایت مذکور یافت نشد.
(343) الهدایه الکبری، ص328؛(در الهدایه الکبری،«المحیط بما لم معین» و در دلائل الامامه، ص502؛«المخبر بما لم یعلم» ذکر شده است.)
(344) لقب مذکور در کتاب«الهدایه الکبری» یافت نشد.
(345) الهدایه الکبری، ص328؛ (در کتاب الهدایه الکبری «الفرج الاعظم» ذکر شده است).
(346) اثبات الوصیه للامام علی بن ابی طالب، ص267.
(347) ر. ک: الهدایه الکبری، ص364.
(348) الهدایه الکبری، ص328.
(349) لقب مذکور در کتاب الهدایه الکبری یافت نشد.
(350) الامالی، شیخ صدوق، ص641.
(351) کفایه الاثر فی النص علی الائمه الاثنی عشر، ص266.
(352) ر. ک: کمال الدین و تمام النعمه، ص268؛ عیون اخبار الرضا، ج2، ص65؛ الخرائج و الجرائح، ج2، ص551؛ قصص الانبیاء، ص360.
(353) الهدایه الکبری، ص328.
(354) کمال الدین و تمام النعمه، ص307.
(355) عیون اخبار الرضا، ج2، ص48.
(356) الامالی، ص292.
(357) فرق الشیعه، ص111 - 108.
(358) اوائل المقالات، ص54 - 53.
(359) کشف الغمه فی معرفه الائمه، ج3، ص326.
(360) کفایه المهتدی [گزیده]، ص44، ذیل حدیث چهارم.
(361) ر. ک: کفایه المهتدی[گزیده]، حدیث یازدهم، ص69.
(362) کمال الدین و تمام النعمه، ص379.
(363) ر. ک: کفایه الاثر فی النص علی الائمه الاثنی عشر، ص287؛ روضه الواعظین، ص31؛ وسائل الشیعه، ج1، ص13، بحار الانوار، ج36، ص412 و ج66، ص1.
(364) ر. ک: کفایه المهتدی،[گزیده]، ص161 - 160.
(365) الکافی، ج1، ص525.
(366) عیون اخبار الرضا، ج2، ص67.
(367) کمال الدین و تمام النعمه، ص313.
(368) الاحتجاج، ج1، ص296.
(369) بحار الانوار، ج51، ص32.
(370) الکافی، ج1، ص333.
(371) کمال الدین و تمام النعمه، ص648.
(372) شرح اصول الکافی، ج6، ص237.
(373) الکافی، ج1، ص328.
(374) کمال الدین و تمام النعمه، ص381.
(375) الغیبه، ص202.
(376) کشف الغمه فی معرفه الائمه، ج2، ص202؛ علل الشرایع، ج1، ص245؛ کفایه الاثر فی النص علی الائمه الاثنی عشر، ص289 - 288.
(377) الکافی، ج1، ص333.
(378) کمال الدین و تمام النعمه، ص370.
(379) کمال الدین و تمام النعمه، ص333.
(380) همان.
(381) کمال الدین و تمام النعمه، ص378.
(382) کفایه الاثر فی النص علی الائمه الاثنی عشر، ص281.
(383) کمال الدین و تمام النعمه، ص482.
(384) همان، ص483.
(385) همان، ص307.
(386) ر. ک: بحار الانوار، ج26، ص309.
(387) ر. ک: بحار الانوار، ج37، ص213.
(388) کمال الدین و تمام النعمه، ص474.
(389) کمال الدین و تمام النعمه، ص307.
(390) ر. ک: الکافی، ج1، ص333؛ کمال الدین و تمام النعمه، ص370.
(391) ر. ک: الامامه و التبصره، ص118.
(392) کمال الدین و تمام النعمه، ص408.
(393) کمال الدین و تمام النعمه، ص408.
(394) کمال الدین و تمام النعمه، ص431.
(395) همان.
(396) کمال الدین و تمام النعمه، ص286.
(397) همان، ص257.
(398) کفایه الاثر فی النص علی الائمه الاثنی عشر، ص159 - 158.
(399) ر. ک: کفایه المهتدی[گزیده]، حدیث دوازدهم، ص77.
(400) الغیبه، ص146 - 145.
(401) ر. ک: مکیال المکارم، ج1، ص221، باب شباهات به عیسی (علیه السلام).
(402) ر. ک: بحار الانوار، ج16، ص186؛ تذکره الفقهاء، ج1، ص153.
(403) ر. ک: بحار الانوار، ج83، ص81؛ فلاح السائل، ص200.
(404) العمده، ص439.
(405) ر. ک: الارشاد، ج2، ص382؛ الغیبه، شیخ طوسی، ص470؛ الخرائج و الجرائح، ج3، ص1151.
(406) ر. ک: بحار الانوار، ج51، ص80.
(407) الکافی، ج1، ص443.
(408) الغیبه، شیخ طوسی، ص470؛ الخرائج و الجرائح، ج3، ص1152.
(409) الغیبه، محمد بن ابراهیم نعمانی، ص247؛ بحار الانوار، ج51، ص77.
(410) کشف الغمه فی معرفه الائمه، ج3، ص269؛ بحار الانوار، ج51، ص80.
(411) الغیبه، محمد بن ابراهیم نعمانی، ص215.
(412) الارشاد فی معرفه حجج الله علی العباد، ج2، ص382.
(413) کمال الدین و تمام النعمه، ص457؛ دلائل الامامه، ص509؛ الثاقب فی المناقب، ص85.
(414) تاریخ الامم و الملوک، ج4، ص531؛ دعائم الاسلام، ج1، ص389.
(415) الغیبه، محمد بن ابراهیم نعمانی، ص216؛ بحار الانوار، ج51، ص41.
(416) کمال الدین و تمام النعمه، ص636؛ بحار الانوار، ج51، ص35.
(417) الغیبه، محمد بن ابراهیم نعمانی، ص215؛ بحار الانوار، ج51، ص39،(در هردو منبع یاد شده«ضخم البطن» ذکر شده است).
(418) کمال الدین و تمام النعمه، ص136؛ بحار الانوار، ج51، ص35.
(419) بصائر الدرجات، ص209؛ بحار الانوار، ج52، ص319،(از امام صادق (علیه السلام) روایت شده است.)
(420) مقاتل الطالبین، ص15، تاریخ آن زراره، ج1، ص22.
(421) بحار الانوار، ج16، ص149، ج44، ص137؛ کنز العمال، ج7، ص32.
(422) کمال الدین و تمام النعمه، ص653؛ بحار الانوار، ج51، ص35.
(423) کنز العمال، ج14، ص590؛ کتاب الفتن، ص226.
(424) کمال الدین و تمام النعمه، ص653؛ الخرائج و الجرائح، ج3، ص1150.
(425) الغیبه، محمد بن ابراهیم نعمانی، ص215؛ بحار الانوار، ج51، ص40.
(426) جواهر المطالب فی مناقب امیر المؤمنین (علیه السلام)، ج1، ص276؛ بحار الانوار، ج83، ص81.
(427) الغیبه، محمد بن ابراهیم نعمانی، ص247؛ بحار الانوار، ج51، ص77.
(428) بحار الانوار، ج51، ص80، مجمع الزوائد، ج7، ص319.
(429) کشف الغمه فی معرفه الائمه، ج3، ص270 - 269؛ بحار الانوار، ج51، ص96 و 80.
(430) کشف الغمه فی معرفه الائمه، ج3، ص282؛ الطرائف، ص178؛ الصراط المستقیم الی مستحقی التحدیم، ج2، ص241.
(431) عیون اخبار الرضا، ج1، ص10؛ بحار الانوار، ج51، ص152.
(432) الغیبه، شیخ طوسی، ص266؛ بحار الانوار، ج2، ص11.
(433) همان.
(434) کمال الدین و تمام النعمه، ص446؛ بحار الانوار، ج52، ص34.
(435) عیون اخبار الرضا، ج2، ص283؛ معانی الاخبار، ص80.
(436) کمال الدین و تمام النعمه، ص446.
(437) همان؛ بحار الانوار، ج52، ص34.
(438) کمال الدین و تمام النعمه، ص446؛ بحار الانوار، ج52، ص34.
(439) بحار الانوار، ج26؛ ص17 - 8.
(440) بحار الانوار، ج50، ص55.
(441) کنز العمال، ج14، ص590؛ کتاب الفتن، ص226.
(442) بحار الانوار، ج50، ص23.
(443) کمال الدین و تمام النعمه، ص653؛ بحار الانوار، ج51، ص35؛ الخرائج و الجرائح، ج3، ص1150.
(444) الغیبه، نعمانی، ص216.
(445) همان.
(446) شرح دیوان منسوب به امیر المؤمنین علی بن ابی طالب (علیه السلام)، ص142.
(447) نفحات الانس من حضرات القدس، ص251.
(448) نجم ثاقب، ج1، ص274، حاشیه.
(449) مرآه الجنان و عبره الیقظان، ج4، ص128.
(450) طبقات الفقهاء الشافعیه، ج1، ص441 - 440.
(451) کشف الظنون عن اسامی الکتب و الفنون، ج1، ص734.
(452) تاریخ موالید الائمه و وفیاتهم، ص44.
(453) تاریخ موالید الائمه و وفیاتهم، ص45 - 44.
(454) کشف الغمه فی معرفه الائمه، ج3، ص275.
(455) همان، ج3، ص46 - 45.
(456) وفیات الاعیان و انباء ابناء الزمان، ج3، ص103 - 102.
(457) ر. ک: کشف الاستار عن وجه الغایب عن الابصار، ص55 - 54.
(458) الفتوحات المکیه، ج6، ص52 - 51.
(459) الیواقیت و الجواهر فی بیان عقاید الاکابر، ص563 - 562.
(460) دس نمودن: پنهان کردن.
(461) نجم ثاقب، ج1، ص284، حاشیه.
(462) لواقح الانوار فی طبقات الاخیار(الطبقات الکبری)، ص265.
(463) الوافی بالوفیات، ج4، ص174.
(464) شرح دیوان منسوب به امیر المؤمنین علی بن ابی طالب، ص142.
(465) تاریخ الخلفا، ص265 - 264.
(466) نجم ثاقب، ج1، ص286 - 284.
(467) الانساب، ج1، ص423.
(468) ر. ک: نجم ثاقب، ج1، ص298 - 295.
(469) ر. ک: کشف الاستار عن وجه الغایب عن الابصار، ص49 - 47.
(470) ر. ک: نجم ثاقب، ج1، ص292 - 290.
(471) تاریخ بغداد، ج13، ص287.
(472) کفایه الطالب فی مناقب امیر المؤمنین علی بن ابی طالب، ص26.
(473) فصل الخطاب، ص620.
(474) نفحات الانس من حضرات القدس، ص397.
(475) فصل الخطاب، ص599 - 598.
(476) وی کتابی نیز به نام وسیله الخادم الی الخدوم در شرح صلوات چهارده معصوم تألیف نموده که به کوشش حضرت حجّه الاسلام و المسلمین رسول جعفریان و با مقدمه و شرح حال کامل از مؤلف به چاپ رسیده است. ر. ک: وسیله الخادم الی المخدوم در شرح صلوات چهارده معصوم (علیه السلام)؛ فضل الله بن روزبهان خنجی اصفهانی، به کوشش رسول جعفریان، انتشارات انصاریان، قم، 1375.
(477) نفحات الانس من حضرات القدس، ص363.
(478) روضه الشهداء، ص520 - 519.
(479) ر. ک: الدعوات، ص63.
(480) ر. ک: اوائل المقالات، ص178؛ بحار الانوار، ج35، ص304.
(481) ینابیع الموده لذوی القربی، ج3، ص353.
(482) ینابیع الموده، ج3، ص337.
(483) ینابیع الموده، ج3، ص39.
(484) همان ص351.
(485) ینابیع الموده، ج3، ص348.
(486) الیواقیت و الجواهر فی بیان عقائد الأکابر، ص562.
(487) همان، ص446.
(488) الیواقیت و الجواهر فی بیان عقائد الأکابر، ص562 - 561.
(489) الیواقیت و الجواهر فی بیان عقائد الأکابر، ص562.
(490) ر. ک: کشف الاستار عن وجه الغایب عن الابصار، ص41 - 40.
(491) فصل الخطاب، ص599 - 598.
(492) ر. ک: صحیح ابن حبان، ج15، ص37؛ تفسیر قرطبی، ج12، ص298.
(493) الاربعین فی امامه الائمه الطاهرین، ص480.
(494) الکافی، ج1، ص532؛ من لا یحضره الفقیه، ج4، ص180؛ عیون اخبار الرضا، ج1، ص51؛ الخصال، ص478؛ کمال الدین و تمام النعمه، ص269.
(495) ر. ک: کشف الاستار عن وجه الغایب عن الابصار، ص75 - 74.
(496) کشف الظنون عن اسامی الکتب و الفنون، ج1، ص263.
(497) کشف الظنون عن اسامی الکتب و الفنون، ج2، ص1497.
(498) البیان فی اخبار صاحب الزمان، ص148.
(499) فصول المهمه فی معرفه الاحوال الائمه، ص274.
(500) ینابیع الموده لذوی القربی، ج3، ص346.
(501) ینابیع الموده لذوی القربی، ج3، ص341 - 339.
(502) عقد الدرر فی اخبار المنتظر، ص42.
(503) ر. ک: مقتل الحسین، ج1، ص145 - 144.
(504) مائه منقبه من مناقب امیر المؤمنین علی بن ابی طالب و الائمه من ولده، ص66 - 64.
(505) مقتضب الاثر فی النص علی الائمه الاثنی عشر، ص11 - 10.
(506) کفایه المهتدی،[گزیده]، ص54 - 53، حدیث هفتم.
(507) اسد الغابه، ج6، ص154 - 153.
(508) ر. ک: الاستبصار، ص23، الطرائف، ص174، العدد القویه، ص88؛ بحار الانوار، ج36، ص270.
(509) مائه منقبه من مناقب امیر المؤمنین علی بن ابی طالب و الائمه من ولده (علیه السلام)، ص48 - 47.
(510) مقتضب الاثر فی النص علی الائمه الاثنی عشر، ص25 - 24.
(511) خلاصه عبقات الانوار، ج7، ص36.
(512) مقتضب الاثر فی النص علی الائمه الاثنی عشر، ص23.
(513) همان، ص8 - 6.
(514) مقتضب الاثر فی النص علی الائمه الاثنی عشر، ص9 - 8.
(515) مقتضب الاثر فی النص علی الائمه الاثنی عشر، ص9.
(516) همان، ص14 - 12.
(517) مقتضب الاثر فی النص علی الائمه الاثنی عشر، ص22 - 18.
(518) مقتضب الاثر فی النص علی الائمه الاثنی عشر، ص31 - 30؛ بحار الانوار، ج46، ص174 - 173.
(519) مقتضب الاثر فی النص علی الائمه الاثنی عشر، ص31.
(520) مقتضب الاثر فی النص علی الائمه الاثنی عشر، ص38 - 32.
(521) کمال الدین و تمام النعمه، ص269؛ وسائل الشیعه، ج16، ص245؛ الارشاد، ج2، ص346؛ الغیبه، شیخ طوسی، ص139.
(522) شواهد النبوه، ص406.
(523) ر. ک: الفصول المهمه، ص274.
(524) همان.
(525) ر. ک: کمال الدین و تمام النعمه، ص254 - 253؛ کفایه الاثر فی النص علی الائمه الاثنی عشر، ص55 - 53؛ اعلام الوری باعلام الهدی، ج2، ص183 - 181؛ تفسیر نور الثقلین، ج1، ص499.
(526) فصل الخطاب، ص599 - 598.
(527) ر. ک: کمال الدین و تمام النعمه، ص259 - 258؛ کفایه الاثر فی النص علی الائمه الاثنی عشر، ص145 - 144؛ مائه منقبه من مناقب امیر المؤمنین (علیه السلام)، ص168 - 167؛ الاحتجاج، ج1، ص88 - 87؛ بحار الانوار، ج27، ص120 - 119.
(528) فرائد السمطین فی فضائل المرتضی و البتول و السبطین، ج2، ص337 - 336.
(529) مناقب آل ابی طالب، ج1، ص254.
(530) مناقب آل ابی طالب، ج1، ص251.
(531) الغیبه، ص102 - 101.
(532) کتاب سلیم بن قیس هلالی، ص184.
(533) همان، ص364 - 363.
(534) همان، ص352.
(535) کتاب سلیم بن قیس هلالی، ص255.
(536) ر. ک: کفایه المهتدی،[گزیده]، ص28، ذیل حدیث دوم.
(537) ر. ک: کفایه المهتدی[گزیده]، ص33 - 32، ذیل حدیث دوم.
(538) همان، ص43، حدیث چهارم.
(539) ر. ک: کفایه المهتدی،[گزیده]، ص50 - 49، حدیث ششم.
(540) ر. ک: کفایه المهتدی،[گزیده]، ص58 - 57، حدیث هشتم.
(541) ر. ک: کفایه المهتدی،[گزیده]، ص63 - 61، حدیث نهم.
(542) اصل کتاب دو مرتبه جعفر بن محمد تکرار شده بود و موسی بن جعفر را نداشت.
(543) ر. ک: کفایه المهتدی،[گزیده]، ص63 - 61، حدیث نهم، ص67، حدیث دهم.
(544) ر. ک: کفایه المهتدی،[گزیده]، ص71 - 69. حدیث یازدهم.
(545) ر. ک: کفایه المهتدی،[گزیده]، ص77، حدیث دوازدهم.
(546) ر. ک: کفایه المهتدی،[گزیده]، ص82 - 81، حدیث سیزدهم.
(547) ر. ک: کفایه المهتدی،[گزیده]، ص85، حدیث چهاردهم.
(548) ر. ک: کفایه المهتدی،[گزیده]، ص88 - 87، حدیث یازدهم.
(549) ر. ک: کفایه المهتدی،[گزیده]، ص91، حدیث شانزدهم.
(550) ر. ک: کفایه المهتدی،[گزیده]، ص101 - 100، حدیث هیجدهم.
(551) بن جعفر در نسخه افتاده بود.
(552) ر. ک: کفایه المهتدی،[گزیده]، ص106 - 105، حدیث نوزدهم.
(553) ر. ک: کفایه المهتدی،[گزیده]، ص110 - 109، حدیث بیستم.
(554) همان، ص119، حدیث بیست و سوم.
(555) ر. ک: کفایه المهتدی،[گزیده]، ص130 - 129، حدیث بیست و هفتم.
(556) ر. ک: کفایه المهتدی،[گزیده]، ص133، حدیث بیست و هشتم.
(557) همان، ص143، حدیث بیست و نهم.
(558) ر. ک: کفایه المهتدی،[گزیده]، ص147، حدیث سی ام.
(559) ر. ک: کفایه المهتدی،[گزیده]، ص161 - 160، حدیث سی و دوم.
(560) همان، ص179، حدیث سی و چهارم.
(561) ر. ک: کفایه المهتدی،[گزیده]، ص292، حدیث سی و نهم.
(562) همان، ص293، حدیث سی و نهم.
(563) ر. ک: کفایه المهتدی،[گزیده]، ص297، حدیث سی و نهم.
(564) ر. ک: همان، ص307، حدیث چهلم.
(565) کفایه المهتدی،[گزیده]، ص36، ذیل حدیث دوم.
(566) اثبات الوصیه للامام علی بن ابی طالب.
(567) الامالی، ص94.
(568) مناقب آل ابی طالب، ج2، ص145 - 144.
(569) من لا یحضره الفقیه، ج1، ص204 - 203؛ الفضائل، ص69 - 68.
(570) اعلام الوری، ص179 - 178.
(571) الارشاد فی معرفه حجج الله علی العباد، ج1، ص347 - 346.
(572) الصواعق المحرقه، ص128.
(573) الصراط المستقیم الی مسحقی التقدیم، ج1، ص204 - 203.
(574) دلائل الامامه، ص165.
(575) همان، ص166.
(576) دلائل الامامه، ص167.
(577) دلائل الامامه، ص169.
(578) همان، ص174 - 173.
(579) مدینه المعاجز، ج3، ص355 - 346.
(580) دلائل الامامه، ص182.
(581) دلائل الامامه، ص184 - 183.
(582) همان، ص186.
(583) نوادر المعجزات، ص114؛ مدینه المعاجز، ج4، ص257.
(584) دلائل الامامه، ص208 - 206.
(585) ر. ک: مناقب آل ابی طالب، ج3، ص288؛ بحار الانوار، ج45، ص348 - 347.
(586) دلائل الامامه، ص210.
(587) دلائل الامامه، ص212.
(588) دلائل الامامه، ص219 - 218.
(589) دلائل الامامه، ص222 - 221.
(590) مدینه المعاجز، ج5، ص127؛ بحار الانوار، ج59، ص199.
(591) مدینه المعاجز، ج5، ص127؛ بحار الانوار، ج59، ص199.
(592) دلائل الامامه، ص221.
(593) دلائل الامامه، ص222.
(594) همان، ص250.
(595) همان، ص248.
(596) دلائل الامامه، ص250؛ نوادر المعجزات، 139.
(597) دلائل الامامه، ص257.
(598) همان، ص252 - 251.
(599) دلائل الامامه، ص289.
(600) ر. ک: مدینه المعاجز، ج6، ص57 - 55.
(601) الخرائج و الجرائح، ج2، ص623 - 622.
(602) مختصر بصائر الدرجات، ص11 - 10؛ المحتضر، ص104 - 102؛ مدینه المعاجز، ج6، ص28 - 25.
(603) دلائل الامامه، ص321 - 320.
(604) همان.
(605) همان.
(606) دلائل الامامه، ص321 - 320.
(607) همان.
(608) دلائل الامامه، ص322 - 321.
(609) دلائل الامامه، ص338.
(610) همان، ص340.
(611) دلائل الامامه، ص343.
(612) دلائل الامامه، ص346 - 343.
(613) ر. ک: کشف الغمه، ج3، ص40؛ الخرائج و الجرائح، ج1، ص309؛ مدینه المعاجز، ج6، ص387 - 386.
(614) ر. ک: کشف الغمه فی معرفه الائمه، ج3، ص40 - 39.
(615) دلائل الامامه، ص369.
(616) همان.
(617) دلائل الامامه، ص398 - 397؛ مدینه المعاجز، ج7، ص245.
(618) همان، ص368 - 367.
(619) دلائل الامامه، ص364.
(620) همان، ص362.
(621) همان، ص363.
(622) الکافی، ج1، ص488 - 487.
(623) دلائل الامامه، ص403.
(624) دلائل الامامه، ص406 - 405.
(625) الثاقب فی المناقب، ص511 - 510.
(626) روضه الواعظین، ص242؛ الاختصاص، ص321 - 320؛ الخرائج و الجرائح، ج1، ص382 - 380.
(627) دلائل الامامه، ص398.
(628) مناقب آل ابی طالب، ج3، ص499؛ بحار الانوار، ج48، ص315.
(629) دلائل الامامه، ص413 - 412.
(630) مدینه المعاجز، ج7، ص622 - 621؛ الخرائج و الجرائح، ج1، ص442 - 441؛ بحار الانوار، ج50، ص271 - 270.
(631) الکافی، ج1، ص520.
(632) کمال الدین و تمام النعمه، ص495 - 494.